Thursday, March 17, 2016

मच्चर बहुत हैं जबलपुर में

साथ चाय पीते हुए पोज देते बच्चे
आज सुबह मौसम बहुत खुशनुमा सा था। हल्की ठंडी हवा चल रही थी। मन किया कि बहुत देर तक साइकिल पर टहलते रहें। हवा का मजा लेते रहे हैं।

निकले तो सोचा व्हीकल मोड़ तक जायेंगे। पर फिर 'जोंगा तिराहे' से गाड़ी घुमा ली। फ़ैक्ट्री के गेट नंबर 6 के सामने एक जोंगा जीप का माडल रखा है। पहले बनती थी फ़ैक्ट्री में यह जीप।

पांच-सात बच्चे सड़क पर फ़ूलों की कैचम-कैच कर रहे थे। एक दूसरे की तरफ़ फ़ेंकते, कैच करते, फ़िर फ़ेंकते। कभी-कभी फ़ूल जमीन पर गिर जाता था। कमल का फ़ूल जमीन पर गिरता होगा तो चोट तो लगती होगी न उसको। फ़ूल को चोट की बात से विनोद श्रीवास्तव जी की पंक्तियां याद आ गयीं:
धर्म छोटे-बड़े नहीं होते,
जानते तो लड़े नहीं होते,
चोट तो फ़ूल से भी लगती है
सिर्फ़ पत्थर कड़े नहीं होते।
यह कविता तो अभी याद आई। उस समय बच्चे जब एक-दूसरे की तरफ़ फ़ूल फ़ेंक रहे थे तब यह कविता याद रही थी:
’मुझे फूल मत मारो
मैं अबला बाला वियोगिनी कुछ तो दया विचारो।’

ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे
मैथिलीशरण गुप्त जी की यह रचना याद करते हुये परसाई जी का एक लेख याद आया जिसमें वे मैथिलीशरण गुप्त से मजे लेते हुये कुछ इस तरह लिखते हैं-’ चिरगांव में कोई मैथिलीशरण गुप्त जी से मिलने जाता था तो पहले उससे पूछा जाता- ’हिन्दी का सबसे अच्छा कवि कौन है?' मिलने के लिये उसी को अन्दर बुलाया जाता जो जबाब में मैथिली शरण गुप्त का नाम लेता।’

राष्ट्रकवि की परंपरा अब राष्ट्रसेवकों में पसर रही है। लोगों को लगता हैं कि देश में राष्ट्रसेवा का ठेका उनके ही नाम एलाट हुआ है। उनके अलावा कोई और देश सेवा का काम करते दिखता है तो लोग मार-पीट-गाली-गलौज पर उतर आते हैं। गाली-गलौज भी तभी करते हैं जब दूरी के कारण मारपीट संभव नहीं होती ।


तमिलनाडू के ड्राइवर जबलपुर में चाय पीते हुए
मिसिर जी और बिन्देश्वरी प्रसाद टहलते हुये मिल गये। हाल-चाल लिये-दिये गये। आगे बढे।
 
चाय की दुकान पर पांच बच्चे सुबह की सैर करते हुये मिले। दो बड़े, तीन छोटे। उन लोगों ने चाय का आर्डर दिया। बड़े बच्चों के लिये दो फ़ुल और छोटे बच्चों के लिये दो में तीन।

बच्चों से बतियाये। पूछा पहाड़ा आता है? वो भी मजे लेते हुये बोला-’हां आता है। 11 से 2 तक।’ हमने कहा -'अच्छा एक का सुनाओ।'

वह बोला - ’एक का नहीं आता।’



हमने कहा -’ क्या यार तुम सात में पढते हो और 19 का पहाड़ा नहीं आता। एक बच्चे ने सुनाना शुरु किया पानी पर चढकर। उन्नीस एकम उन्नीस, उन्नीस दूना अठारह।


मच्छर के कारण सो नहीँ पाये आँख लाल
दूसरे बच्चे ने हंसते हुये खुद सुनाना शुरु किया। उन्नीस पंचे तक ठीक सुनाया। इसके बाद गड़बड़ा गया। हमने सोचा शिक्षा व्यवस्था पर कुछ डायलाग मार दें पर मटिया दें। शिक्षा मतलब पहाड़े रटना ही नहीं होता।
बच्चों को जितने बार फोटो दिखाई उनमें से एक ने लपककर पैर छुए। शायद आदत है उसकी यह। लपककर पैर छूना।

दो ड्राइवर मिले वहीं। बंगलौर के पास होसुर से सामान लेकर आये हैं। पांच दिन लगे आने में। कन्नड, तमिल और काम भर की हिन्दी जानते हैं। रात को ढाई बजे पहुंचे। बोले-’ मच्चर बहुत हैं जबलपुर में। सो नहीं पाये।’ आंखे लाल दिख रहीं थी।

हमने पूछा-'कभी जबलपुर घूमे भी हो?'

बोला-'घूमे नहीँ। पचासों बार आये जबलपुर। लेकिन कभी शहर नहीं घूमे। आये, सामान उतारा चले गये।'
लौटते में देखा सूरज भाई आसमान पर छाये हुये थे। हमने कहा- जलवा है गुरु तुम्हारा ही दुनिया में। वे मुस्कराये। मुस्कराये तो और हसीन लगने लगे। सुबह हो गयी अब काम से लगा जाये।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207556585046197

1 comment:

  1. अपने एक साउथ इंडियन अफसर की ये बात पहले फेसबुक पर शेयर कर चुके हैं. किसी भी चीद़ को रूपक या अलंकार देने की उनकी शैली अनूठी थी. एक बार मच्छरों की बात चली तो वे बोले, "ए तुम्हारा दिल्ली का मच्चर तो कुच भी नई काटता. हमारे गाव का मच्चर तो कुत्ते जैसा काटता है!".

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