'डांस इंडिया डांस’, ये भी कोई बात हुई। मने 'इंडिया' देश न होकर कोई बच्चा हो गया । नर्सरी, केजी वाला। उससे किसी को ’पोयम’ सुनाने को कहा जाये। घरों में पड़ोस के अंकल-आंटी के आते ही बच्चे से 'पोयम' सुनाने को कहा जाता है। अब जब ’पोयम’ कहा है तो अंग्रेजी की ही होगी। आजकल घरों में ’पोयम’ ही चल रही हैं। कवितायें गायब हो गयीं। बच्चा 'ट्विंकल-ट्विंकल' से शुरू करता है। एक बार मुंह खुल जाये तो 'जानी-जानी यस पापा’ तक सुना जाता है। कभी-कभी तो ’हम्प्टी-डम्प्टी’ को दीवार से गिरा तक आता है।
लेकिन बच्चे की बात अलग। इंडिया की बात एकदम अलग। ’इंडिया कोई बच्चा थोड़ी है जो 'डांस इंडिया डांस' सुनते ही ठुमकने लगे। इंडिया कोई लंदन है क्या जो किसी के कहने से पूरा ठुमकने लगे?
वैसे सोचें तो डांस में होता क्या है। हिलना-डुलना ही तो। धीमे हिले-डुले तो थिरकना हुआ। थिरकना मतलब- ’बच्चा डांस।’ थोड़ा तेज मटके तो ’कायदे का डांस’ हो गया। ’कायदे’ लिखने से मामला ’कायदे आजम’ के साथ नत्थी हो सकता है इसलिये तेज मटकने को ’बालिग डांस’ पढा जाये। भाषा में शुद्धता के लिये हुड़कने वाले ’बालिग’ की जगह ’वयस्क’ बांचे।
अब आप कहेंगे -”बच्चे लोग ’बालिग डांस’ कैसे करेंगे?’ तो हम यही कहेंगे कि जब गरीब बच्चे अपना बचपना स्थगित करके घर चलाने के लिये कमाई में खप रहे हैं तो डांस कौन बड़ी बात। बच्चे बालिगों वाले दीगर काम मसलन हत्या, बलात्कार जैसे काम अंजाम दे रहे हैं तो डांस करने में क्या एतराज।
डांस में शरीर के जितने ज्यादा अंग शरीक होते हैं, यह उतना ही जमाऊ होता है । आप डांस को गठबंधन सरकार मानिये। इसके मंत्रिमंडल में शरीर की पार्टियों के जितने ज्यादा अंग शामिल होंगे, उतना ही जमाऊ होगा डांस। उतना ही टिकाऊ होगा नृत्य।
डांस करते समय शरीर किसी गठबंधन सरकार सरीखा हो जाता है। इसमें हर धड़े का विरोधी धड़ा होता है। हर अंग दूसरे से दूर भागता दिखता है। शरीर की सरकार से समर्थन वापसी की धमकी जैसा देता हुआ। लेकिन शरीर रूपी कुर्सी का आकर्षण इतना तगड़ा होता है कि अलग नहीं हो पाता। हर अंग अपने पड़ोस के अंग से अलग तनता है। अलग हिलता है। अलग डुलता है। अंगों का हिलना डुलना जितना अलग-थलग होता है, डांस उतना बेहतर कहलाता है।
डांस करते हुए कोई हाथ बहुत तेज हिलाता है, कोई पैर। किसी की कमर बहुत तेज मटकती है, किसी का कूल्हा। जो अंग बहुत तेज हिलता है, बाकी अंग उसके समर्थन में हिलने लगते हैं। जो अंग सबसे तेज हिलता है वह अंगों का लीडर हो जाता है। शरीर अगर संसद होता तो सबसे तेज फडकता हुआ अंग ईश्वर की शपथ लेकर प्रधानमंत्री बन जाता। भाइयों, बहनों कहते हुये हवा-हवाई हांकने लगता।
डांस एक तरह का ऊर्जा स्थानान्तरण है। सर से इनर्जी कन्धे पर आती है, कूल्हे, पेट, हाथ,पांव हिलाती है। कश्मीर से कन्याकुमारी हो जाती है। लोकतंत्र में कोई-कोई राज्य ’विशेष राज्य’ का दर्जा पा जाते हैं। ज्यादा ग्रांट हथियाते हैं। डांस में इसी तरह कुछ अंग खुद को दूसरे से ज्यादा फ़ड़काते हैं। बाकी अंगों से ज्यादा ऊर्जा पाते हैं। खपाते हैं। डांस जमने के बाद ऊर्जा का गणित समझ नहीं आता। पता नहीं चलता है कि ऊर्जा आ कहां से रही है, हिल्ले कैसे लग रही है। थिरकने के आगे सब बिसरा जाता है।
डांस भी एक तरह का लोकतंत्र ही हो जाता है। लोकतंत्र में तरह-तरह का धन किधर-किधर से आता है, किधर चला जाता है पता नहीं चलता। काला धन सफ़ेद में गड्ड-मड्ड होकर और सफ़ेद हो जाता है। सफ़ेद धन नदियों की तरह सूखता जाता है। काला धन महासागर की तरह लहराता है। वह काले धन के ही खिलाफ़ हल्ला मचवाता है। हल्ले की आड में सफ़ेद को और काला करवाता है। ’इंडिया’ को मनमर्जी से नचाता है।
देश की सोचें तो देश का हर हिस्सा बड़ी तेजी से डांस करता है। हर हिस्से को अलग-अलग और एक साथ भी झटके। कभी मंहगाई नचाती है, कभी गुंडागर्दी। कहीं देशभक्ति फड़कने लगती है, कहीं अलगाववाद। कभी कोई घोटाला उछल जाता है, कभी किसी को सजा हो जाती है। बयानबाजी भी नचाये रहते हैं देश को। देशी मुद्दे कमजोर पड़े तो मीडिया विदेशी धुन बजा देता है। किम जोंग, ट्रंप को मिलवा देता है। फ़ुटबाल का विश्वकप करवा देता है। बगदादी को मरवा देता है। हनीप्रीत, रामरहीम की गुफ़ा में घुसा देता है। किसी पत्रकार को मरवा देता है।
ये सब मुद्दे एक-दूसरे से अलग-अलग दिखते हैं। लेकिन देश ’विविधता में एकता’ की तर्ज पर हर एक की धुन पर नाचता रहता है। किसी धुन को निराश नहीं करता। नेपथ्य में बाजार गाता रहता है - 'नाच मेरी बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा।' जनता को पता है कि मिलना कुछ नहीं है। उल्टा पास से जाना ही है फिर भी नाचती रहती है।
इसी नाच गाने में कभी कोई डांस अलग टाइप का हो जाता है। वायरल हो जाता है। यह अलग टाईप का होना कुछ उसी तरह से होना है जैसे रोज होते घपलों-घोटालों से अलग तरह का घपला नजर आना। कचहरी, कोर्ट, तहसील, लायसेंस से भली तरह वाकिफ जनता को अलग तरह का घोटाला नजर आने पर उसका मनोरंजन हो जाता है। कुछ में तो हफ्ता, महीना कट जाता है।
प्रोफ़ेसर साहब का डांस वीडियो जो वायरल हुआ वह देश की स्थिति का परिचायक है। कभी साहित्य समाज का दर्पण होता है। अब साहित्य ने अपना काम डांस को सौंप दिया है। डांस समाज की स्थिति बताता है। डांस करने वाले सज्जन मास्टर हैं। मास्टरी में जितनी शोहरत जिन्दगी भर में न मिली उससे कई गुना ज्यादा डांस करने से मिल गयी। सेलेब्रिटी हो गये। इससे यह मतलब निकलता है कि आपको शोहरत चाहिये तो अपनी फ़ील्ड से अलग इलाके में पसीना बहाइये।
डांस वाले उस्ताद का वीडियो तो अभी वायरल हुआ। पर समाज इस सीख पर बहुत पहले से लगा हुआ है। लोग अपनी फ़ील्ड से अलग क्षेत्र में शोहरत कमा रहे हैं। जनसेवक गुंडागर्दी में नाम कमा रहे हैं, गुंडे जनसेवा में पसीना बहा रहे हैं। अफ़सर अनशन पर जा रहे हैं, अनशन करने वाले सरकार चला रहे हैं। बाबा लोग मनी माफ़िया बने जा रहे हैं, बलात्कारी लोग बाबा बनते जा रहे हैं। भगवान कहलाने वाले लोग जेल जा रहे हैं, जेल में जमा लोग गवाह, जज मरवा रहे हैं। मने लोग अपने इलाके से अलग डांस करते हुये धमाल मचा रहे हैं।
इतना लिखने के बाद हमको भी धमाल मचाने का मन होने लगा। धमाल में क्या होगा, कुछ नहीं पता। पहले से पता हो तो धमाल कैसा? अब तो बस शुरु हो जाते हैं। तो आइये लेते हैं गहरी वाली सांस, शुरु करते हैं कहते हुये - ’डांस इंडिया डांस।’
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