चाय की दुकान पर बुजुरगों का टाइम पास |
ईद वाले दिन आर्यसमाज से निकल कर साईकल कर्नल गंज की तरफ घुमा ली। यतीमखाने की बगल वाली सड़क से तलाक महल होते हुए चमनगंज जाने वाली सड़क पर आ गए।
आगे बढ़ने से पहले एक चाय की दुकान दिखी। रुक गए। काफी देर से चाय पी नहीं थी। वैसे रुकने का कारण चाय पीने से ज्यादा वहां बेंच पर बैठे लोग थे। चाय के इंतजार में या फिर ऐसे ही टाइम पास करते हुए।
चाय दो रेट में थी। प्लास्टिक के कप में पांच रुपये की, कुल्हड़ में छह की। कुल्हड़ में चाय डालते ही पेंदे से बाहर आने लगी। छेद था नीचे। चाय वाले ने कुल्हड़ को कोसा और दूसरे में चाय डाली। कुल्हड़ 85 पैसे का एक आता है। 15 पैसे हर कुल्हड़ के जो ज्यादा चार्ज करता है वह इसी तरह के खराब कुल्हड़ के लिए होगा।
टर्र के मेले में एक दुकान |
तलाक महल या तलाक मोहाल के नाम के बारे में बताया दुकानदार ने कि बेगम को तलाक देते समय मेहर के रूप में महल दिया गया था। इसीलिए तलाकमहल नाम पड़ा। महल के आगे होने की जानकारी भी दी अगले ने। हमने उसे कभी फिर देखने के लिए प्लान वाली लिस्ट में शामिल कर लिया।
दुकान वाले ने बातचीत करते हुए बताया -'चाय गरीब कामगार आदमी पीता है। आजकल काम धन्धा सब चौपट है। लोग घर वापस चले गए हैं। इसलिए चाय कम बिकती है आजकल।'
हमने कहा -'यहां तमाम दुकानों में लोग आते होंगे। तुम्हारी सड़क पर दुकान है। ग्राहक मिलते होंगे।'
उसने बताया -'ये सब खाने की दुकानें हैं। मीट की। जो आदमी यहां आएगा खाने वो मीट के साथ कोल्ड ड्रिंक पियेगा कि चाय। मामला चौपट है। लेकिन खुदा सबका ख्याल रखता है। हमारा भी रखेगा।'
आगे सड़क पर भीड़ थी। मुझे लगा जाम है। लेकिन पता चला मेला लगा था। झूले, मिट्टी के बर्तन, प्लास्टिक के खिलौने और तमाम दुकानें। हमें ईदगाह कहानी का हामिद याद आया। उसने भी इसी तरह की किसी दुकान से अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदा होगा। हिंदी साहित्य के सबसे प्रभावित करने वाले किरदारों की मैं कोई फेहरिस्त बनाऊ तो हामिद का नाम उसमें अवश्य शामिल होगा। जब हैरी पॉटर की चरचा जोरों पर थी तो मैंने एक लेख लिखा था उसमें हामिद यथार्थ चरित्र और हैरी के काल्पनिक की तुलना की थी। ’ईदगाह’ कहानी और लेख के लिंक टिप्पणी में।
प्रेमचंद ने जिस समय यह कहानी लिखी थी उस समय हिंदुस्तानी समाज घुला-मिला था। हिन्दू-मुसलमान एक ही बस्ती में घुलमिल कर रहते थे। इसीलिए प्रेमचंद इस कहानी को वास्तविकता से लिख पाये। गए अस्सी-नब्बे सालों में हालात ऐसे बदहाल हुए हैं कि एक-दूसरे समाज के बारे में जिक्र करने , लिखने का सिर्फ घृणा फैलाने वाली फौजों ने संभाल रखा है। कहानियों से अलग समुदाय के लोग देश मे सरकारी नौकरियों की तरह कम होते गए हैं।
बहरहाल आगे भीड़ देख हम एक गली में घुस गए। अंधेरा था। लोग घरों के बाहर बैठे मिलना-जुलना कर रहे थे। आगे सड़क पर जलते बड़े चूल्हे में बड़ी देग पर कुछ पक रहा था। हम उसको खड़े होकर देखने लगे। चूल्हे की आग मुझको सबसे खूबसूरत आग लगती है।
अपना कलाम सुनाते हुए शायर |
इसी बीच वहीं तरन्नुम से गाते फ़क़ीर की आवाज सुनाई दी। लोग उनको सुन रहे थे। हम भी लपके। सुना । कुछ रिकार्ड भी किया। एक पोस्ट भी कर चुके हैं।
अगले दिन अखबार से पता चला कि जो मेला कल हम बिना देखे छोड़ आये वह टर्र का मेला कहलाता है। ईद बकरीद के बाद चमनगंज और आसपास लगता है। लखनऊ में चिड़ियाघर के आसपास। करीब सौ सवा सौ सालों से लग रहा है मेला। हमको हवा ही नहीं। होता है ऐसा। आसपास बहुत कुछ होता रहता है, अपने को हवा ही नहीं लगती। नंदन जी का शेर है :
वो जो दिख रही है किश्ती
इसी झील से गयी है
पानी मे आग क्या है
उसे कुछ पता नहीं है।
इसी झील से गयी है
पानी मे आग क्या है
उसे कुछ पता नहीं है।
इसी तरह बहुत कुछ हमको बिन पता हुए ही घट जाता है। आठ भी हमको बिना बताए बज गया। अब दफ्तर जाना होगा। आप मजे करिये।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10214623717200084
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