Tuesday, June 05, 2018

उप्पर गोरी का मकान


इतवार को चमनगंज की तरफ गए। सड़क पर साइकिलियाने के बाद एक गली में घुस गए। कार से होते तो सीधे निकल जाते। सड़क और गली में 'भीड़ भरा सन्नाटा' था। मतलब लोग खूब थे लेकिन चहल-पहल कम टाइप। शायद रोजे के कारण लोग चुप हों। दिन भर ऊर्जा बचाकर रखनी है।
कई जगह फकीर टाइप लोग दिखे। आदमी, औरत , बच्चे सब शामिल मांगने वालों में। एक ने बताया लोग अपनी मर्जी से दान करते हैं। दान माने जकात । सुबह के समय देने वाले दिख नहीं रहे थे। सिर्फ माँगने वाले ही दिखे। गली के मोड़ और अंदर दूर तक मकानों के छज्जों के नीचे लोग कटोरा लिए दिखे।
एक शेड के नीचे कुछ वरिष्ठ फ़क़ीर और बाकी कनिष्ठ फकीर टाइप थे। वरिष्ठ चुप थे। वरिष्ठता की हनक चुप रहकर साधना आसान होता है। जब तक अपने पर न आये, बोलते नहीं। वरिष्ठता बाधक बनती है। जब अपने पर आएगी तो पसड़ जाएंगे। भसड़ मचा देंगे।
एक बच्ची ने वहीं बैठी एक महिला को मसाले की पुड़िया दी। उसने चुप से रख ली। बाद में खायेगी शायद।
हम सड़क पर खड़े ही थे कि कुछ महिलाएं आ गईं। कागज में लिखा नम्बर मिलाकर बात कराने के लिए कहने लगीं। साथ खड़े आदमी ने ,जो कि बात करते हुए चमनगंज का तात्कालिक गाइड बन गया था मेरा, मना कर दिया -'मेरे पास मोबाइल नहीं है।' महिलाओं ने मेरे आगे पर्ची बढ़ा दी।
हमने असमंजस से उस आदमी की ओर देखा। मेरे दिमाग में अनगिनत व्हाट्सअप, फेसबुकिया सावधानी वाले सन्देश उछलकर सामने आ गए। उनमें बताया गया था अनजान नम्बर मिलाने से मोबाइल हैंग हो जाता है, सब पैसा निकल जाता है, गड़बड़ लोगों से कनेक्शन साबित हो जाता है। इसी तरह के तमाम हिदायती सन्देश।
सेकेंड के कुछ हिस्सों तक ही हिदायती संदेशों की हुकूमत रही। जेब से मोबाइल निकालते ही नकारात्मकता की सरकार गिर गयी। नम्बर मिलाया। जितनी देर में घण्टी जाए तब तक महिला ने बताया -'बहू है। रामादेवी में। तरन्नुम नाम है।' तरन्नुम का नम्बर बन्द मिला। वो उदास हो गयी। फिर दूसरा नम्बर भी रेंज के बाहर या बन्द मिला। नम्बर भले न मिला पर बिना पैसे खर्च किये हमारी भलनसाहत जम गई। हम इसी में खुश। हमारी दौड़-धूप में कोई कमी नहीं रही।
साथ खड़े आदमी से बतियाते हुए हमने पूछा -'चमनगंज का नाम बवालों में क्यों आ जाता है बार-बार। क्या गड़बड़ है?'
उसने बड़ी तसल्ली से समझाया -'गड़बड़ कोई नहीं। कुछ लोगों के चलते पूरी बस्ती को बदनाम करना ठीक नहीं है। हम तो बाप-दादों के जमाने से यहीं रह रहे। कोई लफड़ा नहीं।'
आगे सड़क किनारे ही जगह-जगह तख़्त पर मुर्गे की बोटी कट रही थी। एक जगह खड़े होकर हम देखने लगे। काटने वाले ने कहा -' ले लेव। 120 रुपये किलो है।इससे कम कहीं न होगी।' हमने कहा -'हमें लेना नहीं है। बस देख रहे हैं।'
उसने मुझे इस तरह देखा जैसे मेहनत करते लोग निठल्लों को देखते हैं। बोटी काटते हुए बोला -'इसमें देखने की क्या बात है भाई।' इसके पहले वो- 'फूटो यहाँ से' कहे हम आगे बढ़ लिए।
भरी बस्ती में टहलते हुए तमाम दुकानें दिखीं। अधिकतर बन्द। आगे हम एक और सकरी गली में घुस गए।
गली में धूप आहिस्ते-आहिस्ते इठलाते हुए उतर रही थी। ऐसे जैसे दूर-दराज के इलाकों के दफ्तर तसल्ली से खुलते हैं। गलियों में दुकानें भी आराम से खुल रहीं थी। एक जगह गैस सिलिंडर साइकिल पर लदे बीच गली में औंधे पड़े थे। उसके पीछे दूसरी साईकल में सिलिंडर दूसरी तरफ मुंह किये थे। दोनों सिलिंडरों में 36 का आंकड़ा लगा।
गलियों से होते हुए हम लक्कड़मंडी के मुहाने पर निकले। इन्हीं गलियों से होते हुए हम कभी गांधी नगर से जीआईसी पढ़ने जाते थे। हमारे मास्टर साहब पंडित श्याम किशोर अवस्थी यहीं कहीं रहते थे। वह सब याद आया।
कर्नलगंज निकलकर मुख्य सड़क पर आ गए। एक आदमी कान में मोबाइल लगाए फुटपाथ के बिस्तर पर ऊंघ रहा था। दूसरा उसके पैर की मालिश कर रहा था। एक जगह एक ही मोबाइल की लीड से दो महिलाएं गाना सुनते हुए जाते दिखी। दोनों के कान में एक-एक तार। तार से गाना याद आया:
तार बिजली से पतले हमारे मियां।
वहीं एक आदमी अपनी पान की दुकान जमा रहा था। हमारे दिमाग ने गाना बजाया :
नीचे पान की दुकान
उप्पर गोरी का मकान।
हमने गर्दन ऊपर की तो एक भाई साहब सैंडो बनियाइन में जनता दर्शन देने वाली मुद्रा में जम्हूआई ले रहे थे। मन किया उनसे पूछें -'भाई साहब इस मकान वाली गोरी किधर गयीं?' लेकिन जब तक पूंछे तब तक साईकल, समझदारों की तरह, आगे बढ़ गई। आगे निकलकर हमको अंदाज हुआ कि हमसे ज्यादा समझदार तो हमारी साइकिल है।
कोतवाली के पीछे से शिवाले वाली गली में घुस गए। फिर जीवन की बहुरंगी चित्र दिखे। कई जगह चबूतरों पर उबासी लेते बुजुर्ग। चाय पीते , लंतरानी हांकते लोग।

माल रोड चौराहे पर 'सामूहिक केश कर्तनालय' में लोग बाल कटवा रहे थे। फुटपाथ पर जमी कुर्सियों पर जमे लोग।
स्कूटी पर लोग पानी ले जाते दिखे। बीस लीटर की पांच-सात बॉटल। एक का पेट्रोल खत्म हो गया था। वह पानी वहीं सड़क पर रखकर पेट्रोल भराने चला गया।
पता चला की पिज्जा की तरह ये पानी डिलीवर करते हैं। 7000/- माहिने मिलते हैं। स्कूटी, पेट्रोल मालिक का। किसी पार्टी में पानी डिलीवर करने जा रहे हैं।


पानी की बढ़ती किल्लत के बारे में हमने वहीं खड़े-खड़े तमाम आशंकाएं कर डालीं। आने वाले समय में लोग पानी लाकर में रखेंगे। पानी दहेज में चलेगा, कारपोरेट पार्टियों को पानी चन्दे में देंगे। पानी कारखानों में बनेगा। हवा से आक्सीजन और सल्फ्यूरिक एसिड आदि से हाइड्रोजन नोचकर पानी बनाया जाएगा। सरकार पानी बनाएगी। पानी के पाउच पर गवर्नर के दस्तखत होंगे, कुछ लोग नकली पानी बनाएंगे। चाइनीज पानी से बाजार पट जाएंगे। पीते ही आदमी का प्यास से बुरा हाल हो जाएगा। बीमार हो जाएगा। अस्पताल में असली पानी के इंजेक्शन लगेंगे तब ठीक हो पायेगा।
आशंकाएं और भी मुंह बाए खड़ीं थीं लेकिन याद आया पास में गंगा नदी है। सोचा इसके पहले कि पानी के लिए विश्वयुध्द की दुंदभी बजे, गंगा के पानी में छप्प छइयां कर ली जाए। सोच पर अमल करने की मंशा से हम फौरन झोले में कपड़े भरकर गंगा जी की ओर चल दिये। उसका किस्सा आगे की पोस्ट में।
फिलहाल तो आपका दिन शुभ हो। मंगलमय हो। मंगल है वैसे भी आज।

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