पहलगाम में रहने की जगह पर नेट बहुत धीमा था। मोबाइल का तो खैर था ही नहीं। इंस्टीट्यूट का वाई-फाई भी ऐसे ही था। ऊंचाई पर आकर लगता है नेट की सांसें फूल गयीं हों। जो भी पोस्ट लिखीं वो नेट के चलते घूमती ही रहीं। गोल-गोल चक्कर चलते रहे।
पहलगाम में दो दिन रहे। बहुत जगह घूमे। सबके किस्से अलग से लिखेंगे आहिस्ते-आहिस्ते। कल श्रीनगर आ गए। उसी होटल में उसी कमरे में ठहरे जहां पहले रुके थे।
करीब छह बजे भी धूप इतनी साफ और तेज थी मानो दोपहर हो। सड़क पर ट्रैफिक बदस्तूर था।
कुछ दूरी पर ही एक कुल्फ़ीवाला मिला। मन किया खाने का। बहुत दिन से खाई नहीं थी। ले ली। 20 रुपये की। वहीं खड़े होकर खाई।
कुल्फी बेचने वाले नवल किशोर झारखंड के सबलपुर से आये हैं। 28 साल उम्र। दादा जी लाये हैं उनको। घर में भाई बहन हैं। उनके लिए ख़र्च भेजते हैं। पिता भी हैं लेकिन बूढ़े हो गए। दिमाग की कोई बीमारी हो गई तो काम नहीं करते, घर में रहते हैं।
नवल किशोर कहते हैं। मँहगाई बहुत है। शादी नहीं करना है। खर्च ही नहीं चलेगा तो घर कैसे बसाएं।
कुछ लोग आते हैं वो दस रूपये की कुल्फी लेते हैं। दस रुपये और बीस रुपये की कुल्फी के लिए अलग-अलग खांचे हैं। उनमें दूध डालने पर जमकर कुल्फी बन जाता है। छोटे-बड़े मिलकर 94 कुल्फी के खांचे हैं।
पास खड़े बच्चे से मैंने फोटो खिंचवाया। जम्मू से आया है। काम करने। मजदूरी ही सही। पढा-लिखा लगता है। बोला-'कहीं कोई काम नहीं। मजबूरी में मजदूरी कर रहे।'
हम वहीं थे तब तक स्कूटी रुकी। चलाने वाले के अलावा एक लड़का,लड़की थे। लड़के को चक्कर आ गया था। स्कूटी रुकी। हमने उसे पकड़कर खड़ा करने में सहायता दी। पानी खोज रहे थे वो। हमने स्कूटी पर बैठे लड़के को थामा और चलाने वाले बच्चे से सामने की दुकान से पानी लाने को कहा। पानी पीकर बच्चे के हाल सुधरे। बोलने लायक हुआ।
बाद में बताया बच्चे ने कि उसके सर में चोट लग गयी थी। उससे चक्कर आते हैं। डॉक्टर ने दवा रोज खाने को कहा था। आज मिस हो गयी। इसी लिए चक्कर आ गया।
लड़की से मैंने पूछा -'ये तुम्हारा भाई है, दोस्त है?' लड़की कुछ बोली नहीं। मुस्करा दी हल्के से। हमारा सवाल गैरजरूरी था शायद।
लोगों से पूछते हुए लाल चौक की तरफ बढ़े। रास्ता एकदम सीधा था। लेकिन लोगों से बातचीत के लिए हमने रास्ते में तमाम लोगों से लाल चौक का रास्ता पूंछा।
एक बहुत खूबसूरत लड़की सवारी का इंतजार कर रही थी। यूनिवर्सिटी में एग्रीकल्चर की पढ़ाई कर रही है। चार साल का कोर्स है। पहले साल में है। उसने रास्ता बताया -'सीधे है लाल चौक। तीन-चार किलोमीटर दूर।'
एक सज्जन तेज टहलते हुए आ रहे थे। उन्होंने रास्ता बताते हुए कहा -'ऑटो कर लो। पैदल थक जाओगे।'
एक बुजुर्ग दम्पति कारगिल से आये हैं। हफ्ते भर से कश्मीर में टहल रहे हैं। बोले -'कारगिल जरूर आओ घूमने। बहुत खूबसूरत है।'
कश्मीर गोल्फ क्लब दिखा। 1886 में स्थापित हुआ था। 136 साल पुराना खूबसूरत गोल्फ क्लब। अंदर जाने का कोई गेट नहीं दिखा। बाहर से ही देख लिए। सामने स्टेडियम में लोग खेल रहे थे।
पोलोग्राइंड पार्क में लगा शायद पोलो खेला जाता होगा। लेकिन वह सामान्य पार्क ही था। लोग बैठे थे, घूम रहे थे, टहल रहे थे, झूला झूल रहे थे।
रास्ते में जगह-जगह पार्क दिखे। हर पार्क साफ-सुथरा , व्यवस्थित। कहीं कोई अतिक्रमण या गंदगी नहीं। लोग वहां बैठे थे। यह बहुत अच्छी बात लगी।
आगे चलकर एक जगह गन्ने का जूस बिकता दिखा। खड़े होकर जूस पिया। 40 रुपये ग्लास। हमने पूछा -'इतना मंहगा क्यों?'
बोला-'मंहगा है गन्ना। महाराष्ट्र से लाये हैं मालिक। इसीलिए रस भी मंहगा।'
गन्ने मोटे-तगड़े, किसी खाते-पीते खेत के लग रहे थे।
गन्ना का रस निकालते हुए राकेश ने बताया कि वो भागलपुर से आये हैं। खाना-रहने के इंतजाम के अलावा छह हजार देता है मालिक। भाई राजू भी साथ आये हैं। दोनों मिलकर गन्ने का रस बेच रहे हैं।
आगे सड़क किनारे 1846 का एक मंदिर दिखा। मंदिर बन्द था। बगल में बेकरी की दुकान थी। दुकान में जाकर पूछा तो काउंटर पर बैठे बुजुर्ग ने बताया -' मंदिर जिनका है वो जम्मू में रहते हैं। साल में एकाध बार आते हैं। मंदिर की देखभाल हम लोग करते हैं। हम लोग मुस्लिम हैं। लेकिन मंदिर का रखरखाव, देखभाल नियमित करते हैं। सुबह-शाम पूजा भी होती है। पुजारी आते हैं उसके लिए।'
दुकान के मालिक ने बताया-'श्रीनगर में तमाम मंदिर ऐसे हैं जिनकी देखभाल, रखरखाव मुस्लिम लोग करते हैं।'
काउंटर से चाबी लेकर एक लड़के को साथ भेजकर मंदिर का गेट खुलवाकर हमको मंदिर दिखाया गया। छोटी से कोठरी में शिवलिंग स्थित था। उनको प्रणाम करके हम बाहर आ गए।
चलने से पहले मंदिर दिखाने के लिए धन्यवाद दिया तो उन्होंने सर्वधर्म समभाव पर तमाम बातें कहीं। धर्मो के रास्ते अलग हैं लेकिन मूल बात मानव कल्याण है। कोई धर्म किसी से छोटा-बड़ा नहीं होता। उनकी बात सुनकर हमको विनोद श्रीवास्तव जी की कविता याद आई:
धर्म छोटे-बड़े नहीं होते,
जानते तो लड़े नहीं होते।
आगे एक सिटी मॉल दिखा। भीड़ कम थी। बाहर से मॉल मॉल कम किसी आफिस की बिल्डिंग अधिक दिखाई दे रहा था।
माल के ही सामने एसपीएस लाइब्रेरी थी। पता चला शाम को पांच बजे बन्द हो जाती है।
माल के ही आगे मक्का मार्केट था। बोर्ड में जो लिखा था उसका मतलब था -'घाटी का पहला कबाड़ी मार्केट।'
लेकिन अंदर कोई कबाड़ नहीं था। कपड़े बिक रहे थे। अधिकतर दुकाने अस्थाई सी, चारपाई, फोल्डिंग पर लगी थीं
वहां के दुकानदारों ने बताया -'बाजार में जो सामान ढाई सौ का मिलता है वह यहां सौ रुपये का मिलता है। यहां हम लोग शाम को ऐसे ही सामान ढंककर छोड़ जाते हैं। कोई चोरी नहीं होती। सब तरफ कैमरे लगे हैं। हर आने जाने वाले का रिकार्ड दिखता है।'
'यहां बाहर तो लिखा है कबाड़ी बाजार लेकिन आप लोग कपड़े बेच रहे हो। क्या ये पुराने कपड़े हैं?-हमने एक दुकान वाले से पूछा।
'कोई पुराना सामान नहीं मिलता। सब नया है।' - अपनी दुकान पर मोबाइल पर ताश के पत्ते का कोई खेल खेलते हुए पत्ते जमाते हुए दुकानदार ने बताया।
आगे मुख्य सड़क से बाएं मुड़ने पर ऐतिहासिक और चर्चित लालचौक था। लाल चौक के घण्टाघर के ऊपरी हिस्से की रोशनी लाल थी। घड़ी अलबत्ता आमतौर पर घण्टाघरों की तरह बन्द थी। शाम के सात बजे घड़ी एक बजा रही थी। घड़ी को कोई टोकने वाला नहीं था।
घड़ी तो सिर्फ घड़ी है। चाबी देने से चलती है। आज दुनिया में कई समाज हैं जो आज के समय से दो-तीन सौ साल पीछे चल रहे हैं। उनका कोई पूछनहार नहीं तो एक घड़ी का क्या कोसें।
लाल चौक पर लोग ख़ूब जमा थे। फोटो खिंचवा रहे थे। हमने भी खींचे, खिंचवाये। कुछ देर ठहरकर, देखकर वापस चल दिये।
करीब पांच किलोमीटर चलने से थकान और भूख दोनों ने हाजिरी दी। वहीं एक बतासे वाला दिखा। हमने खाये। तीस रुपये के छह। छह बतासे होने पर हमने कहा -'बस।' इसके बाद उसने एक और खिलाया। पैसे तीस ही लिए। हम अभी तक तय नहीं कर पाए कि हमने बतासे छह खाये या सात।
रात होने कोई हुई। दुकानें बंद हो रहीं थी। एक बन्द हुई दुकान के सामने दो बच्चे कैरम खेल रहे थे। पास जाकर कुछ देर देखते रहे उनको खेलते हुए। मन किया हम भी खेलें। लेकिन हमसे बेपरवाह वे खेलते रहे। हमको पूछा नहीं। हम चले आये।
लौटते में मॉल फिर दिखा। उसकी जनसुविधा का उपयोग किया। पहली मंजिल पर था इंतजाम। अकेला एस्केलेटर बन्द हो चुका था। यह हाल सभी मॉल का है।
मॉल की जनसुविधा का इस्तेमाल करने के बाद लगा-'मॉल दुनिया के अच्छे जनसुविधा केंद्र हैं।'
राकेश अभी भी गन्ने पर रहे थे। बताया 50 ग्लास बिका रस आज। दो लड़के रस पीकर वहीं बैठे थे। उनसे पैसे का हिसाब करने में भाषा आड़े आ रही थी। लड़के हिंदी नहीं जानते थे। राकेश का हाथ अंग्रेजी में तंग। लेकिन इशारे से सब हो गया। पैसे के परिवहन में कोई भाषा व्यवधान नहीं डालती।
लौटते में खाना खाया कृष्णा भोजनालय में। भीड़ ऐसी थी जैसे किसी ट्रेन के जनरल डिब्बे की भीड़। लोग अपनी बारी के इंतजार में खड़े थे। कुछ बाहर ही खा रहे थे खड़े-खड़े।
हम तीन बार यहां से बिना खाये चले गए थे। इस बार सोच लिया था कि यहां से खाकर ही जायेंगे। अंदर घुस गए। एक जगह खड़े होकर। खाने वाले के खाना खत्म करने का इंतजार करते हुए। इंतजार करते हुये लग रहा था कि ये इतने आहिस्ते क्यों खा रहे हैं।
हमारा भी नम्बर आया बैठने का। लगा -'किला फतह हो गया।'
खाकर पैदल चलते हुए वापस आ गए। दिन भर की ठहलाई हुई -'10.7 किलोमीटर और कदम हुए 14886 ।'
लौटकर थके हुए थे। फौरन सो गए। श्रीनगर में यह तीसरी रात थी।
रात के बाद अब सुबह हुई। हर रात के बाद सुबह जरूर होती है। अब चाय पीकर निकलते हैं घूमने।
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