कल सुबह नाश्ता करके डल झील की तरफ गए। वोटिंग के लिए रात को ही उमर से बात हो गयी थी। तय हुआ था कि साढ़े आठ बजे तक पहुंच जाएंगे। लेकिन पहुंचते हुए दस बज गए।
घाट पर पहुंचकर फोन किया। किसी सवारी को घुमाने ले गए थे। बोले -'पांच मिनट में आते।'
'कान के अक्ल नहीं होती।'
उनका कहने का मतलब यह था कि सुनी-सुनाई बात पर जस-का-तस यकीन नहीं कर लेना चाहिए। कानों सुनी बात पर यकीन करने करने के पहले दिमाग का उपयोग कर लेना चाहिए।
बाद में वोटिंग के समय उमर ने अपने उन दोस्त के बारे में बताया-'ये मेरा बाप समान दोस्त है। जब अपन के पास खाली टाइम होता तो इनके साथ मशख़री करता है। बड़ों से दोस्ती बनाना चाहिए। उनसे सीखने को मिलता। ये घाट नम्बर पांच पर शिकारा चलाता है।'
कुछ देर हंस-बोलकर उमर के दोस्त चले गए। हम लोग शिकारा में वोटिंग के लिए चल दिये। उमर ने नाव का गद्दा तकिया ठीक करते हुए हमको बोला -'अब इसमें महाराजा की तरह बैठ जाओ आराम से। जूते उतारकर आराम से।'
हम वोटिंग के लिए अकेले ही निकले थे। छह मुख्य प्वाइंट थे इसमें। करीब दो-ढाई घण्टे की वोटिंग। आठ सौ में तय हुआ मामला। साझा करने पर यही बराबरी पर बंट जाता। लेकिन उस समय वहां कोई था नहीं तो हम अकेले ही चल दिये। महाराजा की तरह। आठ सौ रुपये में महाराज बनना कोई बुरा नहीं।
डल झील पर नावें ही नावें दिखाई दे रहीं थीं। बांई तरफ हाउसबोट की कतारें। हाउसबोट के रहवासी अलग-अलग अंदाज में दिखे। कोई झील को ताकता, कोई आपस में बतियाता। कोई चाय पी रहा था। कोई घुटन्ना पहने जांघ पर हाथ फेरते हुए धूप सेंक रहा था। मतलब तरह-तरह के सीन।
उमर ने बताया कि झील में हजारों शिकारे होंगे। ऐसे ही शिकारे भी। एक शिकारा दो से ढाई लाख रुपये में बनता है। हाउसबोट की लागत दो करोड़ बताई। शिकारे की कीमत तो ठीक लेकिन हाउसबोट की कीमत ज्यादा लगी मुझे। दो करोड़ में तो कई मकान मिल जाएं कानपुर में। लेकिन कई बार पूछने पर भी हाउसबोट की कीमत कम नहीं की उमर ने।
जरा सा आगे बढ़ते ही झील में चलती नावों में तरह-तरह का सामान बेंचने वाले हमारे पास आकर बेंचने की कोशिश करते गए। कोई कहवा, कोई फ्रूट चाट, कोई केसर , कोई ज्वेलरी, कोई कपड़े। समझ लिया जाए कि दो घण्टे की वोटिंग के दौरान करीब पचीस-तीस लोग तो आये ही होंगे। हमने कोई सामान नहीं लिया।
अगल-बगल के शिकारों में तरह-तरह से लोग वोटिंग कर रहे थे। कोई अकेले, कोई परिवार सहित। तमाम नए जोड़े भी तरह-तरह के पोज देकर फोटोबाजी में जुटे थे। कश्मीरी ड्रेस में भी फोटो खींचने वाले लोग वहां थे। मतलब हर तरह से लोग वोटिंग को यादगार बनाने के जुगाड़ में लगे हुए थे।
झील के पानी में सेवार और दीगर घास दिख रही थी। पानी की औसत गहराई आठ से दस मीटर है। झील के एक हिस्से में ड्रेजिंग हो रही थी। झील की घास निकाल कर पानी साफ करता जा रहा था ड्रेजर।
वहीं पानी में एक हाउसबोट पर पोस्ट आफिस भी दिखा। यहां से डाक आती जाती है।
दो महिलाएं नाव चलाती दिखीं। उमर ने बताया कि यहां सब आवागमन शिकारे पर होता है। झील में कई गांव भी हैं। झील में तैरता मार्केट भी है। मतलब डल झील अपने मे पूरा चलता-फिरता-तैरता शहर है। एक दिन में पूरा देखना मुश्किल।
इसी बीच हमारे बगल से सीआरपीएफ की नाव तेजी से निकली। झील में भी सुरक्षा चाक-चौबंद।
आगे झील में बना बगीचा दिखा। खूब सारे फूल, पेड़ पौधे थे उनमे। रुककर देखने के लिए पूछा उमर ने। हम नहीं रुके। दो दिन में बाग ही बाग तो देखे अपन ने। उनका किस्सा अलग से।
आगे चलकर तैरता मार्केट मिला। मार्केट मतलब की पूरा मार्केट। हर तरह की दुकानें। हाउसबोट्स पर तरह-तरह की दुकानें।
एक कपड़े की दुकान पर हमको लगभग जबरियन ठेल दिया उमर ने। हमने कहा भी कि हमको कुछ नहीं लेना। असल में खरीद के मामले में हमारी पसंद बहुत फूहड़ है। तारीख गवाह है कि आजतक कोई सामान हमने ऐसा नहीं खरीदा जिसकी घर में तारीफ़ नही है। हमको अपनी पसंद के खराब होने पर इतना भरोसा है कि किसी दुकान पर कदम नहीं रखते।
लेकिन उमर और दुकान वाले के इशरार पंर घुस ही गए दुकान में। तरह-तरह की साड़ियां, सूट, स्ट्रोल और भी न जाने क्या-क्या। भुगतान के लिए हर तरह के गैजेट। पता चला कि 1940 का बना है हाउसबोट। सीजन में यहां रहते हैं। जाड़े में बाहर निकल जाते हैं सामान बेंचने। कानपुर भी घूम आये हैं। स्वरूप नगर की याद है उनको, बृजेन्द्र स्वरूप पार्क में ट्रेड फेयर लगता है वहां गए हैं।
दुकान से बाहर निकलकर आगे एक कालीन की दुकान भी गए। हाउसबोट का कुछ हिस्सा पक्का भी बना दिखा। दुकान वाले ने वहां उन साफ करके, चरखे से धागा बीनने और कालीन बनाने का सारा हिसाब समझाया। तरह-तरह की कालीन भी दिखाई। हाथ से बनी और मशीन से भी। कीमत हजार से कई हजार। हमने कोई खरीद नहीं की। हजारों रुपये की बचत की। मनी सेव्ड इज मनी अरन money saved is money earned के हिसाब से हजारों की कमाई कर ली।
झील ने मीना बाजार भी था। तरह-तरह की सजावट की चीजें। कुछ लोग मछली मारते भी दिखे। बीच झील में कुछ खेत भी दिखे। कुछ में लौकी , तरोई टाइप की सब्जिया उगी उगी थीं।
घास की क्यारियां जगह-जगह थीं। पानी की सतह ऊपर उठने पर घास भी ऊपर उठ जाती है।
झील में तमाम गांव हैं। उनका सारा आवागमन वोट से ही होता है। बच्चे स्कूल भी वोट से ही जाते हैं।
वेनिस शहर के बारे में सुना था -पानी में बसा है। डल झील भी पानी में बसा खूबसूरत शहर है।
इस बीच जगह-जगह वो हाउसबोट भी दिखे जिनमें तमाम पिक्चरों की शूटिंग हुई है। इनमें कुछ फिल्में हैं -मिशन कश्मीर, गुल गुलशन गुलफान, हैदर, बालिका वधु।
लौटते में एक जगह एटीएम भी दिखा। लॉट्स गार्डेन में खिला कमल का फूल हिलते हुये नमस्ते कर रहा था।
एक शिकारे पर चाय-पानी का होटल खुला था। नाव में बैठकर चाय पी गयी। बीस रुपये की स्वादिष्ट चाय।
उमर रास्ते में और तमाम बातें करते रहे। खरीद का गुर सिखाया -'हर जगह बारगेन जरूर करो।'
गाड़ी वाले को भी संभल कर भुगतान करने को कहा। गाड़ी वाले ड्राइवर ने भी कहीं भी खरीद बड़ी सावधानी से करने को कहा था। मतलब हर इंसान सावधान करने में लगा है। कितना सावधान रहें। राष्ट्रगान के 52 सेकेंड सावधान रहने का अभ्यास बचपन से है। इससे ज्यादा सावधान रहना हो नही पाता। यह इसलिए भी कि कोई बड़ा धोखा खाये नहीं अभी तक।
उमर हमारे बेटे से दो महीने ही बड़े हैं। यह बात बताई भी मैंने उनको। लेकिन वो मुझे दोस्त, बिरादर ही कहते रहे। रात देर तक सोने के बावजूद सुबह जल्दी क्यों आ गए? इस सवाल के जबाब में बताया उमर ने-'अभी कमाई का समय है। नींद तो फिर हो जायेगी।'
जाड़े में झील जम जाती है। उस समय वोट ऐसे नहीं चलती जैसे आज कहीं भी चलते दिखती हैं। बर्फ रेल की पटरी की तरह एक सीध में खोदी जाती है। उसी में आती जाती हैं नावें। स्कूल के बच्चों की कतार की मानिंद अनुशासन में।
कठिन समय में जीने के लिए अनुशासन जरूरी होता है।
झील में वोटिंग का समय कब बीत गया। पता ही नहीं चला। लौटकर शिकारा किनारे लगाकर एक बल्ली से बांधा उमर ने तो हमको निराला जी की पंक्तियां याद आई:
बांधो न नाव इस ठाँव बन्धु,
पूछेगा सारा गांव बन्धु।
शिकारे से उतरकर गले मिले हम लोग। सेल्फी ली। पैसे दिए। घाट के बाहर आ गए।
बाहर आते ही ड्राइवर का फोन आ गया। गाड़ी भी। हम आगे घूमने निकल लिए। कई जगहें हमारा इंतजार कर रहीं थी।
https://www.facebook.com/share/p/sB4K6mMexurAPzhn/
No comments:
Post a Comment