रात ट्रेन में बैठने के बाद घण्टे भर 'मोबाइलियाते' रहे। मन किया कोई ऑनलाइन दिखे तो बतियाये। किसी दोस्त को फोन करें। लेकिन कोई मिला नहीं। रात भी आधी हो चुकी थी। लेट गए।
घण्टे भर बाद ऊपर की सीट की सवारी उतरकर नीचे आ गईं। महिला। बरेली उतरना था उनको। लखनऊ से आई थीं। हमने पूछा , उन्होंने बता दिया। इसके बाद बोर होकर बैग से मोबाइल निकालकर समय देखा। रात का 1239 हो चुका था।
रात होने के कारण शहर के नामर्दी के इलाज वाले विज्ञापन दिखे नहीं। उनकी जगह अंधेरा छाया था। अंधेरा में तमाम कमियां, कमजोरियां ढंक जाती हैं। यह अंधेरे का धवल पक्ष है।
सोने से पहले कपड़े बदलने का विचार बनाया। पैंट की जगह पायजामा पहनना। पायजामा लिखते हुए लगा कि क्या पता कोई पढ़ते हुए कहे -'आदमी हो कि पायजामा इतना डिटेल देने की क्या जरूरत?'
पायजामा बदलने के लिए शौचालय गए। घुसते ही गाड़ी बड़ी तेज हिली। हम भी हिले, लड़खड़ाए और फिर हम दरवज्जा पकड़ लिए। पैंट उतारते हुए लगा कहीं पर्स सरककर पटरी से न जा लगे। फर्श पूरा गीला था। पैंट की सीमा रेखा गीली हो गयी। पायजामे की भी। पायजामा अपने पूरे गीलेपन के साथ हमारे चरण स्पर्श कर रहा था।
मोबाइल देखते-देखते लेट गये। कालांतर में निद्रावस्था को प्राप्त हुए।
सुबह गाजियाबाद में चाय वालों ने चाय-चाय बोलते हुए जगा दिया। उठने के पहले से ही यह सोचते रहे कि पर्स किधर गया। मुंह धोने गए। लौटकर आये तो थोड़ी देर बाद याद आया कि पर्स शौचालय के बेसिन पर रखा था। लपककर गए। वहां पर्स नहीं था। हमने मान लिया कि गया पर्स। यह भी सोच लिया कि कोई बात नहीं मोबाइल तो है। बात करके इंतजाम हो जाएगा पैसे का।
इसके बाद बैग खोला। पर्स मुंह बाए बैग में सो रहा था। पर्स के सलामत रहने की खुशी पर्स से ही पैसे खर्च करके चाय पीकर मनाई।
इत्ते में पुरानी दिल्ली आ गयी। हमने चप्पल की जगह जूते पहन लेने का त्वरित निर्णय लिया। नीचे देखा तो जूते नदारद। घुटने के बल बैठकर नीचे देखा। फिर भी नहीं मिले। इसके सोचा कि लेटकर देख लें। लेकिन नहीं देखा।
इसके बाद अटैची खोली। देखा जूता अंदर आरामफरमा था। हम भूल गए थे कि हमने चप्पल की जगह जूते रख दिये हैं।
जूते निकालकर फिर पायजामे को फेयरवेल देकर पैंट को पैरों का चार्ज हैंडओवर किया। इस बार शौचालय नहीं गए। कूपा पूरा खाली हो गया था। रात भर ओढ़ी चद्दर को लुंगी की तरह पहनकर पैंट की सरकार को शपथ दिला दी।
स्टेशन पर उतरते ही लोग ही लोग दिखे। सामने ही एक परिवार दिखा। बताया बेगूसराय जा रहे हैं। प्लेटफार्म पर ही तमाम लोग सो रहे थे। सीढ़ियों पर दो लड़कियां मुंह लटकाए बैठी थीं। हमने सोचा कारण पूंछे लेकिन नहीं पूछे।कुली भाई लोग किसी गहन चिंतन में दिखे।
सीढ़ी से उठकर ऊपर आये। सूरज भई पूरे जलवे के साथ चमकते दिखे। नीचे गाड़ियां गुजर रहीं थीं। आगे कश्मीरी गेट की तरफ वाली सीढ़ियों से नीचे उतरे। नीचे उतरने वाला एस्केलेटर बन्द था। केवल ऊपर वाली सीढियां चालू थीं।
तमाम लोगों को कोसते हुए खरामा-खरामा नीचे उतरे।
आगे ही एक और परिवार प्लेटफार्म पर दिखा। एक बच्ची औंधे मुंह लेटी थी। उसके माथे पर पट्टी बंधी थी। पटरी में गिरकर चोट लग गई थी। बेहद उदास आवाज में चुपचाप बताया महिला ने। बगल में शायद उसका आदमी पेट के बल औंधा, सरेंडर मुद्रा में सोया हुआ था।
वहीं उनका बच्चा एक बहुत कड़ी रोटी को सूखा तोड़कर खा रहा था। रोटी इतनी कड़ी लग रही थी देखने में कि फेंककर किसी को मार दें तो घाव हो जाय। बच्चा निर्लिप्त भाव से उसे खा रहा था। वहीं बगल में एक लड़का पेंट के पच्चीस लीटर वाले डिब्बे में उसी तरह की कड़ी-सूखी रोटी रखे हुए दूसरे बच्चे को निकालकर दे रहा था।
आगे कुछ बच्चे मुंडी झुकाए मोबाइल में डूबे थे।पता चला बरेली के हैं। ट्रेन खोज रहे हैं जिसमें बैठकर बरेली निकल जाएँ।
प्लेटफार्म के बाहर आकर चाय पी गयी। चाय के बगल में ही पराठे की दुकान। हाथ भर ऊंचाई तक पराठे सिंके रखे थे। दुकान पर लोग बैठे खा रहे थे। 2 आलू के पराठे, सब्जी आचार के साथ 50 रुपये में।पराठे वाले ने अपने ग्राहक की मांग पर चाय वाले से चाय लेकर दे दी। उसकी दुकान पर ही एक लड़का बर्तन मांज रहा था। उसको सब छोटू कह रहे थे। दुकानों पर काम करने वाले छोटू ही होते हैं।। छोटू ही बने रहते हैं।
इस बीच तमाम ऑटो वाले हमको सवारी समझकर कहां चलना है पूछते रहे। हम सबको मना करते हुए चुपचाप चाय पीते रहे। हमारा पूरा ध्यान इस बात पर था कि कहीं चाय की बूंद हमारी एकमात्र चाय स्पर्श से बची टी शर्ट पर न गिर जाए।
चाय पीने के बाद हमने सवारी की तलाश शुरू की। हमको एयरपोर्ट जाना था। श्रीनगर के लिए फ्लाइट पकड़नी थी। कश्मीर हमारा इंतजार कर रहा है।
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