श्रीनगर में सुबह टहलते हुए एक चाय की दुकान मिली। सुबह के आठ बज चुके थे। चाय पीने का मन हो गया। आर्डर कर दी। बढ़िया चाय। दस रुपए दाम। आनंदित हुए।
दुकान पर चाय बनाने और बेचने वाले अब्दुल रसीद तुंगमर्ग के रहने वाले हैं। तुंगमर्ग , गुलमर्ग के पास है। 20-22 किलोमीटर पहले। 20-22 साल पहले आए थे तुंगमर्ग से अब्दुल रसीद। पहले कुछ दिन मेहनत मजदूरी की। 15 साल से करीब चाय की दुकान पर बैठ रहे। मालिक कोई और है। 15 साल से काम कर रहे चाय की दुकान पर इसका मतलब ठीक-ठाक पैसा मिल रहा होगा।
चाय के अलावा बिस्कुट, सिगरेट और लाइटर आदि भी मिल रहे थे अब्दुल रसीद की दुकान पर। हम चाय पी ही रहे थे कि वहां एक आदमी आया और सिगरेट लेकर चल दिया। कुछ जोर-जोर से बोलते हुए मजे ले रहा था दुकान वाले से। उसकी बातों का सार यह था कि दुकान के पैसे मारेंगे नहीं। अगर पास नहीं होगें पैसे तो बता देंगे। बाद में जब होंगे तब लौटा देंगे। झूठ नहीं बोलेंगे। यह कहते हुए उसने एक छोटा लाइटर भी ले लिया दुकान वाले से। दस रुपए का था लाइटर।
पता लगा कि वह आदमी मधुबनी, बिहार का था। बेलदारी करता है। दस दिन पहले आया है यहां। नाम है-लाल मोहम्मद। उम्र करीब चालीस साल।
लाल मोहम्मद से मधुबनी पेंटिंग के बारे जिक्र किया तो वह दरभंगा की बात करने लगा। मुझे दरभंगा से जुड़े अपने तमाम दोस्त, वरिष्ठ अधिकारी और अन्य आत्मीय याद आ गए। पता नहीं उनको हिचकियां आईं कि नहीं । यादों में कोई खर्च लगता है न ही जीएसटी। सब मामला मुफ़्त में। माले मुफ़्त, दिले बेरहम। यह भी देखा कि घर से बाहर निकलने पर घर के लोग याद आते हैं। दोस्तों से दूर होने पर दोस्त।
कुछ देर की बात के बाद लाल मोहम्मद बोले –‘चाय पिलाओ।‘
हमने कहा –पियो। चाय में कौन बड़ी बात?’
लेकिन लाल मोहम्मद अपने दोस्तों के साथ चल दिए बेलदारी करने। बोले –‘आप हां कह दिए समझ लीजिए हम पी लिए। कह दिया , हो गया। ‘
चाय की दुकान के सामने ही एक मोटरसाइकिल पर पांच लोग सवार दिखे। एक स्टंट जैसा करते हुए बैठे थे। कोई हेलमेट नहीं। कोई सुरक्षा नहीं। मजे की बात सबसे आगे बैठा हुआ सवार अपना मुंह जिधर मोटरसाइकिल जा रही थी उसकी उल्टी तरफ किए हुए था। भूत के पांव पीछे की तर्ज पर , सवारी का मुंह पीछे। भले ही वह सवार मोटर साइकिल नहीं चला रहा था लेकिन लग रहा था कि उसकी मंशा मोटर साइकिल को पीछे की तरफ ही ले जाने की थी। समाज में भी ऐसा होता है। कुछ लोग आगे बढ़ते हुए समाज को पीछे ले जाने की पूरी कोशिश करते हैं।
चाय की दुकान के सामने ही एक बड़ी मजार थी और मस्जिद भी। लोग मजार और मस्जिद में आते-जाते दिखे। हमसे भी लोगों ने मजार पर जाने के लिए कहा लेकिन समय की कमी के कारण जा नहीं पाए। आगे बढ़ गए। लगा काश पहले निकले होते। मजार के सामने ही कुछ मांगने वाले भी बैठे थे। अंदर जाते-आते लोग उनको कुछ देते भी जा रहे थे।
मस्जिद के पास ही एक जगह तमाम कबूतर इकट्ठा थे। लोग उनको दाना डाल रहे थे। कबूतर दाना चुगते हुए, इधर-उधर कबूतर वाक करते हुए थोड़ी-थोड़ी देर में उड़ते भी जा रहे थे। उड़ान भरकर थोड़ी देर में फिर वापस उसे जगह पर आकार दाना चुगने लगते। एक आदमी वहीं बेंच पर बैठा चुपचाप, अकेले ,सिगरेट पीते हुए , कबूतरों को दाना चुगते, टहलते, उड़ते और फिर वापस आते देखता बैठा था।
वहीं एक मजार भी थी जिस पर लिखा था –MAZAR-E-SHUHADA, Khanyar. इस मजार का विवरण मुझे पता नहीं इस लिए इस बारे में कुछ लिखना ठीक नहीं।
जरा आगे बढ़ने पर फिर स्कूल जाने को तैयार कुछ बच्चियाँ दिखीं। स्कूल ड्रेस और हिजाब में बच्चियाँ अपनी बस का इंतजार कर रहीं थीं। कक्षा आठ, सात , छह और चार में पढ़ने वाली बच्चियों से बात की। यह पूछने पर कि स्कूल जाना कैसा लगता है बच्चियों ने बताया – ‘बहुत अच्छा।‘ लाक डाउन खत्म होने के बाद स्कूल फिर से खुल गए यह बहुत अच्छी बात है।
बच्चों से बार करते हुए उनकी क्लास और नाम लिखने के लिए मोबाइल हाथ में लिया। बच्चियों के नाम पूछते हुए लिखने शुरू किए तो कुछ उच्चारण और कुछ टाइपो के चक्कर में अटकते हुए लिख रहे थे। आव्हा, जुनैरा के नाम लिख लिए। तीसरे नाम में अटक गए। दो बार पूछा। बच्ची ने स्पेलिंग बताई। हम फिर अटके। इस पर बच्ची ने, तुमसे न हो पाएगा, वाले अंदाज में देखते हुए , मेरे हाथ से मेरा मोबाइल लेकर अपना नाम टाइप किया –जुनैरा (Zunaira) चौथी बच्ची जो सबसे छोटी थी उसका नाम पूछते और लिखते तक उनकी बस आ गई और वे हमको मुस्कराते हुए, खुदा हाफिज कहते हुए , बस में बैठ गयीं।
जुनैरा ने जिस तरह मुझसे मोबाइल लेकर उस पर अपना नाम लिखा वह श्रीनगर की नई पीढ़ी की एक झलक है। वह स्कूल जाती है, तहजीब के नाम पर हिजाब पहनती है, नए गजेट्स इस्तेमाल करना जानती है, अजनबी लोगों से बात करने में हिचकती नहीं है। आत्मविश्वास से लबरेज है। यह हमारे समाज के लिए बहुत खुशनुमा है।
कल मेरे पोस्ट पर एक मित्र का सवाल था –‘एक अनजान शहर में , अकेले घुमते हुए , अनजान लोगों से इतने सहज होकर कैसे बातचीत कर लेते हैं?’
इस पर आज विचार करते हुए मुझे तीन साल पहले भोपाल में मिले हाजी बेग की बात याद आई। वे भी ऐसी ही घूमते टहलते एक मस्जिद के पास मिले थे। बेग साहब का कहना था:
'इंसान जिन लोगों बीच रहता है उनसे ही तौर तरीका सीखता है। इसलिए अपने से अलग कोई अगर व्यवहार करता है तो यह नहीं समझना चाहिए कि वह गलत ही है। उसका नजरिया भी समझना चाहिए। '
बेग साहब की एक खास बात याद आई -
'सबसे बड़ा रिश्ता इंसानियत का होता है।'
यह बात तो तमाम लोग कहते आये हैं। रोज इंसानियत का अंतिम संस्कार करने वाले तक इंसानियत की बात करते रहते हैं। लेकिन बेग साहब ने इसको एक उदाहरण से समझाया । बोले -' आप किसी जंगल मे अकेले फंस गए हों। जंगल का डर, हौवा आपके जेहन में हावी हो जाएगा। ऐसे में कोई इंसान आपको वहां दिख जाए तो आपका डर फौरन खत्म हो जाता है। भले ही वह आदमी गूंगा-बहरा हो। वह अपने इशारों से आपको जंगल से बाहर ले आएगा। उस समय यह फर्क नहीं पड़ता कि अगला हिन्दू है कि मुसलमान कि ईसाई।‘
( पोस्ट के लिंक Somesh के कमेंट के जवाब में )
लोगों से बात करते हुए मेरे जेहन में ज्यादातर समय यही बात रहती है कि उनके और हमारे बीच इंसानियत का रिश्ता है। इससे बड़ा और मजबूत रिश्ता और कोई नहीं होता।
वहीं एक बच्ची और मिली स्कूल के लिए बस का इंतजार करती हुई। अपनी अम्मी के साथ। बारहवीं में पढ़ती है बच्ची। नाम बताया –‘सादिया।‘
सादिया ने बात करते हुए जैसे एक सांस में अपने बारे में तमाम बातें बता दीं। 12 वीं पढ़ती है। डाक्टर बनना है। नीट का एक्जाम देना है। तैयारी कर रही है। डाक्टर बनना है। हार्ट स्पेसियलिस्ट। पापा का ड्राई फ्रूट का काम है। पेंटिंग और गार्डनिंग का शौक है। खूब अच्छा गार्डन है घर में। चलते तो दिखाते।
बात करते हुए हमने पूछा- ‘डाक्टर बनने की बात तो ठीक लेकिन तुम इतनी दुबली हो। खाना कम खाती हो क्या ? ‘
इस पर उसने हँसते हुए और अपनी अम्मी की तरफ देखते हुए बताया –‘अम्मी भी बहुत टोंकती हैं लेकिन पढ़ाई के चक्कर में खाने में लापरवाही हो जाती है। ध्यान नहीं रहता। कोचिंग भी जाना होता। सब समय पढ़ाई में ही चला जाता है।
कुछ देर बाद सादिया ने सवाल किया –‘आपको कश्मीर कैसा लगा?’
हमने कहा –‘बहुत अच्छा। बहुत खूबसूरत। खासकर यहाँ के लोग बहुत प्यारे हैं। मिलनसार। मोहब्बत से लबरेज।‘
इस पर उसका अगला सवाल था –‘फिर कश्मीर को क्यों बदनाम करते हैं लोग?’
सादिया के सवाल का कोई मुक्कमल जबाब नहीं था मेरे पास। लेकिन कुछ-कुछ कहते हुए हमने कहा –‘लोग यहां आये बिना, मीडिया और दीगर माध्यमों से यहां के बारे में इमेज बनाते हैं और ऐसा समझते हैं। लोग यहां आएंगे तो यहां के बारे में अलग राय बनाएंगे।‘
बारहवीं में पढ़ती सादिया कश्मीर की ब्रांड एम्बेसडर है। सादिया को डाक्टर भी बनना है और लोगों के मन में कश्मीर से जुड़ी गलफहमियाँ भी दूर करनी हैं।
कुछ और बच्चे स्कूल जाते दिखे। ज्यादातर के मां-बाप उनके साथ थे। कुछ लड़के अलबत्ता अकेले बस का इंतजार करते दिखे।
एक जगह दो बच्चियां स्कूल जाते दिखीं। मोबाइल हाथ में लिए बेतकुल्लुफ़ बतियाती लड़कियां किसी स्कूल ड्रेस में नहीं थीं। पूछने पर पता चला कि वे कालेज में पढ़ती हैं। सिविल इंजीनियरिंग की दूसरे साल की पढ़ाई कर रही हैं। कालेज में ड्रेस की छूट है।
सिविल इंजीनियरिंग सुनकर हमने पूछा –‘सर्वेइंग वाली ब्रांच में हो तुम लोग। बिल्डिंग बनवाओगी?’
इस पर वे हँसते हुए अपनी गप्पाष्टक में मशगूल हो गयीं। हम आगे बढ़ गए।
रास्ते में तमाम पुरानी इमारतें, मकानात दिखे। एक मस्जिद दिखी- हज्जा बाजार स्थान। मस्जिद में लोग सफाई में लगे हुए थे। मस्जिद के एक तरफ महिलाओं के नाम पढ़ने का इंतजाम था। वहां भी बड़े अहाते में ढेर सारे कबूतर उड़ते हुए मस्जिद के आंगन और आसमान को गुलजार किए हुए थे।
उन कबूतरों को वहीं उड़ता छोड़कर हम आगे बढ़ गए। हमको आगे श्रीनगर की प्रसिद्ध जामा मस्जिद देखनी थी।
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