बिलाल के पास कश्मीरी रोल रोटी खाकर आगे बढ़े। वहां से दस कदम पर ही दूध गंगा बह रही थी। झरने की तरह इठलाती, अपने पर इतराती जैसी , पत्थरों के बीच कैट वाक सरीखी करती। नदी का साफ पानी पत्थरों की सीढ़ियों से उतरता हुआ नीचे बह रहा था। ऐसे जैसे पानी में जल्दी से आगे बढ़ाने का कोई कंपटीशन हो रहा हो।
कहीं कोई चट्टान अगर बीच में आ जाती तो पानी थोड़ा अटक जाता। अटकने में हुई देरी की भरपाई करने के लिए चट्टान के बाद पानी इतनी तेज उछल कर आगे भागता। थोड़ी देर पहले अपने से आगे निकल गए पानी के गले मिलकर फिर साथ बहाने लगता।
किनारे का पानी अलबत्ता बिना उछल कूद के तसल्ली से बहता दिखा। किनारे से सटे-सटे, बिना हल्ले-गुल्ले के आहिस्ते से बहता जा रहा था। लगता है उसने पढ़ राखी थी यह कविता:
जहां तुम पहुंचे छलाँगे लगाकर,
वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे।
नदी के आसपास का दृश्य बहुत खूबसूरत था। लग रहा था यहीं बैठे रहें। काश कोई ऐसा इंतजाम हो कि रोज इसे देख सकें। लेकिन अगर ऐसा होता तो कुछ दिन में ही हम लोग इसे चौपट कर चुके होते। कूड़ा-करकट से नदी को पाटकार दूध गंगा को ‘गटर गंगा’ में बदल दिए होते। हमने अपनी मंशा वापस ले ली। बेहतर यही है कि नदी हमसे दूर ही रहे। हम उसको कभी-कभी देखने आते रहें।
लोग नदी के आसपास तरह-तरह के फ़ोटो खिंचाकर उसको अपने कैमरे में सँजो रहे थे। कोई पानी के पास बैठकर, कोई नदी के पानी में पांव डालकर , कोई नदी की तरफ देखते हुए, कोई नदी के पास की चट्टानों पर बैठकर, कोई अकेले, कोई जीवन साथी के साथ, कोई समूह में फ़ोटो खिंचा रहा था। पास में बने पुल पर भी खड़े होकर तमाम लोग फ़ोटो बाजी कर रहे थे।
हमने भी तमाम फ़ोटो लिए। वीडियो भी। कभी नदी के एक तरफ से वीडियो बनाते तो कभी दूसरी तरह से। थोड़ी देर बाद लगता कि यह सीन भी पकड़ लें। कैमरे में सँजो लिया सबको। तमाम फ़ोटो हैं लेकिन लगता है सब छलावा है। नकली है। असल तो वही है तो वहाँ छोड़ के आ गए। कैमरे में तो बहुत छोटा हिस्सा आ पाया। पूरा देखने के लिए तो वहीं जाना होगा।
वहीं एक स्कूल के बच्चे पिकनिक पर आए थे। लड़के और लड़कियां दोनों। बाबा सुकूर दीन मेमोरियल स्कूल सोपुर के बच्चे थे। छोटी क्लास से लेकर हाईस्कूल तक के बच्चे मिले वहां। अधिकतर लड़के-लड़कियां अलग-अलग ही समूहों में पिकनिक मनाते दिखे। बच्चों के पास मोबाइल या कैमरे नहीं दिखे। बाद में पता चल मनाही है स्कूल में मोबाइल रखने की। संस्कारी स्कूल होगा। बच्चे बिगड़ न जाएँ इस लिए मोबाइल से परहेज।
स्कूल के बच्चे नदी के पास बैठे मजे ले रहे थे। लोगों को फ़ोटो खींचते देख थोड़ा हसरत भारी निगाहों से उनको देख रहे थे। हो सकता ऐसा न कर रहे हों लेकिन मुझे ऐसा ही लगा। अपने पास बैठे दो बच्चों से, जो कि नदी की तरफ प्यार से देख रहे थे, मैंने पूछा –‘फ़ोटो खिंचवाना है? चलो खींच दें तुम्हारी फ़ोटो।‘
उनमें से एक ने पूछा –‘खींच दोगे? पैसे तो नहीं लोगे?’
हमने कहा –‘हां खींच देंगे। पैसे भी नहीं लेंगे और भेज भी देंगे जिस नंबर पर कहोगे।‘
बच्चे लपककर नदी किनारे आ गए। तरह-तरह के पोज में फ़ोटो खिंचाए। कोई झुककर नदी का पानी पीता हुआ, कोई पानी को अंजुरी में लेते हुए, कोई इधर मुंह करके , कोई उधर मुंह करके। मतलब जीतने बच्चे उससे कई पोज। उनको फ़ोटो दिखाकर हमने उनके चेहरे की खुशी महसूस की। किसी ने दुबारा पोज दिए। हमने भी खूब फ़ोटो खींचे। बच्चों के नाम नोट कर लिए। बाद में उनको फ़ोटो भेजे भी।
कुछ देर तक नदी और उसके आसपास की खूबसूरती देखने और उसको बेदर्दी के साथ कैमरे में ठूँसते रहे। जितना देख पाए और कैमरे में ठूंस पाए उतना किया बाकी दूसरों के देखने के लिए छोड़कर हम वापस लौट लिए ( यह जुमला रवींद्र नाथ त्यागी जी के एक लेख में पढ़ा था तबसे इसे लपक लिया –‘जितना देख पाया देखा , बाकी दूसरों के देखने के लिए छोड़कर आगे बढ़ गए’ यह अच्छा लगे तो त्यागी जी की तारीफ करिएगा। )
लौटते में एक जगह एक भारी बदन वाले एक बुजुर्ग नदी की तरफ आते दिखे। रास्ते में एक जगह थोड़ा ज्यादा उतार है। नदी तक जाने के लिए कंक्रीट का रास्ता बन रहा है तो शटरिंग करके छोड़ा है। नीचे उतरने के लिए करीब डेढ़ फुट नीची जगह है। आम लोगों के लिए एक पटरा लगा है। कुछ लोग सीधे कूद के भी नीचे उतर जाते हैं लेकिन जिनको चलने फिरने मे तकलीफ है वो कैसे उतरें। उनको परेशानी।
बुजुर्गवार शायद अपनी बेटी के साथ से। नीचे उतरने के लिए दायें-बाएं हो रहे थे। तमाम लोगों ने उनको आहिस्ते से सहारा देकर उतारा। बुजुर्गवार ने उतारने के दौरान और नीचे उतरने पर भी बार-बार, लगातार धन्यवाद दिए। दो-चार हमारे हिस्से में भी आए। उनकी बेटी ने भी दिए धन्यवाद लेकिन उतने नहीं। वो शायद लोगों के हिस्से आधे-तिहाई पड़े होंगे। उस समय तो नहीं सोचा लेकिन अब यह सोच रहे हैं कि अगर उस समय बुजुर्गवार अकेले होते , उनके साथ उनकी बेटी न होती तब भी क्या उनको इतने ही लोग सहयोग करते? यह सोचते हुए यह भी लग रहा है कि फुरसत में इंसान खुराफाती बातें ही सोचता है।
लौटते हुए एक ढाबे में चाय पी गई। परवेज से उसके किस्से सुने गए। उसकी शादी होने वाली है। घर वालों ने तय कर दी है। न चाहते हुए भी करनी होगी। अगर नहीं की तो घर वालों की बदनामी होगी। दुनिया में रहने के लिए उसके हिसाब से चलना होगा।
लौटते हुए बारिश हो रही थी। लग रहा था कि भीग जाएंगे। लेकिन कुछ देर बाद पानी बंद हो गया। हमने सोचा हम भी पैदल चले। कुछ देर में हाँफ गए। फिर बैठ गए घोड़े पर।
परवेज ने वादा किया था पहाड़ी गीत सुनाने का। हमने कहा सुनाओ तो उसने शरमाते हुए इनकार कर दिया। बोला –‘हमको अच्छे से आता नहीं गाना।‘
अलबत्ता अपने कुछ दोस्तों से उसने गाने का अनुरोध किया। लेकिन उन्होंने भी मना कर दिया। फिर बाद में परवेज ने रिकार्डिंग न करने की शर्त पर दो-तीन गाने सुनाए। उनके मतलब भी समझाए।
करीब दो घंटे की ट्रिप पूरी करने के पहले परवेज ने कहा –‘कुछ टिप-विप देना हो तो यहीं डे दीजिए। वहाँ सब बंट जाएगा। हमने उसकी बात मान ली। कुछ टिप दी।‘
स्टैंड पर भुगतान किया। दो घंटे के हजार रुपए।
घोड़े पर जाने का आराम तो रहा लेकिन बहुत कुछ देखने से रह गए। सारा ध्यान संतुलन बनाने में ही लगा रहा।
लौटते में एक जगह रुककर फिर फ़ोटोबाजी की। हमारे ड्राइवर ने हमको स्लो मोशन में टहलाते हुए वीडियो बनाया। बाद में उसको देखते हुए कैसा लगा लिखने में लाज आ रही है। आप देखना और बताना। आखिरी फ़ोटो देखिए।
लौटकर सबको फ़ोटो भेजे। उसमें से परवेज , बिलाल और हाजिम का जबाब आया।
हाजिम के तो घर में सबसे बात हुई। हमने उनके पिता को फ़ोटो भेजते हुए बता दिया था। उन्होंने अपने बारे में बताया। वो कारपेंटर हैं। दिहाड़ी पर बढ़ई का काम करते हैं। घर में उनके तीन बच्चे हैं। हासिम सबसे छोटा है। चौथी में पढ़ता है।
फ़ोटो मिलने मिलने पर उन्होंने हाजिम से पूछा –‘फ़ोटो किसने लिए और भेजे?’
हाजिम से उनको बताया-‘ वो मेरा दोस्त है ?’
58 साल की उम्र में 14 साल के हाजिम से दोस्ती सबसे ताजा और खुशनुमा एहसास है।
मुझे अपनी 39 साल पहले की साइकिल से भारत यात्रा के दौरान केरल में एक बुजुर्ग से मुलाकत की बात याद आ गई। उन्होंने हमको खिला-पिलाकर विदा करते हुए कहा था –‘हम तुम्हारे पिता जी के दोस्त हैं?’
हमने उनसे पूछा था –‘कैसे दोस्त हैं? उन्होंने तो हमको बताया नहीं?’
इस पर उन्होंने हमसे कहा था –‘तुम्हारी उम्र के मेरे बेटे हैं। तुम्हारे पिताजी हमारे हम उम्र होंगे। हम उनसे मिले नहीं। लेकिन अगर हम उनको दोस्त मानते हैं तो इसमें तुमको क्या एतराज है?’
बाद में देर रात को घर पहुँचने पर हाजिम का वीडियो काल आया। उसके साथ उसके भाई और चचेरी बहन भी थीं। नेटवर्क धीमा होने के कारण बार-बार कट जाता था। घर में एक ही मोबाइल है। सब उसी से संपर्क करते हैं। बच्चे बातचीत करने के बाद गेम खेलने वाले थे।
बाद में कई बार हाजिम और साथ में उसकी चचेरी बहन से बात हुई। चचेरी बहन मतलब मौसी की लड़की। कुछ दिन के लिए आई है अपनी मौसी के घर। हमने हाजिम की पढ़ाई-लिखाई के बारे में जानकारी ली तो उसकी बहन ने बताया –‘नियमित पढ़ाई करता है हाजिम। पढ़ने में अच्छा है। आप उसका ख्याल रखना। उसकी पढ़ाई में मदद करना प्लीज।‘
हमने कहा – ‘जरूर करेंगे।‘
कह तो दिया। लेकिन क्या कर पाएंगे। कितनी कर पाएंगे यह समय बताएगा। लेकिन कानपुर के प्रिय गीतकार प्रमोद तिवारी का गीत अनायास याद आ रहा है:
‘राहों में रिश्ते बन जाते हैं,
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
(गीत का लिंक कमेन्ट बाक्स में । सुनिए अच्छा लगेगा)
https://www.facebook.com/share/p/Esyv5g6673DXZwzh/
No comments:
Post a Comment