दोपहर को (14 जुलाई) पहुँचे कश्मीर। दिन भर मटरगस्ती करते हुए अनगिनत यादें समेट लीं। उनका किस्सा तसल्ली से। किस्सों में सिलसिला जरूरी है। लेकिन बगैर सिलसिले के भी चल सकता है मामला। दिल्ली की सुबह से श्रीनगर की शाम के किस्से फ्लैशबैक में आते रहेंगे। हालाकि इकबाल साहब ने यह शेर अजीम और मस्त तबीयत के लोगों के लिए लिखा है:
मतलब ऊंची शख्सियत वाले लोग सूरज की तरह जीते हैं। इधर डूबे तो उधर उदय हुए, उधर डूबे तो इधर उदय हुए।
एक दूसरे से जुड़े रोचक किस्से भी इसी तरह सूरत-ए-खुर्शीद जीते हैं। एक खत्म हुआ तो उससे जुड़ा दूसरा हाजिर। दूसरा निपटा तो एक और हाजिर।
शाम को टहलने निकले। साढ़े आठ बजे। अधिकतर दुकाने बन्द हो चुकी थीं। खाने-पीने की दुकाने गुलजार थीं। एक दुकान के सामने चबूतरे में तीन लोग बैठे बतिया रहे थे। आगे कुछ दूर पर डल लेक की तरफ रास्ता जाता है। उससे भी आगे निकलकर अपन उस इलाके की तरफ बढ़े जहां खाने का हिसाब था।
खाने के लिए सबसे बढ़िया हिसाब वही पता था हमको जहां दोपहर खाया था। खाया क्या पैक कराया था। कृष्णा वैष्णव भोजनालय। ड्राइवर ने बताया कि सबसे अच्छा खाना यहीं मिलता है। ड्राइवर ने बोला आप खा लीजिए, हम गाड़ी पर हैं। हमने कहा -तुम भी चलो।
वो बोला-'यहां गाड़ी सड़क पर नहीं खड़ी कर सकते।'
हम गए होटल। भयंकर भीड़। बैठने क्या वहां खड़े होने की जगह तक नहीं। लोग बाहर खड़े-खड़े तक खा रहे थे।
हमने दोनों लोगों के लिए दो-दो आलू के पराठे आर्डर किये और इंतजार करते रहे कि कब मिले। दस मिनट लगे इस बीच होटल के मालिक से बतियाये। पता चला होटल 1985 में खुला था। बड़े भाई साथ में थे-गणेश कुमार। 2009 में उनकी असमय मौत के बाद रमेश कुमार जी ही देखते हैं होटल।
होटल में भारी भीड़ थी। अमरनाथ यात्रा के चलते भी लोग बढ़े हैं। लेकिन अगल-बगल की दुकान लगभग सन्नाटे की स्थिति में।
दुकान में करीब 20-25 लोग काम करते हैं। सब लाल टी शर्ट में। ड्रेसकोड है यह दुकान का।
हमारा आर्डर 10 मिनट में आ गया। एक पराठा 40 रुपये का। चार के 160 रुपये। चलते हुए 100 की खीर भी एक प्लेट पैक करा ली।
खाना पैक करा कर बाहर निकले। एक आदमी सिगरेट सुलगाते हुए एक बहुत प्यारी बच्च्ची को खिला रहा था। बच्च्ची को देखकर उसके फ़ोटो लेने का मन किया। लिया। आदमी ने उसका बताया टेबी। पता नहीं क्या मतलब इस नाम का। हो सकता है कोई और नाम बताया हो। हमने यही समझा हो।
बाहर निकल कर गाड़ी दूर खड़ी करके पराठे खाये गए। हमको लगा कि ऐसे ही आशानी से खा लेंगे। लेकिन पराठे बहुत हलव्वी थे। मेहनत से खाए गए। खीर भी स्वादिष्ट थी।
यह क़िस्सा दोपहर का था। अब बात शाम की।
दोपहर का खाना देर में खाया था। भूख नहीं थी। फिर भी चले गए खाने। शाम को भी बहुत भीड़ थी। बाहर भी मेजे लगी थीं।
हमने थोड़ा इंतजार के लिहाज से बगल की दुकान से चाय पीना तय किया। शाम को चाय पी भी नहीं थी।
चाय 12 रुपये की। दुकान वाले ने चिल्लर लौटाए। एक रुपये नहीं थी तो उसके बदले एक टॉफी। हमको प्रमोद तिवारी की 'राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं' की लाइनें याद आईं:
वो जूठी टॉफी अब भी मुंह में है,
हो गयी सुगर हम फिर भी खाते हैं।
चाय लेकर फुटपाथ के सामने बने चबूतरे नुमा रेलिंग पर बैठ गए। फुटपाथ पर बैठकर चाय पीते हुए इंजीनियरिंग कालेज के वे दिन याद आ गए जब हम लोग सिविल लाइंस में फुटपाथ पर बैठकर खाना खाते थे। यादें कहाँ-कहाँ पीछा करती हैं।
साथ में कुछ बच्चे बतिया रहे थे। सिगरेट फूंक रहे थे। मोबाइल सर्फिंग कर रहे रहे थे। लोग आ-जा रहे थे। एक बुजुर्ग कोन में आइसक्रीम लिए टहलते हुए खा रहे थे।एक नौजवान अपने बच्चे को मोटरसाइकिल की टँकी पंर आगे बिठाए था।
मोटरसाइकल या और दुपहिया चलाते लोग बिना हेलमेट के ही दिखे ज्यादातर।
पुलिस वाले और सीआरपीएफ वाले गाड़ियों को सड़क पर रुकने से मना करते हुए सड़क खाली कराते जा रहे थे।
दुकान पर अभी भी भीड़ थी। हमने बगल की दुकान पर खाना खाया। एक तंदूरी रोटी 11 रुपये की और एक अरहर डाल फ्राई 90 रुपये की। 101 रुपये हुए। दुकान वाले ने एक रुपया छोड़ दिया- खाना खाने की टिप की तरह।
2001 में कानपुर में OFC पोस्टिंग के दौरान फैक्ट्री के पास ढाबे में 11 रुपये में पूरा खाना खाते थे। आठ रुपये की अरहर की दाल, 1 रुपये की एक रोटी। तीन रोटी और दाल में लंच हो जाता था। 20 साल में दाल और रोटी के दाम दस गुना बढ़ गए।
दुकान वाले सरदार जी जगदीप सिंह जी हमने उनका होटल कम चलने का कारण पूछा। उन्होंने बताया अभी छह महीने हुए उनको होटल चलाते। किराए पर चलाते हैं अभी। सोढी साहब जिनका होटल है उनका बेटा चलाता था पहले। बेटा गुजर गया अचानक। सूरी साहब ने इनको दे दिया। खुद पंजाब में रहते हैं। होटल आते नहीं। एक बार आये , बैठे तो बेटे की याद आ गयी। वापस लौट गए।
जगदीप सिंह की पूरी दाढ़ी सफेद। उम्र का अंदाज लगाया 60-70 साल। पता चला उनकी उम्र 46 साल की है। बेटी आठ की। दाढ़ी सफेद होने का कारण -डाई करना छोड़ देना। डाई भी जीएम बीजों की तरह होती है। एक बार प्रयोग किया तो हमेशा करना होगा।
दल झील के पास का यह इलाका डल गेट कहलाता है। वैसे यहीं दुर्गनाग मंदिर है लिहाजा दुकानों में दुर्गानाग मंदिर ही लिखा है।
दस बज चुके थे। सड़कों पर लोग कम होते जा रहे थे। दुकानें बढ़ती जा रहीं थी। एक ठेले पर दशहरी आम बिक रहे थे। 100 रुपये किलो। घर में दिन में तीन बार आम खाते थे। एक किलो रोज घर के आम। पिछले महीने भर में यह पहला मौका था जब हम बिना आम खाये रहे हों। रात को हल्दी वाला दूध भी नहीं पी पाए। घर याद आया।
श्रीनगर की सड़कों पर घूमते हुए। घर को याद करते हुए अपन लौट लिए होटल के लिये।
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