कौन मुस्काया शरद के चांद सा
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पिछले दिनों हमारे प्रिय गीतकार विनोद श्रीवास्तव जी से मुलाकात हुई तो उनके कुछ गीत रिकार्ड किये। उनमें से एक गीत वह भी था जिसे पूर्णिमा वर्मन जी ने 2005 में अपनी अंतर्जाल पत्रिका 'अनुभूति' में हिंदी के सौ सर्वश्रेष्ठ गीतों में शामिल किया था।
मैने तो कई बार इस गीत को सुना। आप भी गीत के पढ़ने और गीतकार की आवाज में सुनने का आनंद लीजिए:
सिंधु जैसा मन हमारा हो गया।
एक ही छवि तैरनी है झील में ,
रूप के मेले न कुछ कर पायेंगे।
एक ही लय गूँजनी संसार में,
दूसरे सुरताल किसको भाएंगे।
कौन लहराया महकती याद सा,
फूल जैसा तन हमारा हो गया।
खिल गया आकाश खुशबू ने कहा,
दूर अब अवसाद का घेरा हुआ।
जो कभी भी पास तक आती न थी
उस समर्पित शाम ने जी भर छुआ।
कौन गहराया सलोनी रात सा
रागमय जीवन हमारा हो गया।
पूर्व से आती फिर हवा फिर छू गई,
फिर कमल मुख हो गई संवेदना।
जलतरंगों में नहाती चाँदनी
हो गई है इंद्रधनुषी चेतना।
मौन शरमाया सबेरे गात सा
धूप जैसा क्षण हमारा हो गया।
कौन मुस्काया शरद के चाँद सा
सिंधु जैसा मन हमारा हो गया।
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