जबलपुर से करीब 60 किमी दूर पायली |
समूची कायनात जे हैं न से कि गुनगुनी हो रखी है।
ओस की बूंदों ने कुर्सी को गीला कर रखा है।अरगनी पर पड़े तमाम कपड़ों में से ताजे धुले रूमाल को निचोड़ कर कुर्सी पोंछी।रुमाल निचुड़ा और फिर गन्दा हो गया। तमाम कपड़ों में से गन्दा रुमाल को ही होना पड़ा। वैसे भी हमेशा कुर्बानी सबसे कमजोर/छोटे को ही देनी पड़ती है।
धूप की किरणें आज बहुत तेजी में हैं।हर फूल,पौधे को समझाती हुई कह रही
हैं-"मैंने माननीय सूरज भाई से कह दिया है कि मैं रोज उजाले के साथ
बाग़-बगीचों के मुआयने पर जाया करुँगी।मुझे चमकने और चमकाने का बहुत अनुभव
है।" पौधे इधर-उधर सर हिलाते अनुशासित कार्यकर्ताओं की तरह सावधान मुद्रा
में खड़े हो जा रहे हैं।
बड़े-बड़े अनुभवी पेड़ चुपचाप खड़े किरणों की चपलता देख रहे हैं।जिन पेड़ों पर फूल हैं वे एकाध फूल टपकाकर किरणों की अगवानी कर रहे हैं। जिनके पास फूल नहीं हैं वे अपनी जर्जर पत्तियां भेंटकर औपचारिकता निभा रहे हैं। सद्भावना का फुल दिखावा हो रहा है।
पेड़ों पर इक्का-दुक्का पक्षी अलग-अलग आवाजें कर रहे हैं। कोई चिंचिंचिंचिं,कोई आंव आंव,कोई काँव काँव ।कुछ केंव केंव तो कुछ और किसी आवाज में अपना राग बजा रहा है।हर पक्षी कह भले ही रहा हो कि वह दूसरे से अलग है। वैसा नहीं जैसे दूसरे हैं लेकिन अंदाज सबका एक ही है बोलने का। सब बोलते समय उचकते हुए से चोंच फैलाकर बोल रहे हैं।कोई फर्क नहीं।
अचानक देखते देखते सब पक्षी एक साथ चिल्ल्लाने लगे हैं। लगता है कि वे किसी चैनल के प्राइम टाइम बहस में अपनी पार्टी का पक्ष रखने लगे हों। आवाजों में लगता है मारपीट सी होने लगी है।कुच्छ सुनाई नहीं दे रहा है।
तितलियाँ फूलों पर मंडरा रही हैं। चपल चंचला रँगबिरँगी। तितलियों को देखकर एक नाटक का यह डायलॉग याद आ गया- "रिश्ते रँगबिरँगी तितलियों की तरह होते हैं।कसकर पकड़ने से उनके परों का रंग छूट जाता है।धीरे पकड़ने पर वे उड़ जाती हैं।" यह बात लिखते हुए अपने तमाम खूबसूरत रिश्ते याद कर रहा हूँ।
धूप में आलू के पराठे खाते हुए सूरज भाई से बतिया रहे हैं।सूरज भाई चाय की फरमाइश कर रहे हैं। आप के लिए भी मंगाए?
(यह फ़ोटो जबलपुर से 60 किमी दूर पायली का।यहाँ हम लोग मकर संक्रांति के दिन पिकनिक मनाने गए। पानी पर जगह-जगह धूप के चकत्ते से पड़े हुए थे।अद्भुत नजारा।)
बड़े-बड़े अनुभवी पेड़ चुपचाप खड़े किरणों की चपलता देख रहे हैं।जिन पेड़ों पर फूल हैं वे एकाध फूल टपकाकर किरणों की अगवानी कर रहे हैं। जिनके पास फूल नहीं हैं वे अपनी जर्जर पत्तियां भेंटकर औपचारिकता निभा रहे हैं। सद्भावना का फुल दिखावा हो रहा है।
पेड़ों पर इक्का-दुक्का पक्षी अलग-अलग आवाजें कर रहे हैं। कोई चिंचिंचिंचिं,कोई आंव आंव,कोई काँव काँव ।कुछ केंव केंव तो कुछ और किसी आवाज में अपना राग बजा रहा है।हर पक्षी कह भले ही रहा हो कि वह दूसरे से अलग है। वैसा नहीं जैसे दूसरे हैं लेकिन अंदाज सबका एक ही है बोलने का। सब बोलते समय उचकते हुए से चोंच फैलाकर बोल रहे हैं।कोई फर्क नहीं।
अचानक देखते देखते सब पक्षी एक साथ चिल्ल्लाने लगे हैं। लगता है कि वे किसी चैनल के प्राइम टाइम बहस में अपनी पार्टी का पक्ष रखने लगे हों। आवाजों में लगता है मारपीट सी होने लगी है।कुच्छ सुनाई नहीं दे रहा है।
तितलियाँ फूलों पर मंडरा रही हैं। चपल चंचला रँगबिरँगी। तितलियों को देखकर एक नाटक का यह डायलॉग याद आ गया- "रिश्ते रँगबिरँगी तितलियों की तरह होते हैं।कसकर पकड़ने से उनके परों का रंग छूट जाता है।धीरे पकड़ने पर वे उड़ जाती हैं।" यह बात लिखते हुए अपने तमाम खूबसूरत रिश्ते याद कर रहा हूँ।
धूप में आलू के पराठे खाते हुए सूरज भाई से बतिया रहे हैं।सूरज भाई चाय की फरमाइश कर रहे हैं। आप के लिए भी मंगाए?
(यह फ़ोटो जबलपुर से 60 किमी दूर पायली का।यहाँ हम लोग मकर संक्रांति के दिन पिकनिक मनाने गए। पानी पर जगह-जगह धूप के चकत्ते से पड़े हुए थे।अद्भुत नजारा।)
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