Sunday, August 09, 2015

सब अपनी मर्जी की करत हैं

गुड्डू पुत्र रामफल यादव
आज दिन भर आराम करते ही बीती। बीच में कुछ पोस्ट फेसबुक से उठाकर ब्लाग पर डाली।घर में और कुछ मित्रों से बतियाये भी। कुछ ने हड़काया भी कि ख्याल क्यों नहीं रखते अपना।

लेटे-लेटे पढ़ते या बतियाते हुए कई बार अपनी पसंदीदा मुद्रा पेट के बल लेटने को हुए। लेकिन ऐन टाइम पर दो दिन पहले का बवाल याद आ गया। फिर सीधे हो गए।

शाम को साइकिल स्टार्ट करके टहलने निकले।कई दिनों से रामफल के यहां जाने की सोच रहे थे। लेकिन जा नहीं पा रहे थे। आज गए तो रामफल का बड़ा बेटा गुड्डू मिला। घर में पत्नी पूजा बिटिया प्रिया थे। बिटिया तखत पर आराम से लेटी थी। हमारे पहुंचने पर उठकर अंदर चली गई।

रामफल के न रहने के बाद पहली बार आये थे उनके घर। पता चला रामफल के ऊपर आठ दस हजार का कर्ज था। चूँकि फल खुद लाते नहीं थे। कोई दूसरा देता था उसके फल बेचते थे। कभी नुकसान हो जाता था। लब्बोलुआब यह कि कर्ज छोड़ गए रामफल।

रामफल की ठेलिया उनकी पत्नी ने कर्ज चुकाने के लिए फल के ठेकेदार को बेच दी। बकौल गुड्डू-'माताराम ने कर्ज पटाने के लिए ठेलिया बेच दी। वो छोटे भाई के साथ रहती हैं। फिर पिताजी की निशानी के रूप में उसे हमने (गुड्डू) पैसे देकर वापस खरीद लिया।'

ठेलिया तो ले ली पिताजी की लेकिन उसको लगाने के लिए पैसे नहीं गुड्डू के पास। ठेकेदार उधार माल नहीं देता। घर का खर्च चलाने के लिए गुड्डू लेबर का काम करने लगे। बड़ा बेटा (जो इंटर पास है) एक जगह चौकीदारी करता है। छोटा बेटा हाईस्कूल में पढ़ता है। बिटिया इंटर पास करके एक जगह 'टैली' सीखने जाती है। 500 रूपये महीने फ़ीस है।


कंचनपुर के सूरज विदा होते हुए
हमने गुड्डू से पूछा कि तुम फल का काम क्यों नहीं करते। तो बताया कि फल लाने के लिए पैसे नहीं। हमने पूछा कितने पैसे? तो बताया- 5000/- रुपये से काम हो जायेगा। हमने कहा-अच्छा 5000 रूपये हम तुमको आज दे दें या दिला दें तो कब से फल का काम शुरू कर दोगे? बोले-कल से।

हमने गुड्डू से फिर पूछा कि सही में फल का काम करना चाहते हो या हमारे कहने पर कर रहे। बोले-सही में करना चाहते हैं। हमने कहा-अच्छा हम कमरे पर पहुंचकर फोन करेंगे तब आना और ले जाना पैसे।

उस समय हमारे पर कुछ जमा 55 रूपये थे। जो की कमरे पर लौटते समय तक 10 रूपये हो गए। बाकी का साबुन सर्फ ले लिया। बाकिया सब पैसे बैंक में हैं। एटीएम खराब था। नया मिल गया है लेकिन उसका पिन आलस्य के चलते अभी तक लाये नहीं। मेस में आये तो जिसके पास पता किया उसके पैसे बैंक में ही हैं। अभी एक मित्र को बोला है। वो निकाल के लाएगा फिर उससे उधार लेकर गुड्डू को उधारी देंगे।

गुड्डू की बिटिया प्रिया से हमने पूछा कि क्या शौक है। खाली समय में क्या करती हो। तो उसने बताया-सोते हैं। हमने पूछा-पढ़ने का शौक है। तो बोली -हाँ भैया की अप्रेंटिस की किताबें पढ़ते रहते हैं। अप्रेंटिस की किताबें मतलब साधारण गणित और सामान्य ज्ञान जैसी किताबें। हमने कहा हम तुमको कहानी की किताबें देंगे वो भी पढ़ना।

रामफल के यहां से निकलकर आधारताल की तरफ गए। सूरज भाई टाटा करते हुए विदा हो रहे थे। सड़क पर लोग आ-जा रहे थे। सड़क किनारे के ही कुछ खेतों में लोग धान की रोपाई कर रहे थे।

आधारताल के पास बहुत भीड़ थी सो लौट आये।

ओवरब्रिज के पास दीपा का ठिकाना है। वहां गए तो पता चला कि वह बगल के अहाते में खेलने गयी है।रास्ते से उसके लिए बिस्कुट का पैकेट लिया था। सो बगल के अहाते गए। वहीं खेलती हुई दीपा दिखी। बिस्कुट लेकर थैंक्यू अंकल बोलकर टाटा करके अंदर चली गयी।

शोभापुर रेलवे क्रासिंग के पास बैरियर बन्द होने जा रहा था। लपकते हुए बैरियर पार किया।रास्ते में साईकिल की चेन उतरी। पहली बार। चेन चढ़ाते हुए हाथ में लगी ग्रीस को सड़क किनारे की घास से पोछ लिया।

मेस के पास दो ऑटो में कुछ महिलाएं बैठी दिखीं। ऑटो में बिजली के हंडे और जनरेटर लदे थे। बारात के बैंड के साथ चलने वाली लाइट थी। महिलाएं उनको सर पर लादने के लिए थीं। रांझी में रहती हैं। 10 महिलाएं थीं। बारात के साथ बिजली का हंडा लादकर चलने के 100 रूपये मिलते हैं। काम तो एक से दो घण्टे का। लेकिन कुल मिलाकर 4 से 5 घण्टे लग जाते हैं। कुछ टूट-फुट जाए तो उसके पैसे कटते हैं।

बात करते हुए एक महिला बोली-आदमी चाहे जित्ता कमाता होय लेकिन जबलपुर है यह। यहां औरत को काम करना ही पड़ता है। आदमी जो कमाता है वो दारु में उड़ा देता है। बच्चों को पालने के लिए औरत को खटना पड़ता है। अब बच्चों को तो पलना पड़ता है न। उनको आराम जिनके बच्चे नई हैं।

हमने पूछा-आदमी को टोकती नहीं हो दारु पीने से।इस पर सब हंसने लगीं।एक बोली-टोंक के किसको कुटाई करवानी है? सब अपनी मर्जी की करत हैं। इससे अच्छा चुपे रहो।

जिस गाड़ी से बरात आ रही थी वह पंचर हो गयी थी। इसलिए उसके आने में देर हुई। उनको बरात के इन्तजार के लिए छोड़कर हम कमरे पर चले आए।

No comments:

Post a Comment