Tuesday, July 14, 2015

हम न मरब -एक बात

सबेरे सबेरे बाहर निकले तो चिडियां जोर-जोर से चहचहा रहीं थीं। ऐसा लग रहा था कि किसी राजनीतिक पार्टी के स्वयंसेवक अपने सर्वमान्य नेता की शान में कसीदे कढ़ रहे हों। सबमें जबर कम्पटीशन सा हो रहा था। कोई चिचियांती तो दूसरी उससे तेज से चिल्लाने लगती। हर स्वयंसेवक को डर लगता है कहीं नेता जी के जयकारे में वह दूसरे स्वयंसेवक से पीछे न रह जाये। हमको बाहर आता देखकर चिडियां और तेजी से चिल्लाने लगीं जैसे किसी दूसरे नेता के अनुचरों को देखकर पहले नेता के अनुयायी और तेजी से आंख मूंदकर जयकारा लगाने लगते हैं।

पुलिया पर एक भाई जी अपने बेटे को योग शिक्षा दे रहे थे। आल्थी पाल्थी मारे बालक को कपालभाति सिखा रहे थे। बोले बच्चा कमजोर है। योग से बीमारी में फ़ायदा हुआ है। बच्चा 9 साल का है। कक्षा 5 में पढता है। बच्चे का मन योग में लग नहीं था। उसके स्कूल का समय हो गया था। पिता अपने बच्चे को साथ लेकर चला गया।
हनुमान मंदिर के बाहर मांगने वालों का जमावड़ा आज मंगलवार होने की मुनादी कर रहा था। एक महिला भिखारिन दूसरी से आटो से आने के अपने अनुभव साझा कर रही थी। दिल्ली में शायद किसी मंदिर के भिखारी मेट्रो से भीख मांगने आने के किस्से सुनाते हों। क्या पता चला भविष्य में बुलेट ट्रेन से के अनुभव भी साझा करें मांगने वाले लोग।

चाय की दुकान पर बच्चे ने बताया कि वह सुबह 3 बजे उठ जाता है। चार बजे तैयार होकर पांच बजे तक दुकान आ जाता है। उसके चमकते दांत से लगता है कि अभी तक वह पान मसाले और तम्बाकू घराने की किसी आदत के चंगुल में नहीं फ़ंसा है।

साइकिल में हवा कम थी। चाय की दुकान पर ही एक साइकिल वाले से हवा भरवाई। साइकिल मरम्मत करने वाला पहले एक ठेकेदार के साथ काम करता था। वह समय पर पैसा नहीं देता था।

अब साइकिल मरम्मत के काम से काम भर की कमाई हो जाती है। अपने आठवी में पढ़ते बच्चे को साइकिल मरम्मत करना सिखा रहा था यह कहते हुये -- पढ़ाई-लिखाई कौन बाप नहीं करवाना चाहता अपने बच्चे को। यह भी जाता है स्कूल। बाकी हुनर डाल दे रहे हैं आगे काम आयेगा कभी।

फ़ैक्ट्री के सामने ट्रेलर में बंगलौर के पास होसुर से सामान लाये ड्राइवरों से बात हुई। पांच दिन पहले चले थे होसुर से। खलासी छुट्टी पर गया है सो अकेले चलाते हैं ट्रक। रात के 9 बजे सुबह के 4 बजे तक सोते हैं। बाकी समय ड्राइवरबाजी करते हैं। खाना खुद बनाते हैं। पूरी गृहस्थी सरीखी साथ लेकर चलते हैं। बात करते-करते लुंगी उतारकर बरमूड़ा धारण करते हुये बताया ड्राइवर महोदय ने।

फ़ैक्ट्री के पास एक बुजुर्ग कन्धे पर झोला लटकाते फ़ुटपाथ पर आराम से बैठे थे। एकबारगी तो लगा कि हनुमान मंदिर जाने में लेट हो गये मांगने के लिये तो यहीं बैठ गये। लेकिन बात करने पर पता चला कि जीसीएफ़ से रिटायर हैं। 25 साल पहले। कंचनपुर में रहते हैं। जौनपुर के रहने वाले हैं। लड़का वकील है। मनोज मिश्र के ब्लाग में जौनपुर के बारे में पढकर जो याद रहा था बुजुर्ग के चेहरे पर चमक आ गई और पूछे- उधरै के हौ का?

हमने बुजुर्ग वार का फ़ोटो खैंचने के लिये मोबाइल का कैमरा आन किया लेकिन कैमरा ’भैंचो’ ( Gyan Chaturvedi जी के उपन्यास ’हम न मरब’ में बहुतायत् में इस्तेमाल शब्द) फ़िर नखरे करने लगा। चला ही नहीं।

ये शब्द ज्ञान चतुर्वेदी जी के आजकल चर्चित उपन्यास ’हम न मरब’ के बब्बा जी का तकिया कलाम है। बब्बा बिना गाली बात नहीं करते। विद्वान लोगों में आजकल इस उपन्यास की चर्चा हो रही है। पक्ष और विपक्ष में शास्त्रार्थ हो रहा है। इसी शास्त्रार्थ से प्रभावित होकर हमने उपन्यास निकालकर पढ़ना शुरु कर दिया है। मजेदार और रोचक उपन्यास पढ़ने का आनन्द उठा रहे हैं।

इस उपन्यास में और चीजों के अलावा हमारे सूरज भाई भी हैं। एक जगह ज्ञानचतुर्वेदी जी लिखते हैं:
"हवा का सर्द झोंका आया और अंगीठी की लपटों पर हाथ सेंककर उड़नछू हो गया। कोहरा प्रतीक्षा कर रहा है कि धूप इधर काम पर आये तो उसकी ड्यूटी खतम हो। पर सूरज है कि लिहाफ़ ओढे पड़ा है स्साला।"
सूरज भाई के लिये स्साला पढकर रुक गये हम। लेकिन फ़िर लगा कि उनके ज्ञानजी ज्यादा दोस्ताना संबंध होंगे।

इस उपन्यास पर हुई चर्चा और बहस और आलोचना पढ़ते हुये माननीय व्यंग्यकारों के मीठे बयान बांचकर लगा कि उसको अगर कोई डायबिटीज का मरीज पढ़ ले तो अस्पताल में भर्ती कराना पड़े।

एक कम ख्याति वाले लेखक ने इस उपन्यास की गालियों के आधारपर खिंचाई कर दी तो ज्ञानजी के समर्थक प्रशंसक उस पत्रिका (व्यंग्य यात्रा) के संपादक का वाचिक भरतमिलाप करने लगे। मानो ज्ञानजी की किताब कोई बतासा है जो किसी की आलोचना में घुल जायेगा।

अरे भाई अगर लगता है कि कोई लिखने वाला कम अकल है। उसने तमीज से आलोचना नहीं की तो किसी डाक्टर ने कहा है उसका नोटिस लेने के लिये। ऊलजलूल बातों से ऐसा डरने लगे तो हर लोकतांत्रिक देश के मंत्री दिन में पचास बार इस्तीफ़ा देते।


अभी तो हम उपन्यास पढ़ना शुरु किये हैं। इसके बारे में जब पूरा पढ़ लेंगे तब ही कुछ कह पायेंगे लेकिन यह जरूर सोच रहे हैं कि व्यंग्य जो कि दोहरे पन को बेनकाब करने का औजार माना जाता है उसी का झंडा उठाये लोग आपस में इतनी चक्करदार बातें करेंगे तब तो हो चुका व्यंग्य लेखन।

रागदरबारी लिखने के अनुभव साझा करते हुये श्रीलाल शुक्ल जी ने लिखा था- "गंवार चरित्रों के साथ रहते-रहते मेरी भाषा भी उन जैसी हो गयी थी।"

"हम न मरब" के पढ़ने की शुरुआत करते ही लगता है कि बब्बा जी का तकिया कलाम हमारे की बोर्ड पर आकर जबरदस्ती बैठ गया। गजब किताब है .........।

फ़ेसबुक पर टिप्पणियां :

  • Alok Puranik ज्ञानरंजन जी नहीं ज्ञान चतुर्वेदीजी के नावेल से है-भैंचो। जमाये रहिये। एकदम सही पकड़ै हैं- व्यंग्य जो कि दोहरे पन को बेनकाब करने का औजार माना जाता है उसी का झंडा उठाये लोग आपस में इतनी चक्करदार बातें करेंगे तब तो हो चुका भैंचो व्यंग्य लेखन। मेरा तो सिर्फ यही कहना है कि सब मिले हुए हैं जी।
  • Shailendra Kumar Jha मेरा तो सिर्फ यही कहना है कि सब मिले हुए हैं जी।.............sachhi me app dono bhi mile hue ho ji
  • राजेश सेन अनूपजी, आपके इस जबरदस्त 'बखिया-उधेडु' व्यंग्य लेखन पर इमानदारी से चर्चा हो तो न जाने कितने "दोहरेपन" बेनकाब हो जाये ! आपने सही कहा - " व्यंग्य जो दोहरेपन को बेनकाब करने का औजार माना जाता है उसी के झंड़ाबरदार..... !" आजकल यह देखा जा रहा है कि यह 'औजार ' अपनी ही कौम की हत्या में मशगूल है ! भई वाह , मेरे लिये तो इस बहस की दलीलें पढना रूचिकर अनुभव है !
  • Ram Kumar Chaturvedi कहां से कहां पहुचो यह कोई आपसे सीखे।चिड़ियों की चहचहाहट से गाली बाजी तक पहुंचना भी कला ह।ै
  • Ram Singh व्यंग्य बकने - बकाने , झक्क झकी बखानने का औजार है , संसद के ध्यानाकर्षण प्रस्ताव सरीखा ।चटपटा चटखीला मिक्स अचार की मांनिंद ।चर्चित है तो चोखा है । बाजार में तीखा नमकीन जल्दी बिकता है ।
    मानना पड़ेगा आलोचना भी किसी कृति को महान बनाने की क्षमता
    रखती है , गाली गलौच ही दोस्ताना वार्तालाप कहला जाती है ।जैसे फूहड़ चुटकुलों ने हास्य के मंचों को हथिया लिया है , वैसे व्यंग्य लेखन ओछे करतबों से गुरेज करता नजर नहीं आ रहा !

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