कल से सिविल सेवा परीक्षा में 4 लड़कियों के टॉप करने की खबर सुन रहे हैं। आज उनके इंटरव्यू भी सुने। यह भी पता चला कि टॉपर इरा सिंघल, जो कि 2010 में आईआरएस के लिए चुन ली गयीं थीं, को उनके विभाग ने ज्वाइन नहीं कराया क्योंकि वे शारीरिक रूप से असशक्त थीं। उनके पिता ने बताया कि वे विभाग के निर्णय के लिए कैट गए। जिसने 4 साल में इरा सिंघल के पक्ष में फैसला दिया। कैट ने फैसला सुनाते समय मुख्यतया यही बात ध्यान में रखी होगी कि इरा की शारीरिक रूप से अपना काम करने में सक्षम है। इस फैसले में कानूनी नुक्ते से ज्यादा सहज बुद्धि की भूमिका रही होगी।
इरा के विभाग के जिन लोगों ने इरा को 4 साल ज्वाइनिंग के लिए इन्तजार कराया वे भी इसी सिविल सेवा से आये होंगे। लेकिन उन्होंने इरा के पक्ष में निर्णय लेने के बजाय उनको कैट की तरफ हांक दिया कि वे वहां से अपना हक लाएं। यह सिविल सेवाओं में अधिकारियों के सीनियर होने के साथ उनके निर्णय क्षमता में सहज बुद्धि के न्यूनतम होते इस्तेमाल का मुजाहिरा है। देश के सबसे आला दिमाग वाले लोग वह निर्णय नहीं कर पाते हैं जो उनसे कम जहीन माने जाने वाले लोग (न्यायालय सेवाओं में जाने वाले लोग आमतौर पर सिविल सेवाओं में जाने में असफल रह गए लोग होते हैं)।
इरा के इस साल टॉप करने में भी उनके विभाग के इस निर्णय (उनको ज्वाइन न कराने के) की जरूर भूमिका रही होगी। उनके परिवार का सहयोग रहा जिससे वे और लगन से जुटी और इस बार टॉप किया।
इस बार यूपीएससी ने इंटरव्यू खत्म होने के चार दिन के अंदर ही परिणाम घोषित कर दिए। मुझे पता नहीं इन टॉपर्स के इंटरव्यू कब हुए लेकिन अगर वे इंटरव्यू के आखिरी दौर में हुए तो बड़ी बात नहीं कि इसमें बच्ची के साथ फोटो (सेल्फ़ी विद डॉटर ) की भी परोक्ष भूमिका रही होगी। जिस बोर्ड में इनके इंटरव्यू हुए होंगे उनके सदस्य 'सेल्फ़ी विद डॉटर' अभियान से प्रभावित रहे होंगे और प्रतिभाशाली लड़कियों को साक्षात्कार में नम्बर देने में कुछ उदार रहे होंगे।
सिविल सेवा में सभी चयनित लोग बहुत मेधावी होते हैं । विभिन्न विषयों में पाये गए नम्बरों में स्केलिंग और उसके बाद इंटरव्यू में कुछ नम्बर कम ज्यादा होने से मेरिट में बहुत अंतर हो जाता है। किस फैक्टर ने कहाँ फर्क डाला नम्बर में इसका अंदाज लगाना कठिन होता है।
जो भी हो यह बहुत ख़ुशी की बात है कि देश की सबसे प्रतिष्ठित माने जाने वाली परीक्षा में लड़कियां पहले चार स्थानों पर रहीं।
आज सुबह जब इरा और अन्य टॉपर के इंटरव्यू सुन रहे थे उसी समय घर के गेट पर दो बच्चियां और एक महिला आयीं और हमसे पूछा -अंकल जी घास छील लें?
अंदर आकर वे घास छीलने लगीं। घास अपने घर के जानवरों के लिए छील रहीं थीं। एक बच्ची, जिसका नाम आयशा था, के बाएं पैर में चोट लगी थी। ईंट गिर जाने से। कुछ दिन पट्टी के बाद दवा बन्द कर दी। चोट अभी भी ठीक नहीं हुई है।
12 साल की बच्ची को पढ़ना-लिखना नहीं आता। स्कूल कुछ दिन गयी लेकिन फिर छूट गया। पिता कबाड़ का काम करते हैं। तीन भाई हैं बच्ची के। वो स्कूल जाते हैं लेकिन बच्ची का स्कूल जाना बन्द हो गया। बाप गरीब हैं इस लिए स्कूल नहीं भेजते इसको- साथ की महिला ने बताया।
कुछ देर बाद जब जाने लगे वो लोग तो मैंने बच्ची से कहा -कम से कम कुछ पढ़ना-लिखना तो सीख लो। नाम ही लिखना सीखो । अंकल जी ये अपना नाम लिख लेती है -साथ की बच्ची गुलुफ्ता ने बताया।
हमने कहा लिख कर दिखाओ तो आयशा ने जमीन साफ़ की। जमीन पर ही हाथ से ही नाम लिखने के इरादे से। लेकिन फिर संकोचवश नहीं लिखा।
एक दूसरे के सर पर घास के गट्ठर लदवाकर वे चलीं गयीं।
हम बहुत देर तक देश के दो ध्रुवों जैसी स्थितियों पर खड़ी लड़कियों की स्थिति पर सोच रहा था। एक तरफ लड़कियां देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा में टॉप कर रही हैं। दूसरी तरफ ये बच्ची भी है जिसको इतनी बुनियादी शिक्षा भी हासिल नहीं हो पाती कि 12 साल की उम्र तक अपना नाम तक नहीँ लिख पाती।
पता नहीं कब यह अंतर कम होगा और देश के सारे बच्चे कम से कम बुनियादी तालीम हासिल कर सकेंगे।वह भी तब जब सरकारें दिन पर दिन सस्ते सरकारी स्कूल बन्द करतीं जा रहीं हैं।
अभी के चलन से तो 'सेल्फ़ी विद डॉटर' वाले परिवार और घास छीलने वाली बच्ची के परिवार के बीच का अंतर बढ़ता ही दीखता है।
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