Sunday, August 16, 2015

एक हॉकर की जिंदगी

इन भाईजी का नाम है राजेश मिश्रा। हमारे यहां पिछले 14 साल से अख़बार देते हैं। शुक्लागंज में रहते हैं। शुक्लागंज मतलब उन्नाव से आर्मापुर तक अख़बार बांटने आते हैं। मतलब रोज कम से 50 -60 किमी साइकिलिंग करते हैं। 

मिसिर जी का दिन सुबह ढाई बजे शुरू होता है। सुबह उठकर 3 बजे तक शुक्लागंज से चलकर रेलवे स्टेशन आते हैं। वहां अख़बार लेते हैं। फिर स्टेशन से  शुरू करके अख़बार बांटते हुए अर्मापुर तक आते-आते 7 से 8 तक बज जाते हैं।

अख़बार के ग्राहकों से भले मिसिर जी भगतान महीने के महीने या तीन महीने लेते हों लेकिन स्टेशन से एजेंसी से अख़बार सब्जी की तरह खरीदते हैं। पैसा का भुगतान रोज का रोज करते हैं। 1500 रूपये के अख़बार रोज खरीदकर बांटते हैं।

उन्नाव जिला के तकिया गाँव के रहने वाले हैं राजेश जी। 7 किमी दूर है उन्नाव से। चार बीघा खेती है। बच्चे हैं नहीं। मियां बीबी दो जन का खर्च चल जाता है हॉकरी और खेती से।
तीन चार साल पहले मिसिर जी से बात हुई तो बोले-आँख से दिखाई कम पड़ता है। आपरेशन करवाना है लेकिन करवा नहीं पा रहे क्योकि फिर एक महीने अख़बार नहीं बाँट पाएंगे। ग्राहक छूट जाएंगे।।

हमने सुझाव दिया कि कोई दूसरा लड़का रख लो एक महीने के लिए। बाँट देगा अखबार एक महीने। इस पर बोले-नहीं हो पायेगा साहब। कहीँ का अख़बार कहीँ पड़ जाएगा। 

कल फिर मिसिर जी मिले तो हमने पूछा-आपरेशन करवा लीजिये मिसरा जी। फिर वही बात कही उन्होंने-ग्राहक छूट जाएंगे। 

हां लेकिन अबकी हमने मिसेज का आपरेशन करवा दिया आँख का। 27 हजार रुपया खर्च हुए। हमने फिर कहा-अपना भी करवा लो। बता देना लोगों से। सब हो जाएगा।

इस पर बोले मिसिर जी-अब बस कुछ दिन की बात और। फिर गांव चले जाएंगे। वहीं रहेंगे। 58 के होने वाले हैं।लगता है हॉकर का काम छोड़ने के बाद ही आँख का इलाज करवा पाएंगे। इस बार आँख के अलावा साँस भी फूलती लगी। 

गाँव जाने के तर्क बताते हुए बोले- वहां लुंगी बनियाइन पहने भी घुमेंगे तो कोई टोंकने वाला तो नहीं होगा। यहां बिना शर्ट पैंट घर से निकलने में शरम। दूसरी बात गाँव में जो घर में होगा वह खाएंगे। यहां शहर में तो बाजार में तो पचास चीजें देखकर जीभ लपलपाती है। गाँव चले जाएंगे। जित्ता है उत्ते में गुजर हो जायेगी आराम से।

बाजार में बढ़ते उपभोक्तावाद से बचने का यही उपाय है कि अपनी आवश्यकताएं कम की जाएँ। लेकिन बाजार के बीच रहकर उसके आकर्षण से बचना कितना कठिन काम है। जिनके पास पैसा है उनका पैसा जीने की जरूरी चीजों से इतर बातों में ही खर्च होता है। तमाम लोगों की जितनी आमदनी महीने की होगी उतना तो कई लोगों का फोन, मोबाईल, नेट  का बिल का खर्च होगा।

कल जब हमने कहा -मिसरा जी रुको चाय पी के जाना। इस पर  वो बोले- नहीं साहब, केवि (केंद्रीय विद्यालय) स्कूल में अख़बार देना है अभी। वहां लोग इंतजार कर रहे होंगे।

राजेश मिश्रा जी के बारे में लिखा सिर्फ इसलिए कि कभी आपके यहां अख़बार देरी से आये तो यह न सोंचे कि  हॉकर  लापरवाह है या बदमाश। उसकी भी कुछ समस्याएं हो सकती हैं। है कि नहीं। :)

2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ख़बरों के टुकड़े - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. विल्कुल सत्य भ्राता श्री

    हम देख रहे है ,, यह रोज क्योकि हम भी लगाते हे ठिया अखवार का ,,, कस्टमर रोज नये होते है ,, लेकिन उलाहना सब का एक ही होता है ,,, टाईम से नही पहुंचाया अखबार ?

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