Monday, May 16, 2016

यही तो छोटे-छोटे सुख हैं

सबेरे-सबेरे बरामदे में बैठे चाय पी रहे हैं। अगल-बगल मच्छर उड़ रहे हैं। थक जाने पर हाथ, पैर, मुंह, कंधे मतलब जहाँ मन किया वहीँ बैठ जा रहे हैं। जैसे अपने यहां के घपलेबाज जहाँ मन आता है घपला कर लेते हैं, पान-मसाला खाने वाले जिधर जगह साफ दिखती है थूक देते हैं वैसे ही मच्छरों को भी जहाँ जरा जगह दिखी बैठ जा रहे हैं। कुछ देर बैठकर, आराम करके फिर उड़ जा रहे हैं। जिनको भगा रहे हैं वे फ़ौरन वापस आ रहे हैं। जो अपने आप जा रहे हैं वो देर में लौट रहे हैं।

भुनभुना नहीं रहे हैं मच्छर। शायद रात भुनभुनाते हुए थक गए हों। गला बैठ गया हो। वैसे भी मच्छर भुनभुनाते हैं क्या ? वो तो उड़ने के लिए पंख फड़फड़ाते हैं। पंख के बीच जो हवा फंस जाती होगी वही हल्ला मचाती होगी -'बचाओ, बचाओ, बचाओ।' क्या पता नारा भी लगाती हो-'हमको चाहिए आजादी, मच्छरों के चंगुल से आजादी।'

मच्छर खून नहीं चूस रहे। यह भी हो सकता है कि रात भर सोये हुये लोगों ’खून लंगर’ चख चुकने के बाद ’अफ़रे पेट’ हों। और अधिक खून चूसने का मन न हो। या शायद यह भी हो सकता है कि मच्छर की नाजुक सूंड़ हमारी मोटी खाल में घुस न रही हो और इसी बात से मच्छर खफ़ा हो रहा हो। भुनभुना रहा हो।

क्या पता मच्छरों की दुनिया में भी जो मच्छर किसी कारणवश खून चूस नहीं पाते हों उनके लिये दूसरे मच्छर कोई व्यवस्था करते हों। सूंड़ भरकर खून लाते हों और मच्छरों की सूंड़ में उड़ेल देते हों। मच्छर तृप्त होकर अपने फ़ेसबुक स्टेट्स अपडेट करते हों- ’यम्मी खून। मजा आ गया। फ़ीलिंग हैप्पी।’

हो सकता है जो मच्छर खुद खून न चूस पाते हों वे वहां विशेषज्ञ मच्छर हों जो योजना बनाते हों कि किसी इंसान की खून की चुसाई किस तरह करनी है।उनकी योजनाएं भी हमारे विशेषज्ञों की भुखमरी से बचाने की योजनाओं की तरह फ्लॉप होती हों और करोड़ों मच्छर इंसानों की तरह भूखे मर जाते हों।

जो भी हो मच्छरों की भुनभुनाहट की आवाज नहीं आ रही। क्या पता उन्होंने भी अपने पंखो में साइलेन्सर फ़िट करा रखे हों। ये साइलेन्सर भी शायद दिन में सौर ऊर्जा से काम करते होंगे इसीलिये दिन में भुनभुनाहट नहीं सुनाई देती। लेकिन रात होते ही सूरज के अस्त होने पर साइलेन्सर काम करना बन्द कर देते होंगे और भुनभनाहट सुनाई देने लगती हो।

अगर ऐसा है तो हमको मच्छरों से सौर ऊर्जा तकनीक लेकर उनको बैटरी तकनीक देने का समझौता करना चाहिए। फ़ौरन कोई मंत्रिमंडल कांगो-सोमालिया के मच्छरों से उच्चस्तरीय वार्ता के लिए भेज दिया जाना चाहिये जैसे भारत में हिंदी प्रचार-प्रसार के लिये सम्मेलन अमेरिका में होते हैं। सम्मेलन घटनास्थल से जितनी दूर हों, उतने ही अधिक सार्थक होते हैं।

लेकिन हो यह भी सकता है कि मच्छर भुनभुना रहे हों पर बगीचे में पक्षियों की आवाज के हल्ले-गुल्ले में उनकी आवाज दब जाती हो। जैसे बड़े शहरों के हाई प्रोफ़ाइल चोंचलों, घपलों, घोटालों के हल्ले में आम जनता की परेशानियों की आवाज दब जाती हो। सूखे में भूख से मरने वालों की खबर पनामा घपले में डूब जाती है।

बाहर जो पक्षी हल्ला मचा रहे हैं उनमें मोर की आवाज सबसे तेज सुनाई दे रही है। केहों, केहों, केहों कर रहा है। शायद मर्द मोर है। डांस के लिये तैयार होकर मोरनी को बुला रहा है- कहां हो, कहां हो, कहां हो? हम तुम्हारे लिये नया डांस करने वाले हैं। जल्दी आओ। कम फ़ास्ट, बि क्विक।

मोर की केहों-केहों बहुत तेज है। दूसरे पक्षी धीमें-धीमे हल्ला मचा रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज भी साफ़ सुनाई दे रही है। होता क्या है जब मोर तेज हल्ला मचाकर जहां सांस लेने के लिये रुकता है उसी बीच कोई छोटा पक्षी जल्दी-जल्दी चींचींचींचीं करके केहों, केहों, केहों के बाद ही या साथ ही अपनी आवाज रिकार्ड करा देता है। कुछ चींचींचींची तो इतनी तेज हैं कि ’के’ और ’हों’ के बीच की जगह में ही घुसकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा देती हैं।

पक्षी अपना ’प्रभात राग’ गाते हुये शायद आपस में बतिया भी रहे हो। कोई पक्षी अपने छुटके-छुटकी की शरारतें बताते हुये कह रही हो- ’ये मेरी छुटकी तीन दिन की हुई नहीं एक-डाल से दूसरे पर फ़ुदकने लगी है। कल तो बगल के पेड़ पर जाने के लिये उड गयी। पंख फ़ड़फ़ड़ाये तो मैं सोची कि इसी पेड़ की किसी डाल पर जा रही होगी। पर ये शैतान तो पडोस के पेड़ की तरफ़ फ़ड़फ़ड़ाते हुये चली गयी। मेरा तो कलेजा बैठ गया। मैंने इत्ती तेज चिंचिंयाया कि मेरा तो गला ही बैठ गया। साथ ही मैं भी। लेकिन जरा ही देर में यह सामने पेड़ पर पहुंच गयी तो मारे खुशी के मेरे आंसू आ गये। बदमाश ने वहां से चोंच खोलकर, आंख मारते हुये कुछ किया तो मुझे कुछ समझ नहीं आया पर मैंने भी वैसे ही कर दिया। बाद में इसने बताया कि वो ’फ़्लाइंग किस’ था माने ’उड़न पुच्ची’। हमको तो बड़ी शरम आयी। लेकिन फ़िर अच्छा भी लगा। देख तो अभी भी गुदगुदी हो रही है छाती में।

दूसरी ने छाती को अपनी चोंच और गाल से छुआ और मुस्कराते हुई बोली - हां री, सच में। तेरा दिल तो धक-धक कर रहा है। आज से तेरा नाम ' धक-धक चिड़िया' नहीं चिड़िया नहीं वर्ड रख देते हैं। तू हमारी 'धक-धक वर्ड।' सुनकर चिड़िया मुस्कराई। पर उसके ऊपर मम्मीपना इत्ता हावी था कि अपने याद किये डायलॉग बोलने लगी।

वो बोली-'यही तो छोटे-छोटे सुख हैं अपनी हम लोगों की जिन्दगी में। बच्चे अपने उड़ना सीख जायें, कूड़े से दाना-पानी लाना सीख जायें, घोसला-वोसला बनाना आ जाये बस और क्या चाहिये हमको। कौन हमें अपने बच्चों को हाईस्कूल कराना है, इंजीनियर-डाक्टर बनाना है।'

बरामदे में इतना लिखने के बाद मोबाइल बैटरी बाय-बाय करने लगी। हम अन्दर कमरे में आ गये। लेकिन फ़िर लिखने का कुछ सूझ ही नहीं रहा था। हमने सोचा चक्कर क्या है? फ़िर ध्यान से देखा तो ’कल्पना’ बाहर तख्त पर ही पसरकर अंगड़ाई ले रही है। बहुत खूबसूरत जमाऊ सी लग रही थी ’कल्पना शक्ति’ उर्फ़ इमेजिनेशन पावर। मन किया कि स्माइली लगाकर गुडमार्निंग कर दें लेकिन फ़िर नहीं किया। डर लगा कि कहीं इसका भी फ़ेसबुक खाता होगा तो पक्का मेरी चैट का स्क्रीन शाट अपनी वाल पर टांगकर अपने फ़ेसबुक मित्रों को बतायेगी कि देख लो इन बुढऊ की हरकतें। हम इनको लेखक समझते थे लेकिन ये तो गुडमार्निगिये निकले। :)

हमने स्माइली लगाकर गुडमार्निंग तो नहीं कहा लेकिन कहा -’आओ चलो अंदर वहीं मेरे दिमाग में बैठकर आराम से पसरना।’ लेकिन वह बदमाश नहीं मानी तो मानी। उल्टे उसने धमका भी दिया कि ज्यादा करोगे तो जो जूठन छोडी है दिमाग में वह भी साफ़ कर दूंगी। हमको डिस्टर्ब मत करो। अपने बंद दिमाग में बुलाने की जिद मत करो। कौन सुर्खाब के पर लगे हैं वहां जो आ जायें दिमाग में तुम्हारे। जरा खुले में आराम से सांस लेने दो। पता नहीं कब यह हवा जहरीली हो जाये।

बहरहाल सुबह हो गयी है। अब आपसे तो कम से कम गुडमार्निंग तो कर ही सकते हैं। आप तो हमारे मित्र हैं आप तो बुरा नहीं मानेंगे न! है न ? 














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