आलोक पुराणिक और कमलेश पाण्डेय के साथ अनूप शुक्ल |
1. कार्ल मार्क्स (विसंगतियों की समझ के लिये)
2. लोहिया (भारतीय समाज की समझ के लिये)
3. ओशो (भारतीय संस्कृति और परम्परा समझ के लिये)
यह बात Alok Puranik ने कल एक बार फ़िर से कही जो वो अक्सर कहते रहते हैं। लेकिन यह तो बाद की बात है। पहले का किस्सा तो सुनिये पहले :)
कल हमारे काम निपट गये तो हमने सोचा कुछ दोस्तों से मिल लें। सो फ़ेसबुक पर सूचना चिपकाई - ’दोपहर 2 बजे से शाम 5 बजे तक दिल्ली में मंडी हाउस (श्रीराम सेंटर के पास चाय की दुकान पर) रहेंगे। जो मित्र आसपास हों और आ सकें तो आएं उधर। चाय तो पिलाएंगे ही।’
Srijan Shilpi का। फ़ोन के पीछे-पीछे वह खुद भी आ गये। ’काल ड्रापिंग’ का हल्ला इतना ज्यादा मचा हुआ है आजकल कि पहुंचकर पूछता है -फ़ोन मिला कि नहीं :)
आलोक पुराणिक , राजकुमार , सुधीर तिवारी और अनूप शुक्ल
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सृजन शिल्पी हमारे ब्लाग के दिनों के साथी हैं। गहन अध्येता। तर्क पूर्ण बहस करें तो खूब लम्बी बातें होंगी। गुस्सा करने से भी परहेज नहीं। मसिजीवी से एक मजेदार बहस की याद हुई । दस साल पहले रात को सेंट्रल स्टेशन पर हुई मुलाकात भी लगता है कल ही हुई थी।
मास्टर Vijender Masijeevi और Amrendra Nath Tripathi से फ़ोन-मुलाकात हुई। दूरी के चलते मिलना न हो पाया। Lalit Vats से भी फ़ोन पर ही बात हो सकी।
बहरहाल सृजन शिल्पी से मिलकर जब हम घटनास्थल पहुंचे तो दो बजने वाले थे। श्रीराम सेंटर पर बाहर चाय-वाय की दुकान देखी। बाहर ही कई नाटकों के बोर्ड लगे हुये थे। एक नाटक का शीर्षक था- 'बुड्ढा मर गया।' हमने सोचा जगह होती तो फ़ेसबुक की तरह -'नमन' लिख देते।
सुधीर तिवारी, प्रमोद कुमार , राजकुमार , विनीत कुमार और अनूप शुक्ल |
कैफ़ेटेरिया जाकर देखा तो ठीक सा लगा। ठीक इसलिये कि वहां चार्जिंग प्वाइंट भी था एक , चाय 12 रुपये की थी और कई युवा लड़के-लड़कियां थे वहां। एक जोड़ा शायद सूरज को चुनैती देने के लिहाज से बाहर धूप के पास चाय पी रहा था।
कैफ़ेटेरिया मुआयना करके बाहर निकलते ही आलोक पुराणिक आते दिखे। कंधे पर सफ़ेद अंगौछा व्यंग्यकार के साथ सरोकार की तरह लटका हुआ था। मुख पर मुस्कान और आंख पर शानदार चश्मा। आलोक जी की कई बातों से जलन होती है मुझे उनमें से सबसे बड़ी जलन उनके समय प्रबन्धन से होती है। नियत समय पर तय काम करना उनकी अनुकरणीय खासियत है। कल भी सही समय पर पहुंच गये।
आलोक पुराणिक , राजकुमार , सुधीर तिवारी और अनूप शुक्ल |
आजकल के समय में हो रही व्यंग्य से जुड़ी कई बातों की चर्चा हुई। आलोक पुराणिक ने इस बात राजेन्द्र धोड़पकर का जिक्र करते हुये कहा वे आज के समय के सबसे महत्वपूर्ण व्यंग्यकारों और कार्टूनिस्टों में से हैं। लेकिन उनको अपने जिक्र की कोई फ़िक्र नहीं। सालों से शानदार व्यंग्य लिखने के बावजूद कोई व्यंग्य संग्रह नहीं धोड़पकर जी का। दूसरे लोग भी उनका जिक्र नहीं करते (खुद से फ़ुर्सत मिले तब जिक्र हो न)
यह बात भी चली कि हम लोगों के यहां इतनी ’यश विपन्नता’ है कि लोग दूसरे को सम्मानित होते देख ’यश विलाप’ करना शुरु कर देते हैं कि हाय यह कैसे सम्मानित हो गया। दूसरों को खारिज करके खुद बड़ा नहीं सकते। कोई क्या नहीं लिख रहा है यह बताकर उसको छोटा बताने का चलन है।
नीरज वधवार को ’वनलाइनर’ कहकर खारिज करने की बात पर आलोक पुराणिक का ट्विटरिया कमेंट था कि ऐसे तो कल को आप कबीर के दोहों को खारिज कर देंगे यह कहते हुये कि कबीर तो टू लाइनर लिखते थे। :)
आलोक पुराणिक पर उनके ’बाजार का लेखक’ होने के आरोप बताये गये तो उनका कहना था - ’मैं लिख रहा हूं। मेरी समझ में लेखन की कसौटी वर्तमान में पाठक होते या फ़िर समय। वैसे मुझे अपने लेखन के बारे में कोई मुगालता नहीं। मुझे पता है कि जो मैं आज लिख रहा हूं उनमें से समय के साथ बहुत कम आगे जायेग।
पांच-सात साल बाद अगर कुछ आगे गया तो उनमें से शायद ’कारपोरेट प्रपंचतंत्र’ एक हो।
अपनी व्यंग्य उपन्यास लिखने की कसम को फ़िर से दोहराया आलोक जी ने। कमलेश पांडेय उसके गवाह हैं।
कमलेश पांडेय जी की एक किताब मेरे पास कई और किताबों की तरह मेरे पास समीक्षा लिखने के लिये है।
कमलेश जी दफ़्तर से सीधे आये थे मिलने। अपने लफ़्ज के दिनों के किस्से, हरि जोशी जी हुई बहस, लखनऊ के अट्टहास सम्मेलन की यादें ताजा की उन्होंने। हमसे और आलोक पुराणिक से वहां न पहुंचने की शिकायत दोहराई। आलोक ने रिजर्वेशन न मिलने का और अपन ने छुट्टी न मिलने का बहाना दोहरा दिया।
अट्टहास कार्यक्रम के संयोजक अनूप श्रीवास्तव जी की भी चर्चा हुई। राजनीति और समाज शास्त्र की बात से अलग उनकी इस बात की तारीफ़ हुई कि वे अपने कार्यक्रम में छोटी से छोटी बात का ध्यान रखते हैं। बड़े-बुजुर्ग की तरह। छोटे से छोटे लेखक की सुविधा का ख्याल रखते हैं। व्यक्तिगत प्रयास से इतना कर पाना सबके लिये संभव नहीं होता।
इस बीच मथुरा से हमारे वकील साहब शर्मा जी का फ़ोन आ गया। वे सब व्यंग्य कारों की फ़िरकी लेते रहते हैं। चाहे संतोष त्रिवेदी हों या आलोक पुराणिक या फ़िर अनूप शुक्ल सबके लिखे का अपने बस्ते में बैठे-बैठे अपने हिसाब से ’हिसाब’ करते रहते हैं। आलोक पुराणिक और शर्माजी दोनों एक ही कालेज के पढे हुये हैं। लेकिन कभी बतियाये नहीं आपस में। कल हमारे सौजन्य से दोनों बतियाये।
इस बीच अर्चना चतुर्वेदी का भी फ़ोन आया। उन्होंने फ़ोनो शिरकत की बातचीत में। घर भी बुलाया । इस तरह कि अगला कहे - अगली बार। :)
काम भर की बातें करके और खा-पीकर जब हम वापस लौटे तो भाई राजकुमार वहां मिले। बेचारे आधे घंटे से हमारा इंतजार कर रहे थे। पता चला कि हमने उनको नम्बर जो दिया था उसमें आखिरी अंक 4 की जगह 5 बता दिया था। वो वही नम्बर नोट करके घर से निकल लिये थे। मिलाये जा रहे थे और अनूप शुक्ल रेन्ज के बाहर मिल रहे थे। वो तो कहो उन्होंने हमको देखते ही पहचान लिया। शक्ल से ही हम लोग व्यंग्यकार लगते हैं।
राजकुमार हमारे डेढ साल से फ़ेसबुक पाठक है। पर बात कल पहली बार हुई। मुलाकात भी हुई। हमने आलोक पुराणिक से परिचय कराया। पूछा -इनको जानते हैं? वो बोले - नहीं। हमने बताया - ’ इनको हम आजकल के व्यंग्य के अखाड़े का सबसे तगड़ा पहलवान मानते है।.’ राजकुमार ने कहा - ठीक है देखेगें। जोड़ लेंगे इनको भी। उस समय मुझे याद नहीं रहा कि अब तो आलोक जी को फ़ालो ही किया जा सकता है। पांच हजारी हो गये हैं आलोक जी।
हमको राजकुमार भाई को गलत नम्बर अनजाने में देने का अफ़सोस हुआ। लेकिन साथ ही यह भी लगा कि बंगाली रेस्टारेण्ट में रबड़ी का खर्च बचा। यहां चाय से ही काम चल गया। :)
हम लोग राजकुमार भाई से बतिया रहे थे तब तक वहां प्रमोद कुमार जी भी आ गये। प्रमोद जी से भी पहली मुलाकात थी। आलोक जी के पुराने मुरीद और पाठक। दस साल पुराने ’गुप्त पाठक’ से मिलकर आलोक जी भी खुश हो गये। हमारे मामा नदन जी कई कवितायें प्रमोद जी को याद हैं और वे उन्होंने जिस तरह वहां दोहराई उससे लगा कि कितने गहरे साहित्य प्रेमी हैं प्रमोदजी। फ़तेहपुर, कानपुर की कितनी यादे हैं उनके। ऐसे प्रेमी पाठक मित्र से मिलकर मन खुश हो जाना सहज बात है। इस चक्कर में आलोक जी विदा लेने के बाद फ़िर रुक गये कुछ देर के लिये।
ज्यादा देर नहीं हुई कि वहां सुधीर तिवारी जी भी आ गये।पास ही उनका दफ़्तर है। फ़ेसबुक पर टिपियाने और सराहने और मौजियाने का सबंध कल फ़ोनियाने और आमने-सामने खड़े होकर गपियाने तक पहुंचा। बहुत अच्छा लगा। आलोक जी और तिवारी जी में कार्ड की अदल-बदल भी हो गयी। इसके बाद आलोक जी निकल लिये। किसी को समय दिया होगा मिलने का। :)
विदा होने से पहले कोरम पूरा किया कल की मुलाकात की सबसे हसीन कड़ी विनीत ने। विनीत के मीडिया से जुड़े लेख में उनकी समझ और अध्ययन और सरोकार जो दिखते हैं उसके तो हम मुरीद है हीं लेकिन विनीत के लेखन का सबसे प्यारा पहलू मुझे उनके वे लेख लगते हैं जो उन्होंने अपने साथ जुड़े लोगों के बारे में लिखे हैं। डूबकर लिखे वे लेख चाहे वो अपनी मां के बारे में लिखे कई लेखों में से एक ’दिया बरनी की तलाश हो’ या फ़िर अपने पापा के बारे में लिखा लेख हो जिसका शीर्षक है - ’ मेरे पापा मुझसे डरी हुई गर्ल फ़्रेन्ड की तरह बात करते है’ अद्भुत हैं।
बतियाते हुये पांच बज गये। फ़्लाइट का समय हो गया था हम निकल लिये। मित्रों के साथ हुई इतनी आत्मीय मुलाकात से मन बहुत प्रमुदित च किलकित टाइप था। निकलने के पन्द्र्ह मिनट बाद सुभाष चन्दर जी का फ़ोन आया कि वे मिलने के लिये निकल चुके हैं। लेकिन हम तब तक हवाई अड्डे की तरफ़ निकल चुके थे। इसके अलावा Lalit Vats और Arifa Avis से भी मुलाकात न हो सकी।
जिनसे नहीं मिल पाये उनसे यही कह रहे हैं कि जल्दी ही फ़िर आयेंगे मिलने। तब तक बिना मुलाकात के मुलाकात हुई समझना।
(यह पहला ड्राफ़्ट है। शाम तक इसमें सबंधित टैग/लिंक लगा देंगे। फ़िर पढियेगा। मजा आयेगा। :) )
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208069782555814
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