तीन दिन पहले सुभाष चन्दर जी ने अपनी वाल पर लिखा:
"मित्रों , एक शिकायत है नये लेखको से। 50 कविताएँ हो गयी / 10 कहानियां लिख ली /30 व्यंग्य हो गये ।बस अब किताब आ जानी चाहिए। अपना पैसा खर्च करके आये।प्रकाशक से शोषण कराके आये पर आये।ऐसी जल्दी क्या है भई ? किताब बहुत कीमती होती है।उसमे कच्चापन रह गया तो वो तुम्हे माफ नहीं करने वाली। समझ रहे हैं ना ?"
इसके समर्थन में कई मित्रों ने अपनी राय व्यक्त की। मेरी राय इससे अलग है। मेरी समझ में लिखने वाले को जब मौका मिले किताब छपवा लेनी चाहिए। संकोच में बूढ़े होते रहने से कोई फायदा नहीं। खासकर जो लोग समसामयिक घटनाओं पर लिखते हैं उनको तो साल के साल अपना संग्रह छपा लेना चाहिए।
सुभाष जी की राय अपने समय के हिसाब से होगी। उस समय अख़बार में व्यंग्य छपते नहीं होंगे। इतने अख़बार नहीं होंगे। आज अख़बार के अलावा सोशल मिडिया है, ब्लॉग , फेसबुक है। अभिव्यक्ति के नए माध्यम हैं। उन पर लिखा हुआ अगर लोग पसन्द करते हैं, आपको भी लगता है तो मेरी समझ में इकठ्ठा करके किताब बनवाना ही चाहिए।
प्रकाशक के शोषण की बात है तो लेखक को किताब छपाने में हमेशा झेलना पड़ता है। परसाई जी तक ने अपनी पहली किताब खुद छपवाई और बेंची। बाद में जब प्रसिद्ध हुए तब प्रकाशक मांगते होंगे किताबें।
छपाने के लिए नयी तकनीक के माध्यम हैं। ईबुक, प्रिंट आन डिमांड और भी कई तरीके हैं। जो ठीक लगें उनका उपयोग करके अपना जो लेखन ठीक लगे, एकाध मित्र की सलाह से किताब छपानी चाहिये। अच्छी छपी तो ठीक वरना पहली किताब की गलती से सीख लेकर आगे बढ़ना चाहिए।
पहली किताब की बहाने खराब रचनाएँ निकल जाएंगी। इसके बाद अगर अच्छा लिखा तो अच्छा सामान आयेगा। पहली गिनती 'रामजी की' के बाद दूसरी किताब आ जाये।
अच्छा लेखक और खराब लेखक समय तय करेगा। जब लेखन सामने आएगा ही नहीँ तय कैसे होगा। इसलिए हम तो इस बात के हिमायती हैं कि अगर लेखक/कवि को लगता है कि उसकी रचनाएँ ठीक हैं तो छपवाने में देर नहीं करनी चाहिए।
किताब छपने में देरी से लेखन में सुधार नहीँ आता। उसके लिए अलग रियाज करना होता है।
Subhash Chander
Subhash Chander
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