Sunday, May 01, 2016

टीटी को पैसा तभी दो जब वह बर्थ अलॉट कर दे

ट्रेन कठारा रोड पर रुकी है। केवल एक घण्टा लेट है। सामने खेत में गेंहू के गट्ठर पड़े हैं। अकेले पड़े हैं गट्ठर। कोई आदमी नहीं दीखता।

अचानक दूसरी पटरी पर ट्रेन आ जाती है। गेंहू दिखना बन्द। ट्रेन दो मिनट रूककर चल देती है। गेंहू फिर दिखने लगता है। खूब सारी हवा खिड़की से आती है। हमारी ट्रेन भी चल देती है। खरामा-खरामा। अनुभवी ट्रेन सरीखी। कोई हड़बड़ी नहीं कि जल्दी पहुंचने के लिए हल्ला-गुल्ला करे। थोड़ा देर से पहुंचेगे तो कौन दुनिया बदल जायेगी।

पटरी के किनारे बेशरम के पौधे मस्ती से झूम रहे हैं। हल्के बैगनी फूल। गर्मी में जब सब पेड़ पौधे मुरझा जाते हैं तब यह खिलता है। बाकी के पेड़ पौधे इसकी जिजीविषा से जलते होंगे। तभी इसको नाम दे दिया- बेहया,बेशरम। लेकिन बेशरम इससे बेपरवाह मस्ती से लहरा रहा है।

दुनिया के चलन के खिलाफ आचरण करने वालों से लोग ऐसे ही जलते हैं।

बगल के यात्री टीटीई द्वारा सीट अलॉट करने में होने वाले लेनदेन पर चर्चा कर रहे हैं।जिस टीटी को पैसे दिए वह मानिकपुर में उतर गया। दूसरे से बहस करनी पड़ी।एक ने ज्ञान दिया-" टीटी को पैसा तभी दो जब वह बर्थ अलॉट कर दे। उससे दस्तखत करा लो टिकट पर।"

दूसरे ने भी अपना ज्ञान फेंका-"टीटी को पैसा देने से अच्छा बाबू को देकर पहले से ही कन्फर्म करा कर चलो। "
भीमसेन स्टेशन आ गया। पीने के पानी की टंकी पर टीन की चद्दर घूंघट की तरह लग रही है। अगल बगल से घुसकर धूप टंकी और उसके पानी को गर्म कर रही है। टंकी की सफाई 3 फ़रवरी को हुई है ऐसा लिखा है टंकी पर।

डिब्बे के दरवज्जे पर होमगार्ड के सिपाही दूध के डिब्बों के सिंहासन पर विराजमान हैं। पास के स्टेशन से चढ़े हैं। पुलिस लाइन से ड्यूटी लगती है। आज लेट हो गए तो रिजर्व में रहेंगे। महीने के 7500 मिलते हैं। नौकरी अस्थाई है। नियमित होने की कोई खबर नहीं। टिकट या एम एस टी का कोई चक्कर नहीं। 'एजेंटी कार्ड' है न।

गोविन्दपुरी पर ट्रेन रुकते ही यात्री धड़धड़ाते हुए उतरते हैं। ऑटो ड्राइवर मिले तिवारी जी।आठ साल पहले ऑटो लिया था 125565/- रूपये का। पहली गाड़ी ली थी इसलिए याद है। उस समय परमिट फ्री बनता था। आज परमिट के साढ़े तीन लाख लगते हैं। ऑटो की कमाई से मकान भी बना लिया कानपुर में। पुखरायां में गांव है। खेती है वहां। गेंहू तो ठीक हुआ क्योंकि लेट बोया था लेकिन अरहर,चना सब बेकार हो गया।

ऑटो चलाते हुए ऊब गए हैं तिवारी जी। कमाई ठीक है लेकिन लोग ठीक निगाह से नहीं देखते। पुलिस वाले जब देखो तब डंडा पटकने लगते हैं। पहले नौकरी करते थे। दुनाली बन्दूक थी।ठेकेदार की सुरक्षा में रहते थे। ठेकेदार इज्जत से हमेशा तिवारीजी कहते थे लेकिन पैसे 4000 रूपये ही देते थे। जब ऑटो लिया तो महीना 12000 रूपये की कमाई होने लगी। मने इज्जत के दाम हुए आठ हजार।

घर पहुंचते पहुंचते और भी तमाम बातें हुईं तिवारी जी से। लेकिन वो फिर कभी। अभी तो घर पहुंचने के आनंद की अनुभूति लेते हैं। आप भी मजे लीजिये। मन करे तो हमारी कविता भी बांचिये:

घर से बाहर जाता आदमी
घर वापस लौटने के बारे में सोचता है।

No comments:

Post a Comment