कल शाम घूमने निकले साइकिल पर। शाम क्या रात ही कहिये। आठ बजे कहने को ’गुड इवनिंग’ भले कह लें पर होती तो वह रात ही है। है कि नहीं?
निकलते ही मोड़ पर सामने से मोटरसाइकिल आती दिखी। हेडलाइट बंद थी। धडधड़ाती आ रही थी। हम किनारे हो गये। अपनी सुरक्षा अपने हाथ। क्या पता अंधेरे में मोटर साइकिल भिड़ जाये हमारी साइकिल से और गाना गाते हुये कहने लगे--’आ मेरे गल्ले लग जा, ओ मेरे हमराही।’
मौसम हसीन टाइप था। आसमान में चांद खरबूजे की फ़ांक सा खिला हुआ था। पीला-पीला। खरबूजा तो गर्मी के मौसम में होता है। इसलिये सोचते हैं चांद को पपीते की फ़ांक सा लिखा जाये। कच्चे पपीते की फ़ांक सा। आसमान के अंधेरे में चांद को कोई डर भी नहीं लग रहा था। धड़ल्ले से खिला हुआ था। बहुत डेयरिंग है यार चांद।
घूमते हुये शोभापुर की तरफ़ चले गये। पुल के नीचे चूल्हे सुलग चुके थे। पुल के नीचे लोग खाना बना रहे थे। बतिया रहे थे।
उधर ही दीपा रहती है अपनी पापा के साथ। देखा तो झोपड़ी के सामने ’कोमल’ (दीपा के पापा) का रिक्शा दरवाजे की तरह सटा था। मुझे लगा कि वो लोग सो गये होंगे। लेकिन बाहर दूसरे रिक्शे वाले ने देखा तो बुलाया चिल्लाकर।
कोमल बाहर आये। हमने पूछा -दीपा कहां है?
वो बोला-’का पता कहूं गई होगी टीवी देखने इधर-उधर।’
हमने कहा-’ अरे, इतनी रात कहां गई होगी टीवी देखने। तुमको पता भी नहीं। खोज के लाओ। देखो।’
कुछ ठिकानों के बारे में बताते हुये उसने कहा-’ वहां भी नहीं, उधर भी नहीं , न जाने किधर चली गयी।’
यह शायद उसके लिये रोजमर्रा का किस्सा होगा। लेकिन मेरे लिये नया था कि रात आठ बजे बाप झोपड़ी में घुसा है और 2 में पढ़ने वाली बिटिया कहां है उसको पता नहीं।
कुछ देर में वह खोजकर लाया दीपा को। पता चला कि आते ही पापा ने किसी बात पर डांट दिया था तो वह गुस्साकर चली गयी थी।
दीपा के पापा उसकी शिकायत करते हुये बोले- ’ दिन भर से बर्तन नहीं धोये थे। हमने आकर डांटा तब धोये। फ़िर चली गयी।’
हमने पूछा-’ कहां चली गयी थी? होमवर्क कर लिया? ऐसे न जाया करो।’
उसने कहा -’ हां होमवर्क कर लिया।’
इसपर उसके पापा हल्ला मचाते हुये बोले- ’ कुछ न किया। बस घूमती रहती है। साहब जी आप इसको डांटो।’
कोमल को हर बात इलाज डांट में ही सूझता है।डांटता रहता है अपनी बिटिया को। सोचता है उसी से ठीक हो जायेगी।
इस बीच दूसरे रिक्शेवाला के पास वहीं कुछ लोग बैठे दिखे। अंदाज से लगा -’कच्ची छन रही है उनकी।’
जब कोमल लड़की को ढूंढने गया था तब वह कह रहा था- ’ लड़की को डांट के रखना चाहिये। ऐसे कैसे चली जाती है बिना बताये।’
किसी ने टोंका-’ तुम खुद कैसे रखे अपने लड़के को जिसने तुमको पीटकर घर से भगा दिया?’
इस पर वह बोला- ’ अरे लड़के की बात अलग है। लड़की की और।’
वहीं पास की एक दुकान वाला भी ’रसरंजन’ में शामिल था। चलते समय हमसे बतियाने लगा। बोला--’ आप बातचीत करने में अच्छे लगे इसलिये आपसे बात करने का मन हुआ।’
हमने पूछा -’ तुम यहां इनके साथ दारू पी रहे हो। कच्ची। क्या दारू के नशे में हम हमारी बातचीत अच्छी लग रही है।’
इस पर उसने कहा- ’अरे नहीं। हम कच्ची नहीं पीते। इंगलिश पीते हैं। थोड़ी ले लेते हैं बस।’
फ़िर अपने पीने का कारण उसने संगति दोष बताया। अपने परिवार के कई लोगों के नाम और काम गिना डाले। कुछेक प्रवचन भी सुना डाले।
हमने उससे कहा -’तुम दीपा को पढा दिया करो दुकान चलाने के साथ-साथ शाम को।’ वह बोला - ’हां, बहुत अच्छी लड़की है यह। सब इसको बहुत प्यार करते हैं।’
और भी कई बाते हुई। इसके बाद खांसी की दवा जो मेरे पास रखी थी दीपा को देकर चले आये।
आते समय और अभी भी यही सोच रहे हैं कि देश इतनी तेजी से आगे भागता चला रहा है। जबलपुर भी स्मार्ट बन ही जायेगा दो-चार दस साल में। लेकिन क्या दीपा जैसे बच्चों का जीवन स्तर कभी सुधर पायेगा। सुधरेगा भी तो कब !
आपको क्या लगता है?
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207335914649575
निकलते ही मोड़ पर सामने से मोटरसाइकिल आती दिखी। हेडलाइट बंद थी। धडधड़ाती आ रही थी। हम किनारे हो गये। अपनी सुरक्षा अपने हाथ। क्या पता अंधेरे में मोटर साइकिल भिड़ जाये हमारी साइकिल से और गाना गाते हुये कहने लगे--’आ मेरे गल्ले लग जा, ओ मेरे हमराही।’
मौसम हसीन टाइप था। आसमान में चांद खरबूजे की फ़ांक सा खिला हुआ था। पीला-पीला। खरबूजा तो गर्मी के मौसम में होता है। इसलिये सोचते हैं चांद को पपीते की फ़ांक सा लिखा जाये। कच्चे पपीते की फ़ांक सा। आसमान के अंधेरे में चांद को कोई डर भी नहीं लग रहा था। धड़ल्ले से खिला हुआ था। बहुत डेयरिंग है यार चांद।
घूमते हुये शोभापुर की तरफ़ चले गये। पुल के नीचे चूल्हे सुलग चुके थे। पुल के नीचे लोग खाना बना रहे थे। बतिया रहे थे।
उधर ही दीपा रहती है अपनी पापा के साथ। देखा तो झोपड़ी के सामने ’कोमल’ (दीपा के पापा) का रिक्शा दरवाजे की तरह सटा था। मुझे लगा कि वो लोग सो गये होंगे। लेकिन बाहर दूसरे रिक्शे वाले ने देखा तो बुलाया चिल्लाकर।
कोमल बाहर आये। हमने पूछा -दीपा कहां है?
वो बोला-’का पता कहूं गई होगी टीवी देखने इधर-उधर।’
हमने कहा-’ अरे, इतनी रात कहां गई होगी टीवी देखने। तुमको पता भी नहीं। खोज के लाओ। देखो।’
कुछ ठिकानों के बारे में बताते हुये उसने कहा-’ वहां भी नहीं, उधर भी नहीं , न जाने किधर चली गयी।’
यह शायद उसके लिये रोजमर्रा का किस्सा होगा। लेकिन मेरे लिये नया था कि रात आठ बजे बाप झोपड़ी में घुसा है और 2 में पढ़ने वाली बिटिया कहां है उसको पता नहीं।
कुछ देर में वह खोजकर लाया दीपा को। पता चला कि आते ही पापा ने किसी बात पर डांट दिया था तो वह गुस्साकर चली गयी थी।
दीपा के पापा उसकी शिकायत करते हुये बोले- ’ दिन भर से बर्तन नहीं धोये थे। हमने आकर डांटा तब धोये। फ़िर चली गयी।’
हमने पूछा-’ कहां चली गयी थी? होमवर्क कर लिया? ऐसे न जाया करो।’
उसने कहा -’ हां होमवर्क कर लिया।’
इसपर उसके पापा हल्ला मचाते हुये बोले- ’ कुछ न किया। बस घूमती रहती है। साहब जी आप इसको डांटो।’
कोमल को हर बात इलाज डांट में ही सूझता है।डांटता रहता है अपनी बिटिया को। सोचता है उसी से ठीक हो जायेगी।
इस बीच दूसरे रिक्शेवाला के पास वहीं कुछ लोग बैठे दिखे। अंदाज से लगा -’कच्ची छन रही है उनकी।’
जब कोमल लड़की को ढूंढने गया था तब वह कह रहा था- ’ लड़की को डांट के रखना चाहिये। ऐसे कैसे चली जाती है बिना बताये।’
किसी ने टोंका-’ तुम खुद कैसे रखे अपने लड़के को जिसने तुमको पीटकर घर से भगा दिया?’
इस पर वह बोला- ’ अरे लड़के की बात अलग है। लड़की की और।’
वहीं पास की एक दुकान वाला भी ’रसरंजन’ में शामिल था। चलते समय हमसे बतियाने लगा। बोला--’ आप बातचीत करने में अच्छे लगे इसलिये आपसे बात करने का मन हुआ।’
हमने पूछा -’ तुम यहां इनके साथ दारू पी रहे हो। कच्ची। क्या दारू के नशे में हम हमारी बातचीत अच्छी लग रही है।’
इस पर उसने कहा- ’अरे नहीं। हम कच्ची नहीं पीते। इंगलिश पीते हैं। थोड़ी ले लेते हैं बस।’
फ़िर अपने पीने का कारण उसने संगति दोष बताया। अपने परिवार के कई लोगों के नाम और काम गिना डाले। कुछेक प्रवचन भी सुना डाले।
हमने उससे कहा -’तुम दीपा को पढा दिया करो दुकान चलाने के साथ-साथ शाम को।’ वह बोला - ’हां, बहुत अच्छी लड़की है यह। सब इसको बहुत प्यार करते हैं।’
और भी कई बाते हुई। इसके बाद खांसी की दवा जो मेरे पास रखी थी दीपा को देकर चले आये।
आते समय और अभी भी यही सोच रहे हैं कि देश इतनी तेजी से आगे भागता चला रहा है। जबलपुर भी स्मार्ट बन ही जायेगा दो-चार दस साल में। लेकिन क्या दीपा जैसे बच्चों का जीवन स्तर कभी सुधर पायेगा। सुधरेगा भी तो कब !
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