पिछले दिनों मीडिया में देशप्रेम और देशद्रोह का जबर हल्ला मचा रहा।
इसके पहले कुछ दिन तक सहिष्णुता और असहिष्णुता का जबाबी कीर्तन हुआ। जब
उससे ऊबे तो शायद मूड बदलने के लिए देशप्रेम और देशद्रोह की अंत्याक्षरी
शुरू हुई।
इस खेल में सक्रिय लोग कुछ लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे लोगों को देशद्रोही कहने लगे। बहुतों को समझ ही नहीं आया खेल कि एक जैसे दीखते, एक जैसी हरकतें करते, एक तरह से ही चिल्लाते लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही किस आधार पर कह रहे हैं। हमको भी कुछ समझ में नहीं आया।
लेकिन जब हमने दिमाग पर जोर डाल के सोचा तो हमको 35-36 साल पहले इंटरमीडिएट के दिनों में 'देशप्रेम' पर निबन्ध याद आया।
हमको हमारे हिंदी के गुरूजी ने 'देशप्रेम' पर निबन्ध लिखकर लाने के लिए कहा था। 'देशप्रेम' पर निबन्ध लिखवाने का मुख्य कारण यही था की परीक्षा में यह निबन्ध आने के चांस ज्यादा रहते थे। 'देशप्रेम' पर लिखे निबन्ध की पूँछ पकड़कर परीक्षा की वैतरणी पार करने की सम्भावना ज्यादा रहती थी।
आजकल तो देशप्रेम का महत्व और भी बढ़ गया है। लोग 'भारत माता की जय', 'वन्देमातरम' का हल्ला मचाकर न जाने क्या-क्या हासिल कर रहे हैं। जिस 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाकर क्रांतिकारी लोग फांसी के फंदे पर लटका गए उसी नारे को चिल्लाते हुए लोग आज बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर चिपक गए हैं।
बहुत बरक्कत हुई है इन नारों में। ये नारे इतने सटीक और असरकारी साबित हुए हैं कि अपराधी तक जोर से इन नारों को चिल्ला दें तो उनको देशभक्त मान लिया जाता है। शातिर लोगों के यहां तो देशभक्ति का अखण्ड कीर्तन चलता रहता है। इस कीर्तन का फायदा यह होता है समाज और क़ानून की सहज भवबाधाएं उनके पास नहीं फटकती। उनके धंधे निर्बाध चलते रहते हैं।
खैर बात निबन्ध की हो रही थी। जैसे आजकल कुछ भी उलजलूल बोलते हुए दूसरे को बोलने का मौका न देने वाला खुद को अच्छा एंकर/प्रवक्ता माना जाता है वैसे ही उन दिनों हम समझते थे कि जितना ज्यादा लिखा जाए उतना अच्छा होता है। जितने ज्यादा उद्धरण, उतना धांसू निबन्ध। चूंकि घर से लिखकर लाना था तो हम जितनी किताबें थीं हमारे पास उन सबसे उद्धरण खोजकर एक पूरी कॉपी भरकर धर दिए गुरु जी के सामने।
गुरूजी देखे तो बस यही बोले -'थोड़ा कम लिखते तो अच्छा रहता।'
हमको बड़ा अखरा कि बताओ एक तो हम इतना मेहनत कर दिए 'देशप्रेम' के नाम पर और गुरु जी कह रहे हैं कि थोड़ा कम लिखते। कुछ ऐसा ही लगा जैसे कोई उत्साही कार्यकर्ता देशप्रेम/देशद्रोह के धर्मयुद्ग में किसी विधर्मी से गाली गलौज करे, उसका सार्वजनिक 'भरतमिलाप' करा दे और बाद में उसकी पार्टी के लोग उसको शाबासी देने की बजाय उसकी निंदा करें और उससे किनारा करने लगें।
दो उद्धरण हमको अभी भी याद हैं उस निबन्ध के।
अलबत्ता अभी यह जरुर सोच रहे हैं कि इसमें केवल 'नर' को गौरव और अभिमान करने का जिम्मा दिया गया है। 'नारी' को पता नहीं देशप्रेम के झंझट से मुक्त रखा गया है या फिर उनको इस महती जिम्मेदारी लायक समझा नहीँ गया।
दूसरा उद्धरण था:
बाद में देशप्रेम से जुड़े और भी आयाम पता चले। 'पुरस्कार' कहानी में देशप्रेम और व्यक्तिगत प्रेम का कॉम्बो पैक दिखा। पहले मधुलिका ने प्रेम किया, फिर देशप्रेम किया और बाद में सबको झटका देकर अपने प्रेमी के साथ मरने के लिए खुद के लिए मृत्यु मांग ली।
समय के साथ देशप्रेम के स्वरूप में बदलाव आया। पहले देशप्रेम का मतलब देश के लिए अधिक से अधिक त्याग और बलिदान करना होता था। जैसे -जैसे जमाना आधुनिक होता गया लोगों में मेहनत करने कम होने लगा। नए और आसान तरीके खोजे गए देश से प्रेम करने के। झंडा लहराकर, शरीर में झंडे का रंग पोतकर और अन्य शरीफ तरीकों से देशप्रेम की नुमाइश करने लगे। अनुराग, अलौकिक रखने वाले देश के लिए खटते रहते और समझदार लोग प्रोफाइल पर झंडा फहराकर देशभक्त बनते गए।
इसी हल्ले में देशप्रेम का कम्पटीशन भी शुरू हुआ। खुद को दूसरों से बड़ा देशप्रेमी बताने का चलन शुरू हुआ। लेकिन उसमें बहुत मेहनत लगती। आराम का रास्ता खोजते हुए लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही बताने लगे। हम जब पढ़ते थे तो देशद्रोही पर निबन्ध लिखाया नहीँ गया इसलिए उनपर कोई उद्धरण नहीं याद। उनके गुण भी नहीँ पता लेकिन आये दिन देखते हैं कि एक जैसी चिरकुट हरकतें करते लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही ठहराते रहते हैं।
एक जैसे काम करते हुए सभ्य नागरिक जब आपस में एक-दूसरे को देशप्रेमी और देशद्रोही जैसी उपमाओं से नवाजते हैं तो कभी-कभी यह भरम होता है कि देशप्रेमी और देशद्रोही का रिश्ता आपस में समधी जैसा होता है। जैसे एक का समधी दूसरे के लिए भी होता है वैसे ही एक देशप्रेमी दूसरे को देशद्रोही मानकर खुश हो लेता है।
देशप्रेमी और देशद्रोही की इस वाचिक जंग में कुछ उत्साही लोग ही शामिल होते हैं। उनकी संख्या बहुत कम होती है। कुछ लोगों को इससे बहुत तकलीफ होती है। उनको लगता है ये बहुमत वाले लोग न देशप्रेम की बात कर रहे हैं न किसी को देशद्रोही ठहरा रहे हैं। यह देशकर कुछ लोग परशुराम की तरह कुपित होकर रामधारी सिंह दिनकर की कविता को कोड़े की तरह फटकारते हुए उदासीन लोगों को भविष्य का अपराधी ठहराते हुए धिक्कारने लगते हैं:
'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध'
कमजोर दिल वाले लोग यह दहाड़ सुनते ही सबसे नजदीक के बाड़े में आँख मूंदकर कूद जाते हैं। उनको यह डर सताने लगता है कि कहीं उदासीन रहने पर सही में कोई अपराधी न ठहरा दे। एक बार अपराधी ठहरा दिए गए जिनदगी कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते बीत जायेगी। किसी भी बाड़े में कूदते ही दूसरे बाड़े के लोग उनको देशद्रोही कहते हैं। जब वे यह हल्ला सुनते हैं तो वे भी हल्ला मचाने लगते हैं।
पिछले दिनों इसी हल्ले को देखते रहे। देश भी कहीं से अपने बच्चों को हल्ला मचाते, लड़ते-झगड़ते देख रहा होगा। हो सकता है कभी-कभी अपने बच्चों को वात्सल्यपूर्ण नज़रों से निहारता हुआ वह सोचता भी हो कि ये बच्चे कब बड़े होंगे, कब समझदार होंगे।
आप क्या कहते हैं ?
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207364113114519
इस खेल में सक्रिय लोग कुछ लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे लोगों को देशद्रोही कहने लगे। बहुतों को समझ ही नहीं आया खेल कि एक जैसे दीखते, एक जैसी हरकतें करते, एक तरह से ही चिल्लाते लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही किस आधार पर कह रहे हैं। हमको भी कुछ समझ में नहीं आया।
लेकिन जब हमने दिमाग पर जोर डाल के सोचा तो हमको 35-36 साल पहले इंटरमीडिएट के दिनों में 'देशप्रेम' पर निबन्ध याद आया।
हमको हमारे हिंदी के गुरूजी ने 'देशप्रेम' पर निबन्ध लिखकर लाने के लिए कहा था। 'देशप्रेम' पर निबन्ध लिखवाने का मुख्य कारण यही था की परीक्षा में यह निबन्ध आने के चांस ज्यादा रहते थे। 'देशप्रेम' पर लिखे निबन्ध की पूँछ पकड़कर परीक्षा की वैतरणी पार करने की सम्भावना ज्यादा रहती थी।
आजकल तो देशप्रेम का महत्व और भी बढ़ गया है। लोग 'भारत माता की जय', 'वन्देमातरम' का हल्ला मचाकर न जाने क्या-क्या हासिल कर रहे हैं। जिस 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाकर क्रांतिकारी लोग फांसी के फंदे पर लटका गए उसी नारे को चिल्लाते हुए लोग आज बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर चिपक गए हैं।
बहुत बरक्कत हुई है इन नारों में। ये नारे इतने सटीक और असरकारी साबित हुए हैं कि अपराधी तक जोर से इन नारों को चिल्ला दें तो उनको देशभक्त मान लिया जाता है। शातिर लोगों के यहां तो देशभक्ति का अखण्ड कीर्तन चलता रहता है। इस कीर्तन का फायदा यह होता है समाज और क़ानून की सहज भवबाधाएं उनके पास नहीं फटकती। उनके धंधे निर्बाध चलते रहते हैं।
खैर बात निबन्ध की हो रही थी। जैसे आजकल कुछ भी उलजलूल बोलते हुए दूसरे को बोलने का मौका न देने वाला खुद को अच्छा एंकर/प्रवक्ता माना जाता है वैसे ही उन दिनों हम समझते थे कि जितना ज्यादा लिखा जाए उतना अच्छा होता है। जितने ज्यादा उद्धरण, उतना धांसू निबन्ध। चूंकि घर से लिखकर लाना था तो हम जितनी किताबें थीं हमारे पास उन सबसे उद्धरण खोजकर एक पूरी कॉपी भरकर धर दिए गुरु जी के सामने।
गुरूजी देखे तो बस यही बोले -'थोड़ा कम लिखते तो अच्छा रहता।'
हमको बड़ा अखरा कि बताओ एक तो हम इतना मेहनत कर दिए 'देशप्रेम' के नाम पर और गुरु जी कह रहे हैं कि थोड़ा कम लिखते। कुछ ऐसा ही लगा जैसे कोई उत्साही कार्यकर्ता देशप्रेम/देशद्रोह के धर्मयुद्ग में किसी विधर्मी से गाली गलौज करे, उसका सार्वजनिक 'भरतमिलाप' करा दे और बाद में उसकी पार्टी के लोग उसको शाबासी देने की बजाय उसकी निंदा करें और उससे किनारा करने लगें।
दो उद्धरण हमको अभी भी याद हैं उस निबन्ध के।
"जिसको न निज गौरव तथा निज देश पर अभिमान हैउस समय का रटा हुआ यह उद्धरण हम आजतक प्रयोग करते आये हैं। कुछ दिन पहले देखा तो आज के बच्चे भी इसी से काम चला रहे हैं। इससे यह पता चलता है कि दुनिया कितनी भी आगे बढ़ गयी हो पिछले 35 सालों में पर देशप्रेम के मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है।
वह नर नहीँ, नर पशु निरा है और मृतक समान है।"
अलबत्ता अभी यह जरुर सोच रहे हैं कि इसमें केवल 'नर' को गौरव और अभिमान करने का जिम्मा दिया गया है। 'नारी' को पता नहीं देशप्रेम के झंझट से मुक्त रखा गया है या फिर उनको इस महती जिम्मेदारी लायक समझा नहीँ गया।
दूसरा उद्धरण था:
"विषुवत रेखा का वासी जो जीता है नित हांफ-हांफ कर,
रखता है अनुराग अलौकिक वह भी अपनी मातृभूमि पर,
हिम वासी जो हिम में तम में, जीता है नित काँप काँप कर,मतलब लोग चाहे जहां भी रहें सबको अपने देश से प्रेम होता है। मतलब देश से प्रेम करना उतना ही सहज माना जाता था जितना आज राजनीति के लिए गुंडा गर्दी, छलकपट।
कर देता है प्राण न्योछावर, वह भी अपनी मातृभूमि पर।"
बाद में देशप्रेम से जुड़े और भी आयाम पता चले। 'पुरस्कार' कहानी में देशप्रेम और व्यक्तिगत प्रेम का कॉम्बो पैक दिखा। पहले मधुलिका ने प्रेम किया, फिर देशप्रेम किया और बाद में सबको झटका देकर अपने प्रेमी के साथ मरने के लिए खुद के लिए मृत्यु मांग ली।
समय के साथ देशप्रेम के स्वरूप में बदलाव आया। पहले देशप्रेम का मतलब देश के लिए अधिक से अधिक त्याग और बलिदान करना होता था। जैसे -जैसे जमाना आधुनिक होता गया लोगों में मेहनत करने कम होने लगा। नए और आसान तरीके खोजे गए देश से प्रेम करने के। झंडा लहराकर, शरीर में झंडे का रंग पोतकर और अन्य शरीफ तरीकों से देशप्रेम की नुमाइश करने लगे। अनुराग, अलौकिक रखने वाले देश के लिए खटते रहते और समझदार लोग प्रोफाइल पर झंडा फहराकर देशभक्त बनते गए।
इसी हल्ले में देशप्रेम का कम्पटीशन भी शुरू हुआ। खुद को दूसरों से बड़ा देशप्रेमी बताने का चलन शुरू हुआ। लेकिन उसमें बहुत मेहनत लगती। आराम का रास्ता खोजते हुए लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही बताने लगे। हम जब पढ़ते थे तो देशद्रोही पर निबन्ध लिखाया नहीँ गया इसलिए उनपर कोई उद्धरण नहीं याद। उनके गुण भी नहीँ पता लेकिन आये दिन देखते हैं कि एक जैसी चिरकुट हरकतें करते लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही ठहराते रहते हैं।
एक जैसे काम करते हुए सभ्य नागरिक जब आपस में एक-दूसरे को देशप्रेमी और देशद्रोही जैसी उपमाओं से नवाजते हैं तो कभी-कभी यह भरम होता है कि देशप्रेमी और देशद्रोही का रिश्ता आपस में समधी जैसा होता है। जैसे एक का समधी दूसरे के लिए भी होता है वैसे ही एक देशप्रेमी दूसरे को देशद्रोही मानकर खुश हो लेता है।
देशप्रेमी और देशद्रोही की इस वाचिक जंग में कुछ उत्साही लोग ही शामिल होते हैं। उनकी संख्या बहुत कम होती है। कुछ लोगों को इससे बहुत तकलीफ होती है। उनको लगता है ये बहुमत वाले लोग न देशप्रेम की बात कर रहे हैं न किसी को देशद्रोही ठहरा रहे हैं। यह देशकर कुछ लोग परशुराम की तरह कुपित होकर रामधारी सिंह दिनकर की कविता को कोड़े की तरह फटकारते हुए उदासीन लोगों को भविष्य का अपराधी ठहराते हुए धिक्कारने लगते हैं:
'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध'
कमजोर दिल वाले लोग यह दहाड़ सुनते ही सबसे नजदीक के बाड़े में आँख मूंदकर कूद जाते हैं। उनको यह डर सताने लगता है कि कहीं उदासीन रहने पर सही में कोई अपराधी न ठहरा दे। एक बार अपराधी ठहरा दिए गए जिनदगी कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते बीत जायेगी। किसी भी बाड़े में कूदते ही दूसरे बाड़े के लोग उनको देशद्रोही कहते हैं। जब वे यह हल्ला सुनते हैं तो वे भी हल्ला मचाने लगते हैं।
पिछले दिनों इसी हल्ले को देखते रहे। देश भी कहीं से अपने बच्चों को हल्ला मचाते, लड़ते-झगड़ते देख रहा होगा। हो सकता है कभी-कभी अपने बच्चों को वात्सल्यपूर्ण नज़रों से निहारता हुआ वह सोचता भी हो कि ये बच्चे कब बड़े होंगे, कब समझदार होंगे।
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