ज्ञान जी कमलेश पाण्डेय जी के साथ |
खैर टिकट की लाइन में लगे तो पता चला कि टिकट काउंटर वाले के पास फुटकर पैसे नहीं थे। ज्ञान जी की किताब के विमोचन का समय हो चुका था लेकिन फुटकर पैसे के अभाव में हम अटके हुए थे। कुछ लोग दस बीस रूपये छोड़कर टिकट मेले की तरफ लपक रहे थे। पर हम अस्सी रूपये कैसे छोड़ दें यह समझ नही आ रहा था। खैर कुछ देर के बाद फुटकर पैसे आये काउंटर पर और हम लपकते हुए हाल नम्बर 12 अ की तरफ पहुंचे। गेट पर ही मिली बस की सहायता से।
किताबघर प्रकाशन की स्टॉल पर ज्ञान जी को सुनते लोग |
हमने सोचा था मेले में खूब किताबें खरीदेंगे लेकिन खर्च बचा इस बहाने कि एक तो रास्ते में कोई एटीएम नहीं मिला कि पैसे निकाल लें। मशीन से पैसा लेने का इंतजाम दुकान वालों के पास था नहीं। इसके अलावा जब तक विमोचन का काम और गुफ्तगू निपटी तब तक मेला भी निपट गया था कल का।
ज्ञान जी के साथ अनूप शुक्ल। फोटो खींची सन्तोष त्रिवेदी ने। |
अरविन्द पाण्डेय जी के व्यंग्य संग्रह 'आत्मालाप' का विमोचन करते हुए सुशील सिद्धार्थ, सुभाष चन्दर, प्रेम जनमेजय और |
मेले के बाहर निकलते ही एक भेलपुरी के खोमचे से भेलपुरी ली। जितनी की टिकट मेले की उतनी की ही भेलपुरी। किताबों का स्वाद तो पढ़ने पर मिलेगा। भेलपुरी तत्काल स्वादिष्ट लगी। भूखे जो थे।
सुशील सिद्धार्थ, अनूप श्रीवास्तव, , प्रेम जनमेजय और ज्ञान चतुर्वेदी जी। पीछे अनूप शुक्ल। |
वापस लौटने के रास्ते और तरीके कई लोगों से पूछे।।हर एक ने अलग-अलग रास्ता बताया। कोई बोला मेट्रो पकड़ लो। दो जगह बदलकर चले जाना। किसी ने कहा ऑटो कर लो।300 रूपये लेगा सीधे उतार देगा ठीहे पर। बहुमत जनता की सलाह बस से जाने की थी। उसी को मानकर हम बस स्टैंड की तरफ चल दिए।
निर्मल गुप्त जी के आने में देरी हुई पर उनकी भेंट हो ही गयी ज्ञान जी से। |
ज्ञान जी सुशील सिद्धार्थ और सन्तोष त्रिवेदी के साथ। |
खैर हम 2 किमी पीछे पैदल चलते, पूछते और भटकते हुए वापस आये और अंतत: अपने ठीहे पर पहुंचे।
गन्तव्य पर पहुंचने के दौरान अपनी यात्रा को लेखन से जोड़कर देखते हुए सोचता रहा मैं की यात्रा कोई भी रास्ता बताने वाले लोग कई मिलेंगे लेकिन रास्ते का और यात्रा किस तरह की जाए इसका चुनाव खुद को ही करना होता है। इस प्रक्रिया में भटकाव और देरी भी हो सकती है लेकिन लगे रहे तो मंजिल अवश्य मिलती है। मंजिल कितनी जल्दी मिलती है यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारे चुने हुए रास्ते कैसे हैं और हम रास्ते में मिलने वालों संकेतों को कितनी अच्छी तरह पढ़ने में सक्षम होते हैं।
मेले के बाहर भेलपुरी बेंचते राहुल। |
बात कुछ ज्यादा ऊँची हो गयी और काम भर की बोरिंग भी इसलिए अब पुस्तक मेले का किस्सा खत्म।
यह पोस्ट दिल्ली से मुम्बई जाते हुए 10000 मीटर ऊंचाई पर हवाई जहाज पर लिखी जा रही। मतलब देखिये हम हिंदी को जमीन से 10 किमी ऊँचा तो उठा ही दिए। मुम्बई से रात तक गोवा पहुंचेंगे। वहां हफ्ते भर की ट्रेनिंग के दौरान गोवा के किस्से सुनायेंगे आपको।
ठीक है न।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207144201776873
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