गन्ना पेरा जा रहा है। छिलका बाहर गिर रहा है। |
दो कोल्हू आमने-सामने चल रहे हैं। |
एक और सीन कोल्हू का। |
गन्ने का रस गरम किया जा रहा है। नालियां ऊपर आई गन्दगी को निकालने के लिए हैं। |
रस गाढ़ा होकर गुड़ बनने के लिए तैयार है। खोये की तरह औंटकर गाढ़ा किया जा रहा है। और गाढ़ा होने पर बगल में रखे साँचे में डाला जाएगा इसको। इस स्थिति तक आये हुए रस को बचपन में राब के रूप में खाया है हमने। |
गन्ने के छिलके सुखाते मजदूर |
घूमघूम कर सुखाते है ईंधन को उलट-पलटकर |
गन्ने का खेत और बगल में पेरे गए गन्ने से निकले छिलकों का ढेर। |
भट्टी में ईंधन झोंकता बालक |
रंजीत मिल मालिक कुछ खेत खुद के कुछ किराए के। दिन भर में 18 से 20 कुंतल गुड बनता है। 7 साल पुराना कोल्हू है। थोक दाम 23 से 24 रुपया प्रति किलो। व्यापारी खुद ले जाते हैं। फुटकर 30 रुपया प्रति किलो। |
पिछले दिनों लखीमपुर से सीतापुर के रास्ते में कोल्हू देखा। गन्ने के खेत के पास ही लगे थे दो कोल्हू। खेत से कटा हुआ गन्ना कोल्हू के पास ही जमा था। उठाकर कोल्हू में पेरा जा रहा था। धूल, मिट्टी समेत। कोल्हू से निकलकर गन्ने का रस अलग-अलग सीमेंट की बनी एक हौद से दूसरे में जा रहा था। इस प्रक्रिया में गन्ने का रस गाढ़ा होता जा रहा था।
रस के एक हौद से दूसरे में जाने के दौरान उसको गरम भी किया जा रहा था। खौलते रस से ऊपर जो मैल उतरा रहा था उसको बाहर निकालते जा रहे थे। रस जो शुरू में कालिमा युक्त था वह मैल निकालने की प्रक्रिया में गोरा होता जा रहा था। आखिरी वाली हौद में कोई पाउडर सा मिलाया गया जिससे रस और उजला हो गया। गन्ने का रस काले लाल/गुलाबी करने के लिए एक केमिकल मिलाया गया। शक्कर जो भक्क सफेद और दानेदार दिखती है उसके बनने में क्या-क्या मिलता होगा इसकी कल्पना करिये।
सबसे आखिर की हौद से निकलने के बाद रस गाढ़ा हो गया तो उसको एक आयताकार हौद में खोये की तरह औंटाया गया। और गाढ़ा हो जाने पर कटे हुए शंकु के आकार के लोहे के साँचे में भर दिया गया । कुछ देर में यह गुड़ बन गया।
गन्ने के पेरने के दौरान उसके छिलके का उपयोग वहीं उसको सुखाकर ईंधन के रूप में किया जा रहा था। कोल्हू से निकले छिलके के चट्टे खेत में लगे थे। उनको धूप में छितराने के लिए कई मजदूर लगे थे। सूख जाने पर वही ईंधन सुलगाकर उससे रस खौलाया जा रहा था। 1 से 2 घण्टे में गन्ने के छिलके ईंधन के रूप में जलने के लिए तैयार हो जाते हैं।
गन्ना चूसे हुये छिलके को चिफुरी कहते हैं। एक बार मेरे पिताजी किसी को खेत में गन्ना चूसने के किस्से सुना रहे थे। एक सुनने वाले ने मासूमियत से पूछा-'काहे दादा, जब गन्ना चूसत हुइहौ तौ चिफुरी तौ बहुत हुई जाती हुईहै।' :)
गन्ने के रस से गुड़ बनने के दौरान जो गन्दगी निकलती है (माई कहते हैं उसे) उसका उपयोग ईंट बनाने वाले भट्टे ईंधन के रूप में और खेतों में खाद के रूप में होता है। इस तरह गन्ने का कोई भी अंश बेकार नहीं जाता। हरेक का उपयोग होता है।
वहां काम करने वाले लोग आसपास के गाँव के ही लोग हैं। एक मजदूर ने बताया कि उनको रोज के 170 रूपये और मिस्त्री को 250 रूपये मिलते हैं। आठ घण्टे की ड्यूटी के लिए। गन्ने पेराई का सीजन छह महीने रहता है। उतने दिन ये यहां काम करते हैं इसके बाद लखनऊ/कानपुर निकल जाते हैं रोजगार के लिए। वहां मजूरी 250/- रूपये रोज मिल जाती है।
गन्ने की किस्में गिनाई COG70, 038, लख़नौआ, आरती। लख़नौआ में रस कम निकलता है। लेकिन मिल में बहुत चलता है। शराब बनाने के लिए वह गन्ना प्रयोग होता है जिसमें रस पतला निकलता है। गन्ना 260 रूपये कुंतल है आजकल।
दिन भर में 18 से 20 कुंतल गुड़ बनता है कोल्हू में। थोक में 23 से 24 रूपये में व्यापारी ले जाते हैं। मतलब गन्ना से गुड़ बनने के पर कीमत में 100 गुना बढ़ जाती है। खुद जाकर बाजार में बेंचने पर 30 रूपये किलो बिकता है गुड़। बाजार में ग्राहक को 40 से 50 रूपये प्रति किलो मिलता है। मतलब गन्ने के दाम का 200 गुना करीब।
गन्ने के कोल्हू छह महीने ही चलते हैं। इसके बाद बन्द। शुरुआत करते हैं तो कोल्हू की ग्राइंडिंग वगैरह कराते हैं।
हम लोग गन्ने का रस लेकर आये प्लास्टिक की बोतल में। घर में चावल और गन्ने के गठबंधन से रसाएर बना। गुड़ की भेली इतनी नरम थी कि हाथ से मोड़ते ही शराफत से दो टुकड़े हो गयी।
गन्ना खेत में अकड़ा खड़ा रहता है। पेरे जाने पर अकड़ खत्म हो जाती और मिलकर मीठा हो जाता है। इस बात को ध्यान करते हुए एक तुकबन्दी कभी की थी:
उई बने रहत, उई बनी रहति
पर दोनों गन्ना अस तने रहत
औ मिलि 36 की सृष्टि करत।
अल्ला से यही प्रार्थना है
ईश्वर से यही गुजारिश है
यो गन्ना बदले गुड़ भेली माँ
और 36 उलटैं 63 माँ।
सबजन मिलजुल कर बने रहें
हंस-हंस, खिल-खिल करे रहें।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207214638457746
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