ञान चतुर्वेदी जी आलोक पुराणिक के साथ |
व्यंग्य और साहित्य में नया काम करने की जरूरत पर बल देते हुए ज्ञान जी ने कहा- 'अगर आज मेरा कद कोई दस फिट बताता है तो उसमें आठ फिट इन बुजुर्गों के कारण है। हम कुछ ऐसा लिखें कि बुजुर्गों के लिखे में कुछ नया जोड़ें, आगे बढ़ाएं, विस्तार करें। यह न हो कि हम बस बुजुर्गों की बनाई हवेली का किराया वसूलते रहें और किस्से सुनाते रहें कि ये शानदार हवेली हमारे बुजुर्गों की हैं। उस हवेली की देखभाल करना, उसमें कुछ नया जोड़ना भी हमारा काम है।'
अगला विमोचन समारोह किताबघर के पास ही भावना प्रकाशन पर होना था। Subhash Chander जी के 'हिंदी व्यंग्य का इतिहास' के तीसरे संस्करण और कमलेश पाण्डेय जी के व्यंग्य संग्रह 'आत्मालाप' का विमोचन होना था।
समकालीन हिन्दी व्यंग्य के खलीफ़ा एक साथ प्रेम जन्मेजय, हरीश नवल, सुशील सिद्धार्थ, ज्ञान चतुर्वेदी , आलोक पुराणिक |
'हिंदी व्यंग्य का इतिहास' का विमोचन करते हुए ज्ञान जी ने सुभाष चन्द्र की विकट तारीफ़ की। कहा- सुभाष चन्द्र अद्भुत प्रतिभा के धनी हैं। विकट मेहनत कर लेते हैं। व्यंग्यकार हैं, इतिहासकार हैं, आलोचक हैं, रेडियो के लिए लिख लेते हैं, फिल्मों के लिए लिख लेते हैं। इतने सारे काम वे कर लेते हैं। व्यंग्य का इतिहास लिखकर उन्होंने बहुत बड़ा काम किया है। सुभाष जी के पीने के शौक पर भी उन्होंने कुछ मजे लिए।
सुभाष जी ने व्यंग्य का इतिहास लिखने में खर्च हो गए आठ-दस सालों की बात कही कि ये समय बर्बाद हो गया। व्यंग्य लेखन में पिछड़ गया। हजारों किताबें पढ़नी पड़ीं। रात 3 बजे तक जगना पड़ा।
ज्ञान जी ने सुभाष जी की बात पर कहा कि अच्छा काम हुआ इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए। व्यंग्य पर इससे पहले कुछ व्यवस्थित काम हुआ नहीं था।
सुभाष जी ने हिंदी व्यंग्य का इतिहास समेत कुल मिलकर 40 किताबें लिखीं हैं अब तक। दस साल में हजारों किताबें पढ़ने वाली बात को ध्यान करें तो लगता है कि अगर ये दस साल सुभाष जी इतिहास लिखने में न खपाते तो हमारे पढ़ने के लिए कितनी किताबें और लिख मारते। कहने का मतलब हर खराब लगते पक्ष का एक अच्छा पहलू भी होता है। :)
पंकज प्रसून, प्रेम जन्मेजय, हरीश नवल , सुशील सिद्धार्थ और पीछे कमलेश पाण्डेय |
ज्ञान जी ने पुराने लेखन को भूलकर आगे रचने की बात कहते हुए पुराने लिखे को 'नसेनी' (सीढ़ी)की तरह प्रयोग न करने की बात कही। सुशील जी ने इसे तुलसी के 'अब लौं नसानी अब न नसैहौं' से जोड़ते हुए अब तक बर्बाद हुए आगे न होंगे जैसी बात कही।
संचालन सुशील जी ने ही किया था। शानदार। सुभाष जी के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा- 'सुभाष के इस काम के पीछे उनकी मेहनत ही नहीं प्रतिभा का बड़ा योगदान है, कर्मठता का योगदान है (एक और किसी 'ता' का योगदान बताया था हम भूल गए)। इसके बाद कहा यह सब मैं घर से रटकर आया था कि यह बोलना है। :)
ज्ञान जी ने सुशील जी की भी तारीफ़ की और कहा -'सुशील जी ने देर से लिखना शुरू किया। लोग खराब लेखन से शुरुआत करते हैं। लिखना सीखते हैं। फिर अच्छा लिखते हैं। लेकिन सुशील जी लिखना शुरू करते ही अच्छा लिखने लगे। बहुत अच्छा लिखते हैं।उनके लिखे हुए को देखकर लगता है कि व्यंग्य लेखन में वे सिद्ध लेखक की तरह सीधे अवतरित हुये हैं।'
हिन्दी व्यंग्य की विभूतियां एक साथ सुशील सिद्धार्थ, ज्ञान चतुर्वेदी, आलोक पुराणिक, नीरज वधबार, सुभाष चन्दर, अनुज त्यागी और सम्तोष त्रिवेदी |
ज्ञानजी ने अपनी बात को विस्तार देते हुए शरद जोशी के हवाले से कहा -'एक लेखक को हमेशा यही समझना चाहिए कि वह नया है। आज ही लिखना शुरू किया उसने। तभी वह सच्चा लेखक हो सकेगा।'
कमलेश पाण्डेय जी ने अपनी बात कहते हुए कहा कि वे चुपचाप अपना लेखन करने में लगे रहे। प्रचार की तिकड़म से अपरिचित। उनके तीसरे व्यंग्य संग्रह की भूमिका लिखते हुए सुशील जी भी ने लिखा है-'व्यवहार में बहुत कम खुलने वाले कमलेश अपने लेखन में खुलते भी हैं, खिलते भी हैं।'
आत्मालाप संग्रह का अंश -'श्रीमती जी साफ़ कहती हैं कि उन्हें देख-देखकर मुग्ध होने का नाटक मैं अक्सर इसलिये करता हूँ कि इन दिनों अनिवार्य से हो चले ब्यूटी पार्लर और फिटनेस सेंटर के खर्चे से बच जाऊं।' पढकर मुझे लग रहा है जल्द ही इस संग्रह की की पूरी रचनाएँ पढ़ लूँगा।
भावना प्रकाशन से दोनों किताबें मैंने खरीद लीं। उधार। उधार इसलिए क्योंकि पैसे पास में थे नहीं और एटीएम रास्ते में मिला नहीं। सुभाष जी ने दोनों किताबों के दाम आधे करा दिए। सुभाष जी की किताब 1000 रुपये और कमलेश जी की 350 रूपये की है। दोनों मिलाकर कुल 675 रूपये की मिलीं। आज ही नेट बैंकिंग से पैसा भावना प्रकाशन को भेज देंगे। ज्ञान जी की किताब 'रंदा' भी 350 रूपये की है लेकिन वो किताबघर वालों ने 250 रूपये की दी। लौटते हुए मालिश महापुराण का पेपरबैक संस्करण भी खरीदा जो कि 150 रूपये का है लेकिन मेले में 110 का मिला।
सुभाष जी की किताब व्यंग्य का इतिहास में कुल 542 पृष्ठ हैं। बकौल श्रीलाल शुक्ल 'मुगदर साहित्य' (जिसे मुगदर की तरह प्रयोग करके कसरत की जा सके) की श्रेणी में रखी जा सकती है। यह किताब लेते ही हमने देखा कि इसमें हमारा भी नाम है। यह देखकर किताब और अच्छी लगने लगी।
पुस्तक विमोचन होने के बाद जमकर फोटोबाजी हुई। सबने अपने प्रिय लेखकों के साथ फोटो खिंचाये। ज्ञान जी आलोक पुराणिक के साथ अलग से फोटो खिंचाया जिसको Alok Puranik ने अपने प्रोफाइल पर लगाते हुए लिखा - व्यंग्य के विश्वविद्यालय के साथ व्यंग्य का एक छात्र।
आलोक पुराणिक की ज्ञान जी के साथ फोटो संतोष त्रिवेदी ने खींची और सलाह साथ में टिका दी की आलोक जी से अपेक्षा है कि वे बाजारबादी लेखन से हटकर सरोकारी लेखन भी करें। आलोक पुराणिक यही कहकर बवाल काटा कि काम करते रहें हम लोग बस वही बहुत है।
आलोक पुराणिक वैसे तो प्रसिद्ध हैं हीं व्यंग्यकार के रूप में। लेकिन एक और खासियत उनको देश भर में प्रसिद्द कर सकती है कि उन्होंने 6 महीने में अपना वजन 22 किलो कम किया। उनको स्लिम, ट्रिम और काम भर का स्मार्ट बताते हुए नीरज बधवार ने सलाह दी की एक दिन के लेखन का पारिश्रमिक उनको डाई पर लगाना चाहिए इससे और हसीन से लग सकें।
Neeraj Badhwar का जिक्र करते हुए और फिर तारीफ़ करते हुए सुशील जी ने बताया था कि उनको नीरज ने फेसबुक पर अन्फ्रेंड कर दिया है।उसका किस्सा नीरज ने मुझे बताया लेकिन किस्से की निजता का सम्मान करते हुए हम यहाँ नहीं लिख रहे।
फोटो सेशन तक इतने लोग हो गए थे कि कैमरे में अंट नहीं रहे थे। किसी ने सुझाव दिया कि कुछ लोग जमीन पर बैठ जाएँ लेकिन कोई जमीन से जुड़ने को तैयार नहीं हुआ। अलबत्ता अर्चना चतुर्वेदी, जिनकी फोटो किनारे खड़े होने से न आने का खतरा लग रहा था, जरूर किनारे से बीच में जाकर खड़ी हो गयीं यह कहते हुए कि इससे सबकी फोटो अच्छी आ जाएंगी।
विमोचन होने के बाद हम आलोक पुराणिक , नीरज बधवार और अनुज त्यागी के साथ बतियाते हुए बाहर निकल गए। बाकी लोग अपने-अपने हिसाब से और लोगों के साथ। अनुज त्यागी, आलोक पुराणिक और नीरज बधवार को विदा करके लौटे तो सुभाष चन्दर जी पंकज प्रसून और अभिषेक के साथ खड़े मिले।
सुभाष जी 3 बार मुझसे यह शिकायत की मैंने अपने आने के प्रोग्राम के बारे में पहले क्यों नहीं बताया। मैंने कहा - 'मैं बताता तो आप मुझसे इंतजार करते। आपको मुझसे अपेक्षा हो जाती। अगर मैं अपेक्षा पर खरा न उतरता। अपेक्षा पर खरा उतरने पर बड़ा लफड़ा होता है चाहे वह जिंदगी में हो या लेखन में। है कि नहीं।' :)
इसके बाद मैं जब दुबारा मेले पहुंचा तो सब दुकानें बंद हो रहीं रहीं थीं। सबको बाहर की तरफ भेजा जा रहा था। लोग किताबों के थैलियां समेटे घर वापस जा रहे थे। पुस्तक मेला सिमट रहा था।
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