Tuesday, June 02, 2015

'धीरे धीरे मचल ऐ दिले बेकरार

जैसे सूरज की गर्मी से,
जलते हुये तन को,
मिल जाये तरुवर की छाया,
ऐसा ही सुख मेरे, मन को मिला है,
मैं जबसे शरण तेरी आया।

चाय की दूकान पर बजते हुए इस गाने को सुनते हुए सूरज भाई मानो ऊपर से कह रहे हैं -'देख लो अपना जलवा। जला देते हैं सबको।'

हम कहते हैं जलवा तो तरुवर का है भाई जो तुम्हारे ताप से लोगों को बचाता है। जलाना तो अपनी ताकत का प्रदर्शन है। कमजोरी की निशानी है। पेड़ तो खुद जलकर लोगों तो तुम्हारे ताप से बचाता है। उसका जलवा बड़ा है। ताकतवर तो तरुवर है। खुद गर्मी सहता है लेकिन शरणागत को बचाता है।

सूरज भाई यह सुनकर बादल की आड़ में चले गए।

चाय की दूकान पर लाइटर लटका है। आते-जाते लोग उससे बीड़ी-सिगरेट सुलगाते जा रहे हैं। पहले यह काम एक सुलगती हुई रस्सी का सिरा करता था। रस्सी धीरे-धीरे सुलगती रहती थी। लोग उसके सुलगते सिरे पर बीड़ी सिगरेट धर कर जला लेते। अब रस्सी की जगह लाइटर ने ली है।
सुख के सब साथी
दुःख में न कोई।

यह गाना बज रहा है। हम अकेले बैठे हैं चाय की दूकान पर। कोई साथ नहीं है। तो क्या दुखी कहे जायेंगे? नहीं न! सुख और दुःख महसूस करने पर है। जिस स्थिति कोई व्यक्ति दुखी होकर हाय-हाय करने लगता है उसी स्थिति में कोई दूसरे भाई जी ईश्वर का धन्यवाद देते हुए सन्तोष व्यक्त कर सकते हैं-'हे ईश्वर, आपका बड़ा वाला थैंक्यू कि सस्ते में निपटा दिए।'

यह बात अगले गाने में सिद्ध भी हो गयी। गाना बजा:
'तोरा मन दर्पण कहलाये
भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए।
मन उजियारा जब जब फैले
जग उजियारा होय।
सुख की कलियाँ दुःख के कांटे
मन सबका आधार।'

मतलब कहने का कि अगर जीवन में सुख की कलियाँ खिलीं हैं या दुःख के कांटे यह सब मन के खाद-पानी और बीज के चलते है। कोई दूसरा इसके लिए जिम्मेदार न है।

दर्पण की जब भी बात चलती है मुझे शाहजहाँपुर के साथी वासिफ जी का यह शेर याद आता है:
'साफ़ आईने में चेहरे भी नजर आते हैं साफ़
धुंधला चेहरा हो तो धुंधला आईना भी चाहिए।'

मने जब हाल खराब हों तो परखने के पैमाने छोटे कर दो।
अगला गाना बजा:
ऐ मालिक तेरे बन्दे हम
ऐसे हों हमारे करम।
नेकी पर चलें बदी से बचें
ताकि हंसते हुए निकले दम।

चेहरे के सामने कीड़े भुना रहे हैं। लग रहा है मेरे चेहरे के सामने की जगह इनके लिए स्टेज हो और वे सब वहां धमाचौकड़ी कर रहे हों। क्या पता कीड़े एक दूसरे को रिझा रहे हों। एक कीड़े उछलकर मेरी भौं पर बैठ गया। लगता है वह नेता टाइप कीड़ा है। भौं के रूप में जरा सा ऊँची दिखी होगी और झट से उस पर काबिज हो गया। क्या पता भाषण भी दे रहा हो- 'भाइयों और बहनों, ये आसपास बढ़ती हुई सफाई हमारे अस्तित्व के लिए घातक है। मैं आपको इस सफाई से निजात दिलाउंगा। गन्दगी फैलाउंगा। आइये आप हम सब मिलकर गन्दगी फैलाएं।अपना अस्तित्व बचाएं।'

हो सकता है इस पर बाकी कीड़े अपनी सूंड फड़फड़ाते हुए उसका स्वागत करते हों। क्या पता कोई लगुआ कीड़ा चिंचियाकर हल्ला मचाता हो- 'हमारा नेता कैसा हो?' इस पर भगुए कीड़े दहाड़ते हुए कहते हों- 'कीड़े भाई जैसा हो।'

लगता है रेडियो वाली ने हमारी गन्दगी फैलाने वाली पोस्ट करने के पहले ही बांच ली क्योंकि विज्ञापन आ गया: 'जहां सोच वहां शौचालय।' पूरी दुनिया गन्दगी के खिलाफ कमर कसे तैयार है लेकिन गन्दगी ससुर है कि बढ़ती ही जा रही है।
चलते हुए गाना सुन रहे हैं:
'दिल देके देखो, दिल देके देखो, दिल देके देखो जी
दिल लेने वालों दिल देके देखो जी।'


सबेरे-सबेरे किसको दिल दिया जाए, किसको देके देखा जाए कुछ समझ नहीं आता। आपको आता है तो बताइये।

आपका दिन चकाचक बीते। बजरँगबली की कृपा बनी रहे आप पर।

फिलहाल तो चलते हैं। व्हीकल मोड़ के पास 'पंकज टी स्टाल' से 'धीरे धीरे मचल ऐ दिले बेकरार, कोई आता है' गीत सुनते हुए सुबह के 7 बजकर 29 मिनट पर मैं अनूप शुक्ल।
 

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