Monday, June 29, 2015

उठ जाग मुसाफिर भोर भई

चूँकि साइकिल शाम को ही मिल गयी सो सुबह भी टहलने निकले। निकलते ही पानी रिमझिमाने लगा। मन किया वापस लौट लें। सो वापस लौटे और एक पालीथीन में मोबाइल और पैसे रखकर फिर निकल लिए। भीगते हुए। बारिश में वर्षों बाद भीगने का आनन्द लेते हुए।

सड़कों के किनारे जगह-जगह फुटपाथों पर , दुकानों के आगे लोग सो रहे थे। एक दूकान के बाहर 2-3 फिट की जगह पर कुछ लोग जग कर अंगड़ाई लेते हुए दिखे। सीतापुर के महमूदाबाद के रहने वाले ये लोग यहां इमारती सामान की दूकान पर काम करते हैं। सरिया और अन्य सामान ठेलिया पर धरकर ग्राहक के पहुंचाते हैं।
बारिश हो रही थी। हमने पूछा-अभी धीमी है। तेज हो जायेगी तो क्या करोगे? बोले- 'अभै बईठ हन। ज्यादा जोर होई तौ ठाड़ हुई जाब।' यह भी बोले-'मौसम के हिसाब से जाड़े का मौसम सबसे नीक है। ओढ़ बिछा के पर रहौ मजे ते।'

सीतापुर की बात चली तो याद आया कि अवधी के प्रसिद्ध कवि पण्डित वंशीधर शुक्ल पास ही लखीमपुर के मन्योरा गाँव के रहने वाले थे।प्रसिद्ध गीत:

उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
अब रैन कहां जो सोवत है।
के अलावा उन्होंने कई और अद्भुत गीत अवधी और खड़ी बोली में लिखे। पहले कांग्रेसी और बाद में समाजवादी हो गए। भाई साहब Ashok Kumar Avasthi ने उनके साथ की यादें साझा करते हुए बताया:

'उनको हम लोग मामा कहते थे। विधायक भी रहे। अपना सारा पैसा लोकहित में खर्च करते रहे। आजीवन फक्कड़ रहे। नंगे पैर चलते थे। चाय-पकौड़ी के शौक़ीन थे। स्वतन्त्रता के बाद किसान आंदोलन में भागेदारी की। आशु कवि थे। एक बार हमने कहा मामा हमारे लिए कविता लिखो तो उन्होंने कुछ ऐसा लिखा:

'हम अशोक हैं, हम अशोक हैं
भोला बच्चा हमें न समझो
दिल का कच्चा हमें न समझो'

जिसने लोकप्रिय वे थे अगर सरकार का विरोध न करते तो बहुत सफल होते। लेकिन वो हमेशा सरकार के खिलाफ जनता के हित में आवाज उठाते रहे। उस समय के लोग  अलग ही तरह के  स्वाभिमानी लोग थे।'

आगे पालीटेक्निक चौराहे पर चाय पी। दूकान पर मिले निर्मल कुमार तिवारी।बहराइच के एक गाँव के रहने वाले। कक्षा 6 पास। घर में बाग़-बगीचा सब था लेकिन घाघरा नदी की कटान में बह गया। पढ़ाई छोड़कर चाय की दूकान पर काम करते हैं। रात में निर्मल चलाते हैं दूकान। दिन में मालिक खुद। 3000/- और रहने खाने के बदले रात भर काम। बड़ा भाई दिल्ली में काम करता है। दो छोटे भाई गाँव में रहते हैं।

कुछ 100 नम्बर वाले पुलिस वाले आये। एक ने दूकान से बिस्कुट निकालकर खाना शुरू कर दिया। बाकी दूसरी दूकान पर लगे। पुलिसवाले चाय, नास्ता, पान मसाला और त्योहारों पर दारू के लिए पैसे लेते हैं ठेला लगाने देने के बदले। 

चार साल पहले आये थे घर से नौकरी करने निर्मल। पढ़ते होते तो अब तक हाईस्कूल कर लिये होते लेकिन जिंदगी के स्कूल में दाखिला लेने के बाद स्कूल की पढ़ाई छूट गयी। चलते समय बोले- फिर आइयेगा अंकल।
आगे चले तो पता चला फैजाबाद रोड पर आ गए। पता चलने पर  लौटे। एक जगह एक बुजुर्ग बांस काट छीलकर सामान बनाने के लिए तैयार कर रहा था। हमको Rajeshwar Pathak की कविता की लाइनें याद आई:
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे.

हम कोई आम नहीं
जो पूजा के काम आयेंगे
हम चंदन भी नहीं
जो सारे जग को महकायेंगे
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे.

बांसुरी बन के,
सबका मन तो बहलायेंगे,
फिर भी बदनसीब कहलायेंगे.

जब भी कहीं मातम होगा,
हम ही बुलाये जायेंगे,
आखिरी मुकाम तक साथ देने के बाद
कोने में फेंक दिये जायेंगे.

हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे ,उतना हरियायेंगे.
लौटकर गोमती नगर की तरफ मुड़े। सोचा Amit को दर्शन दिया जाए। मोड़ पर डामिनोस की पिज्जा की दूकान पर कई मोटरसाइकिलें टेढ़ी खड़ी थीं। लोग कहते हैं पिज्जा की डिलिवरी तुरन्त होती है।मन किया वहीं आर्डर दें और यह भरम खत्म करें। लेकिन फिर नहीं दिया आर्डर।

अमित के घर की घण्टी बजाई तो उस समय पौने सात बजने वाले थे। आँखे मलते हुए आने में जो समय लगा उतने में हास्टल के दिन याद कर लिए। विंग का पहला कमरा था अमित का। आते-जाते भड़भड़ा देते थे। जितनी देर यहां लगी खोलने में उतनी देर में तो दरवाजा पूरा बज गया होता। लेकिन हास्टल और घर , लकड़ी के दरवाजे और लोहे के गेट के अंतर ने हमें ऐसा कुछ करने नहीं दिया।

अमित ने बहुत बढ़िया चाय बनाई। पीने के पहले तारीफ का अनुरोध किया। हमने उदारता का परिचय देते हुए पीने के पहले ही तारीफ कर दी। प्रि ड्रिंक तारीफ। पीने के बाद लगा कि तारीफ बेकार नहीं गयी। 

चाय पीकर हम फ़ूट लिए।काफी देर हो चुकी थी। और देर होने पर खतरा था हड़काये जाने का खतरा था।
खरामा-खरामा साइकिल चलाते हुए वापस लौटे।हल्की बारिश हो रही थी। चश्मा उतारकर हमने जेब में धर लिया। बहुत दिन बाद ऐसी बारिश में भीगने का मजा लिया। सीतापुर वाले लोग दुकान के पास चूल्हा सुलगाकर खाना बना रहे थे। घर में सब लोग जग गए थे। सुबह हो चुकी थी। जो लोग अभी भी सो रहे हों उनके लिए फिर से पेश है पण्डित वंशीधर शुक्ल का गीत:

उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो तू सोवत है
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है

खोल नींद से अँखियाँ जरा और अपने प्रभु से ध्यान लगा
यह प्रीति करन की रीती नहीं प्रभु जागत है तू सोवत है.... उठ ...

जो कल करना है आज करले जो आज करना है अब करले
जब चिडियों ने खेत चुग लिया फिर पछताये क्या होवत है... उठ ...

नादान भुगत करनी अपनी ऐ पापी पाप में चैन कहाँ
जब पाप की गठरी शीश धरी फिर शीश पकड़ क्यों रोवत है... उठ ....

2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मटर और पनीर - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. उठ गये भाई जी, अब आप कहां सोने देंगे।

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