Sunday, November 01, 2015

किताबों के बहाने कुछ बातचीत

कल Diwas Mishra से मिलना हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के क़ानून के छात्र हैं। कुछ दिन पहले दिवस ने कहा था कि आएंगे मिलने। हमने कहा- ठीक। फिर तय हुआ कि मंगलवार को आएंगे। हमने कहा-ठीक। फिर कल फोन आया कि कब मिल सकते हैं। हमें लगा समय के बारे में पूछ रहे। हमने कहा-जब मन आये। दिन में हम दफ्तर में और उसके बाद मेस में मिलते हैं। फोन है ही।

कुछ देर बाद मेस के गेट से फोन आया कि मेस के गेट पर खड़े हैं। हम कहे -अरे तुम तो मंगल की बात किये थे। आज तो शनिवार है। इस पर बोले दिवस- 'आपने यह भी कहा था कि कभी भी आ सकते हो।'

हमने कहा-अच्छा किया। आओ। फिर फटाक से कुर्सी पर रखे कपड़े अलमारी में धरे। एक कुर्सी खाली हो गयी। एक कुर्सी बहुत थी एक जन के लिए। लेकिन न्यूटन के जड़त्व के नियम के झांसे में हम एक के बाद दूसरी भी खाली कर दिए। हफ्ते भर पहले से कुर्सी पर रखा सामान ठीहे पर रख दिए। फिर पता चला कि दिवस अपने मित्र अनुभव ओझा के साथ आये थे तो अनजाने में की गयी मेहनत सफल हुई।


खूब सारी बातें हुईं दोनों से। साल भर हम और दिवस मित्र हैं फेसबुक पर। मेरी कई पोस्टों का उल्लेख किया उन्होंने तो लगा कि मेरे लेखन के ऊपर तमाम लोग निगाह रखते हैं। यह भी अच्छा लगा कि कोई मित्र शहर आये तो मिलने आये इसलिए कि उसको मेरा लिखना पसंद है।

यह अलग बात है कि दिवस को शिकायत है कि उनकी पोस्ट्स हम नहीँ पढ़ते। कई कविताएं और कहानियां लिखी हैं उन्होंने। हमने वायदा किया अब पढ़ेंगे।

ढेर बातचीत और चायपानी के बाद फोटो सेशन हुआ। हमारे साथ फोटो खिंचाने के अलावा दिवस ने हमारे यहां रैक पर बिखरी पड़ी किताबें देखीं और उनके साथ फोटो भी खिंचाई। किताबों के कलेक्शन की तारीफ भी की। हमने कहा-'यह हवा-पानी के लिये रखी हैं।'

हमारा किताबों का भी मजेदार हिसाब है। जब भी कानपुर जाते हैं तो घर से एकाध - दो किताब ले आते हैं। यहां किताब बढती जा रहीं। यात्रा में भी किताब साथ ले जाते हैं। पर किताबें अक्सर जैसी की तैसी वापस आ जाती हैं। महीनों हुए कोई किताब मैंने पूरी नहीँ पढ़ी। पढ़ने की क्षमता जबरदस्त प्रभावित हुई है पिछले सालों में। यह तब है जबकि मैं कहता हूँ कि अगर मुझे आज दुनिया से विदा होने को कहा जाये तो एकमात्र अफ़सोस अगर होगा तो यह होगा कि मैं दुनिया की कई बेहतरीन किताबें पढ़े बिना चला गया।

कुछ सालों पहले तक मेरी पढ़ने की गति ठीक-ठाक थी। 'मुझे चाँद चाहिए' और 'पहला गिरमिटिया' जैसे हजारेक पन्ने वाली (बकौल श्रीलाल शुक्ल- मुगदर साहित्य) मैंने तीन दिन से एक हफ्ते में पढ़े। अब हाल यह है कि ऑनलाइन खरीदे गैर कई बेस्ट सेलर पहले पन्ने से दूसरे तक पहुंचने का इन्तजार कर रहे हैं।

आज सुबह देर से उठे तो टहलने नहीं गए। कुछ देर बाद जाने की सोची। पर फिर अचानक मन किया किताबें सरिया लीं जाएँ। बिखरी हुई पुस्तक निधि को सहेज लिया जाए।


किताबें सहेजते हुए हर किताब से जुडी हुई कोई न कोई घटना याद आती गयी। आधी से भी अधिक किताबें मैंने शुरू भी नहीं की हैं। कुछ शुरू की तो अधबीच में किसी न किसी कारण रुक गयीं। उनमें पुस्तक चिन्ह भी नहीं हैं कि कहां तक पढ़ चुके हैं। दो ऐसी किताबें हैं- दूधनाथ सिंह की 'आखिरी कलाम' और ज्ञान चतुर्वेदी की 'हम न मरब'। और भी कई हैं। मन किया की तय करते हैं कि दीवाली के पहले इनको बांच लेंगें। लेकिन फिर नहीं किया। क्या फायदा -क्या पता इधर-उधर फंस जाएँ। न पढ़ पाएं।तो काहे का अपराध बोध का वायस तैयार किया जाये।

बहुत अच्छी किताबें पूरी न पढ़ पाने के पीछे मेरा अवचेतन मन का बेवकूफी का वह तर्क भी काम करता है कि यह किताब खत्म हो गयी तो फिर क्या रहेगा पढ़ने के लिए। कोई किताब जब यह सोचकर पढता हूँ कि उसकी बहुत तारीफ़ हो चुकी है और वह बहुत अच्छी है तो फिर उसके पूरा पढ़ने में कोई न कोई बाधा आ ही जाती है। कोई नहीं तो यह कि इसके पढने के बाद क्या पढ़ेंगे।

कई किताबों की धूल झाड़ते हुए उदय प्रकाश के लेखों के संकलन की किताब 'ईश्वर की आँख' के कई बार पढ़े अंश फिर से पढ़ता हूँ। बचपन में सोन नदी में डूबने से बचने का किस्सा बयान करते हुए उदय प्रकाश ने लिखा है:
" सोन नदी के जल में मेरी वह अंतिम छटपटाहट अमर हो जाती। मृत्यु के बाद। लेकिन नदी के घाट पर कपड़े धो रही धनपुरिहाईन नाम की स्त्री ने इसे जान लिया। नदी की धार में तैरकर, खोजकर, उसने मुझे निकाला और जब मैं उसके परिश्रम के बाद दुबारा जिन्दा हुआ तो उसे इतना आश्चर्य हुआ कि वह रोने लगी।

तब से मैं स्त्रियों को बहुत चाहता हूँ। सिर्फ स्त्रियां जानती हैं कि किसी जीव को जन्म या पुनर्जन्म कैसे दिया जाता है।"

इसी किताब के एक और लेख जो शायद 90 के दशक में लिखा गया में उन्होंने लिखा-" वे लोग कौन हैं, जिनका हित साधने के लिए हमारे लोकतंत्र में, हम नब्बे करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार के प्रधानमंत्री समेत एक-चौथाई कैबिनेट आज न्यायालय के सामने ठगी, बेईमानी, षड़यन्त्र और गबन का मुजरिम बना खड़ा है।"

इस लेख का शीर्षक है-" ब्रह्मराक्षसों की छायाएं गांधी जी की चप्पल पहने घूम रहीं हैं।"

अपने लेखन यात्रा के दौरान उदयप्रकाश जी कई लेखन से इतर कारणों से आलोचना और चर्चा में रहे लेकिन यह निर्विवाद है कि उदयप्रकाश आज के हिंदी साहित्य के बेहतरीन कथाकारों में से एक हैं।

पिछले दिनों जब उदय प्रकाश जी ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाया तो उसके बाद कई लोगों ने भी वह इनाम लौटाया। इनाम लौटाते ही उनकी आलोचना होनी शुरू हुई। किसी ने बोला लेखक चुक गया, कोई बोला- पब्लिसिटी स्टंट है। किसी ने कहा- पैसा लौटाओ, कोई बोला-'ब्याज सहित लौटाओ।'

मजे कि बात इस पर लोगों ने व्यंग्य लिखे, चुटकुले बने, कार्टून बने। किसी समाज के 40 लेखक किसी बात पर अपनी उपाधियाँ लौटाए, पैसे लौटाए। इसपर समाज के लोग उनकी बात सुनने की बजाए उनकी खिल्ली उड़ायें, उन पर चुटकुलें बनाएं यह देखकर परसाई जी का लेख का वाक्य याद आता है-' शर्म की बात पर ताली पीटना।'
विदेश खासकर रूस, यूरोप से वापस आये लोग अक्सर यह बात कहते पाये जाते हैं कि वहां लेखकों के स्मारक हैं। उनका बड़ा सम्मान है। अपने यहाँ ऐसा नहीँ है शर्मनाक है यह। वही लोग अपने लेखकों की खिल्ली उड़ाते हुए उनको चुका हुआ बताते हैं। मजे कि बात है कि इनमें लेखक बिरादरी के वे लोग भी शामिल हैं जिनका लेखन उनके लेखन के कहीं आसपास नहीं हैं। लेखकों को चुका हुआ और बकवास बताने वालों में से बहुत बड़े प्रतिशत लोगों ने उनका लिखा पढ़ा भी नहीं होगा।

अगर समाज के लोगों को उपाधि लौटाने वालों का रवैया गलत लगता है, उसमें राजनीति लगती है तो उनको समझाना चाहिए, उनको आश्वस्त करना चाहिए कि भाई तुम्हारा सोचना ठीक नहीँ। हाल इतने खराब नहीं हैं। यह न करके लोग उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। उनको गरिया रहे हैं। उनके विरोध को मतलब से प्रेरित बता रहे हैं। उनके विरोध को पब्लिसिटी की भूख बता रहे हैं। मानों लेखक की किताबें फिल्म हैं जिनकी पब्लिसिटी होने से उनकी बिक्री बढ़ जाये। अगर सच में ऐसा कुछ होता तो जिन लेखकों ने उपाधियाँ लौटाई उनकी किताबों की बिक्री बढ़ गयी होती।

बाजार अपने हिसाब से इस घटना को कैश कर रहा है। इनाम वापसी की घटना के चुटकुले को आगे बढ़ाते हुए व्हाट्सऐप पर पत्नी वापसी का चुटकुला तैर रहा है। पत्नी भी सामान हो गयी।

घर-परिवार का कोई सदस्य किसी बात पर नाराज होता है तो बाकी के लोग उसको लुलुहाते हुए घर से बाहर नहीं कर देते। उनकी बात सुनते हैं और मुद्दे का समाधान खोजते हैं। अपने यहां हम जिस भी लेखक ने विरोध किया उसके चरित्र और लेखन प्रमाण पत्र में प्रतिकूल प्रविष्टि दर्ज करके उसको खारिज कर दे रहे हैं। यह प्रवृत्ति मेरी समझ में बहुत घातक है।

कहाँ से चलते हुए बात कहां तक पहुंच गयी। कहना सिर्फ यही चाहता था कि जो समाज अपने समय के बेहतरीन लेखकों की इज्जत नहीं कर सकता। जो उनके उठाये मुद्दे ,भले ही वह बाद में गलत साबित हों, खुले मन से बात करने को तैयार होने की बजाय उनकी खिल्ली उढाता है, उनकी मंशा को मतलब से प्रेरित बताकर उनके विरोध को खारिज करके छुट्टी पा लेता है वह भले ही जीडीपी में सरपट आगे निकल जाये, विकास के कुलांचे भरने लगे लेकिन वह समाज कभी भी संवेदनशील समाज नहीं हो सकता।

आज न इतवार था। अच्छा बीता होगा। जो बचा उसे भी मजे से बिताएं। मस्त रहें।

2 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन लाशों के ढ़ेर पर पड़ा लहुलुहान... - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  2. बहुत बढ़िया पोस्ट ..यूँ ही मिलना जुलना होता रहे

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