आज सुबह नींद तो भोर में ही खुल गयी थी लेकिन जगे नहीं। इंतजार करते रहे अलार्म बजने का। जब अलार्म बजे, तब सबेरा हो। बहुत देर तक इंतजार करते रहे अलार्म बजने का। पर वो पट्ठा बज के नहीं दिया। एक बार मन किया कि भाड़ में गया अलार्म अब उठ ही जाते हैं लेकिन फिर सोचा कि फिर क्या फायदा अलार्म का।सोचा तो यह भी कि अपने आप उठकर एक - दो कंटाप लगायें अलार्म को कि बजता क्यों नहीं बे? बज तू तो हम भी उठें । पर यह सोचकर की छुट्टी के दिन हिंसाबाद ठीक नहीं हम इक बार फिर करवट बदलकर लेट गए। अलार्म बजने का इन्तजार करते हुए।
अलार्म बजने पर ही जागने की जिद कुछ ऐसे ही जैसे हम सोचते रहते हैं कि अवतारी पुरुष आएगा हमारा उद्धार करने। किसी उद्धारक के बिना कुछ सुधार करना मतलब खुद की और आने वाले उद्धारक की तौहीन करना है।
जब सच्ची में बहुत देर हो गयी तो घड़ी देखी। सात बज गए थे सुबह के। मोबाईल देखा तो पता चला बैटरी खलास हो चुकी थी। बैटरी विहीन मोबाईल अलार्म कैसे बजाता।
हम फौरन मोबाईल में मुंह में चार्ज का पिन घुसेड़े। बिजली पीते ही मोबाइल की साँसे वापस आयीं।चार्ज होंने लगा।
मोबाईल के रात में बिना बताये हुए डिस्चार्ज हो जाने की बात का कनेक्शन अपनी जिंदगी से जोड़ लिए। यह सोचे कि ऐसे ही कोई सुबह होगी जो वैसे तो सुहानी होगी पर दुनिया को पता चलेगा हम डिस्चार्ज हो गए। फिर वही कि एक दिन तो होना ही था। भले आदमी थे। भले तो नहीं पर इतने बुरे भी नहीं थे। खैर होनी को कौन टाल सकता है।
इन सब बातों को हमने दौड़ा के फुटा दिया। छुट्टी का दिन था। आराम से सुबह समय बर्बाद करते हुए चाय पीते हुए कमरे के बाहर पूरे लान में बिखरी धूप को निहारते रहे। धूप में थोड़ा कोहरा मिला हुआ था। घूप गुनगुनी और नशीली टाइप लग रही थी। नशीली इसलिए कि उसको पीकर लान की घास और पौधे और फूल पत्ती भीं जहां घूप पिए बस टुन्न सा होकर पसर गए।
नहा धोकर कपड़े फ़ैलाने गए धूप में तो पता चला बनियाइन तो तीन थी लेकिन अंडरवियर दो ही धुले थे। लौटकर देखा तो अंडरवियर अरगनी में टँगा हुआ हवा के साथ झूल रहा था। उसको रस्सी से उतार कर पानी के टब में डाल दिए। कल धोएंगे।अब अंडरवियर जिस बनियाइन के साथ का रहा होगा उसका तो जोड़ा बिछड़ गया। क्या पता अंडरवियर के वियोग में आंसू बहा रही हो बनियाइन। शाम को जो बनियाइन कम सूखेगी हमें लगेगा इसी बनियाइन का जोड़ा जुदा हुआ था।
नाश्ता करके फिर तालाब की तरफ निकले। दो लोग तालाब किनारे बैठे बतिया रहे थे। मुनव्वर अली और राजेश । मुनव्वर फैक्ट्री के सामने मूंगफली और शाम को अंडे बेचने का काम करते हैं। आज फैक्ट्री की छुट्टी तो मूंगफली का ठेला नहीं लगाये। अंडे बेचेंगे शाम को।
उबले अंडे आजकल 6 रूपये का एक बेचते हैं मुनव्वर। 4.10 रूपये का एक अंडा आता है कच्चा। फिर 40 रूपये लीटर मिटटी का तेल, अंडे के लिए चटनी। सबका खर्च मिलकर लागत और बढ़ती ही है। कुछ अंडे लाने ने टूट जाते हैं उसका भी हिसाब रखना होता है।
अभी जाड़ा नहीं पड़ रहा सो अंडे कम बिक रहे। तीन बच्चों का परिवार चलाना मुश्किल। जाड़े पड़ेंगे तो बिक्री बढ़ेगी।
मूंगफली और अंडे का काम 5 साल पहले शुरू किया मुनव्वर ने। इसके पहले 20 साल रिक्शा चलाया। फिर टेम्पो आ गए और बंधी सवारियां रिटायर होती गयीं तो रिक्शे का काम छोड़ दिया। गेट नम्बर 6 से व्हीकल मोड़ तक के 2 रूपये सवारी मिलते थे। स्टेशन के दस रूपये।आज ऑटो से स्टेशन के 100 रूपये पड़ते हैं।
साथ में बैठे राजेश ऑटो चलाते हैं। इसके पहले 15 साल रिक्शा चलाया। ट्रक भी चलाते हैं। फैक्ट्री से डिलीवर करने के लिये ट्रक ले जाते हैं तो डेढ़ रुपया प्रति किलोमीटर मिलता है ड्राइवरी का।
38 साल के राजेश के कोई बच्चा नहीं है। पत्नी के बच्चे दानी नहीं थी। पत्नी पिछली 8 नवम्बर को स्टोब फटने से नहीं रही। हमने कहा-'लोग तो तुमको भी कहते होंगे कि इसमें तुमने कुछ किया होगा।' इस पर वह बोला-'सब जानते हैं वहां कि हमारे घर के लोग ऐसे नहीं हैं।'
तालाब आज बन्द था। मुनव्वर ने कहा-'हम आपसे गेट नम्बर के पास मिले थे जब आपके घर के लोग रामफल की दुकान पर आये थे।' 11 महीने पहले की बात। रामफल की बात चली तो राजेश को पता चला कि रामफल नहीं रहे। 11 महीने तक उसके जेहन में रामफल के जिन्दा रहने की खबर ही चल रही थी।
चलते हुए हमने पूछा-'टीवी देखते हो? कुछ पता है कि आमिर खान ने क्या कहा है? क्या बवाल मचा हुआ है देश में आमिर खान के बयान पर?
इस पर दोनों ने कहा-'टीवी और न्यूज देखने की फुर्सत ही कहां। दिन भर निकल जाता है दिहाड़ी कमाने में।'
यह बयान आम कामगार के हैं। उसको टीवी और मिडिया के चोंचलेबाजी की कोई खबर नहीं। उसकी तमन्ना बस यही है कि नवम्बर खतम होने वाला और अभी तक ठण्ड नहीं शुरू हुई। ठण्ड पड़े तो अंडे ज्यादा बिकें कुछ बढ़िया कमाई हो।
तालाब से लौटते हुए देखा एक बच्ची अपने भाई के साथ ड्राइंग सीट लिए जा रही थी। कोई प्रोजेक्ट बनायेगी। एक महिला कुल्हाड़ी लिए जंगली झाड़ियाँ काट रही थी। घर के सामने बाड़ के रूप में लगाने के लिए। बताकर कन्धे पर कुल्हाड़ी धरे पगडण्डी पर चलते हुए वह घनी झाड़ियों की तरफ चली गयी। कन्धे पर कुल्हाड़ी धरे वह वीरांगना सी लग रही थी।
एक ठेले पर 'इटली' बिक रही थी। लिखने की जरा सी चूक के चलते एक देश ठेले पर धड़ल्ले से बिक रहा था। किसी को कोई एतराज नहीं हो रहा था।
शोभापुर क्रासिंग की तरफ गए। ओवरब्रिज पर मजदूर लगे हुए थे। उसकी सड़क पर कांक्रीट का काम हो रहा था।
दीपा को देखने गए। वह थी नहीं घर पर। उस कारखाने गए जहां वह दिन में रहती है वहां भी नही थी वह। शायद कहीं खेलने निकल गयी थी।
कारखाने में काम चल रहा था। मालिक से बात हुई। पता चला उनके पिता जी फैक्ट्री में ही काम करते थे। 1981 में रिटायर हुए। टूल रूम से। बच्चों ने उत्पादन का काम शुरू किया। एक साधारण कमर्चारी के बेटों का आज का टर्न ओवर 1 करोड़ रूपये सालाना है।
कारखाने के एक पार्टनर बीकॉम की पढ़ाई किये हैं। बचपन से ही मशीन का काम करने लगे थे। आजकल मशीन मरम्मत का काम चल रहा है। उनसे हाथ मिलाया तो देखा उनके हाथ की दो उँगलियाँ आधी ही थीं। बताया कि एक प्रेस में काम करते हुए कट गयीं थीं। उनकी कटी उँगलियाँ देखकर मुझे अपने बेहद अजीज मित्र की याद आ गयी जिसकी एक हाथ की उँगलियाँ बचपन में किसी दुर्घटना में कट गयी थीं। लौटते हुए हमने फिर हाथ मिलाया। इस बार देर तक मिलाया यह सोचते हुए कि देरी तक मिलाया हाथ अपने दोस्त से मिला रहे हैं। अपने शाहिद रजा का शेर याद करते हुए:
हरेक बहाने तुम्हे याद करते हैं
हमारे दम से तुम्हारी दास्ताँ बाकी है।
दीपा मिली नहीं तो उसके लिए जो बिस्कुट ले गए थे वह उसी कारखाने में दे आये। आएगी तब दे देंगे वे।
रांझी मोड़ पर फल लेने की सोचे। तो याद आया कि वहीं हमारे दोस्त प्रदीप-आस्था रहते हैं। उनके यहां गए। चाय पी। साथ ही उनके भांजे जयंत से पोयम सुनी-ट्विंकल-ट्विंकल लिटल स्टार। जयंत ने पोयम सुनाने से पहले मेरा नाम भी पूछा इसलिए क्योंकि हमने उसका नाम पूछा था। फोटो के लिए पोज देते हुए पूछा भी कि किस चश्मे को लगाकर फोटो दें? अपने धूप वाले चश्मे में या मेरे नजर वाले में। फिर तय हुआ धूप वाला ही ठीक रहेगा।
लौटते हुए सड़क किनारे तमाम कपड़ों की दुकाने दिखीं। कपड़े प्लास्टिक की मैनिक्वीन में रस्सी पर झूल रहे थे। दुकानदार शायद चाय पीने गया था क्योंकि जब मैंने दुकान का फोटो लिया तो आता हुआ दिखा और पूछा-'कुछ लेना है क्या?'
सड़क किनारे की ही फल की दूकान से हमने फल लिए। पपीता 25 रूपये किलो बिक रहा था। एक पपीता और 3 केले 25 के लिए। पैसे देते हुए हमने फल की दूकान मालकिन से पूछकर फोटो खींची। दिखाई तो उसने हंसते पूछा- 'का घर में दिखाओगे जाकर कि यहां से फल लाये?'
'हमने कहा तब क्या? नाम भी बता देव तो वो भी बता देंगे।'
नाम तो नहीं बताया पर यह बताया की पाटन से आते हैं फल लेकर यहां बेचने। ऑटो वाला 100 से 125 रूपये तक लेता है।
लौटकर खरामा खरामा साइकिल हांकते हुए कमरे पर आ गए और अब पोस्ट लिख रहे। आपका बचा हुआ दिन मंगलमय हो।
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