परसों हमने रोजनामचा में लिखा था:
"झील के रास्ते में एक जगह सुअर समुदाय इकट्ठा था। एक युवा सूअर दूसरे सूअर के ऊपर चढ़ा हुआ पीछे से उस पर धक्का लगा रहा था। बाकी सूअर इधर-उधर मुंह किये गन्दगी का नाश्ता कर रहे थे। एक बूढ़ा, मोटा सूअर वहां से हटकर दूर की तरफ चला गया। दूर की तरफ जाने की बात से मुझे दुष्यंत कुमार का यह शेर याद आ गया:
लहूलुहान नजारों का जिक्र आया तो...
शरीफ लोग उठे और दूर जाकर बैठ गए।"
"झील के रास्ते में एक जगह सुअर समुदाय इकट्ठा था। एक युवा सूअर दूसरे सूअर के ऊपर चढ़ा हुआ पीछे से उस पर धक्का लगा रहा था। बाकी सूअर इधर-उधर मुंह किये गन्दगी का नाश्ता कर रहे थे। एक बूढ़ा, मोटा सूअर वहां से हटकर दूर की तरफ चला गया। दूर की तरफ जाने की बात से मुझे दुष्यंत कुमार का यह शेर याद आ गया:
लहूलुहान नजारों का जिक्र आया तो...
शरीफ लोग उठे और दूर जाकर बैठ गए।"
आज बातचीत के दौरान एक पाठक मित्र ने मुझसे पूछा–'आपने सूअर समुदाय का फोटो क्यों नहीं लगाया? उसके साथ अन्याय क्यों?'
हमने कहा कि असल में मैं सुअर समुदाय की निजता के हनन की बात सोंचकर संकोच कर गया। आपको भेज देता हूँ वह फोटो। तो उन्होंने कहा कि हमको नहीं भेजिए। अपने स्टेट्स पर लगाइये। रोजनामचा आप सबके लिए लिखते हैं तो सबको देखने का हक़ है।
देखिये दूर से सूअर, कूड़ा और पानी/कीचड़ से गीली घास भी कितनी आकर्षक सी लगती है। कुछ न करने के वावजूद अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने वाली राजनीतिक पार्टियों के पोस्टरों की तरह आकर्षक।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10206700060433617&set=a.3154374571759.141820.1037033614&type=3&theater
हमने कहा कि असल में मैं सुअर समुदाय की निजता के हनन की बात सोंचकर संकोच कर गया। आपको भेज देता हूँ वह फोटो। तो उन्होंने कहा कि हमको नहीं भेजिए। अपने स्टेट्स पर लगाइये। रोजनामचा आप सबके लिए लिखते हैं तो सबको देखने का हक़ है।
देखिये दूर से सूअर, कूड़ा और पानी/कीचड़ से गीली घास भी कितनी आकर्षक सी लगती है। कुछ न करने के वावजूद अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने वाली राजनीतिक पार्टियों के पोस्टरों की तरह आकर्षक।
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