आज आलोक पुराणिक अड़तालीस साल के हो लिये।
आलोक पुराणिक से अपन की पहली मुलाकात कानपुर के सेंट्रल स्टेशन पर हुई थी बजरिये उनकी पहली किताब ’नेकी कर अखबार में डाल’। पहली मुलाकात में ही प्रभावित होने का कारण शायद यह रहा हो कि किताब सस्ती थी (सो बेझिझक खरीद ली) और लेख छोटे-छोटे और समझ में आने वाले। कानपुर से दिल्ली की यात्रा के दौरान किताब उसी दिन पढ़ डाली तो इसका कारण बेहतरीन लेखन समझा जाये या उस दौरान स्मार्टफ़ोन विहीन मोबाइल का पास न होना , कहना मुश्किल है।
बहरहाल ’ नेकी कर अखबार में डाल’ पढ़ने के बाद देखा कि बन्दा कई अखबारों में अपने लेख डालता रहता है।
पढ़ते तो अच्छे भी लगते लेख तो पढ़ने लगे। कई अखबारों में लेख छपते देखा तो हमें लगा कि भाईसाहब कुछ ऊंचे लेखक है। इस झांसे में आकर हमने इन ’युवा व्यंग्यकार’ का इंटरव्यू तक ले डाला।आज व्यंग्य में हास्य की बढ़ती मात्रा के बारे में आलोक पुराणिक का कहना था:
मीडिया के बाजारगत दबाव इधर व्यंग्य को हास्य की तरफ धकेल रहे हैं। लोग
हंसना चाहते हैं, ऐसी बातों से, जो दिमाग पर ज्यादा बोझ न डालें। विशुद्ध
व्यंग्य हंसाता है, पर दिमाग पर बोझ डालकर। व्यंग्य का एक नया आयाम यह है
कि उसमें हास्य की मिलावट ज्यादा हो रही है। यह व्यंग्यकार की विवशता है कि
अगर वह बाजार के लिए लिख रहा है, तो बाजार के दबावों को भी ध्यान में रखे।
आज जब आलोक जी का यह जबाब पढ़ा तो इधर के तमाम हिट व्यंग्यकारों के लेखन में बढ़ती मसखरी का कारण साफ़ हुआ।
इसके बाद आलोक पुराणिक ब्लॉगिंग के मोहल्ले में आये। सन 2006 में। प्रप्रंचतंत्र से शुरु हुये। अगड़म-बगड़म से होते हुये आलोक पुराणिक साइट तक आये। पहली दोनों अड्डे मुफ़्तिया थे सो उनके लेख वहां अभी भी मौजूद हैं। साइट गोल हो गयी है।
ब्लॉगिंग से जुड़े होने के चलते आलोक पुराणिक से बातचीत की भी शुरुआत हुई। शुरुआती दौर में वे कई ब्लॉगों पर नियमित टिपियाते भी रहे। खासकर ज्ञानदत्त जी के ब्लॉग पर उनकी तमाम बेहतरीन टिप्पणियां हैं। कुछ टिप्पणियों से तो उनके संवेदनशील होने तक होने का आभास मिलता है। :)
ब्लॉगिंग के दौरान एक विस्तार से बातचीत हुई थी आलोक जी से। इसमें उन्होंने ब्लॉगिंग को मस्ती की
पाठशाला बताते हुये ब्लॉगिंग से जुड़े कई मसलों पर गुफ़्तगू की थी। चिट्ठाचर्चा के एकलाईना लिखने के लिये उकसाने वाले आलोक पुराणिक ही थे।धीरे-धीरे भाईसाहब का ब्लॉगिंग से अलगाव होता गया। फ़ेसबुक पर शिफ़्ट हो गये अब लोग। लेकिन इस बीच जान-पहचान और फ़ोन की सस्ती दरों का फ़ायदा उठाते हुये अपने यदा-कदा बतियाने भी लगे। बतियाने के लिये सबसे अच्छा तरीका हमारे लिये यही होता कि किसी अखबार में छपे लेख की तारीफ़ से शुरुआत करते। एक बार किसी लेखक की तारीफ़ से शुरु करके तो लेखक से कुछ भी बतियाया जा सकता है।
आलोक पुराणिक को हमने पिछले सात-आठ सालों में लगातार पढा है। पढे न तो क्या करें? हर अखबार में छपते हैं तो कहां तक बचेंगे? अखबार के पैसे तो भी तो वसूल करने होते हैं।
एक व्यंग्य लेखक के रूप में आलोक पुराणिक की सबसे प्रभावित करने वाली बात जो मुझे लगती है वह है उनके लेखन की रेंज और वैरियेशन। नये-नये तरीके इजाद करते रहते हैं अपनी बात कहने के। कई तरह के फ़ार्मेट इजाद कर रखे हैं ’युवा व्यंग्यकार’ ने। आर्थिक मसलों के तो मास्टर हैं हीं आलोक जी इसके अलावा फ़िल्मों और समसामयिक घटनाओं पर भी पक्की नजर रहती है। इसलिये उनके लिखा पढने में बोरियत नहीं होती।
आलोक जी ने शेरबाजी भी खूब की है। साल भर के करीब का दौर रहा जब उनके स्टेटस पर शेर ही शेर दहाड़ते थे। एक से एक नायाब शेर। कभी-कभी तो देखकर लगा कि कहीं भाईसाहब व्यंग्य से मुशायरे में तो नहीं आ रहे। अच्छा हुआ कि ऐसा हुआ नहीं। उनकी देखा-देखी अपने ने भी ’शेरो-शायरी’ के नाम पर गदर काटना शुरु किया तो उन्होंने सलाह दी अपना तखल्लुस तो तय कीजिये शायर-ए-आजम। सलाह पर अमल करने में हम हीला-हवाली करते इसके पहले ही उन्होंने सुझा भी दिया- ’कट्टा कानपुरी’। इसके बाद तो हमने मजाक-मजाक में सैकड़ों शेर निकाल दिया ’कट्टा कानपुरी’ के नाम से। जिन भाई लोगों को ’कट्टा कानपुरी’ के कलाम से शिकायत हो वह आलोक पुराणिक पर मुकादमा ठोंक दे।
शौक और आदतें भले आलोक पुराणिक की मौज-मस्ती वाली हों लेकिन लेखन के मामले में वे एकदम अनुशासित सिपाही सरीखे हैं। बेफ़ालतू की बहसबाजी में टाइम वेस्ट करना पता नहीं कभी सीख भी पायेंगे कि नहीं। किसी गुटबाजी में अभी तक पड़े नहीं न ही कोई पत्रिका निकाली वर्ना अब तक ’व्यंग्य के खलीफ़ा ’ होते हुये ’व्यंग्य के माफ़िया’ हो लिये होते। पीठ पीछे भी किसी की बुराई नहीं करते।दूसरों की तो छोड़िये खुद तक की बुराई के पचड़े में नहीं पड़ते। इस मामले में खुर्राट होने की हद तक समझदार और दुनियादार हैं भाईसाहब। काहे के लिये फ़ालतू में समय बरबाद करना।
व्यंग्य पाठ भी अच्छे से करते हैं। हमने कई बार उनको अपने व्यंग्य लेख के रिकार्ड करके ’यू ट्यूब’ में डालने की सलाह दी है। सलाह को सिद्धांतत: तो मान लिया लेकिन अमल समय की कमी का बहाना बताते हुये अब तक स्थगित है । शायद अपनी आवाज थोड़ा खराब होने का इंतजार कर रहे हों ताकि लेख की कमियां साफ़ नजर न आयें।
समसामयिक घटनाओं को स्कूल के बच्चे के निबंध के माध्यम से, प्रपंचतंत्र वाले फ़ार्मेट में, सर्विस सेंटर वाले अंदाज में कहने में महारत हासिल है। बाजार और बाजार से प्रभावित समाज की विसंगतियों पर लिखना भाता है आलोक पुराणिक को। तेजी से बदलते समाज में पैसा क्या गुल खिला रहा है यह उनके राडार पर रजिस्टर होता रहता है। राजनीतिक व्यक्तियों और घटनाओं पर लिखने से परहेज नहीं है लेकिन किसी खास विचारधारा की राजनीति की पक्षधरता वाले व्यंग्य शायद नहीं लिखे । सामाजिक मुद्दों पर उन मुद्दों को पर तो खूब लिखा है पुराणिक जी ने जिन पर बाजार ने प्रभाव डाला है। लेकिन ’पुराने जमाने के व्यंग्यकारों की तरह’ सामाजिक कुरीतियों पर चोट पहुंचाने वाले लेख लिखने के चक्कर में नहीं पड़े । काहे को अपना रक्तचाप बढ़ाना जब मजे-मजे में अपनी बात कही जा रही है।
पता नहीं आज के समय में ,जबकि हास्य और व्यंग्य सबसे ज्यादा पढ़े जाते हैं , साहित्य में व्यंग्य की क्या स्थिति है? कोई आलोचक इस बारे में लिखना तो दूर बात तक नहीं करना पसंद करता। शायद उनकी गरिमा कम होती हो। ऐसे में पता नहीं आलोक पुराणिक की रचनाओं का किस तरह मूल्यांकन होगा। पता नहीं होगा भी या नहीं होगा। कोई कसौटी भी बनाई है आलोचकों ने या नहीं। लेकिन एक पाठक की हैसियत से यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि आलोक पुराणिक आज के समय के बेहतरीन व्यंग्यकार हैं। पाठक उनको पढ़ते हैं , पसंद करते हैं यही शायद सबसे बड़ा मूल्यांकन है उनका।
आजकल व्यंग्य लेखन के अखाड़े में सक्रिय जितने भी पहलवान हैं उनमें से मैं आलोक पुराणिक को सबसे तगड़ा पहलवान मानता हूं। ऐसा मानने का कारण है उनके लेखन की विविधता और रेंज। आज व्यंग्य लेखन का जैसा चलन है उसके लिहाज जैसे ही मीडिया में किसी घटना की सूचना आती है वैसे ही व्यंग्य लेखक उस पर लिखने के लिये टूट पड़ते हैं। आलोक पुराणिक की खूबी यह यह है कि जिस घटना पर बाकी लेखक एकाध लेख ही निकाल पाते हैं उसी घटना से वे अलग-अलग कोण से तीन-चार लेख बड़े आराम से निकाल लेते हैं।
अभी आलोक पुराणिक को बहुत कुछ लिखना है। उपन्यास बकाया हैं। पचास का होना है। फ़िर षष्टिपूर्ति होनी है। फ़िर हीरक जयन्ती मननी है। फ़िर मठाधीश बनना है। फ़िर शतायु होना है। फ़िर कालजयी होना। बहुत काम बाकी हैं। यह सब काम लिखते-लिखते होने हैं। और जो स्पीड है लिखने की आलोक पुराणिक की उससे हर साल एक नई किताब आ ही जानी चाहिये। इनाम-सिनाम भी मिलने ही लगें हैं। पिछले साल भी दो-चार इनाम झटक ही लिये अर्थशास्त्री व्यंग्यकार ने। आगे चलकर क्या पता वो वाले इनाम भी मिलने लगें जिनके मिलने से लोग मारे जलन के इनकी आलोचना करने लगें।
आलोक पुराणिक से पहली मुलाकात जब उनकी किताब ’नेकी कर अखबार में डाल’ के माध्यम से हुई थी तो फ़ोटू में युवा व्यंग्यकार की मूंछ घनी थीं, बाल काले थे, चेहरा मुस्कराती संभावनाओं से लबालब था। बीते सालों में मूंछ गायब हो गयी हैं, सर पर श्वेत-श्याम बालों की गठबंधन सरकार है और चेहरा तो इतना प्रभावशाली हो गया है कि दोस्त लोग स्केच बनाने लगे हैं (कार्टूनिस्ट लोग दोस्तों के कार्टून को स्केच कहते हैं)।
आज जन्मदिन के मौके पर आलोक पुराणिक को शुभकामनायें देते हुये मंगलकामना करता हूं कि वे व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में नित नयी ऊंचाइयों को छुयें। खूब-खूब लिखें। नये-नये प्रयोग करेंगे। अपने साथ किये सारे वायदे पूरे कर सकें। उपन्यास, नाटक, शेरो-शायरी सब क्षेत्रों में धमाल मचायें। यह सब करने के लिये उनके अच्छे स्वास्थ्य और मंगलमय पारिवारिक जीवन की कामना करता हूं।
आलोक पुराणिक के दो इंटरव्यू यहां पढ़ सकते हैं:
1. मस्त रहिये, अच्छी बातों में व्यस्त रहिये- आलोक पुराणिक
2. ब्लागिंग मस्ती की पाठशाला है -आलोक पुराणिक
बहुतै मस्त और सही आकलन किया है। आलोक जी हमारे भी प्रिय व्यंग्यकार हैं,मनई तो बढ़िया हैं ही वो।
ReplyDeleteउन्हें जन्मदिन 🎂 मुबारक हो।
धन्यवाद है! आपका सौभाग्य है कि गाहे-बगाहे आलोक दर्शन करते रहते हैं!
Deletekhoob gadar likhai hain.............
ReplyDeletepranam.
धन्यवाद संजय भाई!
Delete