Tuesday, September 02, 2014

अलाय-बलाय से बचाती हैं किताबें

फ़ोटो: " अब बिना मुखौटे के सच्चाई प्रदर्शित करना कठिन है। मुखौटा लगातार विकसित होता जा रहा है। अब किसके पास है दौड़ता , छलांग लगाता, तैरता, उड़ता और चढ़ता-गिरता बचपन। सभ्यतायें जब विशाल करवट लेती हैं तो इसी तरह से हम पिस जाते हैं। इस करवट को निराशाजनक न मानते हुये भी इतना जरूर कहूंगा कि आज हमारे बच्चों का भविष्य जनतांत्रिक घोड़ों के हाथों कैद है।"  - ज्ञानरंजननिशांत ने फ़ेसबुक पर दस पसंदीदा किताबों के बारे में पूछा है। दोस्तों ने  अपनी पसंदीदा किताबें बताई हैं। हमने सोचा हम भी बता दें। लेकिन यह तय नहीं कर पा रहे कि पसंदीदा किसको कहा जाये? वह जिसको हम फ़िर-फ़िर पढ़ना चाहें या जिसको वह जिसको पढ़कर जीवन की दिशा बदली। जीवन की दिशा बदलने जैसी कोई किताब तो याद नहीं। अव्वल फ़िर-फ़िर पढ़ने वाली कई किताबें हैं मेरे पास। 

किताबें का संग अद्भुत अनुभव है। चाहें पढूं भले न लेकिन बिस्तर पर हमेशा कोई न कोई पसंदीदा किताब हमेशा रहती है। किताबें साथ रहती हैं तो सुकून का अनुभव रहता है। लगता है किताबें साथ रहेंगी तो हम सुरक्षित रहेंगे। तमाम अलाय-बलाय से बचाती रहती हैं किताबें। 

परसाई जी मेरे पसंदीदा लेखक हैं। दस किताबें तो उनकी ही हैं जिनको मैं बार-बार पढ़ता हूं। छह भाग रचनावली के। इसके बाद ’जाने-पहचाने लोग’, ’ऐसे भी सोचा जाता है’, ’पूछो परसाई से’। दसवीं किताब के रूप में परसाईजी का वह तमाम लेखन है जो इन किताबों में नहीं है लेकिन इधर-उधर से पढने को मिलता रहता है।

श्रीलाल शुक्ल की ’रागदरबारी’ कालेज के दिनों 82-83 में पढी थी। तब से इसके फ़ैन हैं। अनगिनत बार पढ़ चुके हैं इसे। बाद में श्रीलाल शुक्ल जी मिलना-जुलना भी होता रहा। रागदरबारी के कुछ हिस्से भी टाइप करके नेट पर डाले। यह काम अधूरा ही पडा है सालों से। रागदरबारी भारतीय समाज का अद्भुत आख्यान है।

शरद जोशी की ’यथासम्भव’ और ’यत्र-तत्र-सर्वत्र’ के लेख अक्सर ही पढते रहते हैं।

विष्णु सखाराम खाण्डेकर की ’ययाति’ हमारी शादी में हमको भेंट में दी थी हमारी दीदी ने। तब से वह हमारी सबसे पसंदीदा पुस्तकों में से एक है। दो साल पहले कुश की शादी में गये थे तो उपहार में उनको ’ययाति’ भी टिका आये थे। देख रहे हैं यह किताब अब उनकी भी पसंदीदा हो गयी है।

हावर्ड फ़्रास्ट का लिखा हुआ और अमृत राय द्वारा अनुदित उपन्यास ’आदि विद्रोही’ अद्भुत उपन्यास है। कई बार पढा है। तमाम लोगों को भेंट किया है। यह एक ऐसा उपन्यास है जिसको मैं खुद से टाइप करके नेट पर डालना चाहूंगा। कब यह कुछ पता नहीं।

मनोहर श्याम जोशी के  उपन्यास ’कसप’ की ’मारगांठ’ ऐसी है जो कभी खुलती नहीं। जब भी यह फ़िर से पढता हूं डूब जाता हूं। 

सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास ’मुझे चांद चाहिये’ 1000 के करीब पन्नों का है। जिन दिनों पढ़ा था उन दिनों देर रात तक जगने की मनाही  थी। चोरी-चोरी, चुपके-चुपके तीन दिन में पढ़ा था इसे। अब दुबारा शायद न पढूं लेकिन जिस तरह दीवानगी से पढ़ा था उससे लगता है कि सबको एक बार तो कम से कम पढ़ना चाहिये इसे। गिरिराज किशोर का उपन्यास ’पहला गिरंमिटिया’ भी ऐसा ही है।

राम विलास शर्मा की आत्मकथा ’अपनी धरती अपने लोग’ के अंश अक्सर ही पढ़ता रहता हूं। उनकी लिखी ’निराला की साहित्य साधना’ न पढी होती तो निराला की का महत्व न पता होता।

ज्ञान चतुर्वेदी की ’मरीचिका’ पढना अद्भुत अनुभव रहा। इसे फ़िर से पढ़ना है। इसका वह अंश मुझे सबसे प्रभावी लगा जिसमें एक प्रतिभाशाली कवि जब निराश हो जाता है और सोचता है कि समय खराब है ऐसे में उसकी कविता से कुछ नहीं बदलेगा तब उसको यह बोध होता है- ’कविता (साहित्य) की वास्तविक जरूरत तो  सबसे निराशा जनक समय समय में ही होती है।’

आज जिस समय में हम जी रहे हैं उस समय , समाज और राजनीति को समझने  के लिये किशन पटनायक लेख पढे जाने चाहिये। खासकर उनकी किताब -’विकल्पहीन नहीं है दुनिया’।

अनुपम मिश्र के लेख अद्भुत तरीके से बताते हैं कि आधुनिकता की आपाधापी में हम अपना कितना नुकसान कर रहे हैं। 

ज्ञानरंजन के लेखों का संकलन ’कबाड़खाना’ पढ़ता हूं तो उनकी भाषा पढकर ताज्जुब लगता है। एक लेख में वे कहते हैं:
" अब बिना मुखौटे के सच्चाई प्रदर्शित करना कठिन है। यह मुखौटा लगातार विकसित होता जा रहा है। अब किसके पास है दौड़ता , छलांग लगाता, तैरता, उड़ता और चढ़ता-गिरता बचपन। सभ्यतायें जब विशाल करवट लेती हैं तो इसी तरह से हम पिस जाते हैं। इस करवट को निराशाजनक न मानते हुये भी इतना जरूर कहूंगा कि आज हमारे बच्चों का भविष्य जनतांत्रिक घोड़ों के हाथों कैद है।"
 
 यह बात मैं अपने तमाम दोस्तों  से कह चुका हूं कि अगर आज मुझे मरने को कहा जाये अगर किसी एक बात का अफ़सोस होगा मुझे तो वह यह होगा कि मैं दुनिया कई बेहतरीन किताबें पढे बिना मर गया।

कई अच्छी किताबें मेरे पास हैं जिनको मैंने अभी तक पढा नहीं है। जैसे कि टालस्टाय की ’वार एंड पीस’। एक और डानक्विक जोट है जिसे मुझे पढ़ना है। ये किताबें पढना बाकी इसलिये लगता है कि दुनिया में अभी जीना है। कल को यमराज आयेंगे लेने तो कहेंगे - चलते हैं भाईसाहब जरा ये किताबें पढ़ लेने दो।

नेट पर ऐसे ही  ’लप्पूझन्ना’ है जिसे पूरा पढ़ना बहुत दिन  से स्थगित है। कल को अगर कोई कहे नेट क्यों चाहिये तुमको तो कहने को रहेगा- ’मुझे लप्पूझन्ना पढ़ना है।’ सबसे पसंदीदा मिठाई की तरह बचा रखा है इसे आराम से मजे ले लेकर चखने के लिये।


कोई किताब क्यों अच्छी लगती है इसका कोई तारतम्य नहीं होता। ’गुनाहों का देवता’ एक खास उमर में असर करता है और ’कसप’ की मारगांठ अलग समय में लगती है। कब पढी गयी कोई किताब इसका भी बहुत महत्व  रहता है। जिस भाषा में पढी गयी किताब उस भाषा की समझ कैसी है यह भी।

बहरहाल ये तो कुछ किताबें हैं जो अभी ध्यान में आयीं। इससे कई गुना अधिक हैं जो छूट गयीं। उनके बारे में फ़िर कभी।




1 comment:

  1. बिलकुल सही.... पुस्तकों की संगत सच में अलाय बलाय से बचाती हैं ... और कुछ नया और अच्छा सिखाती भी हैं

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