Thursday, September 10, 2015

बयानों में हीनभावना

कुछ लोग हिंदी के साहित्यकारों को गरियाते हुए कहते पाये गए कि उनका लिखा उतना मारक नहीं है जितना उन भाषाओं के लेखकों का जिनमें हत्यायें हो रही हैं।

कुछ के बयानों में तो इतनी हीनभावना दिखी और हिंदी साहित्यकारों के सुरक्षित होने से कि लगा कि अगर सम्भव हो तो अपने साहित्य का स्तर उठाने के लिए कुछ लोगों को पिटवाने/निपटवाने का इंतजाम किया जाए।
यह मेरी समझ में जल्दबाजी में दिए गए बयान है। क्या इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि उन भाषाओं को बोलने, बैपरने वाले समाज में हिंदी पट्टी के मुकाबले ज्यादा कट्टरता है। वे अपनी रूढ़ियों और मान्यताओं के खिलाफ लिखने वालों के प्रति ज्यादा अनुदार हैं।

किसी भाषा के साहित्यकार मारे जा रहे हैं इसका मतलब उस भाषा में चुनौतीपूर्ण लेखन हो रहा है और जिनमें हत्याएं नहीं हो रहीं उनमे ऐं वें टाइप यह पैमाना ठीक टाइप नहीं लगता।

हिंदी के कवि मान बहादुर की हत्या खुले आम गड़ासे से काटकर हुई। अगर किसी भाषा के साहित्यकार की हत्या से वह साहित्य चुनौतीपूर्ण बनता हो तो हिंदी साहित्य तड़ से महानता के एवरेस्ट पर पहुंच गया होता।
परसाई जी ने लिखा था-पता होता कि पिटने से यश मिलता है तो पहले से पिटने का इंतजाम कर लेता।
साहित्य से अधिक यह समाज के मनोविज्ञान का विषय है कि ऐसा क्यों हो रहा है।

नहीं क्या ?

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