Saturday, May 02, 2015

न हो कमीज तो पांवों से पेट ढँक लेंगे


सुबह आज जरा जल्दी ही हो गयी। जगाकर चाय पिला दी घरैतिन ने और वो फिर सो गयीं। भतीजा इम्तहान की तैयारी कर रहा है। घूम-घूम कर पढ़ रहा है। याद कर रहा है। बाहर बैठे हैं तख्त पर। बैठते ही मच्छर चारो तरफ चक्कर लगाने लगे। मानों हम कोई वीआईपी हों और ये भाई पत्रकार लोग हमसे बाइट के लिए कैमरा आगे कर रहे हैं।

पत्रकारों की बात से याद आया कि कुछ अखबार मालिकों ने अदालत में पत्रकारों के लिखित बयान जमा किये हैं जिनमें पत्रकारों ने कहा है कि उनको जो वेतन मिलता है वो उससे संतुष्ट हैं। अखबारों की पैरवी बड़े बड़े वकील कर रहे हैं। कितना मजेदार है न कि न्यूनतम वेतन से भी कम पर गुजारा करने वाले पत्रकार लिखकर दें कि उनको जो मिल रहा है वो उसी में खुश हैं। जिन्दा रहने के लिए आदमी अपने खिलाफ भी बयान देता है। दुष्यन्त कुमार ने ऐसे ही लोगों के लिए लिखा होगा:

न हो कमीज तो पांवों से पेट ढँक लेंगे
बहुत मुनासिब हैं ये लोग इस सफर के लिए।
सबेरे का समय बड़ा चकाचक टाइप होता है।सूरज सामने प्राइमरी स्कूल की छत पर टिका हुआ है। फोटो खींचने लगे तो कुत्ते सामने लाइन से खड़े हो गए जैसे किसी बड़े नेता की फ़ोटो खींचने पर उसके अनुशाषित कार्यकर्ता फ़ोटो पर छा जाते हैं। सामने गुलमोहर का पेड़ अभी चुप खड़ा है। लाल फूलों से सजा धजा। कुछ देर में हवा चलेगी तो हवा के समर्थन में हिलेगा डूलेगा भी।

चारो तरफ तरह के पक्षी अलग अलग आवाज कर रहे हैं। जितने पक्षी उससे कहीं ज्यादा आवाज। कोई केहों,केहों कर रहा है कोई ट्वीट ट्वीट ट्वीट। कोई काँव काँव।कोई किसी और आवाज में। केहों,केहों करते पक्षी शायद कहते हों कहाँ हो,कहाँ हो? कमरों के घर में मियां बीबी पासपास बैठे भले न बतियाएँ, चुपचाप गुम्म सुम्म बैठे रहें चुप्पा की तरह। लेकिन जरा सा आँख से ओझल होते ही हल्ला मचाने लगते हैं--कहां हो,कहां हो?


ट्वीट ट्वीट करते पक्षी लगता है लगता है कोई गुप्त बात आपस में हंस हंसकर शेयर किये होंगे। लेकिन सबको बताने के लिए मना करने के लिए एक दूसरे से कह रहे हों अबे चुप,अबे चुप, अबे चुप। चूँकि अभिव्यक्ति की आजादी का समय है इसलिए सीधे चुप रह भी नहीं कह सकते इसलिए सांकेतिक भाषा में कह रहे हैं अबे चुप, अबे चुप। कोई पूछेगा तो दोनों कह देंगे -"अरे हम तो ट्विट करने को कह रहे हैं।आजकल कुछ भी होता है तो लोग ट्वीट करते हैं न। तो हम इसको कह रहे हैं सबेरा हो गया इस खबर को ट्वीट कर। ट्वीट कर। ट्वीट कर।"

हम सोशल मिडिया में एक फ़ोटो देखते हैं। खंडवा के पास एक जगह लोग नर्मदा के पानी में 19 दिन से खड़े अनशन कर रहे हैं। एक फोटो में एक आदमी का पैर का पंजा दिखाया गया है। लाल हो गया है पानी में खड़े खड़े। इस खबर के बारे में कोई ट्वीट नहीं दिखा हमको। हमारे दोस्तों ने नहीं किया। शायद किसी और ने किया हो। या शायद यह कोई ख़ास खबर न हो।

अगर ये खबर ख़ास खबर होती तो कोई सेलेब्रटी जरूर ट्वीट करता। कोई अखबार जरूर इस बारे में लिखता। कोई टीवी एंकर जरूर अपने कैमरामैन के साथ पहुंचकर नाव में बैठकर पानी में खड़े लोगों से पूछ्ता-"आप काहे को पानी में खड़े हो। आपके ही विकास के लिए तो बाँध की उंचाई बढ़ रही है। घर डूबा है तो मुआवजा भी तो मिला होगा। अब काहे के लिए खड़े हो पानी में। झुट्ठे हमको दौड़ा दिए दिल्ली से। अरे घर डूब गया तो का हुआ। बन न रहे हैं 100 ठो स्मार्टसिटी। आना वहीं रहना आकर धक्काडे से।"

पता नहीं और क्या बातचीत होगी उनमें और लेकिन नन्दन जी की ये लाइनें हमारे की बोर्ड पर बिना इजाजत आकर धप्प से बैठ गयीं हैं:

"वो जो नाव दीखती है इसी झील से गयी है
पानी में आग क्या है,उसे कुछ पता नहीं है।

वही पेड़,शाख, पत्ते वही गुल वही परिंदे
एक हवा सी चल गई है, कोई बोलता नहीं है।"
बहुत हुआ। अब चला जाए। नहीं तो केहों, केहों कहाँ हो, कहां हो सुनाई देगा। चाय बन रही है। बन के आएगी तो घरैतिन को जगा के पियायेंगे। फ्री फंड में क्रेडिट मिलेगा।

है न मजेदार। चलिए। आप भी मजे करिये। शुभ प्रभात बोलते हुए। शुरुआत खुद से करिये। ठीक। शुभ दिन।

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