Wednesday, May 27, 2015

मकतबे इश्क का खेल निराला देखा

मेस के बाहर निकलते ही दो बच्चे साईकिल से अंदर आते मिले। ये बच्चे मेस में झूला झूलने आते हैं। एक बच्चे की साइकिल में गियर लगा है। हमने कहा-'हम गियर वाली साइकिल तो चला ही नहीं पाते।' बच्चे ने कहा-'आसान है चलाना। कल ही तो लगवाये हैं गियर।'

रास्ते में हमारे साथी अधिकारी मिले। रोज की तरह। हमने उनको भी साइकिल खरीदने का सुझाव दे दिया। बोले- 'अब बुढ़ापे में क्या साइकिल चलायें।' हमने उनके बुढ़ापे को निरस्त करते हुए सड़क पर खड़े-खड़े शेर सुना दिया:

'मकतबे इश्क का खेल निराला देखा,
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ।'
बुढ़ापे और साईकिल से इस शेर का कोई रिश्ता नहीं। लेकिन जाने क्यों यही शेर उचककर सामने आ गया जेहन में और हमने सुना भी दिया।

मैंने महसूस किया है कि बात-बहस में हम अक्सर वही तर्क,जुमले, उद्धरण पेश करते हैं जो अब तक के जीवन में सीखे होते हैं। अधिकतर लोगों के मामले में एक समय बाद सीखना या तो बन्द हो जाता है, या स्थगित या खत्तम हो जाता है। कुछ नया अनुभव नहीं होता और आदमी बूढा हो जाता है। जैसा कि परसाई जी ने लिखा भी है:


' यौवन नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की ततपरता का नाम है, यौवन साहस, उत्साह, निर्भयता और खतरे भरे जिंदगी का नाम है, यौवन लीक से बच निकलने की इच्छा का नाम है। और सबसे ऊपर ,बेहिचक बेवकूफी करने का नाम यौवन है। '

इस लिहाज से देखा जाए तो पुराना शेर ठेलने के चलते हम गत यौवन माने जाएंगे। लेकिन बेतुका ठेलने की बेहिचक बेवकूफी के चलते हम कह सकते हैं -'अभी तो मैं जवान हूँ।'

चाय की दूकान पर गाना नहीं बज रहा था। बोले बजाने को तो चाय वाला बोला-'पहले दूकान का गाना तो बजाना शुरू कर लें।' फिर जब चालू किया तो दूसरी दूकान का भी बजने लगा। दोनों में अलग-अलग गाने बज रहे थे। ऐसा लग रहा थी की चैनल की प्राइम टाइम बहस में विरोधी दलों के प्रवक्ता दूसरे की बिना सुने अपनी-अपनी हांकने में लगे हों और सुनाई कुछ न दे रहा हो।


लौटते में दो बच्चियां साइकिल चलाती दिखीं। जाते समय भी कुछ लड़कियां दिखीं थीं साईकिल पर। लेकिन बच्चे नदारद हैं। शायद इसलिए कि वे तो ऐसे ही घूम लेते हैं। बच्चियां सुबह की सैर के बहाने घर से बाहर खुले में निकली हैं।

राबर्टसन लेक की तरफ गए आज। इस झील के चारो तरफ की जमीन पर लोगों ने कब्जा करते हुए झील को 'विनजिप्ड' टाइप करके संकुचित कर दिया है। इसके बाद गन्दगी अलग से।

झील के चारो तरफ पक्के मकान बन गए हैं।पगडंडियों के किनारे पक्के मकान झील पर कब्जे की कहानी सुना रहे हैं। लेकिन सुने कौन? झील कोई दिल्ली तो है नहीं जिसके किस्से सुनने में दिलचस्पी हो लोगों में।



झील के किनारे ही पक्का कूड़ा दान बना था। कूड़ादान बिलकुल खाली था। सारा कूड़ा कूड़ेदान के बाहर पड़ा 'स्वच्छता अभियान' की खिल्ली उड़ा रहा था। मुझे लगता है कि सरकार को 'कूड़ा कूड़ेदान में अभियान'भी जल्दी ही चालू कर देना चाहिए। आगामी किसी भी महापुरुष के जन्मदिन पर यह पवित्र अभियान शुरू होना चाहिए।
सूरज भाई भी दिखे झील के किनारे। सूरज की अनगिनत किरणें झील के पानी में अठखेलियां कर रहीं थीं। सूरज भाई ऊपर से किरणों को पानी में छप्प छैंया करते हुए निहार रहे थे। किरणें झील के पानी को चांदी जैसा चमका रहीं थीं। सूरज खुद भी सुबह शाम झील के पानी में डुबकी लगाते हैं।बच्चियों की जलक्रीड़ा देखकर आनन्दित हो रहे हैं भाई जी।

कल शहर में आंधी-पानी में पेड़ गिरे,बिजली व्यवस्था चौपट हो गयी। हम उससे अप्रभावित रहे। अख़बार से पता चला। गाँव में बदलती दुनिया के ये हाल हैं। पड़ोसी के समाचार भी अखबार से पता चलते हैं।

अख़बार में एक खबर और भी है।दो दिन पहले की। रतलाम के 9 साल के बच्चे अब्दुल ने अपने दोनों हाथ एक हादसे में साल भर पहले खो दिए थे। लेकिन हौसला नहीं खोया। दोनों पांव से मोबाइल चलाना और लिखना सीख लिया। अब उसने तैरना भी सीख लिया। 3 में पढ़ने वाले बच्चे ने 20 दिन में ही तैराकी सीख ली और अब 25 मीटर तक बिना रुके स्वीमिंग कर सकता है। बच्चे के हौसले को सलाम रमानाथ अवस्थी जी की इस कविता के साथ:
कुछ कर गुजरने के लिए
मौसम नहीं मन चाहिए।
चलिए आपका दिन मंगलमय हो। शुभ हो।I

No comments:

Post a Comment