आज सुबह से ही पानी पटर-पटर गिर रहा है। पटर-पटर न अच्छा लग रहा हो तो
रिम-झिम,रिम-झिम पढ़ लें। पर झमाझम मत पढ़ लीजियेगा।जबलपुर के लोग समझ
जाएंगे कि झूठ लिखा है।
सुबह जग तो गए लेकिन उठे नहीं। लेटे रहे। सीधे मुंह किये छत ताकते रहे। जब से पता लगा है कि पेट के बल लेटने से दिल की धड़कन बढ़ जाती है तब से पेट के बल लेटना बन्द कर दिया। पहले सीधे, पेट के बल और दोनों करवट लेट लेते थे। अब पेट के बल लेटना बन्द कर देने से हमारे ही शरीर की स्वतन्त्रता 25% कम हो गयी। पेट शिकायत करता है कभी-कभी कि हमारा क्या दोष? हमको क्यों बिस्तर-स्पर्श नहीँ मिलता। हम उसको समझाते हैं -'तुम्हारा दोष यह कि तुमने उस खाने को अपने यहां पनाह दी जिसके चलते शरीर का वजन बढ़ा और पेट के बल लेटना खतरनाक।' यह कहते हुए हमने पेट को प्यार से सहलाते हुए बशीर बद्र का यह शेर सुनाया:
मोबाइल पर नेट आन किया तो कई स्टेटस भड़भड़ाकर मोबाइल के स्क्रीन पर आकर गिरे। हमें लगा कहीं स्क्रीन चटक न जाये। लेकिन फिर लगा कि स्क्रीन तो बहरी है। सुनाई नहीं देता इसको। यह सोचकर हमने दो ठो साँसे लीं और उनका नामकरण किया -'सन्तोष की सांस।'
जैसे ही दो सांसों का नामकरण किया तो बाद की साँसे भी हल्ला मचाने लगीं -'हमको भी नाम दो, हमारा भी नामकरण करो।'कुछ तो हल्ला मचाते हुए हाय-हाय तक करने लगीं। कोई बोली -'जल्दी नामकरण नहीं करोगे तो धरने पर बैठ जाऊंगी, हां नहीं तो।' हमने उनका नामकरण किया-'असन्तोष की सांस।' इसके बाद बार-बार नामकरण के झंझट से खुद को मुक्त करने के लिए हमने साँसों को खुद अपना नाम तय करने की छूट दे दी जैसे सरकार ने तेल कम्पनियों को अपना दाम खुद तय करने की छूट दी है।
बाद में देखा कि साँसों ने अपने नाम मनमाने तरीके से रख लिए हैं। जैसे कोई मंत्री सारे लाइसेंस मनमाने तरीके से अपनों को बांटता है वैसे ही साँसों ने नामकरण में मनमानी की है। एक 'हड़बड़ सांस' ने अपना नाम रख लिया -'चैन की सांस', एक 'उखड़ी सांस' को उसकी सहेलियाँ कह रहीं -'स्थिर सांस'। एकदम नवजात सांस के लिए बाकी की साँसें कह रहीं थीं -वो देख आ गयी 'आखिरी सांस'। कुल मिलाकर इस तरह का माहौल हो रखा था कि मुझे डर लगा अब छोटा राजन वाले मामले से मुक्त होते ही मिडिया कहीँ यह 'सांस घोटाला' न कवर करने लगे।
बरामदे में निकले तो देखा कि पानी बरस रहा था। हल्का-हल्का। सड़क पर बूंदे दिख नहीं रहीं थीं। पर छज्जे पर जहां पानी जमा था वहां गिरती हुई बूँदें दिख रहीं थीं। ऊपर से आती बूँद छज्जे पर इकट्ठा पानी पर गिरती। गिरते समय जहां बूँद गिरती वहां थोड़ा हलचल होती। इकट्ठा पानी थोड़ा सा कुनमुनाता सा हिलता। फिर गिरी हुई बूँद को अपने में मिलाकर, समेट कर फिर स्थिर हो जाता। कुछ देर पहले गिरी हुई बूँद अब पानीं में शामिल होकर अगली बूंदों की अगवानी के लिए तैयार करने लगती।
ऐसे में मौका है कि इस बात को आज के संस्थागत भ्रष्टाचार से जोड़कर कह दें कि जैसे कि संस्थागत भ्रष्टाचार नए अधिकारियों/कर्मचारियों को अपनी संगत में लेते ही भ्रष्ट बनाने लगता है वैसे ही ऊपर से गिरती गतिमान बूंदे भी ठहरे हुए पानी की संगत में आकर ठहर गयीं। शांत हो गयीं। लेकिन फिर लगा कि हर बात को भ्रष्टाचार से जोड़ना भी ठीक नहीं। वह भी एक तरह का 'अभिव्यक्ति का भ्रष्टाचार' है। कम से कम प्रकृति को तो इस राजनीति से मुक्त रखा जाए।है कि नहीं?
पानी के चलते साइकिल चलाने नहीं गए। सूरज भाई को फोन मिलाया तो पता चला कि वे अपने पूरे कुनबे समेत निकल चुके हैं। लेकिन बादलों का जाम लगा हुआ है इसलिए धरती पर पहुंच नहीं पाये हैं। उजाले को तो उन्होंने बादलों के जाम के बीच से किसी तरह निकाल कर धरती पर भेज दिया है लेकिन किरणों को अपने साथ रोक लिया है। भीड़ में किसी का कोई भरोसा नहीं। कोई मनचला बादल किसी किरण को छेड़ दे तो बर्दास्त नहीं होगा फिर सूरज भाई को।
हमने उनकी चिंता से सहमति जताते हुए सोचा बादलों को हड़काएं कि जब बरसना था तब नहीं बरसे। अब क्यों आये हो बरसने के लिए। लेकिन फिर सोचा कि छोड़ो यार किस-किस को हड़काएं। अपन खुद अपना काम समय पर कर लें वही बहुत है। साथ में कह दें-'हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।'
पोस्ट पूरी करने के बाद सोचा एक ठो फोटो भी हो जाए। बरामदे में आकर देखा पानी हल्का हो गया है पर बरस रहा है। पेड़ एकदम सीधे खड़े हैं अच्छे बच्चों की तरह। बारिश की बूंदे उनको नहला रही हैं। हवा के साथ कभी पेड़ की फुनगियां हिलती हैं तो लगता है जैसे ठंडे पानी का पहला मग डालने पर जैसे शरीर सिहरता सा है वैसे ही पेड़ सिहर रहे हों। आसपास के फूल और कलियाँ बूंदो की संगत में पेड़ों और पत्तियों को तृप्त होते देख रहे हैं। शायद वे सोच भी रहे हों कि कब ससुरे बादल दफा हों और भौरें और तितलियाँ आएं और अपन भीं मजे करें।
पेड़ों के बाद लान की घास भी जल में आकण्ठ डूबी मस्ती कर रही है। दीवार के पार सड़क पर लोग जितनी तेजी से आते दिख रहे हैं उतनी ही तेजी से जाते दिख रहे हैं।बारिश के चलते दुपहिया वाहनों की सवारियां सर झुकाये हुए जा रही हैं। ढाल से उतरती सवारियां तेज जा रही हैं। लग रहा है जैसे कोई 'सेंसेक्स सांड' सींग उठाये ढाल से नीचे की तरफ भागता चला जा रहा हो।
बहुत हुआ। अब आप भी मजे करिये। हम चलते दफ्तर की ओर। आपका दिन शुभ हो। मंगलमय हो। जय हो।
सुबह जग तो गए लेकिन उठे नहीं। लेटे रहे। सीधे मुंह किये छत ताकते रहे। जब से पता लगा है कि पेट के बल लेटने से दिल की धड़कन बढ़ जाती है तब से पेट के बल लेटना बन्द कर दिया। पहले सीधे, पेट के बल और दोनों करवट लेट लेते थे। अब पेट के बल लेटना बन्द कर देने से हमारे ही शरीर की स्वतन्त्रता 25% कम हो गयी। पेट शिकायत करता है कभी-कभी कि हमारा क्या दोष? हमको क्यों बिस्तर-स्पर्श नहीँ मिलता। हम उसको समझाते हैं -'तुम्हारा दोष यह कि तुमने उस खाने को अपने यहां पनाह दी जिसके चलते शरीर का वजन बढ़ा और पेट के बल लेटना खतरनाक।' यह कहते हुए हमने पेट को प्यार से सहलाते हुए बशीर बद्र का यह शेर सुनाया:
"मैं खुद भी एहतीयतन, उस गली से कम गुजरता हूँपेट को शेर तो नहीं समझ में आया पर प्यार से सहलाने वह शांत सा हो गया। एक बार फिर एहसास हुआ कि प्यार में बड़ी ताकत होती है।
कोई मासूम क्यों मेरे लिए बदनाम हो जाये।"
मोबाइल पर नेट आन किया तो कई स्टेटस भड़भड़ाकर मोबाइल के स्क्रीन पर आकर गिरे। हमें लगा कहीं स्क्रीन चटक न जाये। लेकिन फिर लगा कि स्क्रीन तो बहरी है। सुनाई नहीं देता इसको। यह सोचकर हमने दो ठो साँसे लीं और उनका नामकरण किया -'सन्तोष की सांस।'
जैसे ही दो सांसों का नामकरण किया तो बाद की साँसे भी हल्ला मचाने लगीं -'हमको भी नाम दो, हमारा भी नामकरण करो।'कुछ तो हल्ला मचाते हुए हाय-हाय तक करने लगीं। कोई बोली -'जल्दी नामकरण नहीं करोगे तो धरने पर बैठ जाऊंगी, हां नहीं तो।' हमने उनका नामकरण किया-'असन्तोष की सांस।' इसके बाद बार-बार नामकरण के झंझट से खुद को मुक्त करने के लिए हमने साँसों को खुद अपना नाम तय करने की छूट दे दी जैसे सरकार ने तेल कम्पनियों को अपना दाम खुद तय करने की छूट दी है।
बाद में देखा कि साँसों ने अपने नाम मनमाने तरीके से रख लिए हैं। जैसे कोई मंत्री सारे लाइसेंस मनमाने तरीके से अपनों को बांटता है वैसे ही साँसों ने नामकरण में मनमानी की है। एक 'हड़बड़ सांस' ने अपना नाम रख लिया -'चैन की सांस', एक 'उखड़ी सांस' को उसकी सहेलियाँ कह रहीं -'स्थिर सांस'। एकदम नवजात सांस के लिए बाकी की साँसें कह रहीं थीं -वो देख आ गयी 'आखिरी सांस'। कुल मिलाकर इस तरह का माहौल हो रखा था कि मुझे डर लगा अब छोटा राजन वाले मामले से मुक्त होते ही मिडिया कहीँ यह 'सांस घोटाला' न कवर करने लगे।
बरामदे में निकले तो देखा कि पानी बरस रहा था। हल्का-हल्का। सड़क पर बूंदे दिख नहीं रहीं थीं। पर छज्जे पर जहां पानी जमा था वहां गिरती हुई बूँदें दिख रहीं थीं। ऊपर से आती बूँद छज्जे पर इकट्ठा पानी पर गिरती। गिरते समय जहां बूँद गिरती वहां थोड़ा हलचल होती। इकट्ठा पानी थोड़ा सा कुनमुनाता सा हिलता। फिर गिरी हुई बूँद को अपने में मिलाकर, समेट कर फिर स्थिर हो जाता। कुछ देर पहले गिरी हुई बूँद अब पानीं में शामिल होकर अगली बूंदों की अगवानी के लिए तैयार करने लगती।
ऐसे में मौका है कि इस बात को आज के संस्थागत भ्रष्टाचार से जोड़कर कह दें कि जैसे कि संस्थागत भ्रष्टाचार नए अधिकारियों/कर्मचारियों को अपनी संगत में लेते ही भ्रष्ट बनाने लगता है वैसे ही ऊपर से गिरती गतिमान बूंदे भी ठहरे हुए पानी की संगत में आकर ठहर गयीं। शांत हो गयीं। लेकिन फिर लगा कि हर बात को भ्रष्टाचार से जोड़ना भी ठीक नहीं। वह भी एक तरह का 'अभिव्यक्ति का भ्रष्टाचार' है। कम से कम प्रकृति को तो इस राजनीति से मुक्त रखा जाए।है कि नहीं?
पानी के चलते साइकिल चलाने नहीं गए। सूरज भाई को फोन मिलाया तो पता चला कि वे अपने पूरे कुनबे समेत निकल चुके हैं। लेकिन बादलों का जाम लगा हुआ है इसलिए धरती पर पहुंच नहीं पाये हैं। उजाले को तो उन्होंने बादलों के जाम के बीच से किसी तरह निकाल कर धरती पर भेज दिया है लेकिन किरणों को अपने साथ रोक लिया है। भीड़ में किसी का कोई भरोसा नहीं। कोई मनचला बादल किसी किरण को छेड़ दे तो बर्दास्त नहीं होगा फिर सूरज भाई को।
हमने उनकी चिंता से सहमति जताते हुए सोचा बादलों को हड़काएं कि जब बरसना था तब नहीं बरसे। अब क्यों आये हो बरसने के लिए। लेकिन फिर सोचा कि छोड़ो यार किस-किस को हड़काएं। अपन खुद अपना काम समय पर कर लें वही बहुत है। साथ में कह दें-'हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।'
पोस्ट पूरी करने के बाद सोचा एक ठो फोटो भी हो जाए। बरामदे में आकर देखा पानी हल्का हो गया है पर बरस रहा है। पेड़ एकदम सीधे खड़े हैं अच्छे बच्चों की तरह। बारिश की बूंदे उनको नहला रही हैं। हवा के साथ कभी पेड़ की फुनगियां हिलती हैं तो लगता है जैसे ठंडे पानी का पहला मग डालने पर जैसे शरीर सिहरता सा है वैसे ही पेड़ सिहर रहे हों। आसपास के फूल और कलियाँ बूंदो की संगत में पेड़ों और पत्तियों को तृप्त होते देख रहे हैं। शायद वे सोच भी रहे हों कि कब ससुरे बादल दफा हों और भौरें और तितलियाँ आएं और अपन भीं मजे करें।
पेड़ों के बाद लान की घास भी जल में आकण्ठ डूबी मस्ती कर रही है। दीवार के पार सड़क पर लोग जितनी तेजी से आते दिख रहे हैं उतनी ही तेजी से जाते दिख रहे हैं।बारिश के चलते दुपहिया वाहनों की सवारियां सर झुकाये हुए जा रही हैं। ढाल से उतरती सवारियां तेज जा रही हैं। लग रहा है जैसे कोई 'सेंसेक्स सांड' सींग उठाये ढाल से नीचे की तरफ भागता चला जा रहा हो।
बहुत हुआ। अब आप भी मजे करिये। हम चलते दफ्तर की ओर। आपका दिन शुभ हो। मंगलमय हो। जय हो।
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