Saturday, October 31, 2015

जो फूल जहां खिला है वहीं समर्पित

ठण्ड पड़ने लगी है। सूरज भाई देर से आने लगे हैं। सुबह आज निकले तो सड़क पर बल्ब जल रहे थे। अंधेरे और उजाले की साझा सरकार टाइप चल रही थी। नीरज ने लिखा है न-'निशा जा न पाये,ऊषा आ न पाये' कुछ उसी तरह का -'अँधेरा जा न पाये, उजाला आ न पाये' लग रहा था।

यूको बैंक के पास के पेड़ के सब फूल पूजार्थियों ने नोचकर पेड़ को पुष्पविहीन कर दिया था। कुछेक जो बाकी बचे थे उनको भी लोग उचक-उचक कर तोड़ रहे थे।

आगे एक जगह एक आदमी एक घर की चाहरदिवारी पर चढ़ा एक पेड़ से फूल तोड़ रहा था। हमने टोंका तो नीचे उतरा और बोला-'पूजा के लिए तोड़ रहा हूँ।' हमने कहा-'भगवान को बता दो। यहीं ग्रहण कर लेंगे।' वह कुछ बोला नहीँ। चुपचाप तोड़े हुए फूल इकट्ठा करता रहा। मैं अज्ञेय की कविता 'सामाज्ञी का नैवेद्य दान' याद करता रहा जिसमें यह कहा गया है कि जो फूल जहां खिला है वहीं समर्पित है आपको देव।

मंदिर के बाहर एकमात्र महिला भिखारिन बैठी थी।बाकी लोग लपककर आते दिखाई दिए। और दिनों की तुलना में मंगल और शनीचर को ज्यादा भीख मिलने का दिन होता है। आज शनिवार है। लोग ज्यादा आएंगे।
सड़क पर चहल-पहल कम थी। कुछ लोग घर के बाहर शांत से बैठे दिखे। सड़क पर उखड़ी कोलतार की परत से लग रहा है उसके बदन की खाल उतर गयी है उस जगह।


एक जगह कूड़े के बिस्तर पर एक सूअर परिवार सो रहा था। मियां-बीबी और एक बच्चा थे शायद वो। चीन के 'एक बच्चे नीति' का अनुयायी परिवार लगा है।हमको फोटो लेते देख 'बच्चा सूअर' थोड़ा कुनमुनाकार उठा और फिर करवट लेकर सो गया। कुछ देर बाद आगे जाकर देखा कि बड़ा सूअर उठकर कहीं दूर की तरफ जाता दिखा। क्या पता दिशा मैदान के लिए गया हो।

एक कूड़े-कबाड़-टीन-टप्पर के कोलाज सी झोपडी के बाहर एक 'राणा सांगा' सा हो चुके तख्त पर एक आदमी सीधा लेटा था। सर उसने पीछे की हुई हथेलियों पर थाम रखा था। जागता हुआ सो रहा था वह।

रांझी में कई जगह हॉकर अख़बार इकट्ठे कर रहे थे। कुछ लोग आज के अखबारों में पहले छपे हुए अख़बारों के परिशिष्ट ठेल रहे थे। ताजे अखबार का मुंह चोंच सरीखा खोलते और खुली हुई जगह में पहले का छपा अख़बार घुसा देते। खबर और परिशिष्ट सामग्री पहले एक दूजे को अजनबी निगाहों से देखती होगी। क्या पता रेलवे के जनरल डिब्बे के यात्रियों की तरह थोड़ा एतराज भी करतीं हों एक-दूसरे के मिलने पर लेकिन कुछ देर बाद दोनों गलबहियां डालते हुए हॉकर की साइकिल पर लद के चल देती होंगी।


एक बस रुकी थी। दूध वाले ने एक पालीथीन में कुछ दूध के पैकेट बस में किसी को दिए। बस चलने के पहले एक बच्चा हाथ में खूब सारे ब्रेड के पैकेट लिए उतरा और अनबिके पैकेट वापस दूकान में रखे पैकटों में मिला दिए।
मिसरा जी ने हमको देखते ही चाय थमा दी। नमस्ते फ्री में हुआ। चाय कप में दी। हमारा मन ग्लास में पीने का था लेकिन मिश्रा जी ने अलग से कप में दी चाय तो फिर उसी में पीते हुए उनसे बतियाते रहे। शाल टाइप ओढ़े हुए मिश्रा जी ने बताया कि सुबह साढ़े चार बजे आ गये थे दुकान पर। मतलब हमारे आने से डेढ़ घंटे पहले।

चाय पीकर लौटे तो एक जगह नल पर पानी भरते एक सज्जन दिखे। नल के पानी से भाप जैसी निकल रही थी। हम खड़े होकर देखने लगे। नल हवा की फूंक जैसा मारता, थोड़ा पानी फेंकता, फिर हवा फेंकता। फिर पानी। ऐसा लगा कि नल का पानी बाहर निकलने के पहले फूंक-फूंक कर बाल्टी को अपने हिसाब से तैयार कर रहा हो।
पता लगा कि नल के पानी से पहले गैस निकलती है। गैस मतलब हवा। जब यह निकल जाती है तब कायदे से पानी आता है। जहां पानी गिर रहा था बाल्टी में वहां पानी का गढढा बन जा रहा था। भरते पानी के साथ गढढा ऊपर आता जा रहा था। बाल्टी भर गयीं तो सज्जन दोनों हाथों में बाल्टी लेकर चलने लगे तो हमने उनका भी फोटो ले लिया।


बातचीत में पता चला कि वो सज्जन इलाहाबाद के सिराथू के रहने वाले हैं। 1972 में आये थे इलाहाबाद। 22 साल की उम्र में। कुछ दिन एक टाकीज में काम किया। फिर अपना बर्तन बेंचने का काम करने लगे। ठेलिया में फेरी लगाते हैं। एक बच्चा और पत्नी गाँव में ही रहते हैं। यहां किराए के कमरे में रहते हैं।

आगे सड़क के दोनों तरफ पेड़ों में खिले फूल दिखे। पहले कभी देखा नहीं। सर झुकाये चले आते रहे। आज ऊपर देखा तो लगा कितने खूबसूरत फूल देखने से वंचित रहे हम इतने दिन। यह भी सोचा कि हमारे आसपास कितनी सारी खूबसूरत चीजें होती हैं लेकिन हम अपने रूटीन जिंदगी में ही मुंडी घुसाये उनको देख ही नहीं पाते। जिंदगी खल्लास करते रहते हैं।

सड़क किनारे एक झोपड़ी में एक महिला सर झुकाये बैठी सो रही थी। कुछ देर खड़े उसको देखते रहे। जयशंकर प्रसाद की कहानी 'ममता' की बुढ़िया याद आई। कितनी अलग या समान रही होगी वह इस बुढ़िया से यह सोचा।
आगे सोचा राबर्टसन् लेक देखी जाए। एक दुकान पर खड़े होकर पूंछा तो एक आदमी लपक कर आगे आया बताने। उसको शायद यह डर था कि कहीं दूसरा न बता दे उसके बताने से पहले। कुछ ऐसे जैसे देश सेवा के लिए हलकान पार्टियां देशसेवा के लिए 'कटाजुज्झ' करती रहती हैं। हर पार्टी को डर सताता रहता है कि कहीं दूसरा उनसे पहले देशसेवा न कर डाले।


झील की तरफ गए तो रास्ते में बड़ा मैदान दिखा। कुछ लोग दुलकी चाल से टहल रहे थे। एक का पेट इतना ज्यादा आगे दिख रहा था कि लगा ज्यादा निकले पेट को भी स्टेपनी की तरह निकाल कर रखने की व्यवस्था होनी चाहिए।

आगे झील दिखी। झील का पानी हमको देखते ही मचलकर मिलने के लिए आगे आता सा लगा लेकिन तट ने उसे रोक लिया। लहरें तट के किनारे मचलती रहीं।।हम झील के पानी को देखते रहे।

बाकी का किस्सा अभी थोड़ी देर में। तब तक आप मजे से रहिये। आते अभी जरा सा नाश्ता ब्रेक के बाद।

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