Monday, June 09, 2014

ब्लॉगिंग के बहाने और भी कुछ

 आज ज्ञानजी ने अपने फ़ेसबोर्ड पर सूचना सवाल  चस्पा किया हुआ था:

हिन्दी ब्लॉगर्स; आपने पिछले साल (मई13-मई14) में कितनी ब्लॉग पोस्टें लिखीं? मैने तो 62 लिखीं। अर्थात प्रति माह 5. यह संख्या लगभग 10/माह होनी चाहिये थी।
हमने गिनना शुरु किया तो अब तक छप्पन लेख तो  मिल गये। बाकी के लिये हिन्दिनी की तबियत ठीक होने का इंतजार है। उसमें कोई कीड़ा घुस गया है जिसके चलते जब उसमें जाने की कोशिश करो तो चेतावनी मिलती है:
This web page at hindini.com has been reported as an attack page and has been blocked based on your security preferences.
हमने चेतावनी को अनदेखा करके घुसने की कोशिश की तो भी मना कर दिया साइट ने। बोली खतरा है। चूक 404|

कल इस पुराने ठीहे पर लौटकर आये।  जब लिखना शुरु किया था तो पता नहीं था कि हिन्दी के फ़ॉन्ट हैं। उस समय देबाशीष के ब्लॉग नुक्ताचीनी में बताई तरकीब से कट-पेस्टिया ब्लॉगिंग शुरु की थी। पहली पोस्ट में अटकते सटकते सिर्फ़ इतना लिख पाये थे :
अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है
 तब अपन का विचार था कि महीने में चार पोस्ट लिख लिया तो बहुत है। लेकिन दस साल में ये पाण्डेयजी ने कोटा बढा दिया। महीने में दस पोस्ट। खुशदीप से पूछा जाये तो शायद वे कहें- दस? बस? खुशदीप ने बहुत दिन तक हर  दिन एक पोस्ट के हिसाब से महीने में तीस पोस्टें लिखी हैं।

बहरहाल कल इस ब्लॉगस्पॉट वाले फ़ुरसतिया पर काफ़ी देर टहले। सोचा जबतक हिन्दिनी पर तितली फ़िर से अपने पंख फ़ड़फ़ड़ाना शुरु करे तब तक यहीं खटर-पटर किया जाये। ब्लॉग का श्रंगार करने के लिये कई टेम्पलेट ब्लॉगपर चढाकर देखे। ब्लॉग के माथे पर भेड़ाघाट पर इठलाती नर्मदा जी का चित्र लगाया। पहले बड़ा लगा तो उसको काटकर छोटा किया। देखिये । बताइये कैसा लग रहा है?

कल कई किताबें भी उलटी-पलटीं। किताबें मेरे आसपास रहती हैं। पढें भलें न लेकिन किताबें आसपास रहने से सुकून सा रहता है। बिस्तर और रैक पर बेतरतीब किताबें बिखरी देखकर दूसरे समझते हैं कि बहुत पढाकू है। शायद बुद्धिजीवी भी हो।  कल रामवृक्ष बेनीपुरी जी के रचना संचयन से उनका लिखा बहुत कुछ  पढा। अद्भुत प्रवाहमान गद्य लिखते थे बेनी बाबू। उनकी डायरी पढकर लगा कि वे भी अपने टाइम मैनेजमेंट, सिगरेट की लत से और राजनीति के गिरते स्तर से हलकान थे। देखिये उनकी डायरी के कुछ अंश:

पटना 24 जून 1950

जयप्रकाश की वही हालत देख रहा हूं , जो गांधीजी की कांग्रेस में हुई। आज उनका काम है इन तिकड़मबाजों के लिये पैसे इकटठा कर देना- कल वे उनसे वोट इकट्ठे करवायेंगे। और यदि वे विजयी हुये तो  सारी सत्ता हथियाकर उनके लिये भी क्या किसी ’राजघाट’ की व्यवस्था नहीं कर देंगे?
बेनीपुर 7 जुलाई 1957

बहस का स्तर बहुत ही नीचा-केवल शिकायत, शिकायत, निन्दा,निन्दा। एक दूसरे पर कीचड़ उछाल। एक ही बात को बार-बार दुहराते जाना।हर आदमी बोलने को  व्याकुल। भले ही मुंह खोलते ही जबान लड़खड़ा जाये। इस (विधान)सभा में जो 319 आदमी चुनकर आये हैं। यदि वे हमारे समाज के मक्खन हैं, तो हमारा समाज बौद्धिक  दृष्टि से कितना नीचे है, इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है।

लखनऊ, 4 जनवरी1958
आज भोर भोर एक बात मन में उमड़ी। बहुत काम करना चाहता हूं, बहुत दिन जीना चाहता हूं। तो जिस प्रकार की लटर-पटर जिन्दगी बना ली है, उसमें बहुत कुछ परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है क्या?

नहीं-नहीं मुझे इस आदत को छोड़ना ही है- सूर्योदय के पहले शय्या छोड़ ही देना है; कुछ टहल-घूम आना है। फ़िर यदि जरूरत महसूस हुई तो दिन में दो-एक घण्टे सो लिया जाये। आज भी तो कुछ सोता ही हूं।

कभी-कभी सोचता हूं, कहीं सिगरेट छोड़ दूं तो लिखने में कोई त्रुटि न आ जाये-क्योंकि लिखने के समय अवश्य ही सिगरेट पीता हूं। क्या कहने हैं? जैसे तुलसीदास ने सिगरेट पीकर रामचरितमानस लिखा, या कालिदास ने इसकी कश लेते हुये शकुन्तला का निर्माण किया। बर्नाड  शॉ ने सिगरेट छुई भी नहीं! वह भी तो इसी युग का लेखक था।

नहीं-नहीं कोई निर्णय लेना ही होगा और शीघ्र ही।


आनन्द वर्धन ओझा जी ने बेनीपुरी जी के बारे में कई आत्मीय संस्मरण  के अपने ब्लॉग पर लिखे हैं। छह किस्तों में ( 1 2 3 4 5 6 ) । ओझा जी ने बेनीपुरी के संस्मरणों का जिक्र करते हुये लिखा है:

अपनी माताजी के निधन का जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला वृत्तान्त बेनीपुरीजी ने शब्दों में बांधा है, उसे पढ़कर मैं अन्दर तक हिल गया था। मैंने भी मातृ-वियोग का आघात ताज़ा-ताज़ा सहा था, आहत था, मर्म-विद्ध था। ऐसे में बेनीपुरीजी का वह दस्तावेज़ मेरे कलेजे की हड्डियाँ मरोड़ता था !.... रूढ़िवादी मान्यताओं और लोकाचारों की दुहाई देकर उनकी माता के शव-दाह के पूर्व किए गए अमानवीय कृत्यों का मार्मिक वृत्तान्त तो पाषाण को भी पिघला देनेवाला था। सच कहूँ तो बेनीपुरीजी की मातृ-विछोह की पीड़ा के सम्मुख मुझे मेरी पीड़ा छोटी जान पड़ी थी। और शोक-शमन के लिए वह मेरा संबल भी बनी थी कभी.... उस दस्तावेज़ को मैंने उन दिनों बार-बार पढ़ा था और मेरी आँखें बार-बार भर आती थीं।
मजे की बात 2009  में ओझाजी के बेनीपुरी जी के बारे में लिखे संस्मरण कल मुझे चिंतनदिशा पत्रिका के नये अंक में (जिसे अनूप सेठी जी ने भेजा था मुझे मेल से) में पढने को मिले।

रामवृक्ष बेनीपुरी रचना संचयन भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से प्रकाशित है। कीमत 350 रुपये।

मेरी पसंद 

 जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड आये.

हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड आये.

किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड आये.

हमारे घर के दरो-बाम रात भर जागे,
अधूरी आप जो वो दास्तान छोड आये.

फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड आये.

ख्यालों-ख्वाब की दुनिया उजड गयी 'शाहिद'
बुरा हुआ जो उन्हें बदगुमान छोड आये.

--शाहिद रजा , शाहजहांपुर

8 comments:

  1. फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
    कई परिन्दे तो अबके उडान छोड आये.

    ब्लागिंग के बहाने आपने बढ़िया विचार व्यक्त किये ...

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  2. अच्छा लगा! आपको मालुम हो कि हम अनूल सुकुल की लेखनी के फैन हैं!

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  3. अनूप सुकुल।

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  4. aKavasthi10:03 PM

    Kaafi dino ke baad aaj post dikhaee pada. All the best.AKAvasthi

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  5. ब्लॉगर में फिर से स्वागत है.

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  6. टैम्प्लेट चकाचक है, बस अब अपना फ़ोटो बाजू में डाल दें. क्या है कि कहीं लोग मिलते हैं, तो पहचान जाते हैं :)

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  7. R/sir, Congrats for such a successful blog.. I would request you to write something on child abuse so rampant in our society, specially when parents selfishly for their convenience hand them over to potential predators called maids, van wala uncle and relatives. Ironically, these parents would under no circumstance handover the keys of their lockers to the above guys.Convenience, is so prime that they will justify to no end. If you have no means to give due care(saving from sexual molestation is as basic as food) then they have no right to bring poor souls to this world.Children are living creatures not property and belonging that you may weight convenience and extent of care vis a vis your comfort.When Ostrich closes its eye to a lion it exposes itself to danger, whereas these ostriches close their eyes coz they are not the one to be eaten.The alternate cost of taking care is what they are not ready to pay. Perhaps your blog can show mirror to many such parents and some vulnerable child may be saved.Thanks

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  8. गज्ज़ब लिखते हो आप...और आदरणीय पाण्डे जी को छू लेने से तो नर्मदा में बाढ़ आ गई लगती है....काफी अर्से के बाद आपकी पोस्ट देखी ये सच है क्यो कि मै अभी इण्टरनेट के दाँवपेंचों से अनभिज्ञ हूँ. किंतु ये भी सत्य है कि जब भी आप की पोस्ट बाँचने का अवसर मिलता है तो निश्चित ही सीखने का अवसर प्राप्त होता है।

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