Wednesday, July 20, 2005

एक ब्लागर मीट रेलवे प्लेटफार्म पर

वेंकट-सारिका
वेंकट-सारिका
सबेरे जब हम आफिस पहुंचे तो मेज पर काम बहुत था। लिहाजा हम राउन्ड पर निकल गये। लौटा तो बताया गया कि जीतेन्द्र चौधरी का फोन आया था। हमने तमाम गैरजरूरी काम भी निपटा
लिये तब फोन करने की हिम्मत जुटा पाये।जो हमेशा सिर्फ एक मेल की दूरी पर रहता है वह चन्द मील दूर था। घंटी गयी तो जीतेन्द्र बजे। हाल-चाल का दर्द बांटा गया।हमने कहा-देख लो भइये,तुम्हारा लिखा साइट तक नहीं झेल पायी। शटर गिरा है मेरा पन्ना का। और लिखो-ब्राम्हण कहता है सालअच्छा है। जब हिंदी न जानने वाले इतना त्रस्त हो गये कि साइट जब्त कर ली तब हिंदी भाषियों का क्या हाल होगा!इसीलिये कहा गया है-अतिसर्वत्र वर्जयेत।पर जीतेन्द्र अविचिलित थे। बोले -सालों को वापस जाकर देखूंगा। मैंने पूंछा भी कि सालों को वहां देखोगे तो यहां किसको देखोगे? क्या वहां और सालों का जुगाड़ करोगे? कार्यक्रम पूछने पर बताया गया कि तमाम जगह जाना है। गोविंदनगर, रतनलालनगर, रामबाग वगैरह। बताने के अन्दाज से लग रहा था कि जैसे कोई बस स्टैंड वाला बसों के आवागमन की घोषणा कर कर रहा हो ।


बहरहाल जीतेन्द्र के तमाम बेतरतीब कार्यक्रमों ने हमें बचा लिया उनसे मुलाकात से। बोले शायद कल मिलेंगे। हमें लगा- चलो आज तो बचे। फिर भी एहतियातन हमने अपने पीए को बता दिया कि अगर हमारी अनुपस्थिति में जीतेन्द्र आयें तो जब तक हम आयें तबतक उनसे निरंतर का उनके हिस्से का अनुवाद का काम करा लें। जीतेन्द्र की तरफ से कम से एक दिन के लिये हम निश्चिन्त हो गये।

शाम को चार बजे फोन की घंटी बजी। सुरीली आवाज बोली-अनूपजी,नमस्ते। हमने कहा-नमस्ते क्या हाल हैं? पूछा गया-आपने पहचान लिया। हम सोच में डूबते-उतराते हुये बोले-पहचानने के नजदीक पहुंच रहा था कि इस सवाल से क्रमभंग हो गया।

क्षणिक सस्पेन्स का पटाक्षेप करते हुये बताया गया-मैं सारिका सक्सेना बोल रहीं हूं। नये सिरे से नमस्कार-खुशी का आदान -प्रदान हुआ। पता चला -रात की गाड़ी से वो कोलकता जा रहे हैं। तय हुआ शाम को स्टेशन में मिला जाये। घरों में तो लोग करते ही रहते हैं ब्लागर मीट। एक मुलाकात स्टेशन पर हो जाये।

हमने जीतेन्द्र को फिर खोजा। अटके थे गोविंदनगर में। पूछा चलोगे ब्लागर मीट को ऐतिहासिक बनाने। उनकी आवाज का भूगोल बिगड़ा हुआ था। बोले -यार ,इतना थका हूं कुछ पूछो मत। हम भी बोले -तुम बताओ मत हम समझ गये।

बहरहाल शाम को घर से जब मैं चला स्टेशन की ओर तो रात के आठ बज चुके थे। शब्दांजलि तथा अनकही बातें की सारिका से मिलने की उत्सुकता थी। कुछ देर भी हो गयी थी निकलने में। आगे की सवारियां मुझे ब्लागर की तरह लग रहीं थी जो मुझसे पहले मुलाकात करके विवरण छापना चाहता हो।फिर मुझे लगा-हर कनपुरिया अतुल की तरह फुर्तीला नहीं हो सकता ।
आगे की सवारियां मुझे ब्लागर की तरह लग रहीं थी जो मुझसे पहले मुलाकात करके विवरण छापना चाहता हो।फिर मुझे लगा-हर कनपुरिया अतुल की तरह फुर्तीला नहीं हो सकता ।
स्टेशन पहुंचकर हमने प्लेटफार्म नंबर एक पर गोरे ,गोल-मटोल चेहरे की तलाश में अपनी गरदन तथा आंखों को लगा दिया। दस मिनट बाद दोनों सर्च इंजन मुंह लटकाके बोले-सारी ,जो बताया आपने वो हम नहीं खोज पाये। मैंनेसोचा -मौका अच्छा है। सारी खूबसूरत महिलाओं से पूछ लिया जाये-माफ कीजियेगा आप सारिका सक्सेना तो नहीं हैं जो अमेरिका से आयी हैं। फिर हमें लगा कि वे तो माफ कर देंगी पर हम कैसे माफ करेंगे अपने को? राजधानी एक्सप्रेस छूटने में मात्र एक घंटा बचा था।

तो पीसीओ की शरण में जाना तय किया गया। पता चला कि आज गाड़ी प्लेटफार्म एक की जगह छह पर आनी थी । वहीं वे लोग मौजूद थे। हम पहुंचे । मुलाकात हुयी। सारिका अपने पति वेंकट,भाई सुधांशु तथा बिटिया कांति के साथ प्लेटफार्म नं छह पर मौजूद थी। बिटिया हमें देखते ही निद्रागति को प्राप्त हुयी। तमाम जरूरी-गैरजरूरी सूचनाओं के आदान-प्रदान से वार्ता-चक्र शुरु हुआ।

सारिका,कान्ति,वेंकट तथा अनूप
सारिका,कान्ति,वेंकट तथा अनूप
वेंकट आई.आई.टी.मुम्बई से मेकेनिकल इंजीनियर स्नातक हैं । फिलहाल डेट्रायट,अमेरिका में है। बिना दान-दहेज के शादी किया यह जोड़ा हमें अनायास बहुत प्यारालगा। वेंकट हमें कोकाकोला पिलाने लगे। सारिका से भी ब्लागिंग के बारे में बाते होने लगीं। बताया कि पहले मैं बहुत बोर होती थी जब वेंकट अपने काम में जुटे रहते थे कम्प्यूटर पर। फिर इनके प्रोत्साहन से बेव डिजाइनिंग सीखना शुरु किया तथा ब्लागिंग और फिर शब्दांजलि पत्रिका शुरु की। अब तो हाल यह है कि समय कहाँ सरक जाता है ,पता ही नहीं लगता।


मैंने वेंकट से पूछा -तुम तेलगू ब्लाग के बारे में हमें रिपोर्टिंग किया करो भाई। तो पता चला कि तेलगू बस काम भर की ही जानते हैं वे। उतने से काम बनेगा नहीं। सारिका के ब्लाग पढ़ते हैं कि नहीं के जवाब में बताया गया-पढ़ता हूं पर गति धीमी रहती है।

सारिका ने फिर कुछ ब्लागर्स की तारीफ शुरु की। अतुल की सबसे ज्यादा तारीफ कर रहीं थी कि वे बहुत अच्छा लिखते हैं। इसके अलावा प्रत्यक्षा , रविरतलामी तथा निरंतर की टीम से प्रभावित थीं। ईस्वामी के बारे में पूछा-ये स्वामीजी कौन हैं। हमने बताया-यह तो शायद स्वामीजी भी नहीं जानते होंगे पर लिख-पढ़ - बोल लेते हैं उससे लगता है कि मानव योनि में अवतार लिया है।

निरंतर की बात चली तो फिर मजबूरन देवाशीष ,पंकज,रमणकौल,रविरतलामी तथा जीतेन्द्रकी नये सिरे से तारीफ करनी पड़ी। जल्दी-जल्दी सबका नाम जाप किया गया। पर मुझे यह बहुत खल रहा था कि बताओ बात हम कर रहे हैं तारीफ अतुल की जा रही है जो कि आजकल ब्लागर कम पशुरोग विशेषज्ञ ज्यादा हो गये हैं
मुझे यह बहुत खल रहा था कि बताओ बात हम कर रहे हैं तारीफ अतुल की जा रही है जो कि आजकल ब्लागर कम पशुरोग विशेषज्ञ ज्यादा हो गये हैं
तथा भैंस के दर्द पर शोधरत हैं।

पर हम कोकाकोला का घूंट पी कर रह गये। प्रत्यक्षा की जब ज्यादा ही तारीफ की सारिका ने तो मैंने बहाने से बुराई करनी चाही कि प्रत्यक्षा की कहानियों का खास पैटर्न है कि लगभग हर कहानी में औरत दुखी है । वह अपना संक्षिप्त सुख का समय बिता करे लंबे दुख वियोग के पाले में आ जाती है । उसका चरित्र उदात्त भले ही दिखाया जाये पर मिलता दुख ही है। मेरी कोशिश सफल नहीं हुई क्योंकि सारिका कहने लगी कि पर उनकी कहानियों में पुरुष का पक्ष भी रखा गया है। फिर झेलना तो नारी को ही ज्यादा पड़ता है। हमने आगे कुछ नहीं कहा-चुपचाप दूसरों की सारी तारीफ झेल गये।

एक दूसरे की रचना-प्रकियाओं पर भी बात हुयी। पहले मैं भी कागज में लिखता था लेकिन धीरे-धीरे मामला पेपरलेस होता
गया। शुरुआत दोनों लोगों ने ही अभिव्यक्ति में रविरतलामी का लेख पढ़कर की। मतलब यह कि अगर किसी को हमारे ब्लाग से कोई तकलीफ हो तो रवि रतलामी को कोस सकता है।

मैंने कहा कि तुम्हारी कुछ कविताओं की जिन लाईनों की मैं तारीफ करना चाहता था दूसरे लोग पहले ही उनकी तारीफ कर चुके हैं। थे । इसलिये नहीं की तारीफ। सारिका ने कहा तो कुछ नहीं इस पर लेकिन लगा कि कहना चाहती थीं कि ज़रा जल्दी विचार बनाकर तारीफ किया करें।मुझे बताया गया कि मेरा दीवारों का प्रेमालाप बहुत पसंद किया लोगों ने । तो मैंने बताया - निहायत चलताऊ अन्दाज में शुरु किया गया वह लेख बस यूं ही लिख गया था। अनूप भार्गव की कविताओं से लंबाई मिल गयी। बहरहाल मेरा यह विचार भी बना कि ज्यादा सोच-विचार के लिखने से लेख अच्छा हो जायेगा यह भ्रम रखना फिजूल है। इस बात पर साथी लोग विचार करें खासकर इंद्र अवस्थी जो अभी तक बचपने में ही अटके हैं।
अगर किसी को हमारे ब्लाग से कोई तकलीफ हो तो रवि रतलामी को कोस सकता है।


मां-बेटी
मां-बेटी
बातें और तमाम सारी हुईं । सारिका -वेंकट परिणय के बारे में भी जानकारी मिली। दोनों के गुरुजी ने एक-दूसरे के अनुरुप देखकर इनकी शादी कराई। बिना किसी ताम-झाम दान-दहेज के।
विभिन्न रुचि-स्वभाव रखने के बावजूद खुशहाल मियां-बीबी को देखकर लगा कि देश को ऐसे आदर्श गुरुओं की जरूरत हैं जो ताम-झाम,दान-दहेज के बिना शादी कराकर समाज को नयी गति दें।बातचीत में कबसमय सरक गया पता ही नहीं चला।राजधानी एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुई। सामान लेकर हम पास के ही केबिन में लपके। हालांकि कुली था फिर भी हमने सबसे हल्का झोलापकड़लिया।

डिब्बे के पास सारिका के भाई ने कहा-लाइये मैं पकड़ लेता हूं। मैंने कहा अब क्या यार,गाड़ी तक ही पहुंचा देता हूं। सारिका बोली -आप लिखेंगे कि सारिका ने मुझसे झोला उठवाया। मैंने कहा -नहीं ऐसा कुछ नहीं । यह सब भी कोई लिखने की बातें हैं? इसीलिये इस बारे में कुछ नहीं लिखा गया।

ट्रेन चल दी। हम कानपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर छह पर हुयी ब्लागर मीट की तमाम यादें सहेजे लौटे। जो याद रहीं वे यहां लिख दीं। रास्ते भर हमें अगले दिन जीतेन्द्र से संभावित मुलाकात का 'पिलान' बनाते रहे।

13 comments:

  1. तारीफ जरा लंबी है इसलिए अक्षरग्राम देखिए।

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  2. अतुल ने अपनी तारीफ सुनकर जो भी लिखा..हम भी अपना नाम उसमें जोड दें...
    सारिका को बडा सा शुक्रिया कि आपकी "बहाने की बुराई" के बावज़ूद मेरे डिफेंस में जुटी रही....
    अनूप ...अब देखिये..हम लिखते हैं एक धांसू सा ...दुखी प्रतडित पुरुष की कहानी...फिर देखते हैं आप एक पैटर्न वाली कहनियों का इलज़ाम कैसे नहीं हटाते...:-))
    वैसे एक बार हिन्दी नेस्ट में मेरी कहानी पढ लें..शायद कुछ विचार बदल जाये.......

    प्रत्यक्षा

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  3. अनूप जी, आपकी प्ररेणा, बधाई और शुभकामनाऒ के लिये हार्दिक धन्यवाद। मैं अभी नया हूँ चिट्ठा संसार में, आशा है, आगे सहायता और प्रोत्साहन मिलता रहेगा। आपकी फुरसतिया पढी, बङा अच्छा लगा, सीधे साधे शब्दों में संस्मरण लिखना कोई आप से सीखे --- लगा जैसे मैं खुद ही, १६००० किलोमीटर दूर कानपुर स्टेशन पर पहुँच गया हूँ।

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  4. Anonymous9:32 PM

    Anoopjee, phone per huye savand ke jariye tak jhank karta huwa aapke taza tareen sansmaran kee jhalak pa lee, janha sabdon ke sath chitron ka achha samavesh hain.
    Brijesh Shukla

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  5. भाई अनूप, मैं चाहूँगा कि हिन्दी में मुझे कोसने वाले हजारों लाखों में हों....


    हे हे हे हे....

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  6. अनूप जी,
    क्या खुब जनाब ।
    आपका मिलनसार व्यक्तित्व आपकी भाषा में प्रतिबिम्बित हो रहा है ।
    हाँ, तो हमने भी आपकी कुलीगिरी के बारे में कुछ भी नहीं पढा है।

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  7. अब क्या है कि जब हमारा नाम भी जबरन इस ब्लाग पर डाला गया है तो हम भी अपनी गवाही दर्ज करवा ही दें. हुआ यूँ कि सुबह सबेरे निकलने से पहले शुक्लाजी को खोजा गया, जो मीटिंग करके, फैक्ट्री के राउन्ड पर गये हुए थे, सोचा था कि तुरन्त मिलने का समय मिल जायेगा, जो ना मिल सका, मजबूरन हमे अपने बकिया प्रोग्राम को हरी झन्डी देनी पड़ी, शाम को पाँच बजे करीब, शुक्लाजी हमे ढूंढते ढूंढते गोबिन्द नगर एक मित्र के घर फोन किया, उस वक्त तक घूम घूम कर हमारी हालत पतली हो चुकी थी, इसलिये सारिका जी से मुलाकात के लिये हामी ना भर सके, लेकिन हमारी जानकारी के हिसाब से शुक्लाजी ने बताया था कि सारिका जी सोमदत्त प्लाजा मे है, यदि हमको पता होता स्टेशन पर मुलाकात तय है तो हम जरूर पहुँच जाते, खैर अब पछताये का होत, झोला तो शुक्लाजी ने उठा ही लिया था, हमारे लिये वहाँ क्या बचता..... खैर भइया, हम एक अच्छी मुलाकात से वंचित रह गये....इसका हमे अफसोस रहेगा.

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  9. Anonymous7:01 PM

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  10. बढ़िया लगा संस्मरण। कभी हम भी गुज़रेंगे कानपुर से
    :)

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  11. मैं आप के इतने दिन करीब रहा। लेकिन आप के बारे मुझे इतना पता नहीं था।
    सर आप ने एक बेजुबान बास की सारी व्यथा बता दी। आप का तो जबाब ही नहीं।

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  12. पढ़कर लग गया कि वह झोला बहुत भारी था.. :)
    है कि नहीं ?

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  13. आपने झोला भी उठाया , हमें तो पता ही नहीं चला | :)

    सादर
    -आकाश

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