Thursday, May 31, 2018

सावधान कार्य प्रगति पर है

गन्ने का रस पीने का नबाबी अंदाज। निरीह जनता की तरह खड़ा घोड़ा

सुबह निकले। निकलते ही खुदी सड़क दिखी। आदमी की गहराई के बराबर खुदी सड़क के मलवे के सीने पर बोर्ड लगा था-“ सावधान, कार्य प्रगति पर है।“

मलवे और प्रगति का ऐसा रिश्ता है कि जहां मलवा दिखता है , लगता है जरूर प्रगति हुई हैं यहां। जहां प्रगति वहां मलवा। बोले तो - मलवा प्रगति का बाप है।

'सावधान' लाल रंग से लिखा था। लाल रंग मने खतरे का निशान। इशारे से बता दिया कि प्रगति हो रही है। काम की। संभल जाओ। सावधान कर दिया। फ़िर न कहना कि बताया नहीं। चेताया नहीं। प्रगति खतरनाक है। इसीलिये दुनिया के तमाम प्रगतिशील देश दशकों से प्रगतिशील बने हुए हैं। विकसित नहीं बने हैं। कौन बवाल मोल ले प्रगति का। जहां हैं वहीं बने रहो। प्रगति के लालच में सवा सौ करोड़ देशवाशियों को खतरे में झोंक दें ऐसे बेवकूफ़ नहीं हैं अपन। तमाम विकास वाले काम इसीलिये अटके रह जाते हैं काहे से उनकी प्रगति में खतरा है। जान है तो जहान है।

आगे एक कुत्ता होटल से फ़ेंकी गयी एक रोटी को पंजे में दबाये खा रहा था। कुत्ता अकेला था। रोटी किसी और से बंटने का खतरा नहीं था। फ़िर भी रोटी पंजे के नीचे दबाये था। खाते समय भी पंजा रोटी पर। जैसे माल काटता नेता अपनी निगाह वोट बैंक पर बनाये रखे। टुकड़ा-टुकड़ा करके कुतर रहा था कुत्ता रोटी। कुत्ते का मुंह देश के संसाधन कुतरते कारपोरेट सरीखा लग रहा था। उसके पंजे जनप्रतिनिधियों जैसे। दोनों मिलकर जनता के हिस्से की रोटी कुतरते जा रहे हैं।

नुक्कड़ पर एक आदमी कुर्सी पर बैठा दाढी बनवा रहा था। नाई ऊंघते हुये अनमने ढंग से दाढी पर ब्रश के साबुन फ़ेर रहा था। आईना बुजुर्ग टाइप हो गया था। मोतिया बिंद हो गया हो मानो। धुंधलाया आईना देखकर मुझे वासिफ़ साहब का शेर याद आ गया:
साफ़ आईने में चेहरे भी नजर आते हैं साफ़,
धुंधला चेहरा हो तो आईना भी धुंधला चाहिये।

आगे एक आदमी नबाबी अंदाज में खड़खड़े पर बैठा गन्ने का रस पी रहा था। खड़खड़े की रेलिंग पर बैठने का अंदाज ऐसे जैसे जनता को दर्शन दे रहे हों राजा साहब। घोड़ा चुपचाप अपने निरीह जनता की तरह नबाब साहब को लादे कोड़े के इंतजार में खड़ा था। जैसे ही फ़टकारा जायेगा, वह आगे चल देगा।

सड़क किनारे खड़ी एक महिला आते-जाते लोगों का ’नजर मुआइना’ करती अपने बच्चों को जगा रही थी। उसका टुपट्टा उसके जूड़े में अटका सा था। जूड़ा-टुपट्टा देखकर मिसिर जी के एक गीत की पंक्ति याद आ गयी जिसमें चूल्हे से निकले धुंये के आंगन के पेड़ में अटके रहने का बिंब था। महिला के उचके हुये जूड़े से टुपट्टा पूरी मोहब्बत से लिपटा हुआ था। उसके सर इधर-उधर झटकने के बावजूद जमा हुआ था जूड़े से। शायद गाना भी गा रहा हो:

ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेगे
तोड़ेंगे दम मगर, तेरा साथ न छोड़ेंगे।

सड़क पर एक आदमी बड़ी मोमिया बिछाये काटने के पहले उसका मुआयना कर रहा था। मोमिया पर टाटा डोकेमो का विज्ञापन छपा था। 3 जी का। 4 जी के आने के बाद 3 जी बेकार हो गया है। इसलिये कट-पिटकर बिकने के लिये आ गया था सड़क पर। मंहगी चीजें अप्रासंगिक होने पर कौड़ी की तीन हो जाती हैं। बाजार का यही मूल सिद्धांत है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति
जान हलकान किये हैं मुला इनकी गाली शबाब हैं
आगे ’रिक्शे अड्डे’ पर राधिका जी अपने 'तख्ते-ताउस' पर पूरी ठसक के साथ बैठी थीं। बाकी के लोग काम से लगे थे। पहुंचते ही ’राधिका-प्रताड़ित’ कामगारों ने अपने दुखड़े रोने शुरु कर दिये। अलग-अलग लोगों के अलग-अलग दर्द थे:
-सोने नहीं देतीं। रात बारह बजे रिक्शा चला के आओ। जरा देर लेटो। जगा देती हैं- ’बीड़ी पिलाओ। पानी लाओ।’
-तीन बजे से उठके बैठ जाती हैं। हल्ला मचाते हुये सबको जगा देती हैं।
-जाती हैं। इधर-उधर से मांग लाती हैं। लोग दे देते हैं। ठसक से पैसा देकर कहती हैं-’हमरे खातिर खाना मंगाओ।’
-खाने की बड़ी शौकीन हैं। बिना मछली रोटी नहीं खातीं।
-अरे रात जगा के बोली- ’हमार पांव छुऔ। गोड़ दबाओ।’
-जाती ही नहीं हैं। कहती हैं -’हम हियैं रहब। आदमी होय कौनौ तो मार-पीट के भगा दीन जाय। इनका कैसे भगावा जाये। जान आफ़त किहे हैं।’
एक बुजुर्ग अपना दर्द बड़ी शिद्धत से सुना रहे हैं। मुंह में दांतों की सरकार गिर गयी है। मसूढों का राष्ट्रपति शासन चल रहा है। मुंह की निकली आवाज बाहर अनुमान लगाने वाली हवा में बदल जा रही है। वे दुखड़ा रोते हुये कहते हैं- ’इनकी गालियां शबाब हैं। सुनते हैं बरक्कत होती है। कल हल्ला-गुल्ला के बाद गये रिक्शा चलाने- साठ रुपया घंटा भर में आ गये।’
राधा मजे से बीड़ी का सुट्टा मारते हुये इस बतकही के मजे ले रहे हैं। कहीं बतकही कमजोर लगती दिखी तो कोई जुमला फ़ेंककर किसी की ऐसी तैसी करके गर्मा रही हैं।
इसी समाज में लोग हैं जो अपनी गाड़ी छूने वाले को गोली मार देते हैं। उसी समाज का एक सच यह भी है जिसमें एक अनजान महिला के आ जाने से हलकान लोग उसी की गालियां शबाब की तरह माने लोग। दुनिया के तमाम इन्द्रधनुषी रंगों में यह भी एक रंग है।
गंगा किनारे झोपड़ी में जैनब की बच्ची बाहर बैठी चुटिया कर रही थी। छोटे शीशे को अपनी चप्पल के स्टैंड पर टिकाये। बहुत तसल्ली से अपने बालों की एक-एक चोटी संवारती हुई। पंत जी के ’प्रकृति यहां एकान्त बैठ, निज रूप संवारति’ की तरह चोटी करती हुई बच्ची। गंगा के हाल ’तापस बाला, गंगा निर्मल’ सरीखे हो रहे थे।
हमने बच्ची से बात की। पता चला उसकी अम्मी जैनब अभी घर में हैं। बहन खाना बना रही थी। संदीप सो रहा था। घर में टेलिविजन है। पिक्चर देखती है बालिका। छतरी लगी है। नये गाने पसंद हैं बच्ची को। कौन सा सबसे ज्यादा पसंद है पूछने पर एक कोई बताया। ’छलिया से छलिया’ शायद बोल थे। हमको याद नहीं अभी। असल में इधर अपन नयी हीरोइनों के टच में नहीं है। इसलिये नये गाने भी याद नहीं रहते।
लौटते हुये बीच सड़क पर दो रिक्शेवाले अगल-बगल खड़े होकर गपियाते दिखे। एक की बीड़ी से दूसरे ने अपनी सुलगाई। जब तक फ़ोटो खैंचे तब तक वे आगे चल दिये। दो रिक्शों का जोड़ा बिछुड़ गयो रे टाइप फ़ीलिंग देकर अपने को।
एक बच्ची अपने से डेढ गुना ऊंची साइकिल चलाती आती दिखी। पैडल तक पैर पहुंच नहीं रहे थे। उचक-उचककर चलाते हुये साइकिल डगर-मगर कर रही थी। इधर-उधर बहक रही थी। लेकिन बच्ची बड़ी सावधानी से साइकिल का संतुलन बनाये हुये थी। चेहरे पर सावधान वाला आत्मविश्वास पसरा हुआ था। उस पर पसरी हुई सूरज की किरणें उसको और चमका रहीं थीं। खुशनुमा और खूबसूरत बना रहीं थीं।



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Tuesday, May 29, 2018

तुम तो ठहरे परदेशी

चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग, लोग बैठ रहे हैं और बाहर
राधा बीड़ी का सुट्टा सुलगाते हुए

सबेरे टहलने निकले। नुक्कड़ पर पंक्चर वाला अपनी दुकान सजा रहा था। किसी प्रदेश में पंचर शिक्षा स्कूलों के पाठ्यक्रम में लग गई। क्या पता ऐसे ही सड़क किनारे पंक्चर बनाने वालों में कोई 'पंचर प्रोफेसर' बने। बनाने वाले तो पता नहीं कब नियुक्त हों, अभी तो सब पंचर करने में ही लगे हैं।
कोने की गन्ने की रस की दुकान चालू हो गयी थी। बच्चा उचक-उचककर , सरकती नेकर को संभालते हुए दुकान सजा रहा था। स्कूल शायद बन्द हो चुके थे उसके। 'गर्मी की छुट्टी' वाले निबंध अगर उसको लिखने को कहा जाए तो यही लिखे शायद वह -'रोज सुबह सूरज निकलने के पहले दुकान सजा लेता था मैं। सूरज इस बात से बहुत चिढ़ता था और बहुत गरम हो जाता था। दिन भर सुलगता रहता। लेकिन मैं उसकी चिंता कभी नहीं करता था, उठते ही भागकर दुकान सजा लेता।'
वहीं साईकल, स्टूल, मेज किसी अवसरवादी गठबंधन सरीखे 'सड़क रिजोर्ट' में इकट्ठा थे। सरकार बनाने वाले विधायक लोग भी इसी तरह रिजॉर्ट में जमा होते होंगे। हो सकता है ऐश थोड़ी ज्यादा हो। लेकिन हालत इससे ज्यादा जुदा नहीं होते होंगे। विनोद श्रीवास्तव की कविता है न:
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे आजाद नहीं हैं हम
पिंजरे जैसी इस दुनिया में, पक्षी जैसा ही रहना है
भरपेट मिले दानापानी , लेकिन मन ही मन दहना है।
विधायक लोग तसल्ली से खाते-पीते हुए मन ही मन दहते हुए सोचते होंगे -'न जाने मंत्री पद मिलेगा कि नहीं।'
आगे ऐसे ही कुर्सी, ठेलिया और आइसबाक्स कि जुगलबन्दी दिखी। कुर्सी देखकर लगा कि बस आते ही कोई कब्जा करके बैठने ही वाला है।
भड़भूँजे वालों की दुकानें भी सजने लगीं थीं। एक औरत सूप से दाना फटकती हुई छिलकों को बाहर करते हुए भुने चने बेचने के लिए तैयार कर रही थी।उसकी बिटिया बगल में ऊंघती हुई। सड़क को निहार रही थी।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, मुस्कुराते हुए, बैठे हैं, खा रहे हैं, बच्चा, भोजन और बाहर
खाने बनाने के लिए आटा माढ़ते हुए कामगार
आगे सुरेश चंद्र के रिक्शे के ठिकाने पर कई लोग जमा थे। एक रिक्शेवाला थाली में पहलवानी वाले अंदाज में आटा गूंथ रहा था । गीले आटे को दबाते, उलटते, पलटते हुए उसको रोटी के लिए तैयार कर रहा था। आटे को फुल मोहब्बत के साथ रोटी के लिए तैयार करता आदमी बहुत प्यारा लगा। हमने उससे पूछा -'कभी घर में भी ऐसे आटा गूंथते हो?'
वह हंसकर और तल्लीनता से आटा माड़ने लगा। और प्यारा सा हो गया। 
उसका साथी चूल्हे में लकड़ी सुलगाये दाल बना रहा था।
वहीं पीछे एक महिला बैठी धड़ल्ले से बीड़ी सुलगा रही थी। उससे बतियाते हुए पूछा कितनी बीड़ी सुलगा चुकी सुबह से?
बोली -'चार बंडल।नौ चिलम भी पी सुलगा चुके।'
उत्सुकता हुई तो और बतियाये। पता चला कि राधिका नाम है उनका। लोग राधा कहते हैं। पटना घर है। पांच बच्चे हैं। सब समर्थ। पति 'शान्त' हो चुके है। कुछ सालों में कई तीर्थ कर चुकी हैं। फिलहाल कानपुर में डेरा है। यहीं के लोग खाना-पीना, बीड़ी-चरस का इंतज़ाम कर देते हैं।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 3 लोग, लोग बैठ रहे हैं, मेज़, बच्चा, जूते और बाहर
जब तक चूल्हे में जलती रहेगी आग,
जिंदगी का मधुर बजता रहेगा राग।
सुरेश जो रिक्शे के ठेकेदार हैं ने बताया कि महीने भर से यहां टिकी हैं। कहती हैं यहीं रहेंगे। सब लोगों के साथ खाती-पीती हैं। नशा-पत्ती भी। कोई दारू भी पिला देता है।

कोई अनजान औरत अपने घर से दूर लोगों में घुलमिल जाए। लोग उसके खाने-पीने की व्यवस्था कर दे। यह अपने में रोचक है। कामगारों का समाजवाद है यह। अनजान लोगों के साथ इतनी सहजता से रिश्ते बनने की बात पर प्रमोद तिवारी की कविता याद आई:
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं,
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।

बातचीत हुई तो राधा ने कई गाने अपनी आवाज में सुनाए। एक के बाद दूसरे गाने। मानो कोई कवि किसी श्रोता के मिल जाने पर अपने सारे कलाम जबरियन सुना डाले। गाने उनकी आवाज में आवाज जैसे ही मुड़-तुड़ गए। बोल इधर-उधर। कुछ के वीडियो भी बनाये।
'तुम तो ठहरे परदेशी, साथ क्या निभाओगे' सबसे ज्यादा दोहराया। 'जादुगर सैयां, छोड़ो मेरी बैंया,,अब घर जाने दो' भी सुनाया।'
चलते हुए तख्त से उतरकर हमारे सर पर हाथ फेरते हुए गाल भी सहला दिए।

वहां से आगे हम गंगा किनारे तक आये। नीचे उतरकर गंगा के पानी को छूने का मन था। नीचे उतरने के पहले किनारे की झोपड़ी में एक महिला अपनी तीन बच्चियों और एक बच्चे के साथ दिखी तो उससे बतियाने लगे।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 3 लोग, मुस्कुराते लोग, लोग बैठ रहे हैं और बाहर
जुनैब अपनी बेटी शबनम और बालक संदीप के साथ बगल में सिक्का बटोरने वाले चुम्बक के साथ
महिला का नाम जैनब है। देवरिया मायका। ससुराल गोरखपुर। आदमी ऊपर दुकान करता है। सब पैसा दारू में उड़ा देता है। तीन बेटियां हैं। बच्चियों को पालने के लिए जैनब घास छीलने का काम करती है। बच्चियां पांच-सात तक पढ़ने के बाद घर बैठ गईं। बोली -'मन नहीं लगता पढ़ाई में।'
झोपड़ी में बिजली है। बच्ची के हाथ मे रिमोट भी दिखा टीवी का। मीटर लगा है । बिल अभी आना शुरू नहीं हुआ। घास छीलने वाली महिला के घर टीवी, बिजली है। लेकिन गरीबी भी है। गरीबी आजकल बहुरंगी हो गयी है।
जैनब रोजा नही रखती। बोली -'दिन भर धूप में हालत खराब हो जाते हैं।'
पास में बैठे बच्चे संदीप के बारे में जानकारी देते हुए बताया -'इसके मां-बाप रहे नहीं। भाई एक मसाला बेंचता था। जेल में बंद हो गया किसी केस में। दूसरा भाई शुक्लागंज में रहता है। यह यहीं आ आ जाता है। जब भूख लगती है। यहीं खाता है।'
बच्चे संदीप के हाथ में गोल चुम्बक हैं। उनसे गंगा में फेंकने वाले पैसे बटोरता है। भूख लगती है तो जैनब के घर भगा चला आता है।
संदीप के बारे में बताते हुए जैनब बोली-'बहुत कहते हैं स्कूल जाया करो। जाता नहीं। बस पैसे बिनता रहता है। बस भूख लगने पर ही आता है। हम भी खिलाते है। जब तक बड़ा होगा, खायेगा। फिर अपना खुद देखेगा।'
हिन्दू-मुसलमान पर तमाम बहसें होती हैं हर जगह। वो सब बहसें जैनब-संदीप की सहज ममता, मानवता के मूर्तमान रिश्ते को देखकर और चिरकुट, लगीं। यह भी लगा कि हमारे आसपास अनगिनत उदात्त मानवीय रिश्ते बिखरे होते हैं। हम उन सबको चिरकुट लोगों के भुलावे में आकर अनदेखी करते हुये दुखी होते रहते हैं।
जैनब अपनी एक बेटी के साथ झोले में खुरपिया रखकर चली गयी। हम भी वापस लौट लिए। हमे भी अपनी तरह की घास छीलनी थी।
फोटुओं में राधा के गीत के वीडियो भी हैं। सुनियेगा।


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Sunday, May 27, 2018

ज्ञान चतुर्वेदी और राहुल से हुई लंबी बातचीत के चुनिंदा अंश

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 3 लोग, Gyan Chaturvedi और Rahul Dev सहित, मुस्कुराते लोग, पाठ
ज्ञान जी और राहुल देव की लंबी बातचीत ’साक्षी है संवाद’ के रूप में पिछले दिनों आई। इस किताब के बारे में विस्तार से पिछली पोस्ट में लिखा गया है। लिंक यह रहा। https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10214454674054111
किताब के कुछ मुख्य अंश यहां पेश हैं:
1. भगवान एक अनगढ हीरा देता है। उसे गढना पढता है। गढने में बहुत मेहनत लगती है। बहुत से प्रतिभाशाली हैं पर मेहनत नहीं करना चाहते। वो भी हीरा ही हैं। पर उसकी पहचान बनाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है। वो प्रतिभा तराशने का काम आपका है।
2. आज व्यंग्य की प्रतिभा मुझसे ज्यादा अगर किसी में कहूं तो अंजनी चौहान में हैं।
3. व्यंग्य की हालत हमने लगभग मंच की कविता की तरह कर दी है जो लोकप्रिय तो है पर कमजोर भी है।
4. व्यंग्य बहुत लोकप्रिय है, बहुत छप रहा है। बहुत गतिविधियां हैं। बड़ी-बड़ी बातें कही जा रही हैं पर वो गहराई नहीं है। फ़ैलाव शायद बहुत है, गहराई नहीं है। बड़ी बात नहीं कही जा रही है।
5. जब आप सबकी तारीफ़ करते हैं, तो वास्तव में किसी की तारीफ़ नहीं करते। आपमें यह हिम्मत होनी ही चाहिये कि नहीं, खराब भी लिखा जा रहा है।
6. इन लोगों का बाकायदा एक गिरोह चल पड़ा है, जो दर्पण को दोनों तरफ़ से काला कर रहे हैं और उसी दर्पण को वे अब वास्तविक दर्पण बताने की कोशिश कर रहे हैं।
7. यहां तो बुझी मशाल लेकर चलने वाले आलोचक भी व्यंग्य में नहीं हैं। जलती हुई मशाल तो छोड़ ही दीजिये। जिनके पास बुझी मशाल है, उनमें से केवल मिट्टी का तेल धुंवाता है चारों ओर, बदबू आती है; मशाल वो भी नहीं है।
8. अभी आलोचना के नाम पर हमारी व्यंग्य पत्रिकाओं में जो लिखवाया जा रहा है, वो बहुत कमजोर चीज है। हम परिभाषाओं पर ज्यादा जाते हैं।
9. मुझे आलोचना बहुत उदात्त स्वरूप में व्यंग्य में अभी तक नहीं दिखी है।
10. मेरा मानना ये है कि समय जितना कठिन होता जायेगा, लेखन उतना ही बेहतर कर सकते हैं। चुनौतीपूर्ण समय आपको एक बड़ी चुनौती देता है और एक अच्छा लेखक बड़ी चुनौती से बाकयदा प्रेरणा लेता है।
11. ये जो बहलाने की तरकीबें हैं बाजार की, पूरे समाज को और हर आमजन को, ये मुझे बहुत डराती हैं। आमजन कभी अपने और समाज को सुधारने के लिये जो क्रांति के सपने बुनता था, जो बदलाव के सपने देखता था, बाजार ने वहां से उसकी दृष्टि हटा दी है। वो अब दूसरे किस्म के सपने देखने लगा है। वो असली सपनों से अलग हो गया है।
12. मनुष्य एक बहुत सक्षम किस्म का पुतला बनकर रह जायेगा। रोबो तैयार करना चाहते हैं आप। एक से सारे लोग हों, एक सा सोचें, एक से कपड़े पहनें, एक सी चिंतायें करें। चिंता के दायरे इतने सिकुड़ गये हैं कि जो बड़ी-बड़ी चिंतायें समाज को लेकर होती थीं, जीवन को लेकर होती थीं। वे तिरस्कार और उपहास के पात्र हो गये हैं।
13. अब चिन्तक पैदा होने कठिन हो गये हैं। हमारा चिंतन सारा इकोनामिक्स बेस्ड है और इस इकोनामिक्स ने इतने जोर से समाज को पकड़ लिया हैकि यहां की सारी क्रियेटिविटी, आपकी सारी रचनात्मकता अब केवल बाजार कैसे बढे, इसके लिये हैं।
14. जो रचनात्मक लोग हैं, उनका जो रचनात्मक पैनापन, वो बाजार के काम आ रहा है। वो रचनात्मकता जो समाज को मिलनी चाहिये, जो समाज को बदल सकती थी, वह बाजार की चेरी बन गयी है।
15. हिन्दी प्रकाशन में तो सभी बदमाश हैं, बहुत सारी गड़बडिया हैं।
16. अंग्रेजी में जिनके बहुत नाम हैं लेखन में, अरुंधती को मैने पढा अभी, नया जो उनका नावेल आया है। मैंने देखा है कि उन्होंने अच्छा लिखा है, मैं भी ऐसा ही लिखता हूं। मैं भी ऐसा ही अच्छा लिखता हूं। पर मेरे को पूछ कौन रहा है भैया अब?
17. मेरे मन में आता है कि मेरे उपन्यासों का, खासतौर पर ’नरक यात्रा’ वगैरह का कोई अच्छा अंग्रेजी अनुवाद कर दे, तो बहुत बिकेगा और पैसे भी मिलेंगे। वो मुझे अभी तक ऐसा सक्षम कोई आदमी नहीं मिला, जो अंग्रेजी अनुवाद कर दे मेरे उपन्यास का।
18. अगर मैं अपनी किताबों की रायल्टी पर ही जीने लगूं तो बर्बाद हो जाऊं।
19. मैं कहता हूं कि व्यंग्य वह है, जो मैं लिख रहा हूं। मेरे हिसाब से वो व्यंग्य है। जो परसाई ने लिखा है, वो व्यंग्य है। जो शरद जी ने लिखा, मुझे लगता है वो व्यंग्य है। जो त्यागी जी ने लिखा, वो व्यंग्य है और बहुतों मे ऐसा भी लिखा , जो मैं कह सकता हूं कि ये व्यंग्य नहीं है।
20. मुझे लगता है कि व्यंग्य की भी सबसे पहली शर्त ये है कि मैं पढूं तो मुझे लगे कि ये व्यंग्य है। मेरा पाठक पढे, तो उसे लगे कि यह व्यंग्य है। परिभाषा नहीं पूछता पाठक।
21. व्यंग्य की शास्त्रीय परिभाषा की मैंने कभी परवाह नहीं की। व्यंग्य को ’व्यंग’ कहें कि ’व्यंग्य’ कहें और ’व्यंग्य’ कहने से कौन सी गड़बड़ हो जायेगी ये सब बातें बेवकूफ़ी की हैं। ये उनके मानसिक विलास , जिनसे व्यंग्य बनता नहीं है।
22. आपको भ्रम है कि आप बड़ी तगड़ी अभिव्यक्ति दे रहे हैं। कोई नहीं पूछता साब। आप लिखिये। ठाठ से लिखिये। जब तक उनकी राजनीति के आड़े नहीं आता कोई, तब तक कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
23. मुझे अभी फ़िलहाल के वातावरण में भी कहीं कोई अभिव्यक्ति पर खतरा नजर नहीं आता।
24. रचनाकार भी कहते हैं कि समय ही तय करेगा कि अंतत: कौन अच्छा रचनाकार था, कौन नहीं था? वो कई बार अपनी कमजोर रचना का बचाव करने के लिये भी कह देते हैं कि ये तो समय ही तय करेगा।
25. मुझे लगता है कि आलोचना को लफ़्फ़ाजी में बड़ा मजा आता है। कविता में लफ़्फ़ाजी बहुत की जा सकती है। उसमें बहुत सारी चीजें ढूंढी जा सकती हैं, पाठ-पुनर्पाठ करके।
26. आलोचना करने वाला फ़िर धीरे-धीरे खलीफ़ाई करने पर उतर आता है। जैसे ही उसका नाम हो जाता है, वह महंत बन जाता है।
27. हमारे ज्यादातर व्यंग्य आलोचक, व्यंग्य ही नहीं , हर तरह के आलोचक, जो बने, वे अंतत: खलीफ़ा के अंदाज में फ़तवे जारी करने लगे।
28. विचारहीन व्यंग्य हो ही नहीं सकता। विचार तो होना ही चाहिये व्यंग्य में।
29. व्यंग्य केवल भाषा या शैली ही नहीं है। यह केवल जुमलेबाजी भी नहीं है। ये सब बहुत जरूरी हैं व्यंग्य को करने के लिये क्योंकि ये व्यंग्य को एक ताकत देते हैं, व्यंग्य में पैनापन पैदा करती हैं ये सारी चीजें। पर अंतत: बात वहां टिकटी है कि आप इनका सहारा लेकर आखिर कह क्या रहे हो?
30. जहां तक वैचारिक प्रतिबद्धता की बात है कि वो वामपंथी हों, प्रगतिशील हों, इसके खिलाफ़ हम शुरु से ही थे। कोई भी आदमी मेरे को डिक्टेट नहीं कर सकता कि मैं क्या लिखूं?
31. अंतत: हर विचार एक मठ में तब्दील हो जाता है।इसे ही वैचारिक प्रतिबद्धता कहते हैं।
32. लेखक कितना एक्टिविस्ट हो और कितना लेखक हो, यह लेखक को ही तय करना है।
33. आप किसी चीज की कीमत पर ही दूसरी चीज कर पाते हैं। आपका प्यार किसके प्रति बहुत है यह तय करता है कि आप कितने एक्टिव रहे या कितना आपका लेखन रहेगा।
34. मेरी सारी प्रतिबद्धता मेरे लेखन के प्रति है और मेरी समाज के प्रति है जिसको मैं समझता हूं और जिसके बारे में , मैं लिखना चाहता हूं। उतना मैं कर सकूं तो मुझे लगेगा कि मैंने सब कर लिया। वो वैचारिक प्रतिबद्धता मेरी है। उतनी , उन अर्थों में है।
35. आप अपनी कमजोरी लेखन की विशेषता मत बता दीजिये। अगर मेरे से हास्य रचते नहीं बनता , तो मैं हास्य को कहूं कि ये तो बेकार की चीज है। मेरे से एक अच्छी कविता लिखते नहीं बनती और मैं यह कहूं कि कविता करना बेकार है। तो मैं अपनी कमजोरियों को विशेषता बनाकर न कहूं।
36. व्यंग्य को सपाटबयानी में तब्दील करने की इस मुहिम में हुआ यह है कि धीरे-धीरे व्यंग्य में भी व्यंग्य नहीं बचा। हास्य का साथ छोड़ा और व्यंग्य में जो विट और व्यंजना होनी चाहिये, वो है नहीं। वो ही नहीं बचा , क्या कहेंगे, कूव्वत, वो ही नहीं बची व्यंग्य में।
37. हास्य बहुत कठिन है, बहुत बड़ी चुनौती है और बहुत प्रतिभा मांगता है।
38. हास्य की तो बहुत इज्जत की जानी चाहिये। ’हास्यकार’ कहके किसी को दरकिनार कर देना बहुत बड़ा अपराध है।
39. यहां बहुत सारे वे लोग व्यंग्य लिख रहे हैं आज, जिनको व्यंग्य का क, ख, ग तक नहीं पता पर वो भी व्यंग्य लिख रहे हैं। वो इस कारण है कि लोगों ने व्यंग्य को एक बड़ा सरल काम समझ लिया है।
40. हिन्दी में बहुतों ने ’व्यंग्य’ लिखा है, पर वो व्यंग्य नहीं हो के व्यंग्य के नाम पर कुछ लिखा गया है।
41. ज्यादातर सीधा आदमी कई बार जटिल हो जाता है।
42. मेरे लिये किस्सागोई बहुत महत्वपूर्ण है। फ़िर उसमें जो बात कही जायेगी। वो आपके ऊपर है कि आप कितना जीवन समझते हो?
43. आप कमीनेपन में नहीं पडोगे जीवन में, जब आप घटियापन में नहीं पड़ोगे, जब आप छोटे-छोटे स्वार्थों में नहीं पडोगे तो आप जीवन में बहुत बड़ी-बड़ी बातें भी सीख सकते हो।
44. ये जीवन बहुत छोटा है मनुष्य का। अब बुढापे में धीरे-धीरे समझ में आता है।
45. आप पॉपुलर होते हैं , तो आपको परेशानियां तो होती हैं।
46. (लेखन में) किस्सागोई बनी रहनी चाहिये। मजा आना चाहिये।
47. अगर मुझे गली का ही क्रिकेट खेलना है , तो मैं गली का ही क्रिकेटर होकर रह जाऊंगा। मुझे बड़ा काम करना है, तो मुझे बड़ा काम करना है। फ़िर आपको चुनौतियां भी बड़ी लेनी होंगी। फ़िर छोटी चुनौतियों की औकात नहीं रह जाती।
48. मेरी मुमुक्षा है , लिखना। जिस दिन मेरी यह मुमुक्षा खत्म हो जायेगी , उसी दिन मैं चुक जाऊंगा, खत्म हो जाऊंगा।
49. आपको हर रचना में डर लगना चाहिये। हर नयी रचना लिखने में मुझे बहुत डर लगता है कि इस बार वह ठीक नहीं हो पायेगी। लगता है, हर बार तो ठीक करते गये पर इस बार जरूर कोई गड़बड़ होगी। तो यह डर मुझे बड़ा अलर्ट रखता है, हमेशा।
50. अगर व्यंग्य आपका सहज स्वभाव है तब तो ठीक है, वरना जब तक व्यंग्य आपके सहज स्वभाव में नहीं है, आप व्यंग्य उपन्यास नहीं लिख सकते।
51. मुझे लगता है कि मेरा पाठक से सीधे जुड़ पाना ही मेरी ताकत है। जो मैं कह रहा हूं, वो पाठक को लगे कि ये ही बात तो वो भी कहना चाहता है- यही मेरी ताकत है।
52. एक सफ़ल व्यंग्यकार बनने की आवश्यक योग्यता है ईमानदारी और एक निर्मल हृदय। जैसे ही आप तिकड़म में जाते हैं, आप व्यंग्य से बाहर हो जाते हैं। मेरा मानना है कि वो ही व्यंग्यकार बड़े बन पाये, और वो तभी तक बड़े रहे, बाद में, जब तक वो जीवन की छोटी तिकड़मों में नहीं पड़े।
53. अगर आपको व्यंग्य उपन्यास लिखना है, तो आपके अन्दर एक व्यंग्य की दृष्टि होनी चाहिये। आपको जीवन की समझ बहुत अच्छी होनी चाहिये और आपका हृदय बहुत निर्मल होना चाहिये।
54. एक सफ़ल व्यंग्यकार और एक बड़े व्यंग्यकार में अंतर है। सफ़ल व्यंग्यकार होना बीच का रास्ता है। एक बड़ा व्यंग्यकार होने के लिये वो मुमुक्षा चाहिये आपको। जब व्यंग्य ही आपका जीवन हो जाये।
55. पूरा समाज , जीवन, देश और विश्व इस तरह से बदला है कि बिल्कुल ही अलग चुनौतियां हैं अब जीवन के सामने। बहुत अलग किस्म की चुनौतियां हैं ये और उसके बीच अगर हम उथला-उथला खेल करेंगे, अभी भी हम राजनीति पर बहुत उथले व्यंग्य लिखते रहेंगे और हम सोशल मीडिया की तारीफ़ को ही अगर तारीफ़ समझेंगे , एक दूसरे की तारीफ़ को जो कि एक वहां का सामान्य शिष्टाचार बन गया है, तो कहीं नहीं पहुंचेंगे।
56. आप किसी सही व्यक्ति को पकड़ो, जो आपसे सही बात कर सके। फ़िर आप आगे बढो। और रातों-रात, ओवरनाइट स्टार होने की कल्पना मत करो। ये एक बहुत लम्बा खेल है साहित्य। आप अच्छा लिखो, बस बाकी चीजें अपने आप पीछे-पीछे आयेंगी। मैं ये कह रहा हूं। पुरस्कार भी
आयेंगे। पहचान भी आयेगी। सम्मान भी आयेंगे। आपके बारे में बात भी होगी।
पुस्तक विवरण
-------------------
पुस्तक का नाम:’साक्षी है संवाद ’ (ज्ञान चतुर्वेदी से लंबी बातचीत)
वार्ताकार- राहुल देव
सहयोग राशि- 100
पेज- 96
प्रकाशक: रश्मि प्रकाशन, 204, सन साइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4 , कृष्णा नगर, लखनऊ- 226023
किताब के लिये आर्डर करने के तरीके:
1. 100 रुपये पेटीम करें फ़ोन नंबर - 8756219902
2. या फ़िर 100 रुपये इस खाते में जमा करें
Rashmi Prakashan Pvt. Ltd
A/C No. 37168333479
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IFSC Code- SBIN0016730
दोनों में से किसी भी तरह से पैसे भेजने के बाद अपना पता 08756219902 पर भेजें (व्हाट्सएप या संदेश)
3. किताब अमेजन पर इस पते पर उपलब्ध है -http://www.amazon.in/dp/B07D3N2P1R

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10214454783856856

ईमानदारी और एक निर्मल हृदय एक सफ़ल व्यंग्यकार के लिये आवश्यक योग्यता है-- ज्ञान चतुर्वेदी


“एक सफ़ल व्यंग्यकार बनने की आवश्यक योग्यता है ईमानदारी और एक निर्मल हृदय। जैसे ही आप तिकड़म में जाते हैं, आप व्यंग्य से बाहर हो जाते हैं। मेरा मानना है कि वो ही व्यंग्यकार बड़े बन पाये, और वो तभी तक बड़े रहे, बाद में, जब तक वो जीवन की छोटी तिकड़मों में नहीं पड़े।“
यह बात प्रसिद्ध व्यंग्यकार पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी जी ने युवा कवि, आलोचक और संपादक राहुल देव से लंबी बातचीत करते हुये के सवाल -“आपके अनुसार एक सफ़ल व्यंग्यकार बनने की आवश्यक योग्यता क्या है?” के जबाब में कही।
ज्ञान जी से राहुलदेव की लंबी बातचीत ’साक्षी है संवाद’ शीर्षक पुस्तक में संकलित हैं। किताब स्व. सुशील सिधार्थ जी को समर्पित है। रश्मि प्रकाशन लखनऊ से छपी किताब में प्रकाशक की तारीफ़ करनी होगी कि पैसा पेटीएम करने के तीन-चार दिन बाद ही किताब पहुंच गयी। कुल जमा सौ रुपये में 96 पेज की किताब डाकखर्च सहित। मतलब लगभग एक रुपया फ़ी पेज।
किताब मिलते ही सरसरी तौर पर सारे पन्ने देख डाले। काफ़ी कुछ बांच भी लिये। इसके बाद कल और आज तसल्ली से पढी। चुनिंदा अंश नोट भी किये जो कि अलग से आपको पढवायेंगे।
इस लंबी बातचीत में राहुल ने ज्ञान जी के लेखन और उनके जीवन से जुड़े तमाम सवाल पूछे हैं। ज्ञान जी ने उनके विस्तार से और कहीं-कहीं क्या लगभग हर सवाल का बहुत विस्तार से जबाब दिया है- ’खासकर अपने लेखन और व्यक्तित्व से जुड़े सवालों के जबाब में।’ मतलब पाठक के अनुमान लगाने के लिये कुच्छ नहीं छोड़ा। बहुत आत्मीयता से सवालों के जबाब दिये।
ज्ञान जी ने समसामयिक व्यंग्य लेखन से जुड़े सवालों के जबाब देते हुये अच्छे व्यंग्य लेखन की शर्तें भी बताईं। व्यंग्य में आलोचना की स्थिति बताते हुये कहा-“ अभी आलोचना के नाम पर हमारी व्यंग्य पत्रिकाओं में जो लिखवाया जा रहा है, वो बहुत कमजोर चीज है। हम परिभाषाओं पर ज्यादा जाते हैं।“
आलोचकों के बारे में उनका यह भी मानना है - “हमारे ज्यादातर व्यंग्य आलोचक, व्यंग्य ही नहीं , हर तरह के आलोचक, जो बने, वे अंतत: खलीफ़ा के अंदाज में फ़तवे जारी करने लगे।“
“व्यंग्य में हास्य की जरूरत पर अपनी राय व्यक्त करते हुये उन्होंने कहा- हास्य बहुत कठिन है, बहुत बड़ी चुनौती है और बहुत प्रतिभा मांगता है। हास्य की तो बहुत इज्जत की जानी चाहिये। ’हास्यकार’ कहके किसी को दरकिनार कर देना बहुत बड़ा अपराध है।“
व्यंग्य में हास्य को त्याज्य बताने वाले संप्रदाय की समझ के खिलाफ़ फ़्रंटफ़ुट पर बैटिंग करते हुये ज्ञान जी ने कहा-“ बहुत लोग कहते हैं, प्रेम जनमेजय उनमें सबसे आगे हैं, और उनके साथ वाले बहुत से लेखक कहते हैं कि हास्य डाल दो, तो व्यंग्य डायल्य़ूट हो जाता है, उसका तीखापन खराब हो जाता है, उसकी चोट नहीं पड़ती।
मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूं कि आप अपनी कमजोरी लेखन की विशेषता मत बता दीजिये। अगर मेरे से हास्य रचते नहीं बनता , तो मैं हास्य को कहूं कि ये तो बेकार की चीज है। मेरे से एक अच्छी कविता लिखते नहीं बनती और मैं यह कहूं कि कविता करना बेकार है। तो मैं अपनी कमजोरियों को विशेषता बनाकर न कहूं।
व्यंग्य में सपाटबयानी पर अपनी बेबाक राय रखते हुये ज्ञानजी ने सीधे कहा-“ व्यंग्य को सपाटबयानी में तब्दील करने की इस मुहिम में हुआ यह है कि धीरे-धीरे व्यंग्य में भी व्यंग्य नहीं बचा।“
हिन्दी प्रकाशकों को बदमाश बताते हुये उन्होंने यह इच्छा जाहिर की कि कोई उनके उपन्यासों नरकयात्रा और पागलखाना का अंग्रेजी में अनुवाद कर सके तो उनका दुनिया में नाम भी हो और पैसा भी मिले। ज्ञान जी की राय में हिन्दी का लेखन दुनिया के किसी भी लेखन की तुलना में उन्नीस नहीं इक्कीस ही है। हिन्दी से अंग्रेजी में अच्छे अनुवादक के न होंने के कारण दुनिया में पहचान और पैसा भी नहीं मिल पाता हिन्दी के लेखक को।
व्यंग्य के त्रिदेव, दो साल पहले हुये अट्टहास पुरस्कार प्रकरण, अपने व्यंग्य में गालियों पर उठे सवालों पर बहुत विस्तार से जबाब दिये ज्ञान जी ने। अंजनी चौहान जी (जिनको ज्ञानजी आज की पीढी का सर्वेश्रेष्ठ व्यंग्यकार मानते हैं) को ’अट्टहास’ का ’शिखर सम्मान’ दिलाने के चक्कर में ’अट्टहास’ का ’युवा सम्मान’ एक गलत आदमी को चला गया।
ज्ञान जी की एक बार फ़िर से इस मसले में सफ़ाई पढकर लगा कि वे कितने भोले हैं जो ऐसी बात पर दो साल से लगातार सफ़ाई देते आ रहे हैं जिस तरह की बातें हर सम्मान सामान्य तौर पर जुड़ी हैं। अभी हाल ही में हिन्दी व्यंग्य के सर्वेश्रेष्ठ में से एक माने गए व्यंग्यकार के नाम से शुरु हुये सम्मान की शुरुआत उसी तथाकथित गलत आदमी को देकर हुई। उसमें किसी ने इस मामले में बात तक नही की।
ज्ञानजी ने और भी तमाम सम्मानों से जुड़ी बातें विस्तार से बताई और गणित की भाषा में इति सिद्धम किया कि सिवाय एक इनाम के उन्होंने सारे इनाम सुपात्रों को संस्तुत किये और बाकायदा उनके लिये लड़े भी।
पाठक से सीधे जुड़ सकने की अपनी क्षमता को अपने लेखन की ताकत बताते हुये ज्ञानजी ने कहा-“ मुझे लगता है कि मेरा पाठक से सीधे जुड़ पाना ही मेरी ताकत है। जो मैं कह रहा हूं, वो पाठक को लगे कि ये ही बात तो वो भी कहना चाहता है- यही मेरी ताकत है।“
अपने लेखन की सबसे बड़ी कमजोरी की चर्चा करते हुये ज्ञान जी ने अपनी कमजोर याददाश्त को अपनी कमजोरी बताया। उन्होंने कहा-“ मेरी याददाश्त उतनी अच्छी नहीं है। मुझे लोगों के चेहरे याद नहीं रहते। मुझे लोगों के नाम याद नहीं रहते। इसलिये मुझे घटनायें उस तरह से याद नहीं रहतीं। कई बार तो मुझे लगता है कि वो चीज , एक अच्छी स्मरण शक्ति मेरे अन्दर यदि और होती उस तरह की, जिस तरह की बहुत लोगों की बहुत अद्भुत है।“
अच्छी स्मरण शक्ति वाले लेखकों के उदाहरण के रूप में ज्ञान जी ने अमृतलाल नागर जी को याद किया जिन्होंने आंखे कमजोर होने के बाद ’करवटें’ और ’पीढियां’ उपन्यास बोलकर लिखवाये।
अपनी कमजोर स्मरण शक्ति की विस्तार से चर्चा करते हुये ज्ञानजी ने बताया-“ मेरी स्मरण शक्ति उतनी अच्छी नहीं है। मैं भूल जाता हूं उन चीजों को। बोलते टाइम भी मेरे को बहुत बार धोखा हो जाता है। कई बार मैं मंच से किसी का नाम लेना चाहता हूं, तारीफ़ करना चाहता हूं और मुझे वो शब्द याद नहीं आ रहा, नाम याद नहीं आ रहा। मैं इतना दीवाना भी किसी लेखक का , और मैं किसी मंच से उसकी तारीफ़ कर रहा हूं और उसी का नाम याद नहीं आ रहा है। कोई कहे कि यही आपकी दीवानगी है? आप तारीफ़ कर रहे हैं और आपको नाम तक याद नहीं है! लोग ये सोचते हैं कि नाटकबाजी में ही ये तारीफ़ कर रहा है, इसको ऐसा होगा नहीं, पर वास्तव में मेरी स्मरण शक्ति.....। नाम तो बड़े गायब होते हैं मेरे से, और खासकर मौके पे तो नाम याद आते ही नहीं मेरे को।
जैसे अभी मैं आपको प्रमोद जब भोपाल में नाम ले रहा था , तो प्रमोद ताम्बट का नाम मुझसे छूटा। प्रमोद ताम्बट भी बहुत ऊंचे हैं इस मामले में कि वो फ़ालतू के जुगाड़ में नहीं पड़ते। मैं सोच रहा था कि बोलते हुये कि कोई नाम छूट रहा है। तो मेरे से कई नाम छूट जाते हैं। लोग नाराज भी हो जाते हैं।
मेरी स्मरण शक्ति की ये जो कमी है, इसने लेखन में मुझे कमजोर किया है। इसने मुझे और ताकतवर बनाया होता, अगर मेरे अन्दर उतनी अच्छी स्मरणशक्ति होती, जो कई बड़े हिन्दी लेखकों में है। मेरी नहीं है। संदर्भ याद नहीं रहते। कवि का नाम याद नहीं रहता, वही कविता भूल जाता हूं जिसपे मैं फ़िदा रहता हूं। तो वो मेरी कमजोरी है। बहुत बड़ी कमजोरी है।“
ज्ञान जी की इस कमजोरी के बारे में जानकर मुझे बड़ा सुकून टाइप हुआ। एक तो इसलिये कि नाम अक्सर मैं भी भूल जाता हूं। दूसरे इसलिये कि इस लंबी बातचीत में उन्होंने तमाम लेखकों का नाम लिया। उनमें अनूप शुक्ल का नाम शामिल नहीं है। हालांकि अनूप शुक्ल को ऐसी कोई आशा भी नहीं थी लेकिन अपन ने अनूप शुक्ल को समझा दिया कि ज्ञानजी तुमको बहुत अच्छा लेखक मानते हैं। बस नाम लेना भूल गये होंगे लम्बी बातचीत में याददाश्त की अपनी कमजोरी के कारण। तबसे अनूप शुक्ल बौराये घूम रहे हैं।
ज्ञान जी ने सवालों के जबाब के बहाने अपने उपन्यासों की चर्चा विस्तार से की है। ईमानदारी से की गयी इस चर्चा में बात करते हुये वे कई बार आत्ममुग्धता के पाले में पहुंच गये दे लगते हैं। अपने उपन्यासों की तफ़सील से चर्चा करते हुये अपने समकालीनों के उपन्यासों पर चर्चा करते हुये किंचित अनौदार्य के पाले में पहुंच गये से लगते हैं जब वे कहते हैं-“वरना बहुत हैं जिन्होंने, वही, जैसा मैंने आपको बताया कि किसी ने कॉलेज ले लिये, कॉलेज नहीं तो दफ़्तर ले लिया, बैंक ले लिया और ऐसे करके आप कुछ लिख सकते हैं। दो-चार। उसमें व्यंग्य की छुटपुट छटा दिखा दी, और उसे कहा कि ये व्यंग्य उपन्यास है।“
इसके जबाब में कॉलेज, दफ़्तर, बैंक लेकर लिखने वाले कह सकते हैं कि यह बात ऐसा लेखक कह रहा है जिसने अपने उपन्यास लेखन की शुरुआत अस्पताल को लेकर की थी।
ज्ञान जी ने अपने बहुपठित होने के सबूत में अपने पास मौजूद तमाम किताबों के नाम बताये हैं जो उनके पास हैं और जिसे उन्होंने बाकायदा खरीदा है। बाकायदा खरीदने की बात कुछ मजेदार लगी क्योंकि किताबें और गुजर चुके लेखकों की रचनावलियां तो खरीदकर ही पढी जायेंगी। अब गुजर चुके बड़े लेखक नवोदितों की तरह अपनी किताबें सादर, सप्रेम भेंट करने तो आयेंगे नहीं। बाद में इस बात के कहने का कारण भी समझ में आया।
वह इसलिये कि ज्ञानजी को बचपन में किताबें पढने की ऐसी लगन थी कि किताबें चोरी करने में भी गुरेज नहीं करते थे। अपने किताब चोरी के अनुभव साझा करते हुये ज्ञान जी बताते हैं-“ मेरे एक सहपाठी मित्र होते थे, नवीन जैन। हम दोनों मिलकर जाते थे किताबों की दुकान पे। दुकान वाले को बातों में उलझाते थे और वहां से चोरी करके, किताब मारकर, बाकायदा पैंट के अन्दर छुपा लेते थे। शर्ट बाहर निकली हुई है, पैंट के अन्दर खोंस लेते थे। हमारे पास एक जमाने में हजार के करीब ऐसी चोरी की किताबें हो गयीं थीं।“
बाद में ज्ञानजी का किताब चोरी करके पढने वाला सहपाठी किताब चोरी करते हुये पकड़ा गया था। उसकी बहुत पिटाई भी हुई। कपड़े उतार लिये गये। साथ में न रहने के चलते अपने ज्ञानजी बच गये।
अपनी पसंदीदा किताबों का जिक्र भी किया है ज्ञान जी ने। कल उनमें से एक जोसेफ़ हेलर के उपन्यास ’कैच ट्वेंटी टू’ की तारीफ़ से प्रभावित होकर मैं उसे खरीदने निकल पड़ा। लेकिन किताब मिली नहीं। इसके बाद ज्ञान जी दूसरे पसंदीदा अंग्रेजी लेखक पीजीवुडहाउस की एकमात्र उपलब्ध किताब ’बिग मनी’ लेकर आ गया। ढाई सौ रुपये की मिली। अब मैं भी पीजीवुडहाउस का जिक्र करते हुये कहूंगा-’बाकायदा खरीदकर लाया था यह किताब।’
ज्ञानजी ने अपने पढे-लिखे होने का जिक्र करते हुये तमाम कवियों और लेखकों का जिक्र किया। तफ़सील से उनके बारे में बताया है। लेकिन जिस मासूमियत से उन्होंने नरेश सक्सेना जी की बेहतरीन कविता का जिक्र करते हुये उसको पढ रखने का जिक्र किया उसे देखकर मुझे बहुत हंसी आई। ज्ञानजी की निश्छल मासूमियत की बलैयां लेने का मन हुआ। ज्ञानजी बताते हैं:
“ अभी के जो कवि हैं, चाहे भगवत रावत जी हों, चाहे राजेश जोशी हों, चाहे अरुण कमल हों, चाहें विनोद कुमार शुक्ल हों, नरेश सक्सेना साहब हों-’पुल पार होता है पुल पार करने से , नदी पार नहीं होती’। ये मैंने पढे हैं।“
राहुल देव की जगह मैं होता सवाल पूछने वाला तो मैं मजे के लिये पूछता नरेश जी की वो वाली कविता भी तो बताइये:
"शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है"
राहुल देव ने सभी सवालों के जबाब बहुत विस्तार से दिये हैं ज्ञान जी ने। शायद आमने-सामने की बातचीत और उसकी रिकार्डिंग के आधार पर किताब तैयार की गयी है। इसीलिये जबाबों में दोहराव है। कई जबाब अनावश्यक विस्तार से दिये गये लगते हैं।
इस बातचीत को पढना मेरे लिये उपलब्धि रहा। ज्ञान जी ने अच्छे व्यंग्य लेखन के जो गुर बताये हैं वे सबके लिये समान रूप से लागू होते हैं शायद जीवन के हर क्षेत्र में ही। वे कहते हैं:
“रातों-रात, ओवरनाइट स्टार होने की कल्पना मत करो। ये एक बहुत लम्बा खेल है साहित्य। आप अच्छा लिखो, बस बाकी चीजें अपने आप पीछे-पीछे आयेंगी। मैं ये कह रहा हूं। पुरस्कार भी आयेंगे। पहचान भी आयेगी। सम्मान भी आयेंगे। आपके बारे में बात भी होगी।“
किताब अपने में बहुत महत्वपूर्ण है। रोचक भी। इतनी कि इसके चक्कर में ज्ञानजी का उपन्यास ’पागलखाना’ पढना छोड़कर इसे पूरा किया। अब जब पूरी हो गयी किताब तो सोचा इस पर लिखा भी जाये। वैसे हमारे हिन्दी व्यंग्य में लेखक लोग सीधे किताबों के बारे में कम बाते करते हैं।
लेकिन राहुल देव की ज्ञान जी से बातचीत चर्चा, विस्तृत चर्चा की हकदार है। राहुल देव बधाई के हकदार हैं।
मुझे लगता है हिन्दी के सभी लेखकों से विस्तार से चर्चा होनी चाहिये। होना तो यह चाहिये कि बड़े स्थापित लेखक आपस में एक दूसरे का इंटरव्यू लें और नवोदितों के सामने नजीर पेश करें कि देख बेट्टा ऐसे लिया जाता है इंटरव्यू।
बहरहाल एक बेहतरीन बातचीत के लिये ज्ञानजी और राहुल देव संयुक्त रूप से बधाई के पात्र हैं।
इस बातचीत से के मुख्य अंश अगली पोस्ट में। लिंख यह रहा
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पुस्तक विवरण
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पुस्तक का नाम:’साक्षी है संवाद ’ (ज्ञान चतुर्वेदी से लंबी बातचीत)
वार्ताकार- राहुल देव
सहयोग राशि- 100
पेज- 96
प्रकाशक: रश्मि प्रकाशन, 204, सन साइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4 , कृष्णा नगर, लखनऊ- 226023
किताब के लिये आर्डर करने के तरीके:
1. 100 रुपये पेटीम करें फ़ोन नंबर - 8756219902
2. या फ़िर 100 रुपये इस खाते में जमा करें
Rashmi Prakashan Pvt. Ltd
A/C No. 37168333479
State Bank of India
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दोनों में से किसी भी तरह से पैसे भेजने के बाद अपना पता 08756219902 पर भेजें (व्हाट्सएप या संदेश)
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चीजें दुनिया से खत्म नहीं होतीं, सिर्फ जगह बदलती हैं

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, मुस्कुराते लोग, लोग खड़े हैं, बच्चा और बाहर
सुबह की उजास सी अनन्या अपने भाई के साथ
सुबह घर से निकलते ही बच्चे आते दिखे। गलबहियां। बहन-भाई हैं। सुबह की उजास से प्यार बच्चे दुकान से कुछ सामान लेकर लौट रहे थे। बहन अनन्या एल के जी में पढती है। फ़ोटो खिंचाने को कहा तो फ़ौरन तैयार हो गये। देखकर खुश भी।
बाहर ही चौकीदार अभय सिंह डंडे के सहारे चलते हुये मिले। पान की दुकान के पास। हमने दुकान वाले से पूछा -’इनके पैसे कम कर दिये आप लोगों ने।’
दुकान वाले ने कहा-’ऐसा तो नहीं। महीना होने पर मिलेगा पैसा।’
अभय सिंह ने दुकान वाले को बताया कि साह्ब ने हमारी तीन फ़ोटो खींची है। फ़िर बताया-’ हमारे साहब बता रहे थे कि नेट पर तुम्हारी फ़ोटो छप गयी। प्रधानमंत्री तक पहुंच जायेगी।’
हमने कहा-’ प्रधानमंत्री जी तक पहुंचेगी तब तो लफ़ड़ा हो जायेगा।’
कान्फ़ीडेन्स के साथ बोले-’ क्या लफ़ड़ा होगा? कोई लफ़ड़ा नहीं। बुलायेंगे तो चले जायेंगे। रोजगार मांग लेंगे अपने लिये।’
हम पलटकर सड़क की तरफ़ देखने लगे। एक मोटरसाइकिल वाला तौलिया में सिलेंडर लपेटे आगे लिये जा रहा था। गोदबच्चे की तरह। सिलेंडर को बच्चे की तरह गोद में समेटे हुये मोटर साइकिल सवार ऐसा लग रहा था गोया कोई जमा हुआ मठाधीश अपने पालक-बालक को गोद में उठाकर स्थापित कर रहा हो। अपने बुढापे का इंतजाम कर रहा हो।
घर के बाहर पेड़ के नीचे आलथी-पालथी मारकर बैठी एक बच्ची इम्तहान के पहले की आखिरी वाली पढाई कर रही थी। अगम पाण्डेय औरैया से बीटीसी का इम्तहान देने कानपुर आई थी। उसके साथ आये अभिभावक ने बताया -’एमएससी की है बच्ची ने। सेलेक्शन हो गया था लिखित में। लेकिन सपा सरकार में सेलेक्शन हुआ नहीं। सब खास लोगों का हुआ। जनरल की कोई सुनवाई नहीं।’
पुरानी सरकार के इम्तहान में ’धड़ल्ला नकल अभियान’ का जिक्र किया। हमने पूछा इस बार तो नहीं हुई नकल। बोले-’ फ़ूलपुर चुनाव में हार से घबड़ा गई सरकार। सबको नम्बर बढा कर पास कर दिया। 23 नंबर को 53 बना दिया। सब सरकारें एक जैसी हैं आजकल।
देर हो गयी थी आज निकलने में। फ़ोन किया तो पता चला पंकज बाजपेयी अपने ठीहे के पास दुकान वाले से एक पीस बर्फ़ी खाकर घर चले गये हैं। देर तक हमारा इंतजार करने के बाद। यह कहते हुये-’भैया आयेंगे तो उनको ऊपर भेज देना, हम वहां इंतजार कर रहे हैं।’
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं
पंकज बाजपेयी अपने ठीहे पर
तिवारी की दुकान पर पंकज बाजपेयी के लिये जलेबी, दही, समोसा तौलवाते हुये हमने दो बार मोबाइल ऊपर की जेब में रखना चाहा। दोनों बार मोबाइल सटाक से जांघ के पास तक पहुंचकर हाथ में आ गया। पता चला जिसे शर्ट समझकर उसकी ऊपरी जेब में हम मोबाइल धर रहे थे वह शर्ट न होकर बिना जेब वाली टी-शर्ट थी। दो बार मोबाइल के जमीन में गिरकर टूटने के संभावित नुकसान से बचत हुई। खुद को चपतिया के सावधानी का नारा बुलन्द किया और आगे बढे।
पंकज बाजपेयी वापस लौट चुके थे अपनी ठीहे पर। गये वहां तो जीने में बैठे अखबार बांच रहे थे। आल्थी-पालथी मारे बैठे। मानो कोई फिटनेस चैलेंज एक्सेप्ट कर लिए हों। हमको देखते ही ’अटेंशन’ हो गये। जलेबी, दही, समोसा लिया। कहा -’वो हलवाई केवल एक बर्फ़ी देता है। बिस्कुट भी नहीं देता।’
हमने कहा -’ अब देगा। कह देंगे।’
बोले-’ अच्छा।’
बगल के घर में एक लड़की सफ़ाई कर रही थी। हमने पूछा -ये कौन हैं, क्या नाम है इनका?’
बोले -’खुशबू। खुशबू नाम है।’
खुशबू के घर वाले पंकज के लिये चाय-पानी नाश्ता का इंतजाम करते हैं। खाना बगल के घर से आता है। वही शायद पंकज के घर वाले या दूर के रिश्तेदार हैं। फ़िलहाल उसमें ताला लगा था।
चलते हुये बोले-’ तुम चिन्ता न करना। हमारे रहते तुमको कोई छू नहीं सकता। तुम्हारी सुरक्षा की गारंटी हमारी है।’
चलते समय चाय के लिये पैसे लेना नहीं भूले। सीढी के ऊपर से वाई-फ़ाई प्रणाम भी किया। बोले-’ भाभी जी को हमारे चरण स्पर्श कहना। हमने कहा- ’कह देंगे। कर भी लेंगे।’
लौटते हुये चटाई मोहाल से होते हुये आये। सड़क किनारे कुछ बच्चे मिट्टी में कंचे खेल रहे थे। कूड़े में ही कंचों के ’पिच्चुक (होल)’ बनाये उसमें कंचे उंगली तानकर घुसाने की कोशिश में मशगूल बच्चे।

तमाम लोग अपने बचपने को याद करते हुये कंचे खेलने, टायर चलाने और दीगर तमाम चीजों को याद करते हुये कहते हैं -’ अब वो बचपन नहीं रहा। वे चीजें खतम हुईं।’ लेकिन बच्चों को कंचे खेलते देख एक बार फ़िर मुझे लगा कि तमाम चीजें दुनिया में खत्म नहीं होतीं, सिर्फ़ जगह बदलती हैं। एक के जीवन से दूर हो जाती हैं। लेकिन कहीं और उसी तरह गुलजार रहती हैं।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर
चटाइयों की दुकान
वहां छोटी-छोटी चारपाइयां सड़क किनारे पड़ीं थीं। कम ऊंचाई वाले दरवाजों से लोग अंदर-बाहर आ-जा रहे थे। एक अधेड़ उमर का आदमी एक बच्चे को अपने हाथ में अल्युमिनियम का कटोरा लिये मारने के लिये दौड़ाता दिखा। बच्चा सरपट निकल गया। अधेड़ अपने हाथ में कटोरा और मुंह लिये खड़ा रहा। उसका गुस्सा बिना उतरा रह गया। उसके गुस्से को देखकर हमको खोया-पानी वाले मिर्जा का गुस्सा याद आ गया।
“ मिज़ाज, ज़बान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट,पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था।’
सड़क किनारे एक चटाई की दुकान पर खड़े होकर ताकने लगे। एक ग्राहक फ़ोल्डिंग वाली चटाई ले जा रहा था। मेरा सामने दुकान वाले ने रोलर लगाय़े। आठ सौ रुपये लिये। जमीन को छुआते हुये बोहनी की। ग्राहक को विदा किया और चटाई बीनने लगा।
उसने बताया कि चटाई बीनने की बांस की खपच्चियां असम से आती हैं। गर्मी में काम अच्छा चलता है। बाकी दिनों में ठण्डा रहता है मामला।
चटाई बीनने की जगह और उसके घर के बीच की नाली कीचड़ और पालीथीन से बजबजाते हुये स्वच्छता अभियान के बारह क्या पन्द्रह-सोलह और बीस तक बजा रही थी। गन्दगी के साम्राज्य में स्वच्छता बेचारी कहीं कोने में दुबकी खड़ी होगी। दिख नहीं रही थी।
चटाई बिनाई के बारे में ज्यादा बात करने की हमारी कोशिश को दुकान वाले के इस डायलाग से झटका लगा -’हमारे पास फ़ालतू टाइम नहीं यह सब बताने के लिये। चटाई लेना हो तो बताओ।’ यह उसकी भलमनसाहत ही रही कि उसने अपनी निगाहों का हिन्दी अनुवाद (वर्ना अपना रास्ता नापो) नहीं सुनाया।
हम आगे बढ लिये। एक जगह एक आदमी अपने कान का मैल निकलवा रहा था। सड़क पर गुम्मों के पीढे पर बैठा मैल निकलवाते हुये अपनी नींद भी पूरी करते जा रहा था। एक कान का स्वच्छता अभियान पूरा होने के बाद उसने दूसरा काम ’कनमैलिय ’ के हवाले किया और फ़िर बैठे-बैठे सो गया। मैल निकालवे वाले उसकी नींद में खलल डाले बिना उसके काम में सींक-सलाई टहलाता रहा।
एक जगह दुकान के बाहर मैनिक्विन की दुकान थी शायद। बाहर प्लास्टिक के कपड़े डोरियों पर लहराते हुये एक बारगी लगा कि यहां भीकोई कपड़े दिखाते हुए सहज रहने का चैलेंज एक्सेप्टेड वाला अभियान चल रहा हो।
बांसमंडी में एक ट्रक बांस उतर रहे थे। लोग उसको ठीहे से लगा रहे थे। आगे पटरी पर तमाम रेहड़ी वाले कपड़े बेंचने के लिये दुकान सजा रहे थे। पटरे वाले जांधिया, अंगौछा , बनियाइन और तमाम चीजें। रेहड़ी वालों से आगे जाकर Shashi Pandey जी की बात याद आई- 'रेहडी वालो की गठरी में बहुत व्यंग्य होता है।'
मन किया लौटकर दो-चार किलो व्यंग्य तौलवा लें लेकिन आलस्यवश लौटने का जब तक फ़ाइनल करते तब तक कत्तई दूर पहुंच गये थे। फ़िर आगे ही बढ गये।
एक बार फ़िर लौटते में तिवारी स्वीट्स पड़ा तो हम भी जलेबी खाने उतर गये। एक बार फ़िर मोबाइल बिना जेब वाली टी शर्ट की ऊपरी जेब में डालने की कोशिश की। ऐन टाइम पर नीचे गिरते मोबाइल को संभालने का सुकून मिला।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं
अनूप जैन पैर में घाव लिए पूड़ी खाते हुए
दुकान के बाहर एक रिक्शे वाला पास की ही ठेलिया से दही बड़े खरीदकर पास की पूड़ी खाने में मशगूल हो गया। पता चला कि कल हसन मशाले वालों ने पूड़ी , सब्जी और लड्डू बांटे थे। उसमें से सब्जी और लड्डू तो खत्म हो गये थे रात को ही। पूड़ी बची थीं। उसे ठिकाने लगा रहे थे रिक्शेवाले भाई अनूप जैन।
पचास की उमर के आसपास के अनूप जैन का घर-परिवार नहीं। बसा भी नहीं। बोले-’ बिना काम-धाम वाले और बिना घर-परिवार वाले को कौन अपनी लड़की देगा।’
रिक्शे की गद्दी पर पांव धरकर पूड़ी खाते हुये उनकी टांग में कई घाव दिखे। करीब आठ-दस ठीक हो गये थे। एक बचा था और ताजा था। बोले-’इलाज करा रहे हैं। ठीक ही नहीं होता। दर्द करता है लेकिन रोजी के लिये रिक्शा तो चलाना ही है।’
बताया कि प्रधानमंत्री तक को अपने काम के लिये चिट्ठी लिखी। कहीं कोई जबाब नहीं आया। किसी जगह कोई सुनवाई नहीं।
जिसे देखो वही आजकल सारी आशायें प्रधानमंत्री से ही लगाये बैठा है।
लौटकर घर आ गये। दिन आधा हो गया और हमारी तो कायदे से सुबह भी न हो पायी। वो कविता है न:
सबेरा अभी हुआ नहीं है
पर लगता है
यह दिन भी सरक गया हाथ से
हथेली में जकड़ी बालू की तरह।
अब सारा दिन
फ़िर
इसी एहसास से जूझना होगा।
चला जाये अब। आप भी मजे करिये। चैन से रहिये। मस्त-बिन्दास। अपन भी अब फिटनेस चैलेंज एक्सेप्ट करते हुए सोने का मूड बना ही लिए हैं।



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Thursday, May 24, 2018

कार पर सवार बकरी की सरकार

पप्पू की चाय की दुकान
सबेरे-सबेरे सड़क गुलजार हो रही थी। पप्पू की दुकान पुराने ठिकाने से उखड़ गयी थी। दो दिन पहले। कल देखा बगल की फ़ुटपाथ पर उसने अपना तम्बू तानकर भट्टी सुलगा ली थी। बोला-’ कुछ तो करना पड़ेगा। कहीं तो दुकान लगानी पड़ेगी। कोई नौकरी तो है नहीं अपनी।’
नौकरी वाला आदमी होता तो नौकरी छूटने पर सालों मुकदमा लड़ता। सारी जिन्दगी इसी में खर्च कर देता। अपना कोई काम शुरु करने के पहले हताश , निराश सा हो जाता। सुरक्षा आदमी की जिजीविषा को मुलायम बनाती है। परसाई जी की बात याद आई:
''हड्डी ही हड्डी, पता नहीं किस गोंद से जोड़कर आदमी के पुतले बनाकर खड़े कर दिए गए हैं। यह जीवित रहने की इच्छा ही गोंद है।'
हमको फ़ोटो लेते देखकर बोले-’आप किसी प्रेस में काम करते हैं तो बढिया काम करते।’
उसको क्या पता कि खराब काम करने वाला कहीं भी रहे, खराब काम करने से उसे कोई रोक नहीं सकता।
सामने से अजय सिंह लाठी के सहारे टहलते, उचकते आ रहे थे। काम कैसा चल रहा है पूछने पर बोले-’ चौकीदारी के 5000/- देने की बात हुई थी दुकानदारों से। अब कहते हैं 100/- हर दुकानदार देगा। मतलब कुल जमा 1700/- रुपया महीना। न्यूनतम मजदूरी से दस गुने कम पर काम कराना चाह रहे हैं लोग।
हमने कहा-’तुम तो 5000/- रुपया बता रहे थे महीने के।’
बोला-’ हां लेकिन अब फ़िसल गये। कहते हैं- दुकानदारी ही नहीं हो रही।’
हर आदमी अपनी बात से मुकर रहा है। सरकारें अपने वादे से दायें-बायें हो रही हैं। वादाखिलाफ़ी अपने देश का राष्ट्रीय चरित्र हो रहा है।
हमसे बोला- ’आप कोई काम में लगवा दो।’
हमने कोई वादा किये बिना आगे बढ गये। हम किसी को काम दिलवाने लायक भी नहीं हैं।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग, लोग खड़े हैं, कार और बाहर
कार पर बकरी का कब्जा
आगे एक बकरी सड़क किनारे खड़ी कार की छत पर खड़ी हुई थी। देखकर लगा कि ’कार सेवा’ के लिये बिना बहुमत की चिन्ता ग्रहण किये खुद ही शपथ ग्रहण कर ली है। ऊपर चढकर इधर-उधर कूदने-फ़ांदने लगी। कार की छत की दुनिया में इधर-उधर दौरा करने लगी। लग रहा था कि कार की छत के हाल ठीक करके ही मानेगी। अलग-अलग मुद्राओं में पोज देते हुये वह कार की छत पर टहलती रही। कुछ देर टहलते हुये बोर होने के बाद वहब बैठ गयी। कार की छत पर उगे एंटीना को चबाने लगी। ऐसा करते हुये वह लोकतंत्र की सरकारों की नुमांइदों की तरह लग रही थी जो अपनी संस्थाओं के संसाधन खा-पीकर उनको खोखला करते रहते हैं।
कुछ देर छत पर टहलने के बाद वह कार के शीशे पर ऊछलने लगी। मुझे लगा शीशा टूट जायेगा लेकिन शीशा भी देश की तरह मजबूत निकला। किसी तरह अपने को बचाने में सफ़ल रहा।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर
अबकी बार, पुरानी कार, बकरी की सरकार
थोड़ी देर में वहां एक दूसरी बकरी आ गयी। वह भी कार के शीशे पर चढ गयी। ऐसा लगा मानो बकरी का बहुमत खत्म हो जाने से उसकी सरकार पर ख्तरा आ गया हो। उसके खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ हो और छत पर चढी बकरी को शीशे पर खड़ी बकरी ने बाहर से समर्थन टाइप दे दिया हो। बकरी की बहुमत सरकार की जगह पर अब छत पर गठबंधन सरकार चल रही थी। शुरुआत में हसीन भी लग रही थी।

आगे एक और कार खड़ी थी। मुक्त अर्थव्यवस्था की तरह कार की खिड़की, दरवाजा, आगा, पीछा सब खुला हुआ था। कार के हाल किसी विकासशील देश की तरह दिख रहे थे जिसको विकसित देशों ने विकास के नाम पर विनिवेश के नाम पर खोखला कर दिया हो।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: कार और बाहर
मुक्त अर्थव्यवस्था की शिकार कार
दायीं तरफ़ एक पेड़ एकदम सूखा खड़ा था। मैं यह तय नहीं कर पाया कि उसे मार्गदर्शक पेड़ कहूं या फ़िर समाज की संवेदना का मूर्तिमान रूप। आप अपने हिसाब से तय कर लीजियेगा।
आगे सड़क किनारे फ़ुटपाथ पर एक रिक्शेवाला अपने रिक्शेपर शहंशाहों की तरह लेटा हुआ सो रहा था। पुराने समय में जैसे योद्धा लोग घोड़े की पीठ पर नींद पूरी कर लेते थे उसी अंदाज में अपनी नींद पूरी करते हुये। दुष्यन्त कुमार का शेर याद आ गया:
सो जाते है फुटपाथ पर अखबार बिछाकर,
मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, बैठे हैं, साइकिल और बाहर
रिक्शे पर सोता रिक्शे वाला
माल रोड पर वन वे ट्रैफ़िक होता है। सुबह के समय चौराहे पर सिपाही नहीं था। मौके का फ़ायदा उठाकर सवारियां वन वे को टू वे बनाते हुये आ जा रही थीं।

लौटते हुये एक कालोनी में घुस गये। सोचा सड़क आगे मिलेगी। कई लोग अपने घर के सामने की सड़क गीली कर रहे थे। कालोनी खत्म हो गयी। सड़क की जगह दीवार मिली। आखिरी मकान के सामने हमको धर्मवीर भारती की कहानी का शीर्षक याद आया-’ बन्द गली का आखिरी मकान’।
आखिरी मकान से हम वापस लौटे। एक मकान के सामने अमलतास का पेड़ खिल-खिलाकर सुबह का स्वागत कर रहा था। सुबह हो गयी थी।

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Tuesday, May 22, 2018

चूल्हे की आग- दुनिया की सबसे खूबसूरत आग

चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग और बाहर
सड़क किनारे चूल्हा। जहां चार कामगार मिल जाएं, वहीं चूल्हा हो गुलजार।
सबेरे-सबेरे बंदरों के दर्शन हुये। मंगलवार के नाते शुभ माना जाना चाहिये। बजरंगबली के समर्थक हैं बंदर। कीर्तन याद आ गया-
’बजरंगबली मेरी नाव चली,
जरा बल्ली दया की लगा देना।’
बजरंगबली ने कीर्तन सुनकर अपने स्वयंसेवकों को भेजा होगा। वे दया की बल्ली अपने साथ लाना भूल गये। यहीं पर दया की बल्ली बनाने के लिये लकड़ी का इंतजाम कर रहे हैं। वे कूदकर-कूदकर हर पेड़, हर डाली हिला रहे हैं। न जाने किस पेड़ से ’दया की बल्ली’ के लिये ठीक लकड़ी मिल जाये। इस चक्कर में वे हर पेड़ को तहस-नहस कर रहे हैं।
सारे छोटे पौधे ’दया की बल्ली के लिये लकड़ी खोज अभियान’ में कुर्बान हो चुके हैं। वे कुछ कह भी तो नहीं सकते। पौधे बोल नहीं पाते। बोल भी पाते होते तो क्या बोलते? आदमी तो बोल पाता है। दुनिया भर में न जाने कितनी जगह चुपचाप कुर्बान होता रहता है। बोलता नहीं इस डर से कि कोई उसको ’दया की बल्ली’ लगाने के अभियान में बाधा पहुंचाने के आरोप में अंदर न कर दे।
बगीचों को बंदरों के हवाले करके हम आगे बढे। नुक्कड़ पर ’पप्पू की चाय की दुकान फ़िर उजड़ गई थी। ओवरब्रिज बनने के लिये खम्भे गडने के लिये सड़क खुद रही है। वह किनारे गुमटी में पान मसाले के पाउच लिये बैठी है। अपने बजरंगबली को याद कर रही होगी। बजरंगबली भी हलकान हो जाते होंगे। किसके-किसके लिये दया की बल्ली लगायें।
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खुद के लिए रोटी सेंकते और सड़क के कैशरोल में जमा करते कामगार
शुक्लागंज की तरफ़ जाने वाली सड़क गुलजार हो चुकी थी। लेकिन कुछ लोग औंधे पड़े सोये हुये थे। एक आदमी दरी ओढे सो रहा था। तमाम लोग सोये हुये अंग-प्रदर्शन कर रहे थे। किसी का पेट खुला था, किसी का सीना किसी की जांघ। किसी हीरोइन के इन पोज के फ़ोटो लिये जाते तो लाखों लोग अब तक देख चुके होते। लेकिन वस्त्र विहीन लोगों के फ़ोटो सूट थोड़े होते हैं।
आगे पुल पर गंगा नदी को बहुत देर देखते रहे। एकदम दुबला गयी हैं। हड्डी दिखने की तर्ज पर बालू साफ़ दिख रही था। आदमी लोग पूरी नदी को पैदल पार करते दिखे। बीच-बीच में बालू के टीले बन गये हैं। अपनी जीवनदायिनी नदी की ऐसी-तैसी करना कोई हमसे सीखे। क्या पता कल गंगा को खत्तम करके परसों हम लोग भी गर्व करते हुये डींगे हांके-’ हमारी गंगा का पानी अमृत सरीखा था।’ लेकिन जब गंगा ही नहीं रहेगी तो गर्व करने को क्या हम बचेंगे?
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग और बाहर
ठेलिया पर सोलर पैनल, बैटरी और सूप में भिंडी। बगल में चारपाई पर औंधा लेटा आदमी
लौटते हुये एक झोपड़ी के सामने ठेलिया पर सोलर पैनल धरा दिखा। पता चला हफ़्ते भर पहले लिया है। एक पंखा और एक बत्ती आराम से चल जाती है। 2000 रुपये का लिया है। घर के कई लोग उसको चलाना जानते हैं। बुजुर्ग विस्तार से बताते हैं उसके बारे में। बहुरिया इस बीच एक सूप में भिंडी धोकर सुखाने के लिये रख गयी है ठेलिया पर। बच्ची बताती है इसको ठीक से नहीं रखेंगे तो काम नहीं करेगा। हफ़्ते भर में सब लोग ’सोलर पैनल एक्सपर्ट’ हो गये हैं।
2000 रुपये का सोलर पैनल देखकर हमें लगता है कि ये राजनीतिक पार्टियां चुनाव में लैपटॉप और स्मार्टफ़ोन बांटने की बजाय सोलर पैनल क्यों नहीं बांटते। बाजार का गणित होगा पक्का। मोबाइल में जो मुनाफ़ा और मजा होगा वह सोलर पैनल में कहां।
एक जगह सड़क पर मिट्ठी के चूल्हे में रोटी सेंकते दिखे लोग। हम आगे निकल गये थे। लेकिन चूल्हे को देखने की ललक में साइकिल मोड़कर वापस वहां पहुंचे। एक आदमी रोटी थाप रहा था, दूसरा चूल्हे में सेंक रहा था। मोटी रोटी शक्ल से सोंधी लग रही थी। फ़ूली रोटी को सेंकने के वह वहीं सड़क के ’कैशरोल’ में जमाता जा रहा था।
चूल्हे की आग दुनिया की सबसे खूबसूरत आग होती है। सबसे खतरनाक पेट की आग होती है। दुनिया का सारा झंझट पेट की आग बुझाने के लिये होता है। जिस दिन पेट की आग खत्म हो जायेगी, उस दिन शायद दुनिया की बाकी आगों की दुकान भी बन्द हो जाये।
रोटी बनाने वाले सीतापुर से आये हुये मजदूर हैं। रिक्शा चलाने आये हैं कानपुर। आते हैं , हफ़्ते-दस दिन रिक्शा चलाते हैं। फ़िर चले जाते हैं। सीतापुर में रिक्शा नहीं चलाते। अपने शहर में शरम आती है। रिक्शा का किराया 60 रुपया है। दस रुपया रोज सोने की खटिया का किराया। निपटने के लिये सुलभ शौचालय। इसीलिये कुछ दिन सीतापुर रहकर -कानपुर चलो का नारा लगाकर चले आते हैं।
’घर में भी कभी ऐसे खाना बनाते हो?’ हमने उनसे पूछा।
’घर मां काहे बनैबे, हुवन मेहरिया है। हियन की बात अलग। हुवन सुविधा है तो काहे बनैबे?’ - तवे से रोटी उतारकर चूल्हे में सेंकते हुये आदमी ने कहा और सब खिलखिलकर हंस पड़े। घर में बाल-बच्चे हैं। एक ने तो बाग-बगीचे भी होने की बात कही।
और बातें करते लेकिन देर हो रही थी। लौट लिये। लौटते हुये देखा - ’एक आदमी खटिया बीन रहा था। दूसरी आदमी कूड़े का ढेर जला रहा था। ढेर के पास आग से बेपरवाह मुर्गे मिट्टी से दाना चुग रहे थे। एक पैर कटा लड़का बैसाखी बगल में धरे खटिया पर सोते अपने दोस्त को जगाते हुये बतिया रहा था। जबरियन टाइप जगाते हुये शायद वह कविता सुना भी रहा हो:
’उठो लाल अब आंखे खोलो।’
उठाने के लिये तो वंशीधर शुक्ल की भी कविता है:
’उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहां जो सोवत है।’
लेकिन यह हमारी खाम-ख्याली है। अब कवितायें जगाने का काम कहां करती हैं। अब तो बाजार की लोरियों का समय है। अच्छे खासे जागते हुये आदमी को सुला दें।
बाजार को अपनी बुराई सहन नहीं हुई। उसने फ़ौरन हमारे दिमाग में डायलाग ठेल दिया:
आयोडेक्स मलिये,
काम पर चलिये।’
हम उससे जिरह करते हैं- ’अबे हमको चोट लगी नहीं है तो हम आयोडेक्स क्यों मलें?’
बाजार हमको समझाता है:
चोट-वोट का हमको नहीं पता लेकिन- ’काम पर चलना होगा ,तो आयोडेक्स मलना होगा।’
हम चौंक गये कि यह तो ’भारत में रहना होगा, तो वन्देमातरम कहना होगा’ घराने का आवाहन है। हम जब तक वन्देमातरम कहने के लिए पोजिशन लें तब तक एक और उत्पाद आ गया- ’विक्स की गोली लो, खिच-खिच दूर करो।'
हमने बाजार को हड़काने की सोची कि तुम्हारी विक्स की गोली के चक्कर में हमारा वन्देमातरम बोलना स्थगित हो गया। लेकिन फिर चुप हो गए। सब जगह तो आज बाजार के आदमी हैं। उससे क्या पंगा लेना।
हमें लगा कि देर किये तो पूरा का पूरा घुस जायेगा दिमाग में। हम फ़ूट लिये। एफ़.एम पर गाना बज रहा था-
’कभी आर, कभी पार
लागा तीरे नजर।’
मन किया हम भी गायें साथ में। लेकिन तब तक एक दोस्त का अपनापे भरा ताना याद आ गया - ’सुरीली अम्मा का बेसुरा बेटा’
हम चुप हो गये। अम्मा भी याद आ गयीं। मुस्कराते हुये कहती हुई- ’ बाबूजी, आज आफ़िस नहीं जाना क्या?’
हम लपककर दफ़्तर के लिये तैयार होने निकल लिये। आप मजे से रहना। हमेशा खुश।


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