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Tuesday, October 19, 2021

Wednesday, August 11, 2021

परसाई - विषवमन धर्मी रचनाकार

 परसाई जी के चुटीले और बेधक व्यंग्य लेखन के पीछे क्या कारण थे और एक हाई स्कूल का मास्टर किस तरह देश का प्रख्यात व्यंग्य लेखक बना यह जानने के लिये परसाईजी पर उनके समकालीन साथियों के संस्मरण बहुत अच्छा जरिया हैं। हिन्दी दैनिक देशबन्धु के प्रकाशक मायाराम सुरजन भी उनके ऐसे ही समकालीन थे। मायाराम सुरजन और परसाई जी का करीब चालीस साल का साथ रहा। अपनी पहली किताब, जिसकी कीमत ड़ेढ़ रुपये थी, परसाई जी ने मायाराम सुरजन को दो रुपये में टिका दी। अठन्नी वापस मांगने पर परसाईजी ने जबाब दिया था- ’क्या आठ आने का स्नेह नहीं हो गया!’

आठ आने के स्नेह से शुरू हुयी यह मित्र-यात्रा ताजिन्दगी चली। जब देश की तमाम पत्रिकाओं ने परसाईजी के सरकार विरोधी तीखे तेवरों के चलते उनके लेख छापना बंद कर दिया था तब परसाई की कलम को पूरी आजादी दिये कोई बैठा था तो वह था मायाराम सुरजन ’देशबंधु’। इसमें परसाई को छूट थी कि वह महात्मा गांधी से लेकर मायाराम सुरजन तक, सब पर जैसा प्रहार करना चाहें करें।
परसाईजी और मायाराम सुरजनजी के मित्रता संबंधों की एक बानगी उनके आपस में लिखे खुले पत्र-व्यवहार से मिलती है।
मायाराम सुरजन द्वारा यह लेख परसाईजी के 1981 में प्रकाशित हरिशंकर परसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तक आंखन देखी में संकलित है। परसाई जी के व्यक्तित्व के ताने-बाने को समझने के लिये इससे काफ़ी मदद मिलती है।
परसाई - विषवमन धर्मी रचनाकार
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हरिशंकर परसाई से पहला परिचय हुए लगभग तीस साल हो गये। इतने वर्षों के मित्रता-प्रसंग को सिलसिलेवार लिख पाना यों ही कठिन काम है। तिस पर वह परसाई जैसे व्यक्ति के बारे में जिसकी अपनी निजी जिन्दगी केवल दूसरों की समस्याओं की कहानी हो, अपनी कहने को कुछ नहीं। शायद इस लेख में मुझसे यह अपेक्षा भी नही की जा कि मैं उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के बारे में कुछ कहूं। और सच तो यह है कि इस सम्बन्ध में मुझसे अधिकारी वय्क्ति बहुत हैं। मेरी अपनी कठिनाई यह है कि जिस आदमी से कभी उसके सुख-दुख की चर्चा ही न हुई हो उसके निजी जीवन के बारे में क्या लिखूं! जब कभी कोई बात होती भी है तो यही कि अमुक मित्र के यहां मदद करना है या कि अमुक सेमिनार हाथ में लिया है इसे पूरा करना है।
काम-काज का यह लेन-देन इकतरफ़ा नहीं है। 1962 में जब मैं ’नई दुनिया’ जबलपुर (अब नवीन दुनिया) से अलग हुआ तो यह निर्णय परसाई का ही था कि मुझे जबलपुर नहीं छोड़ना चाहिये। यह भी लगभग उनका ही फ़ैसला था कि जबलपुर से ही एक दैनिक शुरू किया जाये। अखबार शुरू करने का इरादा तो ठीक है। इसके लिये पूंजी का क्या इंतजाम होगा। सो एक ’पब्लिक लिमिटेड कम्पनी’ बना डाली गयी। गोकि उसमें हजार दो हजार देने वाले चार-छ: लोग भी शामिल हुये लेकिन सौ-सौ रुपये देने वालों की संख्या सैकड़ों में है। रूपराम पान वाले और लोकमन पटेल होटल वाले जैसे अनेक सदस्य परसाई की ही देन हैं।
1949-50 में जब मैं ’दैनिक नवभारत’ के जबलपुर संस्करण के प्रकाशन के सिलसिले में जबलपुर आया तब परसाई को अपने समय के सुयश प्राप्त साप्ताहिक ’प्रहरी’ के माध्यम से पढ़ता-सुनता रहा था। मैं नहीं कह सकता कि उन्होंने लिखना कब शुरू किया,लेकिन मेरा ख्याल है कि ’प्रहरी’ में प्रकशित उनकी रचनायें प्रारंभिक ही रही होंगी। उन दिनों जबलपुर के अधिकांश चोटी के राजनीतिज्ञ साहित्य में भी बराबरी का दखल रखते थे। चाहे स्व. सेठ गोविन्द दास हों या पं द्वारिकाप्रसाद मिश्र, स्व. चौहान दम्पत्ति (श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान और श्री लक्ष्मणसिंह चौहान) हों या स्व. श्री भवानी प्रसाद तिवारी, राजनीति के साथ साहित्यकारों की श्रेणी में अपना विषिष्ट स्थान बना चुके थे। या यों कहना अधिक ठीक होगा कि वे साहित्यकार होने के साथ ही साथ राजनीति में पूरे दमखम से थे। साहित्य और राजनीति का यह संगम स्वाधीनता संग्राम काल में जितना महाकोशल और विशेषकर जबलपुर में मुखर था , उतना उत्तरप्रदेश के अतिरिक्त देखने में कम ही आया है। शायद व्यक्तिगत तौर पर ऐसे उदाहरण बहुत होंगे किन्तु एक पूरा समाज ही साहित्य और राजनीति में एकरंग हो गया हो, यह विषेषता कम स्थानों पर ही देखी जा सकती थी। आयु के हिसाब से स्व.पं. भवानीप्रसाद तिवारी साहित्य और राजनीति दोनों में ही तरुणों का नेतृत्व करते थे। स्वाभाविक है कि उनके पास तरुण रचनाकारों का जमघट लगा रहता था। ’प्रहरी’ उन दिनों अपनी प्रतिष्ठा के शिखर पर था। इसलिये परसाई भी ’प्रहरी’ समाज के एक मुखर अंग के रूप में उभरे। अपनी विशिष्ट चुटीली शैली के कारण परसाई को अपेक्षित सफ़लता मिलना उनका स्वाभाविक हक है।
इन तीस वर्षों में परसाई और मैं इतने निकट आ गये हैं कि कभी यह सोचने की जरूरत नहीं पड़ी कि हम पहली बार कब और कहां मिले। लेकिन जब स्मृति की परतें कुरेदता हूं तो ख्याल यह आता है कि हम लोगों की पहली मुलाकात स्व. पं. भवानीप्रसाद जी तिवारी के यहां ही हुई थी। वे उन दिनों माडेल हाई स्कूल जबलपुर के शिक्षक थे। शासकीय सेवा में रहते हुये भी उनके पैने व्यंग्य किसी को बख्सते नहीं थे। और 1952 में बालिग मतधिकार के बाद मध्यप्रदेश में जो शासन आया , उसे परसाईजी के व्यंग्य शायद सहन नहीं हुये। एक तो वैसे ही ’प्रहरी’ विरोधी दल का पक्षधर और दूसरे शासन या अधिकारियों पर ऐसी सीधी चोट कि जाहिर तौर पर कोई कार्रवाई मुमकिन न हो। नतीजा साफ़ था लि ऐसे कुटिल व्यक्ति का स्थानान्तरण कर दिया जाये। सो (शायद हरदा) हो गया। मैं उन दिनों तक उनके निकट नहीं आया था। और आ भी गया होता तो उनका ट्रांसफ़र रद्द कराना सम्भव नहीं था क्योंकि वह बहुत ऊंचे स्थान से तय हुआ था। तब तक परसाई कुछ और साहित्यिक पत्रिकाओं में छपना शुरु हो गये थे। अत: उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देना ही उचित समझा।
लगभग उन्हीं दिनों ’प्रहरी’ का प्रकाशन स्थगित हो गया। मेरा ख्याल है कि ’प्रहरी’ में प्रकाशन से परसाई को कोई आर्थिक लाभ नहीं होता था। तब उनका नाम भी इतना बड़ा नहीं था । देश के कुछ साहित्यिक पत्रों जिनमें ’कल्पना’ भी शामिल है, उनकी रचनायें जरूर प्रकाशित होतीं थीं। लेकिन जीवन यापन के लिये काफ़ी नहीं था। संयोग कुछ ऐसा कि परसाई का अपना परिवार तो बड़ा नहीं था लेकिन जिम्मेदारियां बहुत थीं। उस पर वे एक विधवा बहिन और उसके 3-4 छोटे बच्चों को अपने साथ रहने के लिये ले आये।
किसी अल्पसिद्धि प्राप्त लेखक को प्रकाशक मिलते ही कहां हैं, वही स्थिति परसाई की हुई। एक तो तब उन्होंने बहुत अधिक कुछ लिखा भी नहीं था। जो लिखा भी था उसमें छोटी रचनायें कम और छोटे-छोटे व्यंग्य अधिक थे। अत: उन्होंने अपनी रचनायें खुद प्रकाशित करने का निश्चय किया। ’हंसते हैं रोते हैं’ उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक है। परसाई उसे स्वयं बेचते थे। कीमत डेढ़ रुपया। मित्र समुदाय भी सहायक हुआ। ’हंसते हैं रोते हैं’ की रचनायें छोटी-छोटी ही हैं पर व्यंग्य बहुत पैने हैं। यो तो बहुत लेखकों ने अपनी कृतियां प्रकाशित की हैं, पर इस प्रकाशन की बात ही कुछ अलग थी। यह एक बेरोजगार युवक साहित्यकार के अपने पैरों खड़ा होने का प्रयत्न था।
अपनी कृति को बेचने में यदि झिझक पैदा हो जाती तो शायद परसाई वह न होते जो आज हैं। मुझे याद आता है कि उन्होंने एक पुस्तक बीच बाजार मुझे थमा दी। मैंने सोचा , एक सम्पादक के लिये शायद यह लेखक की भेंट होगी। किन्तु उन्होंने मुझसे पूरे पैसे वसूल लिये। दो रुपये का नोट दिया तो उसे जेब में रखते हुये पुस्तक के पहले पृष्ठ पर लिखा गया ” श्री मायाराम सुरजन को दो रुपये में सस्नेह”। जब मैंने आठ आने वापिस मांगे तो उत्तर मिला- ’क्या आठ आने का स्नेह नहीं हो गया।’ इस उत्तर के बाद हम दोनों हंस दिये। और शायद परसाई और मेरे निकट आने की घटनाओं का यह क्रम शुरू हुआ।
परसाई विचारों से मार्क्सिस्ट हैं, यह कहकर मैं कोई भूल नहीं कर रहा हूं। ऐसी विषम परिस्थियों में रहकर कोई भी सोचने-समझने वाला आदमी मार्क्सवादी हो ही जायेगा। बढ़ती हुई जिम्मेदारियां और घटते आर्थिक स्रोत। समाज की सहानुभूति से ही तो नहीं जिया जा सकता। परसाई को समाज ने मीठे कम, कड़वे ज्यादा अनुभव दिये। लेकिन जीवन की इस कड़वाहट का उन्होंने सदुपयोग किया। वे अपने निराश क्षणों में समाज की सहानुभूति बटोरने में लगने की बजाय आर्थिक प्रसंग में राजनीति और साहित्य का अध्ययन करने में जुट गये। हिन्दी में ऐसे बहुत कम रचनाकार हैं जिन्हें विश्व की राजनीति और साहित्य का इतना सधा हुआ बोध है। सामान्यत: यह माना जाता है कि हिन्दी का लेखक अपने आप में मस्त रहता है। लेकिन परसाई की दृष्टि अपने चारों ओर फ़ैले समाज में उलझी रहती है।
उनकी कोटि का कोई और लेखक जब पहिले दर्जे में यात्रा करता है तो परसाई दूसरे दर्जे में और दिन में यात्रा करना पसन्द करते हैं। ऐसी ही एक बस यात्रा से ऊबते हुए मैंने कहा कि तुम्हारे साथ सारा दिन खराब हो गया और बस के धक्के खाये सो अलग। उनका उत्तर था कि ” दिन की यात्रा में मैं समाज के ज्यादा नजदीक उसे बारीकी से देख पाता हूं। आखिर मेरी रचनाओं के प्लाट यहीं से तो मिलते हैं जब यात्रीगण अपने किसी सहयात्री से अपनी बीती बतियाते हैं, छोटा अफ़सर अपने बड़े अफ़सर की पोल खोलता है या कोई शोषित व्यक्ति अपने शोषक के चर्चे सुनाता है।” अपने प्लाट खोजने के लिये वे जबलपुर से भोपाल की यात्रा सीधी रात्रि ट्रेन से करने के बजाय दिन की पैसिंजर बस से करते हैं!
परसाई की राजनीतिक विचारधारा के सिलसिले में स्व. गजानन माधव मुक्तिबोध और श्री महेन्द्र बाजपेयी का प्रसंग आना बहुत जरूरी है। श्री महेन्द्र बाजपेयी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता तो रहे ही हैं, अनेक नवयुवकों को वामपंथी विचारधारा में दीक्षित करने का भी उन्हें श्रेय है। मजदूरों को संगठित करते हुये भी वे ’इंटेलुक्चुअल’ क्लास के लोगों से मिलते-जुलते रहे हैं। जबलपुर में ऐसे अनेक पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं जो महेन्द्र बाजपेयी के अनवरत प्रयासों के कारण जाने-अनजाने वामपंथी हो गये हैं, भले ही उन्होंने किसी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता न ली हो। सरकारी नौकरी छोड़ देने के बाद परसाई के पास काफ़ी समय था, और महेन्द्र बाजपेयी ने उन्हें मार्क्सवादी साहित्य पढ़ने में लगा दिया। निश्चय ही उनकी मार्क्सवादी विचारधारा के पीछे महेन्द्र बाजपेयी की छाप है।
मुक्तिबोध से परसाई प्रारम्भ से ही प्रभावित रहे। जहां तम मुझे स्मरण है , मुक्तिबोध से उनका परिचय नागपुर में हुआ। फ़िर मुक्तिबोध चाहे नागपुर में रहे हों या राजनादगांव में, परसाई का सम्पर्क निरन्तर बना रहा और वे एक-दूसरे की शंकाओं का निराकरण करते रहे। यह प्रक्रिया निजी पत्रों के माध्यम से या ’वसुधा’ के कालमों में चलती रही। यद्यपि परसाई पर मुक्तिबोध का प्रभाव स्पष्ट है फ़िर भी यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मुक्तिबोध भी परसाई से उतने ही प्रभावित रहे। यदि मैं यह कहूं कि मुक्तिबोध को अपनी कोठरी से बाहर निकालने में परसाई का अदृश्य हाथ था , तो जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुक्तिबोध संकोची स्वभाव के व्यक्ति थे। वर्षों से लिखी जा रही उनकी पाण्डुलिपियां इकट्ठी होती जा रहीं थीं। परसाई ने ही उनके क्रमबद्ध प्रकाशन की व्यवस्था की। मुक्तिबोध और परसाई का साथ मुक्तिबोध के असामयिक निधन से ही छूटा। उनकी बीमारी में राजनादगांव से लेकर भोपाल और दिल्ली तक की व्यवस्था में परसाई कहीं न कहीं प्रयासरत थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. द्वारिकाप्रसाद मिश्र या प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री तक उनकी बीमारी का हाल पहुंचाने और इलाज का इंतजाम तो परसाई और उनके मित्रों के माध्यम से हुआ ही लेकिन उनकी बीमारी में लगभग पूरे ही समय परसाई मुक्तिबोध के पास रहे। इन दिनों के वैचारिक आदान-प्रदान ने एक-दूसरे की विचारधारा को और पक्का किया। बीमारी के दौरान भी बहस का यह क्रम घंटो अबाध चलता रहता था।
साहित्य में परसाई की अपनी जगह बन गयी है। दरअसल हिन्दी व्यंग्य को विधा देने वालों में परसाई का नाम सबसे ऊपर है। उनके पास किसी के लिये कोई रियायत नही हैं! ऐसे भी प्रसंग आये हैं जब बड़े-बड़े अखबारों ने उनकी रचनायें मंगवाकर इसलिये वापस कर दीं कि शायद उनके अभिजात्य वर्गीय मालिकों या पाठकों के न्यस्त स्वार्थों के अनुकूल नहीं बैठतीं। ऐसे भी बहुत प्रसंग हैं जब उन्होंने स्वनामधन्य साहित्यकारों पर भी गहरी चोट की है फ़िर वे चाहे जैनेन्द्रकुमार हों या भगवतीचरण वर्मा।
यों तो परसाई ’कल्पना’ जैसी साहित्यिक पत्रिका में भी नियमित रूप से प्रकाशित होने लगे थे, किन्तु एक कालमिस्ट के नाते उनका नाम ’सुनो भाई साधो’ के प्रकाशन के साथ ही उभरा। यह कालम उन्होंने जबलपुर से प्रकाशित होने वाले एक मजदूर साप्ताहिक (शायद ’आवाज’) के लिये लिखना शुरू किया था। लेकिन यह पत्र एक-दो अंक निकालने के बाद बंद हो गया। उस कालम का पुनर्प्रकाशन ’नयी दुनिया’, इन्दौर के जबलपुर (अब नवीन दुनिया) तथा रायपुर (अब देशबन्धु) संस्करणों में छपता था , किन्तु उसकी लोकप्रियता के कारण इन्दौर संस्करण में भी लिया जाने लगा। ’नयी दुनिया’ इन्दौर ने जब अपने पाठकों का सर्वेक्षण किया तो 91 प्रतिशत पाठक वे थे जिनका ’सुनो भाई साधो’ सबसे अधिक पसन्द कालम था। अब यद्यपि यह कालम उतना नियमित नहीं रहा लेकिन पाठक उसी अनुपात में उसकी प्रतीक्षा करते हैं।
’सुनो भाई साधो’ की लोकप्रियता का अन्दाज इससे ही लग सकता है कि अनेक पत्रों ने ’कबिरा खड़ा बाजार में’ ,’कबीर उवाच’ आदि अनेक शीर्षकों से स्तम्भ शुरु किया और असफ़ल हो गये। ’सुनो भाई साधो’ के बाद उनके पास अनेक पत्रों से व्यंग्य स्तम्भ शुरू करने के आफ़र आये। अभी उनके जो स्तम्भ स्थायी रूप से चल रहे हैं वे हैं- जनयुग में ’माजरा क्या है’, करंट में ’देख कबीरा रोया’ तथा कथा-यात्रा में ’रिटायर्ड भगवान की कथा’।
यों ऊपरी तौर पर परसाई बहुत स्वस्थ और संतुलित दिखते हैं, लेकिन भीतर ही भीतर कोई कचोट उन्हें भेद रही है यह कम लोग ही समझ पाये हैं। दरअसल वे अपनी बात किसी से कहते नहीं और उनके निकटस्थ मित्र भी नहीं जानते कि वे अन्दर-ही-अन्दर किस पीड़ा के शिकार हो रहे हैं। बहिनों और उनके परिवार के लिये उन्होंने विवाह नहीं किया। कमजोरी के ऐसे ही किसी क्षण में अपना गम गलत करने के लिये उन्होंने शराब पीना शुरू कर दिया। पहिले वे दूसरों के खर्चे पर शराब लिया करते थे, वह भी कभी-कभार। पर फ़िर शराब पीना नियमित हो गया। मित्रों ने किनाराकसी की तो अपने पैसों से पीना शुरू कर दिया। जब खुद की हालत खस्ता होने लगी तो ’देसी’ पर उतर आये।
शराब पीना उन्होंने क्यों शुरू किया इसका सिर्फ़ अन्दाजा लगाया जा सकता है। मेरा ख्याल है कि शौकिया शुरू हुई आदत एक व्यसन बन गयी। न कभी मैंने पूछा न कभी उन्होंने बताया कि उन्हें यह लत क्यों लगी। यह भी सम्भव है कि छोटे भाई गौरी (गौरी शंकर परसाई) का कामधाम ठीक न चलने के कारण भी उन पर आर्थिक बोझ बढ़ गया हो और उसके शादी कर लेने के बाद वे और अधिक क्षुब्ध हो गये हों। इस व्यसन ने उन्हें इस स्थिति पर पहुंचा दिया कि वे मित्रों तक को अनसुना करने लगे। हालत यहां तक पहुंच गयी कि मित्रों ने मुझे रायपुर से जबलपुर पहुंचने के लिये फ़ोन पर फ़ोन किये। उन्हें जब मालूम हुआ तो उन मित्रों पर भी बिगड़े, ” साले , क्या तुम समझते हो कि मायाराम मेरा गार्जियन है? वह आकर क्या कर लेगा मेरा?” लेकिन जब मैं जबलपुर पहुंचा तो परसाई बिल्कुल प्रकृतिस्थ। मैं 2-3 दिन जबलपुर रुका , उनको साथ लिये रहा। लेकिन उन दिनों उन्होंने महुये तो क्या अंगूरी को भी हाथ नहीं लगाया। बातचीत की तो सीधा उत्तर,” अरे यार कभी-कभी ले लेता हूं तो सालों ने बात का बतंगड़ खड़ा कर दिया।” फ़िर टालते हुये बोले, ” हां, बोलो तुम्हारा क्या हाल है… आदि..आदि” मैंने फ़िर सीधे सवाल किये तो निरुत्तर होकर बगलें सी झांकने लगे। जब कोई बात ही न करे तो उससे क्या उगलवाया जाये।
इसी बीच एक और हादसा हो गया। परसाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कट्टर विरोधी हैं। लगातार उन्होंने आर.एस.एस. और जनसंघ के खिलाफ़ गुहार लगाई तो कुछ वालंटियर्स ने घर आकर उनको पीट दिया। किसी लेखक के साथ यह घटना अपने आपमें हिला देने वाली थी। पुलिस में यों रिपोर्ट लिखा दी गयी कि और आर.एस.एस. के स्थानीय संचालक ने आकर खेद व्यक्त करते हुये उन्हें आश्वस्त किया कि अब यह नहीं होगा। लेकिन घटनाक्रम से यह महसूस होता है कि इससे उन्हें बहुत आघात पहुंचा। इस घटना के बाद वे महीनों तक हर कालम में इसका जिक्र करते रहे। पर इस घटना का सबसे बुरा असर यह हुआ कि उनकी पीने की मात्रा बढ़ गयी। अब यह आदत दिन में भी उनका पीछा नहीं छोड़ती। मित्रों में और अधिक बेचैनी फ़ैल गयी। उनकी रचनाओं की ताजगी खत्म होकर पुनरावृत्तियां होने लगीं। मैंने कहा कि, ” अब तुम बासी होते जा रहे हो, रचनाओं में रिपीटीशन हो रहा है।” तो एक वाक्य में उत्तर दिया,” जब घटनायें रिपीट होंगी तो लेखन भी रिपीट होगा।” हालत कुछ इस तरह हो गयी कि स्वास्थ्य गिरने लगा। मदहोशी की हालत में हाथ-पैरों में फ़्रैक्चर होने लगे, लिवर की शिकायत हो गयी।
उनके असंयत और एकाकी दिनों में मित्रों ने विचार किया कि यदि परसाई को शादी के लिये राजी कर लिया जाये तो उनका जीवन क्रम बदलने की संभावना हो सकती है। प्रश्न यह था कि पचास साल की उमर में न केवल एक समवयस्क वरन परसाई को संभाल सकने योग्य वधू कहां मिलेगी। सोचते-समझते एक ऐसी महिला का ख्याल आया जो इस काम को बखूबी अंजाम दे सकती थी। डा.रामशंकर मिश्र ने उससे बात की तो वह उस प्रस्ताव से सहमत भी हो गयी। दरअसल वह परसाई की प्रसंशक ही नहीं थी वरन बरसों से उनसे परिचित भी थी। अब समस्या थी कि परसाई कैसे तैयार हो, वह जबाबदारी मुझे सौंपी गयी। दो-चार दिन वातावरण बनाने में लग गये। फ़िर धीरे से यह प्रसंग शुरू किया । बात जब गंभारता पर आयी तो प्रतिक्रिया यह कि ” यार तुम मुझको इतना बेवकूफ़ मत समझो कि तुम्हारी चिकनी-चुपड़ी में फ़ंस जाऊंगा। यह भी तो हो सकता है कि एक अच्छी खाती-कमाती लड़की का जीवन और दुखी हो जाये।” यह वाक्य उनकी पीड़ा का प्रतीक था या जवाबदेही से कतराने का प्रयास, मैं अभी तक नहीं समझ नहीं सका। किस्सा कोताह यह कि बात खत्म हो गयी।
इसे मैं परसाई की मेहरबानी कहूं या अपना दबदबा कि अगर वे किसी का थोड़ा बहुत डर मानते थे तो केवल मेरा। लेकिन रायपुर रहकर जबलपुर में उनको नियंत्रित करना सम्भव नहीं था। अत: मैंने जबलपुर रहने का निश्चय किया। मेरे जबलपुर पहुंच जाने से इतना फ़र्क पड़ा कि उन्होंने दिन में पीना बन्द कर दिया और रात्रि को जब हम लोग अलग हो जाते तो घर पहुंचकर वे अपने किसी मित्र, रिश्तेदार या कोई न मिला तो किसी रिक्शेवाले से ही देसी मंगवा लिया करते थे। चूंकि साथ लगभग दिन भर का ही रहता , इसलिये उनके कार्यक्रम तय करवाने में भी मेरा भी दखल होने लगा। आने जाने की राशि नकद पारिश्रमिक बैंक ड्राफ़्ट से दिलवाया जाने लगा। अनेक जगह मैं भी साथ हो लिया करता । थोड़ी-बहुत छूट तो देनी ही पड़ती।
मेरे अपने कार्यक्रम इतने अनिश्चित होते हैं कि कब , कहां जाना पड़े कुछ पता नहीं। और मेरी गैरहाजिरी में परसाई अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते। आखिर उनके कुछ कार्यक्रम छत्तीसगढ़ में रखवाये। पारिश्रमिक के बैंक ड्राफ़्ट अलग रखे जाने लगे। चि.ललित लगभग चौबीस घंटे ही उनके साथ रहने लगे। वे लगभग ड़ेढ महीने रायपुर रहे। शराब की एक बूंद नहीं। स्वास्थ्य अपने आप ठीक होने लगा। पांच-सात किलो वजन बढ़ गया। डेढ़ महीने बाद जब जबलपुर के लिये रवाना किया गया तो ललित ने कहा कि “ड्राफ़्ट जबलपुर भेज रहे हैं, आप वहीं ले लेना” तो जिद करके लगभग एक हजार रुपयों के ड्राफ़्ट अपने साथ ले गये। हम आश्वस्त हो गये थे कि अब नहीं पियेंगे। पियेंगे भी अपने हिसाब से पियेंगे। लेकिन हमने माथा ठोंक लिया जब मालूम पड़ा कि सारे ड्राफ़्ट बिलासपुर में ही भुना लिये गये। सबकी शराब पी ली गयी। थोड़ी-बहुत रकम लेकर कटनी होकर सीधा रास्ता छोड़कर गोंदिया की तरफ़ से जबलपुर के लिये रवाना हुये। नशे की हालत में गोंदिया में बन्द कर दिये गये और पैसे किसी यार ने उड़ा लिये। फ़िर वैसी ही हालत में राजनांदगांव आये। वहां से पैसे लिये। पी और वापस हुये। ड़ेढ़ महीने की रखवाली बेकार गयी।
फ़िर वही रवैया शुरू हो गया। भोपाल के एक होटल से मुझे फ़ोन किया कि इन्दौर से लौटा हूं। आवाज से साफ़ जाहिर हो रहा था कि पिये हुये हैं। मैं होटल पहुंचा तो स्वाभाविक ही घर चलने का आग्रह किया। तुनुककर बोले-” तुम्हारे घर नहीं जाऊंगा। साले बाप-बेटे मुझे हाउस अरेस्ट में रखते हो। मैं कोई तुम्हारा दबैल नहीं हूं।”
मैंने कहा-” तुम्हें दो चांटे लगाऊंगा तो सारा नशा काफ़ूर हो जायेगा।”
उत्तर मिला-” मैं भी तुम्हें दो लात लगाऊंगा।”
बमुश्किल उन्हें घर लाया। लुक-छिपकर थोड़ी-बहुत पीते रहे पर ठीक-ठाक रहे। फ़िर कुछ दिन बिल्कुल नहीं पी।
जबलपुर वापिस पहुंचने पर फ़िर वही बेकाबू स्थिति। भाई हनुमान वर्मा ने समझाया कि रोज पियो, हम खुद तुम्हें ऊंची से ऊंची पिलायेंगे, लेकिन हिसाब से पियो। पर सारी कोशिशें बेकार। बहिन और भांजों को भी उन्होने दूसरे मकान भेज दिया। कुछ दिन भाई और बहू साथ रहे , वे भी अलग हो गये। हालत इस हद तक खराब हो गयी कि लीवर की शिकायत बढ़ गयी। ’सिरोसिस’ होने का भय हो गया। न डाक्टरों की मनुहारों और न मित्रों की मिन्नतों का कोई असर। हम लोगों को लगा कि साल छह महीने के ही मेहमान हैं ये । सभी हताश हो गये।
फ़िर भी परसाई के बुलावे निरंतर आते। कभी जाते कभी नहीं। रायपुर में फ़ासिस्ट विरोधी सम्मेलन के लिये टिकट कटाकर रेल में बिठा दिया गया तो शहडोल में उतर गये। ग्वालियर में स्टूडेन्ट फ़ेडरेशन के अधिवेशन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया पर गये नहीं। सतना में प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन हुआ तो उन पर पूरी निगरानी रखनी पड़ी। रायपुर में आयोजित कबीर उत्सव में शामिल हुये पर बीमार हो गये। गरज यह कि परसाई एक अविश्वनीय व्यक्ति हो गये। हालत बद से बदतर होती चली गयी।
इन्हीं दिनों मारीशस में दूसरा विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हुआ। ’मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ का अध्यक्ष होने के नाते मैंने प्रयास किया कि सम्मेलन की ओर से एक अधिकृत प्रतिनिधि मंडल भेजा जाये जिसका नेतृत्व परसाई करें। यह ’मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के लिये तो गौरव का विषय होता ही, सारे विश्व के हिन्दी विद्वानों के बीच उनकी अलग पहचान होती। केन्द्रीय शासन ने सबसे पहले उनका नाम स्वीकृत किया। पर जब पासपोर्ट की तैयारी के लिये और प्रतिनिधियों के साथ उन्हें भी मैंने भोपाल बुलाया तो मालूम हुआ कि गिर पड़े हैं, अस्पताल में भर्ती हैं। मल्टीपल फ़्रैक्चर हुआ है। पैर काटने की स्थिति भी आ सकती है।
जब यह खबर मुझे मिली तो जी धक रह गया। जबलपुर में उनका इलाज सम्भव नहीं था। आर्थिक साधन ऐसे नहीं ऐसे नहीं थे कि दिल्ली या बम्बई ले जाकर इलाज कराया जा सके। श्री श्यामाचरण शुक्ल उन दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने पांच हजार रुपये का प्रबन्ध कराया। कला परिषद से भी एक हजार रुपया मिला। दिल्ली में श्रीकान्त वर्मा ने तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डा.कर्णसिंह से कहकर चिकित्सा का प्रबंध किया। लगभग 8-9 महीने सफ़दरजंग असपताल में कटे। पैर कटने से बच गया लेकिन खोट रह गयी सो अभी तक ठीक से चल-फ़िर नहीं सकते। चार साल हो गये तब से शराब नहीं छुई। घर से बाहर लगभग निकलना नहीं होता।
लेकिन शराबखोरी का यह जिक्र परसाईनामा नहीं है। उनकी अच्छाइयों के साथ इस लत का उल्लेख कर देना भी मैंने उचित समझा है। यों इरादा कर लें तो बिना किसी चौकीदारी के भी महीनों बिना पिये रह लेते हैं।
मैं पहले ही कह चुका हूं कि विचारों से परसाई मार्कसिस्ट हैं। शोषित तबके के लोगों से उनकी आत्मीयता फ़ौरन बढ़ जाती है। वे राजनांदगांव आयेंगे तो शरद कोठारी के रसोइये से पाचक चूरन की गोली खरीदना नहीं भूलेंगे। मेरा एक ड्राइवर इकबाल घंटो अपनी शायरी सुना देता और वे ऐसे सुनते जैसे उसमें ही डूब गये हों। किसी ने अपना दुखड़ा सुनाया तो उसकी मदद चाहे वह उनके बस की बात न हो, करने में सबसे आगे, भले ही फ़िर उसका बोझा दूसरे उठायें। सरकारी तंत्र को वे प्रपंचतंत्र कहते हैं। सरकारी अमले में उनकी कहीं कोई पैठ नहीं है। लेकिन किसी की सिफ़ारिश करने-कराने का मौका आ पड़े तो स्वीकृति यों दे देंगे कि बस काम हो ही गया। और फ़िर चिट्ठियां दौड़ेंगी-यह काम कराना ही है, तुम्हारे भरोसे ही मैंने हां कर दी है।
परसाई के व्यक्तित्व का विकास ही कुछ इस तरह हुआ कि वे अपने आसपास के वातावरण से अछूते नहीं रहे। आचार्य (अब भगवान) रजनीश को देखकर उन्होंने ’टार्च बेचने वाला’ की रचना की। शेष नारायण राय को हत्या के एक झूठे मुकदमें में फ़ंसाने वाले एक तिलकधारी पुलिस इंस्पेक्टर ने उन्हें ’इन्स्पेक्टर मातादीन चांद पर’ लिखने को प्रेरित किया। एक आला अफ़सर की बीबी को पुरस्कार मिलने पर उन्होंने ’खीर प्रतियोगिता’ का सृजन किया। श्रीमती विजय राजे सिंधिया द्वारा 1967 में मध्यप्रदेश के कुछ विधायकों को अपनी तरफ़ कर लेने पर ’विधायकों की चोरी’ की रचना हुई। गणेश विसर्जन के जुलूस में कौन सा गणेश पहले क्रम पर रहे इस विवाद ने उनसे लेख लिखवा लिया। ऐसे कितने उदाहरण दिये जा सकते हैं जब परसाई ने समाज में जहां-तहां बिखरी हुई घटनाओं को कथानक का रूप दे दिया है।
दरअसल परसाई का रचनाधर्मी व्यक्तित्व ’वसुधा’ के प्रकाशन से प्रकाश में आया। श्री रामेश्वर गुरू, प्रमोद वर्मा, श्रीबाल पांडे, हनुमान प्रसाद वर्मा, डा.रमाशंकर मिश्र, आदि कुछ मित्रों ने सहयोग कर ’वसुधा’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। कहना न होगा कि ’वसुधा’ न सिर्फ़ अपने जमाने की वरन अभी तक प्रकाशित साहित्यिक पत्रिकाओं में सर्वश्रेष्ठ नहीं तो श्रेष्ठतम में एक जरूर थी। दुर्भाग्य की बात कि अर्थाभाव के कारण इस पत्रिका को बन्द हो जाना पड़ा। उसे जीवित रखने के लिये परसाई और श्रीबाल पांडे लगभग घर-घर घूमे। किंतु साहित्यिक पत्रिकाओं का जो हश्र होता है ,’वसुधा’ को उससे नहीं बचाया जा सका। ’वसुधा’ ने परसाई की पहचान न केवल अच्छे सम्पादक के रूप में कराई वरन उन्हें अच्छे रचनाकार के रूप में भी स्थापित किया।
’वसुधा’ के प्रकाशन ने परसाई को अखिल भारतीय श्रेणी के साहित्यिक सम्पादकों में बैठाया। इन्हीं दिनों उनके अध्ययन में तेजी आई। इतनी पैनी नजर से विश्व के घटनाक्रम को कम साहित्यकारों ने समझा होगा। मैंने देखा कि अखिल भारतीय स्तर के कतिपय समाचार पत्रों या पत्रिकाओं में जमे हुये साहित्यकार विश्व राजनीति में उनके तर्कों को स्वीकार किया करते थे। वरन मुझे तो इन चर्चाओं के दौरान यह एहसास हुआ कि साहित्यिक मंच के , खास तौर पर हिन्दी के शीर्षस्थ लोग वर्तमान राजनीति से कितने अनभिज्ञ या अपरिचित होते हैं।
परसाई की बेलाग लेखनी ने उन्हें प्रगतिशील तबके में तो लोकप्रिय बनाया ही, सर्वहारा वर्ग भी उनके प्रति काफ़ी श्रद्धा रखता है। इस सम्बन्ध में एक- दो घटनाओं का जिक्र अनुचित न होगा। ’ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ की स्थायी समिति में मुझे भाग लेना था। परसाईजी भी इस स्थायी समिति के सदस्य थे। मैंने उन्हें भी साथ ले लिया। सम्मेलन मुद्रणालय में कर्मचारियों एवं प्रबंधकों के बीच कुछ झगड़ा चल रहा था। जब कर्मचारियों को मालूम हुआ कि बैठक में परसाई भी भाग ले रहे हैं तो अपना पक्ष बताने के लिये उन्होंने परसाई को पकड़ लिया। जब स्थायी समिति में यह विषय चर्चा के लिये आया तो प्रबंधकों ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया। परसाई ने कर्मचारियों का पक्ष लेते हुये ऐसी दलीलें रखीं कि उनसे व्यवस्थापकगण कतराने लगे। प्रबन्धक बोले-” मोनो मशीने लगीं हैं, कल पुर्जे आयात करने पड़ते हैं, इतना खर्च हो जाता है कि बचत नहीं होती……” आदि -आदि। परसाई कब चूकने वाले थे। सुझाव दिया, ” ये मायाराम बैठे हैं, इनके यहां भी दो मशीनें लगी हैं, आप इनसे सलाह कर लीजिये।” व्यवस्थापकों ने बात ही बदल दी।
जबलपुर में परसाई की अलग हस्ती रही है। हालांकि पैर की कमजोरी की वजह से उनका नगर-पर्यटन का क्रम टूट गया है, लेकिन वह भी एक जमाना था जब वे हर प्रगतिशील आन्दोलन के साथ चलते-फ़िरते भी दिखाई पड़ते थे। यह क्रम खत्म हो गया हो, यह तो हरगिज नहीं , अन्तर केवल इतना है कि अब अपने सिंहासन पर पड़े-पड़े ही आन्दोलन का संचालन करते हैं। इस संदर्भ में 1962 की एक घटना याद रखने योग्य है।
चीन ने भारत पर हमला किया तो सारे देश की ही तरह जबलपुर विश्वविद्यालय के छात्रों में भी उफ़ान आया। उन दिनों में विश्वविद्यालय छात्रसंघ ऐसे बली छात्रों के हाथ में था जो अपने समझ के आगे किसी की भी सलाह अनसुनी करने के लिये प्रसिद्ध हो चुके थे। छात्रसंघ अध्यक्ष कुछ दिन पहले ही एक हत्या काण्ड से बरी हुये थे। छात्रों ने तय किया कि एक विशाल जुलूस निकाला जाये। बात यहीं तक सीमित रहती तो कोई बात नहीं थी। हम लोगों को पता चला कि यह भी योजना बनाई गई है कि चीनी डाक्टर, चीनी रेस्तरां, इन्डियन काफ़ी हाउस और कम्युनिस्ट पार्टी दफ़्तर में आग लगा दी जाये। रैली का मार्ग भी तय हो गया। सारे शहर में सन्नाटा कि दस-बारह हजार उत्तेजित छात्रों की रैली कैसे सम्भाली जाये।
आखिर हम कुछ लोग बैठे और निश्चय किया कि छात्रों की रैली में नगर के कुछ संभ्रान्त नागरिकों को भी शामिल कर लिया जाये। इस योजना के अनुसार महापौर मुलायमचन्द जैन, विधानसभाध्यक्ष स्व.कुंजीलाल दुबे, भूतपूर्व महापौर श्री सवाईमल जैन और रामेश्वर प्रसाद गुरू आदि अनेक राजनयिकों से बात की और धीरे-धीरे उन्हें जुलूस के रास्ते में शामिल करते गये। परसाई और मैं छात्र नेतओं के साथ लग गये। कुछ लोगों को जुलूस के खास-खास ठिकानों पर जमा दिया। चीनी डाक्टर और चीनी रेस्तरां के सामने से जुलूस निकला तो परसाई और मैं उन दुकानों के सामने खड़े हो गये। कुनर-मुनर करते हुये भी छात्र नेता हम लोगों की बात मानते रहे और जुलूस का रास्ता भी इस तरह बदल दिया गया कि काफ़ी हाउस और कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर अलग रह गये। बाद में छात्र नेताओं की गालियां परसाई और मैंने मुस्कराकर सुन लीं लेकिन उस दिन होने वाले अग्निकांड से शहर जरूर बच ग्च गया।
अपने निजी जीवन में परसाई शुद्ध रूप से धर्मनिरपेक्ष आदमी हैं। न तो वे किसी धार्मिक क्रियाकलाप में विश्वास रखते हैं न जात-पांत में। वैसे वे अपने को एंग्लो-इंडियन कहते हैं। पहले जबलपुर में कहीं साम्प्रदायिक उपद्रव हो जाया करते थे। वे उत्पीड़ितों की रक्षा में पहली पंक्ति में खड़े मिलते।
1961 में एक ऐसी ही भयानक घटना हो गयी। एक बहुसंख्यक वर्ग की लड़की के साथ दो अल्पसंख्यक वर्ग के किशोरों द्वारा बलात्कार ने सांप्रदायिक दंगे का ऐसा स्वरूप लिया कि जबलपुर में तो अनेक निर्दोष परिवार लूटे-मारे गये। करीब के ही एक गांव सरूपा में 13-14 अल्पसंख्यक जिन्दा जला दिये गये। सागर आदि शहरों में भी उपद्रव हुये। सारे देश में चिन्ता का वातावरण फ़ैल गया। जबलपुर के सांसदों तथा विधायकों तक के पैर उखड़ गये उस आंधी में। प्रधानमंत्री नेहरू ने विशेष प्रतिनिधि भेजे। सांसद्द्वय श्रीमती अनीसा किदवई और सुभद्रा जोशी महीनों जबलपुर आते-जाते रहे। उन दिनों मेरी जो दुर्गति हुई, वह तो अलग चर्चा का विषय है लेकिन यह परसाई उन दिनों मेरे बाजू से कुछ ऊपर न खड़े होते तो जाने क्या और बीतती। उनके निर्भीक व्यक्तित्व से उन दिनों वातावरण शान्त होने में बहुत कुछ मदद मिली। बाद में त बहुत लोग आगे आ गये लेकिन प्रारम्भ के वातावरण की याद करते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
जिस तरह परसाई के प्रशंसक हैं, वैसे ही उनके निदकों (या घृणा करने वालों) की कमी नहीं है। आर.एस.एस. का उदाहरण मैंने दिया। जनता शासन के तीन वर्षों में उन्हें राज्य या केन्द्रीय शासन के किसी साहित्यिक कार्यक्रम में आमंत्रित नहीं किया गया न किसी कमेटी में रखा गया। जब किसी आधिकारी या संस्था ने उनका नाम सुझाया भी तो बहुत हिकारत से काट दिया गया।
यद्यपि परसाई किसी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं हैं लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी में उनको बहुत आस्था के साथ देखा जाता है। पार्टी के कार्डहोल्डर हिन्दी के एक प्रख्यात प्रगतिशील कथाकार सम्पादक को प्रगतिशील लेखक संघ से या इससे संबंधित आन्दोलन से निकालने का फ़ैसला किया गया। उन्होंने परसाईजी तक अपनी खबर पहुंचाई और परसाई ने शीर्ष नेताओं से चर्चा कर मामला रफ़ा-दफ़ा किया।
परसाईको जबलपुर से कुछ मोह सा हो गया था। सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद वे जबलपुर में ही रहना चाहते थे। एक-दो प्राइवेट स्कूलों में अध्यापक भी हो गये। लेकिन वहां माध्यमिक शिक्षकों की हड़ताल करा दी। माध्यमिक शिक्षक अपने अधिकार की लड़ाई लड़ने को भी तैयार नहीं थे। इन्होंने 60-70 शिक्षकों को लेकर जो कुहराम मचाया कि प्राइवेट स्कूल की नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा। कुछ दिनों या एक-दो साल बाद शाजापुर में नवस्थापित कालेज के प्रिंसिपल नियुक्त करने का आफ़र आया तो उसे भी स्वीकार नहीं किया। ’जनयुग’ के सम्पादक बनाने का प्रस्ताव आया , वह भी छोड़ दिया। श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान ने दिल्ली से राजनैतिक साप्ताहिक के संपादन की जिम्मेदारी सौंपनी चाही, मना कर दिया।
बिना किसी नियमित आमदनी के परसाई आर्थिक संकट में उलझे ही रहते हैं। कभी किसी अखबार की माली हालत ठीक नहीं हुई या किसी अखबार में लम्बी हड़ताल हो गई तो उनकी रचनाओं का पारिश्रमिक भी समय पर नहीं आता। स्नेह सम्मेलनों या उत्सवों में न जा सकने के कारण भी आमदनी पर आघात हुआ ही है। घर-खर्च की बात अलग, टेलीफ़ोन कटने तक की नौबत आ जाती या मकान का किराया पट नहीं पाता। ऐसे वक्त पर स्व. भाई नर्मदा प्रसाद खरे हम लोगों के काम आते थे। यों खरेजी परसाई के प्रकाशक भी थे, पर हिसाब किताब कभी-जभी ही हो पाता था। जब जैसी जरूरत हुई हम उनके यहां पहुंच जाते और जरूरत से दुगुनी -तुगुनी रकम की मांग पेश कर देते। तब जरूरी राशि तो खरे जी से ले ही आते। अब खरे जी नहीं हैं, परसाई बाहर निकल नहीं पाते। बड़े अखबारों में परसाई का लेखन लगभग बन्द है। तो निश्वय ही परेशानियां बढ़ गयी हैं। छोटा भाई अस्वस्थ है और बेरोजगार भी। उसकी सहायता भी करनी होती है। लेकिन स्वाभिमान ऐसा कि किसी की मदद नहीं लेते। किसी मुलाकाती ने उनके नाम पर अर्थ संग्रह की अपील निकाल दी तो उसका खण्डन फ़ौरन प्रकाशित कर दिया। और किसी तरह गाड़ी चल ही रही है।
जबलपुर में वे अकेले नहीं होते। जब भी जाइये कुछ नवयुवक ’मार्गदर्शन’ के लिये वहां जरूर बैठे मिल जायेंगे। वे जयपुर और शिमला से भी आ सकते हैं और झुमरी तलैया से भी। वे केरल के भी हो सकते हैं और असम के भी। उनकी रचनायें हिन्दुस्तान की सभी भाषाओं में अनुदित हुई हैं। दरअसल उनके लेखन ने उनको छोटे तबके का प्रतिनिधि बना दिया है। हिन्दी में व्यंग्यकार होने का दावा बहुत लोग कर सकते हैं, लेकिन परसाई के लेखन में लफ़्फ़ाजी नहीं है। उनकी हर रचना में एक उद्देश्य होता है और कम शब्दों में ज्यादा सारगर्भित बात कह देने में उनका कोई मुकाबला नहीं है।
इन तीस वर्षों के ’सत्संग’ को घटनावार क्रम सें प्रस्तुत कर सकना संभव नहीं है। अब परसाई का जबलपुर से बाहर निकलना नहीं होता। जिस दिन मुझे उनके पैर टूटने की खबर मिली , उस क्षण सचमुच ही मैं दुखी था। लेकिन तब ही मैंने उस अपघात को आभार माना कि शायद परसाई अपने पुराने फ़ार्म में आ जायें। उनके वर्तमान लेखन में ताजगी है, क्या वह मेरे इस विश्वास की साक्षी नहीं है?
- मायाराम सुरजन

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Tuesday, August 10, 2021

गर्दिश के दिन -परसाई

 [आज परसाई जी की पुण्यतिथि के मौके पर परसाई जी का यह लेख पढ़ें- 'गर्दिश के दिन' । यह लेख परसाई जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर लिखे लेखों के संकलन आंखन देखी (प्रकाशक वाणी प्रकाशन ,नई दिल्ली)से लिया गया। इसका संपादन प्रसिद्ध लेखक स्व. कमला प्रसाद ने किया था।]

लिखने बैठ गया हूँ पर नहीं जानता संपादक की मंशा क्या है और पाठक क्या चाहते हैं,क्यों आखिर वे उन गर्दिश के दिनों में झांकना चाहते हैं,जो लेखक के अपने हैं और जिन पर वह शायद परदा डाल चुका है। अपने गर्दिश के दिनों को, जो मेरे नामधारी एक आदमी के थे, मैं किस हैसियत से फिर से जीऊँ?-उस आदमी की हैसियत से या लेखक की हैसियत से ? लेखक की हैसियत से गर्दिश को फिर से जी लेने और अभिव्यक्ति कर देने में मनुष्य और लेखक ,दोनों की मुक्ति है। इसमें मैं कोई ‘भोक्ता’ और ‘सर्जक’ की नि:संगता की बात नहीं दुहरा रहा हूँ। पर गर्दिश को फिर याद करने, उसे जीने में दारुण कष्ट है। समय के सींगों को मैंने मोड़ दिया। अब फिर उन सींगों को सीधा करके कहूँ -आ बैल मुझे मार!
गर्दिश कभी थी ,अब नहीं है,आगे नहीं होगी-यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है,मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता,इस लिये गर्दिश नियति है।
हाँ ,यादें बहुत हैं। पाठक को शायद इसमें दिलचस्पी हो कि यह जो हरिशंकर परसाई नाम का आदमी है,जो हँसता है,जिसमें मस्ती है,जो ऐसा तीखा है,कटु है-इसकी अपनी जिंदगी कैसी रही? यह कब गिरा, फिर कब उठा ?कैसे टूटा? यह निहायत कटु,निर्मम और धोबी पछाड़ आदमी है।
संयोग कि बचपन की सबसे तीखी याद ‘प्लेग’ की है। १९३६ या ३७ होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था। कस्बे में प्लेग पड़ी थी। आबादी घर छोड़ जंगल में टपरे बनाकर रहने चली गयी थी। हम नहीं गये थे। माँ सख्त बीमार थीं। उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था। भाँय-भाँय करते पूरे आस-पास में हमारे घर में ही चहल-पहल थी। काली रातें। इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील। मुझे इन कंदीलों से डर लगता था। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गये थे,रात के सन्नाटे में हमारी आवाजें हमें ही डरावनी लगतीं थीं। रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते-
ओम जय जगदीश हरे,
भक्त जनों के संकट पल में दूर करें।
गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते,माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेतीं और हम भी रोने लगते। रोज का यह नियम था। फिर रात को पिताजी,चाचा और दो -एक रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा देते। ऐसे भयानक और त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गयी। कोलाहल और विलाप शुरू हो गया। कुछ कुत्ते भी सिमटकर आ गये और योग देने लगे।
पाँच भाई-बहनों में माँ की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था-सबसे बड़ा था।
प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं। जिस आतंक,अनिश्चय,निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे,उसके सही अंकन के लिये बहुत पन्ने चाहिये। यह भी कि पिता के सिवा हम कोई टूटे नहीं थे। वह टूट गये थे। वह इसके बाद भी ५-६ साल जिये,लेकिन लगातार बीमार,हताश,निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुये। धंधा ठप्प। जमा-पूँजी खाने लगे। मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी। समझने लगा था कि पिताजी भी अब जाते ही हैं। बीमारी की हालत में उन्होंने एक भाई की शादी कर ही दी थी-बहुत मनहूस उत्सव था वह। मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है। पर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे।
मैं तैयार होने लगा । खूब पढ़ने वाला,खूब खेलने वाला और खूब खाने वाला मैं शुरू से था। पढ़ने और खेलने में मैं सब कुछ भूल जाता था। मैट्रिक हुआ,जंगल विभाग में नौकरी मिली। जंगल में सरकारी टपरे में रहता। ईंटे रखकर,उन पर पटिया जमाकर बिस्तर लगाता, नीचे जमीन चूहों ने पोली कर दी थी। रात भर नीचे चूहे धमाचौकड़ी करते रहते और मैं सोता रहता। कभी चूहे ऊपर आ जाते तो नींद टूट जाती पर मैं फिर सो जाता। छह महीने धमाचौकड़ी करते चूहों पर मैं सोया।
बेचारा परसाई?
नहीं,नहीं ,मैं खूब मस्त था। दिन-भर काम। शाम को जंगल में घुमाई। फिर हाथ से बनाकर खाया गया भरपेट भोजन शुद्ध घी और दूध!
पर चूहों ने बड़ा उपकार किया। ऐसी आदत डाली कि आगे की जिन्दगी में भी तरह-तरह के चूहों मेरे नीचे ऊधम करते रहे, साँप तक सर्राते रहे ,मगर मैं पटिये बिछा कर पटिये पर सोता रहा हूँ। चूहों ने ही नहीं मनुष्यनुमा बिच्छुओं और सापों ने भी मुझे बहुत काटा- पर ‘जहरमोहरा’मुझे शुरू में ही मिल गया। इसलिये ‘बेचारा परसाई’ का मौका ही नहीं आने दिया। उसी उम्र से दिखाऊ सहानुभूति से मुझे बेहद नफरत है। अभी भी दिखाऊ सहानुभूति वाले को चाँटा मार देने की इच्छा होती है। जब्त कर जाता हूँ,वरना कई शुभचिन्तक पिट जाते।
फिर स्कूल मास्टरी। फिर टीचर्स ट्रनिंग और नौकरी की तलाश -उधर पिताजी मृत्यु के नजदीक। भाई पढ़ाई रोककर उनकी सेवा में। बहनें बड़ी बहन के साथ,हम शिक्षण की शिक्षा ले रहे थे।
फिर नौकरी की तलाश। एक विद्या मुझे और आ गयी थी-बिना टिकट सफर करना। जबलपुर से इटारसी, टिमरनी,खंडवा,देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना टिकट बेखटके गाड़ी में बैठ जाता। तरकीबें बचने की बहुत आ गयीं थीं। पकड़ा जाता तो अच्छी अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। अंग्रेजी के माध्यम से मुसीबत बाबुओं को प्रभावित कर देती और वे कहते-लेट्‌स हेल्प दि पुअर ब्वाय।
दूसरी विद्या सीखी उधार माँगने की। मैं बिल्कुल नि:संकोच भाव से किसी से भी उधार मांग लेता। अभी भी इस विद्या में सिद्ध हूँ।
तीसरी चीज सीखी -बेफिक्री। जो होना होगा,होगा,क्या होगा? ठीक ही होगा। मेरी एक बुआ थी। गरीब,जिंदगी गर्दिश -भरी,मगर अपार जीव शक्ति थी उसमें। खाना बनने लगता तो उनकी बहू कहती-बाई , न दाल ही है न तरकारी। बुआ कहती-चल चिंता नहीं। राह-मोहल्ले में निकलती और जहाँ उसे छप्पर पर सब्जी दिख जाती,वहीं अपनी हमउम्र मालकिन से कहती- ए कौशल्या,तेरी तोरई अच्छी आ गयी है। जरा दो मुझे तोड़ के दे। और खुद तोड़ लेती। बहू से कहती-ले बना डाल,जरा पानी जादा डाल देना। मैं यहाँ-वहाँ से मारा हुआ उसके पास जाता तो वह कहती-चल,चिंता नहीं,कुछ खा ले।
उसका यह वाक्य मेरा आदर्श वाक्य बना-कोई चिन्ता नहीं। गर्दिश,फिर गर्दिश!
होशंगाबाद शिक्षा अधिकारी से नौकरी माँगने गये। निराश हुये। स्टेशन पर इटारसी के लिये गाड़ी पकड़ने के लिये बैठा था,पास में एक रुपया था,जो कहीं गिर गया था। इटारसी तो बिना टिकट चला जाता। पर खाऊँ क्या? दूसरे महायुद्ध का जमाना। गाड़ियाँ बहुत लेट होतीं थीं। पेट खाली। पानी से बार-बार भरता। आखिर बेंच पर लेट गया।चौदह घंटे हो गये । एक किसान परिवार पास आकर बैठ गया। टोकरे में अपने खेत के खरबूजे थे। मैं उस वक्त चोरी भी कर सकता था। किसान खरबूजा काटने लगे। मैंने कहा- तुम्हारे ही खेत के होंगे। बडे़ अच्छे हैं। किसान ने कहा- सब नर्मदा मैया की किरपा है भैया! शक्कर की तरह हैं। लो खाके देखो। उसने दो बड़ी फांके दीं। मैंने कम-से-कम छिलका छोड़कर खा लिया। पानी पिया। तभी गाड़ी आयी और हम खिड़की में घुस गये।
नौकरी मिली जबलपुर से सरकारी स्कूल में। किराये तक के पैसे नहीं। अध्यापक महोदय ने दरी में कपडे़ बाँधे और बिना टिकट चढ़ गये गाड़ी में। पास में कलेक्टर का खानसामा बैठा था। बातचीत चलने लगी। आदमी मुझे अच्छा लगा। जबलपुर आने लगा तो मैंने उसे अपनी समस्या बताई। उसने कहा -चिन्ता मत करो। सामान मुझे दो। मैं बाहर राह देखूँगा। तुम कहीं पानी पीने के बहाने सींखचों के पास पहुँच जाना। नल सींखचों के पास ही है। वहाँ सींखचों को उखाड़कर निकलने की जगह बनी हुई है। खिसक लेना। मैंने वैसा ही किया। बाहर खानसामा मेरा सामान लिये खड़ा था। मैंने सामान लिया और चल दिया शहर की तरफ। कोई मिल ही जायेगा,जो कुछ दिन पनाह देगा,अनिश्चय में जी लेना मुझे तभी आ गया था।
पहले दिन जब बाकायदा ‘मास्साब’ बने तो बहुत अच्छा लगा। पहली तनख्वाह मिली ही थी कि पिताजी की मृत्यु की खबर आ गयी। माँ के बचे जेवर बेचकर पिता का श्राद्ध किया और अध्यापकी के भरोसे बड़ी जिम्मेदारियाँ लेकर जिंदगी के सफर पर निकल पड़े।
उस अवस्था की इन गर्दिशों के जिक्र मैं आखिर क्यों इस विस्तार से कर गया? गर्दिशें बाद में भी आयीं ,अब भी आतीं हैं,आगे भी आयेंगी, पर उस उम्र की गर्दिशों की अपनी अहमियत है। लेखक की मानसिकता और व्यक्तित्व निर्माण से इनका गहरा सम्बन्ध है।
मैंने कहा है- मैं बहुत भावुक,संवेदनशील और बेचैन तबीयत का आदमी हूँ। सामान्य स्वभाव का आदमी ठंडे-ठंडे जिम्मेदारियाँ भी निभा लेता,रोते-गाते दुनिया से तालमेल भी बिठा लेता और एक व्यक्तित्वहीन नौकरीपेशा आदमी की तरह जिंदगी साधारण सन्तोष से गुजार लेता।
मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ,जिम्मेदारियाँ,दुखों की वैसी पृष्ठभूमि और अब चारों तरफ से दुनिया के हमले -इस सब सबके बीच सबसे बड़ा सवाल था अपने व्यक्तित्व और चेतना की रक्षा । तब सोचा नहीं था कि लेखक बनूँगा। पर मैं अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की रक्षा तब भी करना चाहता था।
जिम्मेदारी को गैर-जिम्मेदारी की तरह निभाओ।
मैंने तय किया-परसाई,डरो मत किसी से। डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी हो। जिम्मेदारी को गैर-जिम्मेदारी की तरह निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो नष्ट हो जाओगे। और अपने से बाहर निकलकर सब में मिल जाने से व्यक्तित्व और विशिष्टता की हानि नहीं होती। लाभ ही होता है। अपने से बाहर निकलो। देखो, समझो और हँसो।
मैं डरा नहीं । बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा तो नौकरियाँ गयीं। लाभ गये,पद गये,इनाम गये। गैर-जिम्मदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूँ। रेल में जेब कट गयी,मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी-साग खाकर मजे में बैठा हूँ कि चिन्ता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। मेहनत और परेशानी जरूर पड़ी यों कि बेहद बिजली-पानी के बीच एक पुजारी के साथ बिजली की चमक से रास्ता खोजते हुये रात-भर में अपनी बड़ी बहन के गाँव पहुँचना और कुछ घंटे रहकर फिर वापसी यात्रा। फिर दौड़-धूप! मगर मदद आ गयी और शादी भी हो गयी।
इन्हीं परिस्थितियों के बीच मेरे भीतर लेखक कैसे जन्मा,यह सोचता हूँ। पहले अपने दु:खों के प्रति सम्मोहन था। अपने को दुखी मानकर और मनवाकर आदमी राहत पा लेता है। बहुत लोग अपने लिये बेचारा सुनकर सन्तोष का अनुभव करते हैं। मुझे भी पहले ऐसा लगा। पर मैंने देखा,इतने ज्यादा बेचारों में मैं क्या बेचारा! इतने विकट संघर्षों में मेरा क्या संघर्ष!
मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे,इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे,अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है,मेरा ख्याल है, तब ऐसी ही बात होगी।
पर जल्दी ही मैं व्यक्तिगत दु:ख के इस सम्मोहन-जाल से निकल गया। मैंने अपने को विस्तार दे दिया।दु:खी और भी हैं। अन्याय पीड़ित और भी हैं। अनगिनत शोषित हैं। मैं उनमें से एक हूँ। पर मेरे हाथ में कलम है और मैं चेतना सम्पन्न हूँ।
यहीं कहीं व्यंग्य – लेखक का जन्म हुआ । मैंने सोचा होगा- रोना नहीं है,लड़ना है। जो हथियार हाथ में है,उसी से लड़ना है। मैंने तब ढंग से इतिहास, समाज, राजनीति और संस्कृति का अध्ययन शुरू किया। साथ ही एक औघड़ व्यक्तित्व बनाया। और बहुत गम्भीरता से व्यंग्य लिखना शुरू कर दिया।
मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट मुक्ति के लिये,सुख के लिये,न्याय के लिये।पर यह बड़ी अकेले नहीं लड़ी जा सकती। अकेले वही सुखी हैं,जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। उनकी बात अलग है। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूँ और अचरज करता हूँ कि ये सुखी कैसे हैं! न उनके मन में सवाल उठते हैं न शंका उठती है। ये जब-तब सिर्फ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती है। और वे ज्यादा सुखी हो जाते हैं।
कबीर ने कहा है-
सुखिया सब संसार है,खावै अरु सोवे।
दुखिया दास कबीर है,जागे अरु रोवे।
जागने वाले का रोना कभी खत्म नहीं । व्यंग्य-लेखक की गर्दिश भी खत्म नहीं होगी।
ताजा गर्दिश यह है कि पिछले दिनों राजनीतिक पद के लिये पापड़ बेलते रहे। कहीं से उम्मीद दिला दी गई कि राज्यसभा में हो जायेगा। एक महीना बड़ी गर्दिश में बीता। घुसपैठ की आदत नहीं है,चिट भीतर भेजकर बाहर बैठे रहने में हर क्षण मृत्यु-पीडा़ होती है। बहादुर लोग तो महीनों चिट भेजकर बाहर बैठे रहते हैं,मगर मरते नहीं। अपने से नहीं बनता। पिछले कुछ महीने ऐसी गर्दिश के थे। कोई लाभ खुद चलकर दरवाजे पर नहीं आता। चिरौरी करनी पड़ती है। लाभ थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है,इस कोशिश में बड़ी तकलीफ हुई। बड़ी गर्दिश भोगी।
मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं,उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन हैं। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है,जिसे सर्जक ही समझ सकता है।
यों गर्दिशों की एक याद है। पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है। यह और बात है कि शोभा के लिये कुछ अच्छे किस्म की गर्दिशें चुन लीं जाएं। उनका मेकअप कर दिया जाये,उन्हें अदायें सिखा दी जायें- थोडी़ चुलबुली गर्दिश हो तो और अच्छा-और पाठक से कहा जाए-ले भाई,देख मेरी गर्दिश!
-हरिशंकर परसाई

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Sunday, August 01, 2021

जगदीश्वर चतुर्वेदी जी से बातचीत

 आज पहली बार आदरणीय जगदीश्वर चतुर्वेदी जी से बात हुई। लम्बी बातचीत। पहली बार बात होने के बावजूद ऐसा नहीं लगा नहीं कि पहली बार बात हो रही है। सहज रूप में बातचीत के दरम्यान बहुत सारी रोचक जानकारियां हासिल हुई। उनके गुरु नामवर जी पर भी बातचीत हुई। उसी सिलसिले में मेरे अनुरोध पर जगदीश्वर चतुर्वेदी जी ने अपने गुरु नामवर जी पर बात करना स्वीकार किया । आभार इस बातचीत के लिए।

बातचीत की कड़ी: https://www.youtube.com/watch?v=ikJbkaOZVkc

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Tuesday, July 13, 2021

आज मजहब भी पूंजीपतियों ने पूंजी के बल पर अपने अधीन कर लिया है

 वास्तविकता यह है कि आज मजहब भी पूंजीपतियों ने पूंजी के बल पर अपने अधीन कर लिया है। ऐसे में ईश्वर का सच्चा धर्म शेष नहीं रहता। सच्चा ईश्वरीय धर्म तो प्राणियों की सेवा, प्रेम, मोहब्बत, इंसाफ वफादारी और ईमानदारी है। उसमें ईश्वर के प्राणियों का हित और लाभ है। यह आज आप जो कुछ देख रहे हैं, यह पूंजीपतियों ने केवल अपने उद्देश्य पूरे करने के लिए धर्म के नाम पर एक खेल बनाया है। यह वर्तमान मजहब तो मात्र कुछ लोगों के ऐशो आराम के लिए है। ईश्वर के प्राणियों के आराम के लिए नहीं है। जब धर्म स्वार्थी लोगों के हाथों में चला जाता है तो यही हाल होता है। कुरान तो यह कहती है कि मुसलमान वही है जिसे कुर्रान पर विश्वास हो और इससे पहले जो किताबें ईश्वर की ओर से आई हैं उन पर भी। हम नहीं समझते कि दुनिया में धर्म के नाम पर ये झगड़े और लड़ाई क्यों और कैसे पैदा हुई?

-अब्दुल गफ्फार खान की आत्मकथा 'मेरा जीवन मेरा सँघर्ष' से

Friday, July 02, 2021

मेरी ख्वाबगाह में नंदन- ज्ञानरंजन



(25 सितंबर,2010 को कन्हैयालाल नंदनजी का लम्बी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हो गया। उनके बारे में ज्ञानरंजन जी का लिखा एक संस्मरण देखिये। ज्ञानरंजन जी और नंदनजी साथ पढ़े थे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में। यह संस्मरण ज्ञानरंजन जी ने शायद नंदन जी के निधन के दो-तीन साल पहले लिखा था।)
कन्हैयालाल नंदन से भौगोलिक रूप से मैं 1957-58 में बिछुड़ गया क्योंकि इसी साल के बाद वह इलाहाबाद छोड़कर मुंबई नौकरी में चला गया। हेरफ़ेर 4-6 महीने का हो सकता है। गदर के सौ साल बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हमने एक साथ डिग्री हासिल की और काले गाउन पहनकर फ़ोटो खिंचवाई थी। लगभग आधी शताब्दी का समय हमारे संबंधों के बीच सिनेमा की रील की तरह रोल्ड है।
वह ऐसा समय था कि चारों तरफ़ खजाना ही खजाना था और कोई लूटपाट नहीं करता था। जो चाहो वही मिलता था। पर क्या चाहें क्या न चाहें इसकी कोई तमीज नहीं थी। किताबों की, सत्संग की, कुसंग की,संवाद-विवाद की, लड़ने-झगड़ने और सैर-सपाटे और रचनात्मक उत्तेजनाओं की कोई कमी नहीं थी। असंख्य रचनाकार थे और कहानियां थीं। इतिहास में जाते लेखक थे,वर्तमान में उगते कवि थे और भविष्य की संभावनाओं वाले रचयिता। मर जाने पर भी किसी की जगह खाली नहीं हो जाती थी जैसा कि आजकल हो जाती है। एक मणिमाला थी जो अविराम चल रही थी।
साहित्य संसार से इतर रसायन में सत्यप्रकाश जी थे, गणित में गोरखप्रसाद, हिंदी में धीरेन्द्र वर्मा, अंग्रेजी में एस. सी.देव और फ़िराक। और वह दुनिया भी भरी-पूरी थी। न चाहो तो भी छाया हम पर पड़ रही थी। टेंट में पैसा नहीं होता था पर अपने समय के अपने समय को पार कर जाने वाले दिग्गजों को देख-सुन रहे थे। उनसे मिल रहे थे, सीख रहे थे। नंदन से ऐसे ही किसी समय मिलना हुआ और फ़िर वह तपाक से गहरी मैत्री में बदल गया। पचास सालों में अनंत वस्तुयें छूट गईं हैं। अनगिनत लोग विदा हो गये। करवट लेकर अब संपत्ति शास्त्र के कब्जे में अधमरे कैद पड़े हैं। मेरे सहपाठियों में से निकले मित्रों में केवल दो ही भरपूर बचे रहे। एक दूधनाथ सिंह और दूसरे कन्हैयालाल नंदन।
नंदन की दोस्ती का जाला किस तरह और कब बुना जाता रहा इसकी पड़ताल असंभव है। वह अज्ञात और अंधेरे समय की दास्तान है। हम छत पर बने कमरों में साथ-साथ पढ़ते थे। मेरी मां खाना खिलाती थी। हम वहीं पढ़ते-पढते सो जाते थे। बाकी समय नंदन साइकिल पर दूरियां नापते हुये जीविकोपार्जन के लिये कुछ करते थे। चित्र बनाते, ले-आउट करते, प्रूफ़ देखते थे। आज भी उतनी ही मशक्कत कर रहे हैं। बीमार होते हैं, अस्पताल जाते हैं और लौटकर उतनी ही कारगुजारी हो रही है। गुनगुनाते रहते हैं और काम चलता रहता है।
बेपरवाह और जांगर के धनी। उन्नीस-बीस साल के कठिन और काले दिनों में भी नन्दन ने कभी अपने सहपाठियों को जानने नहीं दिया कि वह चक्की पीस रहा है। दीनता तब भी न थी। नन्दन के चेहरे को हंसता हुआ देखकर भी कोई यह नहीं कह सकता था कि वह वाकई रो रहा है या हंस रहा है। सामने तो वह कभी रोया नहीं। जीवन में कब कोई किस तरह से आ जाता है इसे जानने की कोशिश बेकार है। यह एक रचना प्रक्रिया है जिसे खोलना बहुत फ़ूहड़ लगता है। रिश्ता बनाते समय दुनियादार लोग हजार बार सोच विचारकर यह तय कर लेते हैं कि लंबे समय में यह रिश्ता कहीं नुकसानदेह तो नहीं होगा। सारे भविष्य के संभावित लाभ-हानि वे सांसारिक तराजू पर नाप-तौल लेते हैं। फ़िर कदम बढ़ाते हैं।
मेरे और नंदन के बीच आज भी दुनिया का प्रवेश नहीं है। यहां किसी का हस्तक्षेप संभव नहीं। हमारी बीबियों का भी नहीं और उनका भी जो हमें इसी की वजह से नापसंद करते हैं।
एक सफ़ल व्यक्ति था और मैं भी कोई ऐसा असफ़ल नहीं हूं। लेकिंन नंदन का बायोडाटा ज्वलंत है। उसके चारो तरफ़ बिजली की लतर जल-बुझ ही नहीं रही , जल ही जल रही है। यह नंदन की सबसे बड़ी समस्या है। इस पर उसका बस नहीं है। इस सबके बावजूद जिस समाज में व्यवहारिकतायें भी तड़ाक-फ़ड़ाक से मुरझा जाती हैं और सौदेबाजी भी दो-चार से अधिक नहीं चल पातीं उसी समाज में हम 50 साल से एकदम अलग-अलग रास्तों पर चलते हुये किस तरह मित्र विहार करते रहे यह एक ठाठदार सच है। हमारा लिखना-पढ़ना, जीवन शैलियां ,काम-धाम, विचार-विमर्श कठोरतापूर्वक एक दूसरे से विपरीत रहा। हमने कभी एक-दूसरे को डिस्टर्ब नहीं किया। हमने कभी नहीं पूछा कि यह क्यों किया और यह क्यों नहीं किया।
(नई दुनिया, दिल्ली के 26 सितंबर,2010 के अंक से साभार!)

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Thursday, July 01, 2021

 बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं

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(स्व. कन्हैया लाल नंदन जी के जन्मदिन के मौके पर उनका एक आत्मकथ्य )
बड़ी मुश्किल यात्रा होती है यह ,कि आप आईने के सामने खड़े होकर अपने जन्म से लेकर अब तक के जीवन को एक गवाह की तरह निहारें। मेरे शायर मित्र(स्व.) अमीर क़ज़लबाश ने लिखा था :-
सुबह मेरे माथे पर इस कदर लहू कैसा
रात मेरे चेहरे पर आईना गिरा होगा।
आदमी अपने जीवन की तल्ख सच्चाइयों से लहूलुहान हो जाता है और फिर मुकद्दर को कोसने लगता है और माथे का पसीना पोंछने लगता है। जब यह शेर सुना था पहली बार,तो पहली बार,उसकी भावाभिव्यक्ति की चमक ने आकर्षित किया था। फिर धीरे-धीरे इस शेर की गहराई मेरे सामने खुलती गयी और अब मैं जब खुद उसकी गहराई में उतरने को हूँ तो लगता है कि ज़िन्दगी फिर लहूलुहान कर देगी-
ये सच है हम भी कल तक जिन्दगी पर नाज़ करते थे
मगर अब ज़िन्दगी पटरी से उतरी मेल लगती है।
ऐसा नहीं है कि पूरी उतर गयी हो और ऐसा भी नहीं कि इस यात्रा में आनन्द नहीं आया या शिकायतें ही शिकायतें हैं जिनको गिनने और उठाकर बयान करने मेंमुश्किलें आ रहीं हैं। मुश्किल सिर्फ यह है कि इनमें से किसे उठाऊँ और किसे छोड़ूँ। रंगतें हज़ार हैं,बल्कि कहूँ तो रंगो का मेला है यह सफर ,तो अतिशयोक्ति न मानी जाये।हर रंग को जीने का अवसर दिया जिन्दगी ने,भरपूर अवसर दिया…गुरबत का आलम क्या होता है यह भी देखा तो अमीरी किस कदर बेहूदगी से अट्टहास करती है यह भी मुंबई में रहकर अमीर घरों में आ-जाकर देख सका। व्यवस्था किस कदर जरूरी होती है जीवन में यह भी जाना तो यह भी कि सब कुछ व्यवस्थित-व्यवस्थित जीने में कितनी ऊब होती है। जीवन बिल्कुल किताब बनकर रह जाता है,एक तरह की रूल बुक। इसलिये जीवन में थोड़ी बहुत अव्यवस्था होती है तो छोटी-मोटी चुनौतियों को जूझने का सुख मिलता रहता है और कारे-जहाँ दराज़ का काम भी चलता रहता है। इसका आनन्द एक अलग आनन्द होता है,ऐसा आनन्द कि अल्ला ताला से भी कहने का मन हो जाये कि:-
बागे़-बहिश्त से मुझे हुक्मे सफर दिया था क्यों,
कारे जहाँ दराज़ है अब मेरा इंतजार कर।
जीवन का असली आनन्द तभी मानना चाहिये जब मन यह हो कि अल्लाताला से भी कहने का हुलास पैदा हो कि हुजूर,अब मुझे आपकी कायनात में दिल लग गया है,वापस बुलाने की जल्दी मत कीजिये। तो साहबान! सफ़र यह कुछ इसी ढब का रहा है जिसकी शुरुआत एक छोटे से गांव परसदेपुर से हुई।
परसदेपुर उत्तर प्रदेश के जिले फतेहपुर की पश्चिमी सरहदों पर बसा हुआ एक छोटा सा गांव ,जिसे दो तरफ से एक छोटी सी सदानीरा नदी ने घेर रखा है। वह नदी किसी पहाड़ से नहीं निकली थी लेकिन फिर भी सतत प्रवाहमान ही दिखती है,गर्मियों में भी इतना कभी नहीं सूखी कि पानी मँझाए बिना पार उतर जायें। उत्तर की तरफ हावड़ा-दिल्ली रेलवे लाइन का छोटा सा स्टेशन करबिगवाँ,जहाँ भाप से चलने वाले इंजनों के लिये उसी सदानीरा पांडव नदी से पानी भरने का इंतजाम था इसलिये हर मालगाड़ी का इंजन पानी लेने के लिये उस छोटे से स्टेशन पर रुके बिना आगे नहीं बढ़ती। करबिगवाँ स्टेशन से दक्खिन के तमाम गावों के लोग मेरे गांव के अंदर से होकर ट्रेन पकड़ने जाते थे और रास्ता मेरे घर के सामने से होकर जाता था तो आते-जाते लोग मेरे बाबा पंडित देवी दयाल तिवारी को सभी लोग पैंलगी करते थे।”मैं बालक बंहियन को छोटो” उन सारे सम्पर्क-सूत्रों को अपने हितू का दर्जा देकर सम्बन्धों की संपन्नता का एहसास करता गया और गर्व से कहता रहा कि मेरे बराबर संपन्न कौन हो सकता है जिसे इतने गांवो के लोग चाहने वाले हैं।
इन्ही चाहने वालों के बीच मेरा बचपन कटा । पिता श्री यदुनन्दन तिवारी इलाहाबाद में नौकरी करते थे। जब मेरे जन्म की खबर उन्हें मिली तो मारे खुशी के उन्होंने अपनी कमाई के रुपये कमर में समेटे और ऊपर से फेंटा कसा और बैठ गये ट्रेन में । स्टेशन से उतरे तो टिकट न होने के कारण स्टेशन मास्टर के दफ्तर में दाखिल किये गये।उन्होंने टिकट न ले पाने में अपनी मज़बूरी बताई तो किसी को यकीन न हो कि कोई खुशी में टिकट लेना कैसे भूल सकता है। उन्होंने हज़ार मिन्नतें की लेकिन स्टेशन का बाबूवृंद उन्हें छकाने के आनन्द में उतर आया। बोले,’फाइन भरना पड़ेगा। अंग्रेज बहादुर का राज है कोई मजाक नहीं है।’ अब पंडित यदुनन्दन प्रसाद तिवारी को आ गया गुस्सा, उन्होंने पूछा,” बोल कितने रुपये फाइन के हुये?” और अपनी कमर का फेंटा खोला और सारे रुपये खड़-खड़ करके मेज़ पर उड़ेल दिये। चांदी के रुपये चलते थे सो सारी मेज़ रुपयों से पट गयी। बैंक-वैंक तो होता नहीं था इस काम के लिये । जो काम था सब नकद का था। पूरी कमाई मेज पर पड़ी थी। बोले पिताजी,”ले ले जितना तेरा फाइन बनता हो और भर ले अपने अंग्रेज बहादुर का पेट। मजबूरी का फायदा उठाना है तो उठा ले और फिर बता कि अब जाऊँ कि न जाऊँ” इस तरह के यात्री से पाला रेल बाबू का पाला नहीं पड़ा था । रेलबाबू ने अचकचाकर पिता जी से माफी मांगना शुरू कर दिया और एक नयी रिश्ते की डोर बननी शुरू हो गयी। पिताजी ने खुद एक बार जब यह किस्सा सुनाया तो मुझे अपने पिताजी के तेवर उसमें झांकते दिखाई दिये। उन तेवरों का कोई न कोई अंश मेरे वजूद का हिस्सा भी बना जिसके अनेक उदाहरण जीवन में भरे पड़े हैं। एक सीमा तक विनम्रता और फिर सीमा के पार पहुँचते ही बिल्कुल विपरीत अक्खड़पना-इस धजा के कुछ नुकसान होते हैं कुछ फायदे भी। मैंने नुकसान का कोई हिसाब नहीं लगाया और फायदा हुआ तो उसे जीवन का सहज अंग मानकर आगे बढ़ गया।
आगे बढ़ने में सबसे बड़ा सहारा मेरे लिये शिक्षा रही। गांव में प्राइमरी पाठशाला थी सो एक दिन बाबा स्कूल में दाखिले के लिये मेरी पाटी पुजाने ले गये। हेडमास्टर थे पास के औराड़ी खेड़ा के पंडित जी। बोले : जन्मदिन क्या लिखें? अब जन्मदिन किसी को याद हो तो बतावे न! बोले :’यही कोई पांच साल का है।सो हिसाब लगाया गया और पांच साल पहले के साल की उसी तारीख को जिस दिन स्कूल में दाख़िल हुये थे मेरी जन्मतिथि तय हो गयी। उस दिन तारीख थी १ जुलाई और सन्‌ निकला १९३३ सो बन्दे की जन्मतिथि बिना किसी हीले-हवाले के १ जुलाई ,१९३३ मुक़र्रर कर दी गयी जो आज तक मान्य, मुकर्रर और बरकरार है।
चूंकि उसके पहले की दो पीढ़ियों में कोई पढ़-लिख नहीं सका था सो बन्दे के स्कूल जाने को बाबा ने एक उत्सव बना दिया। घर के दोनों और देवस्थान थे। दक्षिण की तरफ काले देव बाबा का चबूतरा जिसमें यदाकदा हवन हुआ करता था,उत्तर की तरफ शिवजी का मंदिर। बीच में मेरा घर। बाबा ने दोनों जगह प्रसाद बँटवाया और मेरा स्कूल जाना ऐसे ‘सेलिब्रेट’हुआ जैसे दाखिला लेते ही डिग्री हासिल हो गयी हो। बाबा और पिताजी दोनों की इच्छा थी कि लड़का खूब पढ़े-लिखे।
पढ़ने-लिखने में मेरी तरफ से कोई कोर-कसर नहीं रही अगर कुछ रही भी तो स्थितियों की रही। चार बहनें थीं,पिताजी मामूली कमाई वाले नौकरी पेशा इंसान थे। बाबा अपनी जगह-जमीन एक कत्ल के मुकदमें से दूर रहने के क्रम में छोड़कर चले आये थे और परसदेपुर में आकर बस गये थे सो आटा हमेशा गीला रहता था। पढ़ाई में जो थोड़ा-बहुत खर्च होता था,उसकी भी गुंजाइश नहीं थी। उसे बन्दे ने वजीफा का इम्तिहान देकर पूरा कर लिया। वजीफा का इम्तिहान दिया तो पछता-पछताकर लेकिन नतीजा निकला तो अपनराम ज़िले में अव्वल आ गये। दो रुपये महीने वज़ीफा।
उस दो रुपये के लालच में मेरा मिडिल स्कूल दाखिला हुआ। उर्दू दीगर ज़बान चलती थी सो मौलवी एक मौलवी की तरह ककहरे के साथ अलिफ़-बे की पढ़ाई भी की। उर्दू मुझे खासी रुचिकर लगती। उसकी नज़्में और ग़ज़लों की लय आकर्षित करती थी। हिन्दी और उर्दू के सम्मिलित बहाव से जो भाषा-प्रवाह बनता है,वह मेरे लिये सहज अभिव्यक्ति का माध्यम बना जिसे मेरे अध्यापकों ने बड़ी खूबसूरती से संवारा।
मुझे अध्यापक भी मिले उम्दा वे पढ़ाने में तो थे ही,अपने चारित्रिक गुणों में ए वन थे। विद्यार्थी को अपनी सन्तान से बढ़कर समझने वाले। एक बार मेरी छूट गयी और मैं घर के हालात में आर्थिक सहारा बनने के लिये मुड़िया (एक भाषा जो मुनीमी के लिये लोग सीखते थे) पढ़ाकर मुनीमी में डाल दिया गया।तीस रुपये महीने में कत्थे की दुकान पर पर्ची काटने का काम। मैं अंग्रेजी पढ़ना चाहता था लेकिन अंग्रेजी तो काफूर हो रही थी। तभी एक दुर्धटना घट गयी। मेरी दो बहनें, जिन्हें मैं अपनी माँ के साथ कानपुर लिये जा रहा था,अचानक रेल के एक इंजन के नीचे आ गयीं और देखते-देखते उन्हें हमेशा खो बैठा।
उस सदमें से उबरने के क्रम में मैं नौकरी से छुट्टी लिये रहा और फिर नर्वल के भाष्करानंद विद्यालय के अपने अध्यापक पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी के सहयोग से मैं फिर नर्वल में जा दाखिल हुआ। उन्होंने मेरी संगीत दक्षता को आधार बनाकर प्रिंसिपल पंडित शिवशंकर लाल शुक्ल से मेरी फीस ही नहीं माफ करायी,मेरी किताबों की भी व्यवस्था स्कूल से ही करायी और मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी हो गया। वहीं मुझे मिले डा.ब्रजलाल वर्मा जो मेरे क्लास टीचर भी थे और हिंदी,उर्दू, अंग्रेजी और फारसी तथा संस्कृत के खासे विद्वान थे। उन्होंने शब्दों की लरजन,उसकी ऊष्माउस सदमें से उबरने के क्रम में मैं नौकरी से छुट्टी लिये रहा और फिर नर्वल के भाष्करानंद विद्यालय के अपने अध्यापक पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी के सहयोग से मैं फिर नर्वल में जा दाखिल हुआ। उन्होंने मेरी संगीत दक्षता को आधार बनाकर प्रिंसिपल पंडित शिवशंकर लाल शुक्ल से मेरी फीस ही नहीं माफ करायी,मेरी किताबों की भी व्यवस्था स्कूल से ही करायी और मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी हो गया। वहीं मुझे मिले डा.ब्रजलाल वर्मा जो मेरे क्लास टीचर भी थे और हिंदी,उर्दू,अंग्रेजी और फारसी तथा संस्कृत के खासे विद्वान थे। उन्होंने शब्दों की लरजन,उसकी ऊष्मा और उसकी संगति की ऐसी पहचान मेरे मन में बिठा दी कि मुझे साहित्य जीवन जीने की कुंजी जैसा लगने लगा। वे हिन्दी की किसी कविता की पंक्ति को समझाने के लिये उर्दू और संस्कृत के काव्यांशों के उदाहरण देते थे और इस तरह साहित्य की बारीकियों पर मेरा ध्यान केंद्रित करते थे। लोकजीवन से संवेदना के तमाम तार झनझना देते थे:-
छापक पेड़ छिउलिया तपत वन गह्‌वर हो,
तेहि तर ठाढ़ी हिरनिया हिरन का बिसूरइ हो।
यह सोहर मैंने पहली बार डाक्टर ब्रजलाल वर्मा के मुख से सुना था और पहली बार उस दर्द को गहराई से महसूस किया था कि एक हिरनी कैसे अपने हिरन को मार दिये जाने पर उसे याद करने के लिये कौशल्या मां से कहती है-” जब उसकी खाल से बनी डपली पर तुम्हारा लाड़ला थाप देता है तो मेरा हिया काँप जाता है,माँ वह डफली मुझे दे दो।मुझे उस आवाज में हिरना की सांस बजती हुई मालूम होती है और मैं बिसूर कर रह जाती हूँ।”
संवेदना की इन गहराइयों में उतरने का अभ्यास मेरे उन्हीं प्रारंभिक अध्यापकों ने कराया था जो शब्द की सिहरन को दिल की धड़कन के इशारों की तरह बारीकी से पढ़ना सिखा देना चाहते थे। डा.ब्रजलाल वर्मा अक्सर गुगुनाया करते थे:-
कोई हमराज तो पायें कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करें।
यही साहित्यिक अभ्यास थे जो जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ का दर्शन और ‘आंसू’ की रोमानियत को समझ सकने का सलीका भी दे सके और यह भी कि साहित्य और कुछ नहीं,जीवन की बारीकियों का बुना हुआ टुपट्टा है जो जिन्दगी को ज़ेवर भी बनाता है और ज़हर भी । यह आप पर निर्भर है कि आप उसे जे़वर बना लें या ज़हर। मैं एक बार नहीं अनेक बार लिख चुका हूँ कि साहित्य मेरे लिये और खास तौर पर कविता,जिंदगी को बेहतर बनाने का ज़रिया है। कविता सुनना,कविता लिखना और पढ़ना मेरे लिये बेहतर मनुष्य बनने का एक ज़रिया है। जब से कविता को समझने की समझ पैदा हुई तब से मैंने कविता को जीकर अपनी जिंदगी संवारी है। भाषा की दीवारें इसमें कभी आड़े नहीं आयीं,खासकर उर्दू और हिन्दी के बीच की दीवारों को मैंने भरसक तोड़ने की कोशिश की है। आज भी जब कुछ लोग प्रेम के अतिरेक में मुझे यह कहते हुये हिन्दी-उर्दू के बीच पुल बनाने का श्रेय देते हैं कि आपके बाद हिन्दी सम्पादकों में कोई ऐसा नहीं दिखता जो दोनों भाषाओं की खूबसूरती को पहचान कर उसकी बारीकियों को उभार सके तो एक धक्का सा लगता है कि क्या सचमुच भविष्य का मंजर इतना वीराना है! लेकिन जब आज के साहित्यिक मित्रों के बीच उर्दू शब्दों की छीछालेदर सुनता हूँ या पत्रकारों में उर्दू के शीन काफ दुरुस्त करने के क्रम में जबलपुर को ज़बलपुर कहते सुन लेता हूँ तो अपनी आत्मप्रशंसा में लगा हुआ धक्का एक तकलीफ में बदल जाता है। भाषाओं के प्रति मेरा उदार भाव ,हो सकता है, थोड़ा -बहुत अव्वहारिकता की हदें छुये लेकिन मेरे लिये सरदार जाफरी ,कैफ़ी आज़मी,कृष्ण बिहारी ‘नूर’,बशीर बद्र, और निदा फाज़ली अथवा अहमद फ़राज़,किश्वर नाहीद और फ़हमीदा रियाज़ उतने ही प्रिय हैं जितने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,कुंवर नारायण, धर्मवीर भारती,जगदीश गुप्त अथवा दिनकर,अज्ञेय और सुमनजी लगते हैं। मैंने अपने अनेक समकालीनों के रचनाखंडों को अपने जीवन का अंग बनाया है और उससे अपने जीवन शैली के सिद्दान्त गढ़े हैं। पंडित रमानाथ अवस्थी की पंक्तियाँ हैं:-
आये गये बड़े-बड़े पंडित औ’ज्ञानी
कह नहीं पाये कोई मिट्टी की कहानी
कोई मिला बस्तियों में कोई बियाबान में
कोई कहीं टूट गया भूख की थकान में
टूटने का दर्द जहाँ समझा न जाये
ऐसी दुनिया को जिस वास्ते संवारूँ!
करने वाला और है किसी को क्यों पुकारूँ
जीवन की नाव किसी घाट क्यों उतारूँ!
मुझे ये पंक्तियां ऐकान्तिक संघर्ष का सबसे बड़ा संबल लगती हैं। एक ऐसी ऊर्जा, जो असहाय सी दिखने वाली अवस्था में भी स्वाभिमान को जागृत रखती है,इन पंक्तियों में प्रवाहित होती रहती है। डा.बशीर बद्र की पंक्तियाँ पढ़ता हूँ:-
मैं तो दरिया हूँ मुझे अपना हुनर मालूम है
मैं जिधर से जाऊँगा वो रास्ता हो जायेगा।
तो ये पंक्तियाँ मुझमें मगरुरी नहीं,गहरा आत्मविश्वास जगाती हैं। अपनी अकिंचनता में भी अपनी अस्मिता को रेखांकित करने का जो हलास बाबू जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर ‘उद्धव शतक’ की एक पंक्ति में दे देते हैं कि:-
जइहै बनि बिगरि न बारिधिता बारिधि की
बूंदता बिलैइहै बूंद बिबस बिचारी की।
उसी को कृष्णबिहारी नूर मेंपढ़ता हूँ:-
मैं एक कतरा हूँ लेकिन मेरा वजूद तो है
हुआ करे जो समन्दर मेरी तलाश में है।
अपने एकान्त को बांटने के लिये मैं कुंवरनारायण जी की कविता पुस्तक ‘इन दिनों’को अपने साथ रखता हूँ और उनके शब्दों के साथ जिंदगी की तमाम धूल झाड़कर तरोताज़ा हो जाता हूँ। डा.धर्मवीर भारती की ‘सपना अभी भी’ में अपने ही नहीं,देश और दुनिया के तमाम अधूरे सपनों के साकार होने का विश्वास जीने लगता हूँ। जीवन की अनेक विषम परिस्थितियों में कविता ने राह दी है। इलाहाबाद के मेरे मित्र कवि बुद्धसेन शर्मा ने लिखा है:-
जिस तट पर प्यास बुझाने में अपमान प्यास का होता हो
उस तट पर प्यास बुझाने से प्यासा मर जाना बेहतर है।
ये पंक्तियां पढ़कर मुझे जीवन में रीढ़ सीधी करके जीने का मंत्र मिल जाता है। कोलकाता के उर्दू शायर मुनव्वर राना की गज़ल का एकशेर मेरी कै़फियत बयान करने के लिये मुझे कई बार काफ़ी लगा है। वे कहते हैं:-
मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहज़ा नर्म भीकर लूँ तो झुंझलाहट नहीं जाती।
काव्य के ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जिनसे मैंने अपना मानस रचा और संवारा है और उस रचाव से जो मेरा शब्द बनकर निकला है उसकी बाकायदा इज्ज़त की है। अपने बोले हुये शब्द के प्रति पूरी आस्था के साथ डटे रहना मेरी कमजो़री भी है और मेरी शक्ति भी। यह अवगुण मेरी पैतृक संपत्ति है और उसकी रक्षा करना मैं अपना परम धर्म मानता हूँ।
हुआ कुछ यूँ कि मेरे पिताजी उन दिनों नौकरी-वौकरी छोड़कर गांव में ही रह थे। रिश्ते के दूर के चाचा राधेश्याम जो साधू हो गये थे,अपने गांव में भंडारा करना चाहता थे। उन्होंने अपनी यह इच्छा पिताजी को बतायी ने इसे मांगलिक ‘सर्वजनहिताय’ काम समझकर उसमें पूरी तरह सम्मिलित रहने का वचन दिया। जब भंडारे का समय आया। तो गांव के चंडाल प्रकृति ब्राह्मणों ने भंडारे का बहिष्कार शुरू कर दिया। बहिष्कार का कारण यह साधू है,हर जगह का भोजन छुआछूत का विचार छोड़कर करते हैं,ऐसे व्यक्ति के भंडारे में सम्मिलित होने से ब्राह्मणत्व की साख को बट्टा लगेग और ‘उच्चता’ लांछित होगी।अजीब तर्क कि साधू अछूत है।
पिताजी पर भी ब्राह्मण मंडली ने दबाव बनाया और चाहा कि वे भी सम्मिलित होने से इंकार कर दे। पिताजी ने कहा कि मैं अपनी ज़बान से राधे को वचन दे चुका हूँ। मुझसे राय लेकर उन्होंने भंडारा किया है,अब कैसे इंकार कर दूँ। ब्राह्मण मंडली अब ज़रा सख्त हो गयी और बोली:” अगर यदुनन्दन तिवारी भंडारे में शामिल होंगे तो हम उनका भी जाति बहिष्कार करेंगे।” पिताजी ने खबर भिजवा दी जवाब में कि जाति बहिष्कार तो अब से ही कर लें क्योंकि मैं भंडारे में सम्मिलित होऊंगा।
वे भंडारे में सम्मिलित हुये और शान से भंडारा हुआ। मैं आयु में छोटा था लेकिन पिताजी का वचन देकर उस पर टिकने का तेवर मेरे लिये प्रेरक मंत्र बना और जीवन भर बना रहा। लांछन सहकर भी अपने शब्द को जीना मैं अपने चंद बुनियादी सिद्धांतो में मानता हूँ और लांछन मैंने जीवन में कम नहीं सहे।
सबसे बड़ा लांछन तो यह कि मैं’पूँजीपतियों का पिट्ठू’रहा।मेरा ‘दुर्भाग्य’ कि मैंने बम्बई विश्वविद्यालय की प्राध्यापिकी छोड़ने के बाद पूंजीपति संस्थानों में ही नौकरी पायी। सौभाग्य यह कि मुझे कोई प्रार्थनापत्र देने कहीं नहीं जाना पड़ा। जिस नौकरी के लिये प्रार्थनापत्र देते घूम रहा था वह थी किसी इंटरमीडियट कालेज में ड्राइंग मास्टर की नौकरी। जिन दिनों मैं इंटरमीडियट कर रहा था तभी मेरे अग्रज और आत्मीय, जो बाद में मेरे सगे संबंधी बने ,श्री रामावतार चेतन ,उनकी प्रेरणा से मैंने सर जे.जे.स्कूल आफ आर्टस बम्बई की इंटरमीडियट ग्रेड ड्राइंग की परीक्षा पास की। उसका उत्तर भारत में केन्द्र था ग्वालियर में जहां मैंने पहली बार ग्वालियर का राजमहल भी देखा। परीक्षा देने गया तो ग्वालियर का किला और फिर महल देखने की इच्छा हुई । महल में गया तो सब लोग जिधर जा रहे थे उधर से अलग वह खंड भी देखने की इच्छा हुई जिधर कोई नहीं जा रहा था। जब मैं उधर जा रहा था तो किसी अन्य दर्शक ने रोका कि उधर नहीं जाने देंगे,उधर शाही निवास है।
मैंने कहा: “जब कोई रोकेगा तो देखा जायेगा,लौट आऊंगा। जाने नहीं देगा तो आने तो देगा।”
और मैं अंदर तक अटपटे अंदाज़ में महल को देखता हुआ अन्दर तक चला गया। काफी दूर अंदर जाकर एक पहरेदार ने झिड़का:”ए कहाँ जाता है तुम? ”
मैंने कहा:”मैं महल देख रहा हूँ बाहर से आया हूँ।”
उसने कहा:” बाहर से आया है तो अंदर कहां जा रहा है? बाहर जाओ।”
मैंने उसी बे डर टोन में कहा:” तो अकड़ क्यों रहा है,जा रहा हूँ।”
और मैंने बाहर जाने का रास्ता पकड़ा और बाहर आ गया। लेकिन इसी क्रम में आधे से ज्यादा महल का अंतर टटोल आया।
उसका परीक्षाफल आया तो मैं पास हो गया था। उस समय यू.पी.बोर्ड में सर जे.जे.स्कूल आफ आर्टस से ‘पास’ को इंटर कालेज में ड्राइंग पढ़ाने का हकदार माना जाता था। अपनराम ने उसका फायदा उठाना चाहा और बी.ए. करते -करते थोड़ी आमदनी का ज़रिया बना लेना चाहा। नौकरी मिली लेकिन गंगा पार उन्नाव जिले के गांव रुझेई में। वहां कुछ संयोग ऐसा बना कि इंटरव्यू पहले हो लिया और उसमें प्रिंसिपल साहब की रुचि दिखी तो उन्होंने कहा कि आप प्रार्थना पत्र दे दीजिये। मैंने सुबह वहीं उठकर प्रार्थनापत्र लिख दिया।लिखा अंग्रेजी में और पहुंचवा दिया। जो परिचित प्रार्थनापत्र देने गये थे उनसे प्रिंसिपल साहब ने पूछा कि यह प्रार्थनापत्र किसने लिखा है। चूंकि उन्होंने खुद देखा था मुझे लिखते हुये ,सो बोले लिखा तो उन्होंने ही है,लेकिन नींद में से जागे थे इसलिये हो सकता है कुछ चूक हो गयी हो।
मेरे परिचित सज्जन तो जैस आसमान से जमीन में आ गिरे।प्रिंसिपल साहब ने कहा:”चूक नहीं बहुत अच्छी अंग्रेजी लिखा है।”वे लौटे गदगद भाव से -नौकरी की स्वीकृति साथ लेकर।
मैंने वह नौकरी साल भर की और फिर एम.ए. करने इलाहाबाद चला गया। इलाहाबाद गया तो यह पता नहीं था कि रहूंगा कहां,फीस कैसे भरूंगा और खाऊंगा क्या? लेकिन अपन ने एक कहावत सुन रखी थी कि जिसने मुंह चीरा है ,वह खाने को भी कुछ न कुछ कहीं से लेआयेगा। यह अजब किस्म का विश्वास लेकर मैं इलाहाबाद गया और वहाँ प्रकाशकों के भरोसे शान से दो साल गुज़ारे। सुबह यूनिवर्सिटी जाता था,दोपहर को प्रकाशकों के चक्कर लगाता था,पुस्तकों के कवर डिजा़इन करने का काम ढूंढता था और रात में उसे पूरा करके सुबह देर तक सोता था। इतनी देर तक कि कई बार नाश्ता किये बिना ही क्लास में जाने की मज़बूरी होती थी। वह सुबह देर तक सोने की आदत आज तक नहीं छूटी ।
अगली नौकरी जाकर लगी महाराष्ट्र में। चेतनजी उन दिनों बम्बई में रह रहे थे। उन्होंने वहाँ एल्फिंसटन कालेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डा.इंदु प्रकाश पांडेय की सलाह से मुझे सरकारी कालेजों में आवेदन भेजने को कहा।मैंने बेमन से आवेदनपत्र भेजा क्योंकि पूना में शिक्षा विभाग के निदेशक के नाम भेजना था एक प्रार्थनापत्र। भेज दिया और भेजकर निश्चिंत हो गया कि होना जाना तो कुछ है नहीं। सो हिंदी भवन,इलाहाबाद की पुस्तकों की प्रचार-मुहिम हाथ में लेकर पश्चिमी यू.पी. के कालेजों में भटकता रहा। जब लौटकर इलाहाबाद आया तो देखा कि इंटरव्यू – लेटर आया है। और ‘कल’पूना में इंटरव्यू है। कल…यानी कि तत्काल गाड़ी पकडूँ तो भी कल तक बम्बई ही पहुंचूंगा,फिर वहाँ से पूना जाना… मतलब कि नौकरी की उम्मीद गयी।
उम्मीद गयी थी ,मगर गाडी़ मेरी नहीं गयी थी। मैंने फौरन टिकट के पैसों का इंतज़ाम किया और हावड़ा मेल पकड़ बम्बई के लिये रवाना हो गया। इंटरव्यू के दिन बम्बई पहुंचा,उससे अगले दिन पूना भी गया लेकिन चिड़िया खेत चुग गयीं थीं।
मैं निदेशक महोदय से मिलने की जिद में दिन भर पूना में रहा,उनसे कुछ कहता उसके पहले ही उन्होंने बता दिया कि वे अज्ञेयजी के भाई हैं,अब जरूर कुछ नहीं कर सकते लेकिन शाम का खाना खिलाने अपने घर ले गये।
खैर अगले साल मैंने फिर प्रार्थनापत्र दिया और एक साल किसी तरह फुटकर काम करके बम्बई में गुजार दिया। नौकरी मिली और शानदार मिली। मुझे मेरे मन की नियुक्ति दी गयी । जिस कालेज में मुझे प्राध्यापिकी मिली उसमें प्रिंसिपल थे मराठी के मशहूर कवि पु.शि.रेगे जो मराठी में मर्ढेकर के बाद कविता के पुरोधा माने जाते थे।दो साल मैंने उनके साथ काम किया। उन्हीं के साथ काम करते हुये मेरी शादी हुयी। उन्होंने शादी के बाद खाने पर आमन्त्रित किया और जो भेंट दी वह अपने आप में अद्भुत थी। उन्होंने अपने बगीचे से रातरानी ,एक्जोरा और पारिजात के पौधे दिये। वही मेरे लिये शादी की सौगात थी। वैसी सुगन्धभरी सौगा़त जीवन में दोबारा किसी ने नहीं दी। रातरानी और पारिजात की सुगन्ध से मैं आज भी अविभूत हो उठता हूँ।
एक दिन रेगे साहब ने बड़ी गंभीरतापूर्वक मुझे राय दी कि मैं सरकारी कालेजों के बजाय यूनिवर्सिटी के स्थानीय कालेजों में शिफ्ट हो जाऊँ। कारण यह कि मैं गैर मराठी अध्यापक मराठा राजनीति में पिसकर पूरे प्रदेश में ट्रांसफर भोगता रहूंगा,मेरा लिखना पढ़ना सब स्वाहा हो जायेगा। और इस तरह मैं शींव के एस आई ई एस कालेज में हिंदी विभाग में आ गया। वहां मेरे प्रिंसिपल थे प्रोफेसर ए.बी.शाह और वाइस प्रिंसिपल थे प्रोफेसर राम जोशी जो बाद में बंबई विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बने। साल भर मैं विले पार्ले के मीठीबाई कालेज में हिंदी विभागाध्यक्ष बनकर चला गया और उसी के छह महीने बाद डा.धर्मवीर भारती ने मुझे ‘धर्मयुग’ में बुला लिया।
‘धर्मयुग’ में मेरा साल मुश्किल से बीता कि भारतीजी को मेरा सुकून खलने लगा। उन्हें अपने मातहतों को अग्नि की लपटों में रखने का हुनर हासिल था। संपादकीय संप्रभुता की रक्षा के लिये प्रतिबद्ध टाइम्स का प्रकाशन इसमें भारतीजी का पक्ष लेने को मज़बूर था और इस तरह उन्होंने पंडित विद्यालंकार के जमाने से अपने भरती किये आदमियों तक करीब अठारह आदमी निकाल दिये थै। धर्मयुग में भारती जी की तूती के आगे किसी की पिपिहरी भी नहीं बज सकती थी। धर्मयुग का संपादकीय स्तर सुधारने में भारती जी का योगदान बेजोड़ है लेकिन वहाँ का सौहार्द का माहौल नष्ट करने में उनका योगदान ऐतिहासिक था।अनेक भावी के होनहार बडे़ बेआबरू होकर निकाल फेंके गये।मैं भी भारती जी की अपेक्षाओं के मुताबिक खरा न उतरा और अंत में उनके बम की आखिरी चोट नंबर दो होने के नाते मुझ पर आकर दम लेती थी। मुझे उनके साथ ग्यारह साल काम करना पड़ा। लंबी दास्तान है वह जीवन की,जिसे फिर कभी बयान करूँगा। लेकिन उस दरमियान मुझे अनेक दोस्तमिले जो तब जुड़े तो जीवन भर जुड़े ही रहे। रवीन्द्र कालिया उनमें से एक हैं और मुझे उनसे दोस्ती निर्वहन पर आज भी गर्व होता है। खासकर उनके सामने रखा गया भारती जी का सहायक संपादक बनने का प्रस्ताव और बदले में कालिया द्वारा अपने प्रभाव का उपयोग करके विभाग से मेरे खिलाफ सहयोगियों का एक शिकायती पत् बनवाने का प्रस्ताव सिरे से ठुकरा देना।कालिया का उस प्रस्ताव को ठुकराने के लिये साहस जुटाने के लिये शराब पीकर भारती जी के घर जाना उनकी कथाकृतियों ‘काला रजिस्टर’ और ‘मोनालिसा की मुस्कान’ में दर्ज है।
बहरहाल वह ऐसा इतिहास है जो मेरी पत्रकारिता की पाठशाला भी है और मेरे टाइम्स में जीवित बने रहने का एक अजूबा भी। मगर जैसा मैंने कहा कि मुझे उसी दौरान अनके घने मित्र मिले जो मेरे तूफानी दिनों का लंगर साबित होते रहे। उनमें कुछ तो भारतीजी के ही घने मित्र थे। स्वर्गीय ठाकुर प्रसाद झुनझुनवाला और उनकी विदुषी धर्मपत्नी श्रीमती शीला झुनझुनवाला उनमें मुख्य थे। उस घर में मुझे अपार प्रेम मिला जो आज तक मिलता आ रहा है।आज भी मेरे घर का कोई भी मांगलिक कर्म,पूजा-अनुष्ठान शीला जी की शिरकत के बिना पूरा नहीं होता। प्रसिद्ध संगीतकार सुरिन्दर सिंह सिंह हैं जो मेरे एकान्त के क्षणों के लिये ‘एक अकेला काफी’ है।रवीन्द कालिया मेरे लिये आज भी अनुजवत प्यारे हैं।डा.महीप सिंह आज तक घने विश्वास के हकदार बने हुये हैं। कमलेश्वर जी को अब भी मैं उसी विश्वास और आत्मीयता के साथ अपने नजदीक पाता हूँ जिसे उन्होंने मुझे बम्बई में मुझे दिया था। टाइम्स संस्थान के तत्कालीन महाप्रबन्धक डा.राम तरनेजा के प्रबन्ध कौशल और प्रशासनिक दक्षता ने एक दिन मुझे संपादक बनाकर दिल्ली भेज दिया और मैं बिना किसी सूचना के संपादक बनाकर भेज दिया गया। सुनने में बात अविश्वसनीय लगती है लेकिन सच है कि मुझे मेरी पदोन्नति की भनक तक न दी गयी और एक झटके में बम्बई छोड़कर दिल्ली जाने का मार्चिंग आर्डर दे दिया गया।
दिल्ली में मेरे जीवन का बन्द ढक्कन जो खुला तो फिर पलटकर देखने के दिन नहीं आये। मेरे संपर्कों का दायरा एकदम विस्तार पा गया। राजनीति,साहित्य, पत्रकारिता ,समाजसेवा,शिक्षा,मीडिया…बहरहाल हर कहीं अपनी झंडी का रंग दिखाई देता था। और यही मेरे लिये ईष्या और लांझनों का कारण बनता गया। लेकिन विश्वास मानिये ,बन्दे ने अपने अन्दर झांकने अलावा किसी भकुये का कथन कान नहीं दिया। मैं ‘पराग’ से ‘सारिका’ से ‘दिनमान’और ‘दिनमान’ से’नवभारत टाइम्स’ तक का सफर तय करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि मुझे जिनका आशीष मिलता तो मैं मालामाल अनुभव करता ,वे इतने कमज़र्फ थे कि उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ मेरा कद छोटा करने में ही सर्फ़ किये। दुष्यन्त कुमार की पंक्तियाँ रह-रहकर याद आया करती थीं।’एक कण्ठ विषपायी’ में शंकर सती का शव ढोते-ढोते आखिर कह उठते हैं:-
आदर्शों का परिधान ओढ़
मैंने क्या पाया जीवन में? प्रेयसि वियोग!
हर परम्परा के ढोने का श्रेय मुझे मिला
हर सूत्रपात का श्रेय ले गये ‘और लोग’।
मैं ऊब चुका हूँ इस महिमामंडित छल से
अब मुझको अपना जीवन सत्य पकड़ना है
जिन आदर्शों ने मुझे छला है कई बार
उन आदर्शों से मुझको लड़ना है।
मेरी यह लड़ाई मेरे उन्हीं अपनों से रही जो मुझे परोक्ष रूप से लांक्षित करके मेरे लिये खाई खोदते रहे और सामने मुझसे मेरे सम्पर्कों का लाभ लेने का बानक बनाते रहे।
इस सबके बावजूद मेरे आत्मीयों की परिधि छोटी नहीं थी जिनमें जोड़ने का सूत्र केवल ‘मनुष्यता’थी। देखने काबिल दृश्य था जब मेरी बड़ी बेटी का तिलक जाने वालों में श्री रमेश चंद्र जैन थे, पंडित रमानाथ अवस्थी थे,सरदार सुरिन्दर सिंह और डा.महीप सिंह थे,डाक्टर कैलाश बाजपेयी थे,मैं उस जमात में सबसे पीछे था। आज भी जब मेरे दोनो दामाद मेरे मित्रों-अग्रजों के पैर को हाथ लगाकर आशीर्वाद लेते हैं तो मैं फूला नहीं समाता कि जात-पाँत और धर्म की जिन बेमानी दीवारों को मैंने अपने जीवन में कोई स्थान नहीं दिया,उन्हें मेरे दोनों बेटों(दामाद) ने भी अपने जीवन में ज्यों का त्यों उतारा।श्री भागवत झा आजाद और पंडित शिवशंकर मिश्र बारात की अगवानी करने वालों में थे। ताराचंद खंडेलवाल अपने घर की एक शादी को भुलाकर सारा इंतजाम देख रहे थे,प्रबन्धकर्ता थे।घरेलू हेतू व्यवहारी के रूप में सुशील अंसल और उनकी सुप्रसिद्ध लेखिक पत्नी कुसुम अंसल थीं,लक्ष्मी निवास झुनझुनवाला,अशोक जैन, डा.लक्ष्मीमल्ल सिंघवी और भौजाई कमला सिंघवी,श्री रामनिवास जाजू जैसे आत्मीय थे जो आज भी वही आत्मीय गौरव देते हैं। अनुज के रूप में आलोक मेहता मिले हुये थे। मेरी पत्नी को सगी बहन से भी ज्यादा मानने वाले कुलदीप तलवार और विजय क्रांति थे।…सम्बन्धों की एक लहलहाती शस्य श्यामला फसल थी जो मुझे दिल्ली में मिली और जिन्हें पाकर मैं धन्यता अनुभव करता हूँ। इन आत्मीयों ने मुझे कभी विपन्न नहीं महसूस होने दिया।
सत्ता का प्यार भी मुझे कम नहीं मिला था। यह मेरा सौभाग्य था कि श्रीमती इंदिरा गांधी के जमाने से लेकर उनके पुत्र राजीव गांधी,श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह,चंद्रशेखर ,पी वी नरसिंहराव,इंदर कुमार गुजराल,अटल बिहारी बाजपेयी तक सभी प्रधानमंत्रियों के सान्निध्य से मैं मंडित रहा लेकिन इस सान्निध्य का अनधिकृत लाभ मेरे हिस्से कभी नहीं आया और न कभी उसके लिये मेरा मन किया कि अपनी रीढ़ झुकाकर कुछ हासिल करूँ। पद्मश्री अलंकरण मिला तो तब जब राजग की सरकार थी जिसका मैं बहुत प्रशंसक नहीं रहा,यहां तक कि कुछ ‘महापुरुषों’ ने प्रधानमंत्री को मेरे विरुद्ध भड़का भी दिया था। नेहरू फेलोशिप मिली जब मैं अखबार का संपादक तो क्या किसी को भी ‘ओबलाइज़’ कर सकने का भ्रम भी नहीं दे सकता था। ‘परिवार’ पुरस्कार तब मिला जब मैं प्रिंट मीडिया से अलग इलेक्ट्रानिक मीडिया में ‘इन चैनेल’ का डायरेक्टर बन गया था। पत्रकारिता का सर सैयद पुरस्कार तब मिला जब मैं वहां से भी मुक्त होकर पुन: दिल्ली आ गया। व्यवस्था को भी आंख मूंद कर मैं कभी नहीं भाया। श्रीमती इंदिरा गांधी के समय श्री श्रीकांत वर्मा के जब लेखक संगठन बनाया तो एक मीटिंग में मुझे बुलाया गया। उसमें मैंने एक तिर्यक बयान दे दिया था तो फिर दोबारा मैं कभी उस मीटिंग के काबिल नहीं समझा गया। राजनीतिक सम्पर्क सूत्र का लाभ इमरजेंसी के वक्त कुछ निर्दोष लोगों के वारंट कटवाने में जरूर किया ,कुछ के तबादले रुकवाये। लेकिन उन्हीं लोगों ने मेरे लिये हलफिया बयान दिये कि वे निजी अनुभवों के आधार कह सकते हैं कि इमरजेंसी के दिनों’व्यवस्था’ से सम्पर्क घनेरे थे। मैंने ऐसे लांझन सुने और सहे । ऐसे ही लांझनों का पत्थर एक दिन उस पूंजीपति संस्थान कि तरफ से भी आया जिसका मैं बड़ा पिट्ठू बताया जाता था।
चूंकि न व्यवस्था का पिट्ठू होना मंजूर रहा और न पूंजीपति का ,सो दोनों ओर से किनाराकशी हुई और मैं टाइम्स संस्थान से निकलकर दूजे पूंजीपति संजय डालमिया के अखबार ‘संडे मेल’ में आ गया और अपनी कीमत पर ही गया। ‘संडे मेल’ हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय रविवासरीय अखबार बना ,यह मेरा सौभाग्य रहा। ‘पराग ‘से लेकर’संडे मेल’ तक मैंने हर क्षेत्र की प्रख्यात हस्तियों से साक्षात्कार किया। संसार भर की सैर की। अपने देश के प्रधानमंत्रियों और विदेशमंत्रियों के साथ घूमा, विदेशी सरकारों के आमंत्रण पर बाहर गया, मौका पाकर हर विभूति से बातचीत की,फिदेल कास्त्रो से क्यूबा में मिले तो मार्गरेट थैचर से नयी दिल्ली के प्रगति मैदान में। अपने देश के हर प्रधानमंत्री के साथ लम्बे-लम्बे साक्षात्कार किये,दुनिया देखी और अपने पाठकों को दिखाई। आज भी इस शौक से उबर नहीं पाया । अपनी कमाई का अधिकांश हवाई जहाज के किराये में दिया और पर्यटन और भ्रमण का सुख उठाया।
…और जब संडे मेल बंद हुआ तो एक बार फिर किंकर्तव्यविमूढ़ होने की स्थिति में पहुंचता कि उसके पहले ही दुनिया के सबसे धनी माने जाने वाले लोगों में से हिन्दुजा समूह के चैनेल में मीडिया डायरेक्टर बनकर चला गया। ईर्ष्या की स्याही के धब्बे अभी मेरे दामन में पड़ने बंद नहीं हुये ,कम भले हो गये हैं। कुछ तो इसलिये भी कम हो गये हैं कि स्याही फेंकने वाले भी मान बैठे हैं कि यह तो लाइलाज़ मरीज़ है,अपनी मौत मरने दो। लेकिन मरीज़ अपनी चाहत के दियों के साथ ज्यों का त्यों जिंदा है:-
अभी रोशन हैं चाहत के दिये सपनों की आंखों में
बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं।
ये पागल हवायें अब सेहत की जानिब से भी हमला करने लगीं हैं। पता यों चला कि एक दिन ब्लड प्रेसर नाप लिया गया। पता चला कि जिस रक्तचाप का आदी धर्मयुग के ज़माने से हो गया था,उसने दिल को तो बचा लिया लेकिन किडनी पर हमला कर बैठा। करीब करीब अठहत्तर प्रतिशत गुर्दे ढेर हो चुके थे। मैंने हिन्दुजा अस्पताल के फ़िजीशियन डा.एफ.डी.दस्तूर की मदद से वहां के गुर्दा विभाग के हेड डा. भरत शाह सीधा सवाल किया कि डाक्टर साहब,अगर इसी रफ्तार से मैं चलता रहा तो मुझे कितना सुरक्षित वक्त आप दे सकेंगे ? उन्होंने डाक्टर के नाते सवाल का जवाब देना गैर वाजिब माना लेकिन इसरार करने पर दोस्त के नाते बता दिया कि अठारह महीने के बाद जिंदगी को डावांडोल मानना चाहिये। डाक्टर दस्तूर अठारह महीने की बात सुनकर घबरा गये।मैं उनकी घबराहट देखकर घबरा गया। मैंने डाक्टर दस्तूर से कहा कि डाक्टर साहब,एक नियम होता है ऐकिक नियम,जिसमें हिसाब लगाया जाता है एक इकाई के आधार पर। सो आप हिसाब लगाइये कि एक आदमी की दोनों किडनियाँ अठहत्तर प्रतिशत खराब होने में सत्तर साल लगे तो बाकी बाइस प्रतिशत खराब होने में उसे कितने साल लगेंगे?
सवाल सुनना था कि डाक्टर भरत शाह सहित हम सब ठहाका लगाकर हँस पड़े।डा.शाह बोले : “डाक्टर नंदन ,आई अप्रीशियेट योर सेंस आफ ह्यूमर ऐंड विल पावर,कीप इस अप।”
अब मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि उनके दिये अठारह महीने कई बार गुज़र कर चले गये और हम हैं कि अभी चले ही जा रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली के डाक्टरों ने एक आपरेशन जरूरी माना तो मैंने उनके हुजूर में अपने को दाखिल कर दिया। सर्जन साहब तीन घंटे लगे रहे,एक धमनी काटकर किसी शिरा में जोड़ी जानी थी। शिरा ने जुड़ने से साफ इंकार कर दिया,आपरेशन फेल घोषित हो गया। सर्जन साहब अफसोस में। मैंने कहा : डाक्टर ,मस्त हो जाओ, अपन को अभी जल्दी कुछ नहीं होने का।
मेरे अजदाद ने रौंदे हैं समन्दर सारे ,
मुझसे तूफान में लंगर फेंका नहीं जाता।
कन्हैयालाल नंदन
(मासिक पत्रिका संचेतना से साभार)

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