Thursday, December 28, 2023

पांडिचेरी में चहलकदमी



पांडिचेरी में रहने का ठिकाने का जुगाड़ हो गया तो तसल्ली हुई । समुद्र की तरफ वाले कमरे के यहाँ एक हजार रुपये अतिरिक्त लगे थे। हमें लगा कि जो लोग समुद्र के किनारे रहते हैं वो साल भर में तीन लाख पैसठ हजार तो बचा ही लेते हैं।
इसी तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि समुद्र तट के किनारे बसे लोग दूर बसे लोगों के मुक़ाबले अमीर होते हैं।
अपने रहने के इंतजाम के बाद ड्राइवर के लिए जुगाड़ किया गया। होटल में कोई इंतजाम नहीं था। पास ही गाडी रखने और रुकने का इंतजाम बताया ड्राइवर ने। अगले दिन मिलने की कहकर चला गया ड्राइवर।
बालकनी से समुद्र साफ़, एक दम नजदीक दिखता था। लोग किनारे की बेंचो, पत्थरों पर बैठे समुद्र की लहरों को उठते-गिरते , किनारे तक आते , किनारे से टकरा कर लौट जाते देख रहे थे। हमने भी देखा। हमको लगा समुद्र की लहरें उत्साह और उमंग से किनारे की तरफ आती हैं । ऐसे लगता है मानों लहरें किनारे से गहन आलिंगन के लिए व्याकुल होकर भागती चली आ रहीं हैं। लौटते समय वह उत्साह नहीं दिखा लहरों में। ऐसे लौटती दिखीं मानो बेमन से वापस जा रही हों। मिलन और विछोह का अंतर दिखा लहरों के आने -जाने में।
कुछ देर आराम करने के बाद खाना खाने निकले। पास ही स्थित उडुपी होटल बंद हो चुका था। थोड़ा और आगे एक रेस्टोरेंट , जिसका नाम होटल वाली बालिका ने बताया था, खुला था। पहली मंजिल पर मौजूद भोजनालय में लंचार्थियो की भीड़ थी । एक किनारे की मेज पर जगह मिली। बैठकर आर्डर दिया। बालक मोबाइल में आर्डर नोट करके चला गया। जबतक वह वापिस आया , हम अगल-बगल के और सामने मनचले समुद्र के नज़ारे देखते रहे।
आसपास अधिकतर लोग अपने मोबाइल में डूबते-तैरते-उतराते दिखे। बगल वाली टेबल वालों के साथ छोटे बच्चे थे। उन्होंने आते ही मोबाइल में वीडियो लगाकर बच्चे को थमा दिया। बच्चे मोबाइल में और वो लोग अपने में मशगूल हो गए। आने-वाले समय में मोबाइल दादी-नानी की भूमिका निभायेंगे।
खाना खाकर होटल लौटे। कुछ देर आराम फर्माने के बाद घुमने निकले। अधिकतर घूमने की जगहें, जिनका जिक्र इधर-उधर दिखा, आसपास ही , एक-दो किलोमीटर के दायरे में थीं। पैदल ही निकले। समुद्र की लहरों और आते-जाते लोगों को देखते हुए।
सड़कें लोगों, गाडियों और सड़क किनारे ठेलियों से भरी-पूरी थीं। दोनों किनारे गाड़ियों , सामान के ठेलों की लाइन। दूर-दूर तक ऐसा कोई हिस्सा नहीं दिखा सड़क का जिसके दोनों किनारों पर गाड़ियां , ठेले न खड़ी हों। सड़क के बीच में थोड़ी जगह गाड़ियों और लोगों के आने-जाने के लिए भी छोडी गयी थी। इतनी भीड़ के बावजूद कहीं कोई अफरा-तफरी, हल्ला-गुल्ला या हडबडी नहीं दिखी। लगता है सब यहाँ शान्ति के साथ ही आये हैं।
सबसे पहले अरविन्द आश्रम देखने की बात तय हुई। रास्ते में मिलने वाले भारती पार्क , म्यूजियम, रोम्या रैला लाइब्रेरी, आर्ट गैलरी से कहते गए –‘आते अभी लौटकर, कहीं जाना नहीं, इन्तजार करना।‘
अरविन्द आश्रम में अन्दर जाने के पहले जूते-चप्पल बाहर ही उतारने थे। आश्रम के सामने फुटपाथ पर मुफ्त जूते-चप्पल रखने की व्यवस्था थी। एक बुजुर्ग महिला निर्लिप्त जिम्मेदारी वाले भाव से लोगों के जूते रैक में रखकर टोकन देती । लौटने पर टोकन के हिसाब से जूते-चप्पल वापस लौटा देती।
कहीं कोई साम्य नहीं लेकिन वहां जूते-चप्पल रखने की व्यवस्था देखकर मुझे शरीर-आत्मा-यमदूत के सुने किस्से याद आये। क्या पता यमदूत इसी शरीर को आत्मा से अलग करते हुए आत्मा को एक टोकन थमाते हों। अगले जन्म में आत्मा अपने टोकन के हिसाब से शरीर धारण करके नया जीवन शुरु करती हो।
अन्दर आश्रम में फोटो लेना मना था। घुसते समय सबके मोबाइल बंद करा दिए गए। अन्दर लोग अरविंद जी और माँ मीरा की समाधि पास शान्ति से बैठे थे। समाधि पर ताजे फूल सजे हुए थे। कुछ देर वहां बैठने के बाद हम लोग बाहर आ गए।
बाहर आकर हमने अपने जूते -चप्पल वापस लिए और लौट लिए। रास्ते में अरविंदो आश्रम पोस्ट आफिस दिखा । पोस्ट ऑफिस के बाहर सूचना लिखी थी -'यह डाकघर महिला डाक कर्मचारियों द्वारा संचालित है।'
शाम होने के कारण डाकघर बंद हो चुका था। बाहर एक लड़की मोबाइल पर कुछ देख रही थी। वहीं चौराहे के नुक्कड़ पर एक महिला नारियल पानी बेंच रही थी। मन किया नारियल पानी पिया जाए। लेकिन फिर बिना पिये आगे बढ़ गए।
आगे म्यूजियम , लाइब्रेरी और आर्ट गैलरी देखी। म्यूजियम में मूर्तियाँ , सिक्के, कलाकृतियाँ , फर्नीचर, पुराने जमाने के वाहन और तमाम चीजें रखीं थीं। बाहर रखी मूर्तियों के साथ लोग फोटो खिंचा रहे थे। म्यूजियम का टिकट दस रुपये था।
म्यूजियम से बाहर बगल आर्ट गैलरी में कुछ पेंटिंग्स लगी थी। पेंटर के फोटो बाहर लगे थे। अंदर घुसकर पेंटिंग्स देखते हुए एक का फोटो भी ले लिए। गेट पर बैठे आदमी ने टोंका -'डोंट टेक फोटो।' हम थम गये। पेंटिंग्स बिक्री के लिए भी उपलब्ध थीं। हमने दाम नहीं पूछे। देखकर ही लौट आये।
बगल की रोम्यां रैला लाइब्रेरी में लोग लम्बी मेज के दोनों तरफ बैठे अखबार पढ़ रहे थे। ज्यादातर अखबार तमिल के थे। हमने वहां बैठकर फोटो खिंचाया।हमको फोटो खिंचाते देखकर सामने वाले ने हमारी तरफ अंग्रेजी का अखबार सरका दिया। उसको पता लग गया होगा कि अपन तमिल नहीं जानते।
किताबों की तरफ वाले सेक्शन ने नीचे तमिल की ही किताबें थीं। ऊपर गए तो अंग्रेजी और हिंदी के अलावा और भाषाओं की किताबें भी दिखीं। हिंदी की ढेर सारी किताबें थीं। एक किताब नामवर सिंह जी से बातचीत की थी। किताब पलटते हुए जो पन्ना खुला उसमें एक जबाब में नामवर जी ने बताया था कि उनके गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी जी मुक्तिबोध जी की कविता को पसंद नहीं करते थे। उस समय तय किया था कि यह किताब मंगवाएँगे।
लाइब्रेरी से वापस आते हुए वहां मौजूद लोगों से पूछा-'लाइब्रेरी कितनी पुरानी है।' सबने एक दूसरे की तरफ देखा। इधर-उधर देखते हुए एक ने दराज से एक किताबिया निकालकर हमको थमा दी। मतलब इसमें लिखा है लाइब्रेरी के बारे में। पढ़ लो।
पढ़ने पर पता चला कि पांडिचेरी में, जहां करीब तीन शताब्दियों तक फ्रांसीसियों का शासन रहा, लाइब्रेरी मूवमेंट की शुरुआत 1827 में हुई। पब्लिक लाइब्रेरी होने के बावजूद शुरुआत में इसमें केवल यूरोपीय लोगों को आने की अनुमति थी। सन 1850 में यहां किताबों की संख्या 6500 थी। आज की तारीख में करीब 334865 किताबें हैं। करीब 35000 लोग लाइब्रेरी के सदस्य हैं। साल भर में करीब 2 लाख किताबें पढ़ने के लिए इशू की जाती हैं। औसतन करीब एक हजार लोग लाइब्रेरी की सुविधा का उपयोग करते हैं।
1966 में रोम्यां रैला जी की जन्मशताब्दी के मौके पर लाइब्रेरी का नामकरण उनके नाम पर किया गया।
लाइब्रेरी से बाहर निकल कर हम वापस लौटे। शाम को सड़क और गुलजार हो गयी थी। समुद्र किनारे लोग चहलकदमी करते हुए टहल रहे थे। तमाम लोग समुद्र की लहरों को देखते हुए फोटोबाजी कर रहे थे।
अपन भी टहलते हुए एक चट्टान पर बैठ गए और समुद्र और जनसमुद्र दर्शन में जुट गए।

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Wednesday, December 27, 2023

पांडिचेरी की ओर



पिछले दिनों महाबलिपुरम और पांडिचेरी जाना हुआ। पांडिचेरी इसके पहले चालीस साल पहले आये थे। इलाहाबाद से कन्याकुमारी तक साइकिल यात्रा के दौरान अगस्त , 1983 के दूसरे हफ्ते । एक दिन रुके थे। अरविंद आश्रम और समुद्र तट की बहुत धुंधली यादें थीं पिछली यात्रा की।
पिछली बार पांडिचेरी से चेन्नई की तरफ आये थे। इस बार महाबलिपुरम से पांडिचेरी जाना हुआ। पांडिचेरी को पुदुचेरी और कहीं-कहीं पोंडी भी लिखा देखा।
पांडिचेरी में रुकने के लिए होटल बुक नहीं कराया था। सोचा वहीं देखेंगे। चलने के एक दिन पहले आनलाइन बुकिंग की बात सोची तो लोगों ने बताया कि वहां सब होटल भरे हैं। कहीं कोई जगह नहीं है। हमने सोचा कि अब समय आ गया बुकिंग कराने का। यात्राओं में रोमांच लाने का यह भी एक तरीका है कि इंतजाम में देरी की जाए ताकि परेशानी आये और फिर उस परेशानी को हल करने की कोशिश की जाए।
आनलाइन बुकिंग की कोशिश की तो तमाम होटल में जगह दिखी। लगभग हर जगह एक ही कमरा बाकी दिखा रहा था। शायद हमारे लिए ही बचा रखा था। कमरे का किराया हजार-पन्द्रह सौ से लेकर पचीस-तीस हजार तक बताया जा रहा था।
बहरहाल एक कमरा बुक करा लिया । फ्रेंच कालोनी में एक विला था। कमरे के फोटो भी ठीक-ठीक ही दिख रहे थे। बुकिंग के कोई पैसे एडवांस में नहीं देने पड़े थे । सोचा अगर अच्छा नहीं होगा तो दूसरा खोजेंगे होटल।
महाबलीपुरम से पांडिचेरी की दूसरी लगभग 95 किलोमीटर है। कानपुर से लखनऊ की दूरी के बराबर। बढ़िया सड़क। सड़क के दोनों तरफ आबादी, गाँव , खेत । सबको देखते हुए पांडिचेरी की तरफ बढे। सड़क किनारे दीवारों पर इश्तहार। ज्यादातर तमिल में। कहीं-कहीं अंग्रेज़ी भी दिख जाती।
रास्ते में एक जगह चाय पी गयी। काउंटर पर मौजूद महिला तमिल ही जानती थी। लेकिन चाय लेने और पैसे देने में कोई अड़चन नहीं आई। पैसे की भाषा सबकी सबको फ़ौरन समझ में आ जाती है। दस रुपये की एक चाय । भुगतान गूगल पे से किया। आजकल पूरे देश में आनलाइन भुगतान की व्यवस्था हो गयी है।
पांडिचेरी पहुंचकर ठहरने की जगह गए। एक घर को होटल में बदल दिया गया था । अँधेरे कमरे । फ़ोटो में जितना अच्छा दिख रहा था होटल , उतना अच्छा दिखा नहीं। पास में स्थित मछली बाजार से ‘मछली गंध’ की मुफ्त व्यवस्था। मन नहीं हुआ रुकने का। दूसरा होटल खोजने निकले।
जिस भी होटल में पता किया वो भरा मिला। लोगों ने बताया कि महीनो पहले से बुकिंग कराते हैं लोग। कोई होटल खाली नहीं मिलेगा।
आसपास तमाम होटल देखने के बाद भी कहीं जगह नहीं मिली। तय किया कि जो बुक किया था उसी में रुक जाते हैं। रात को सोना ही तो है। एक दिन की बात । वापस चल दिए होटल की तरफ। उसको फोन भी कर दिए। आ रहे हैं रुकने के लिए।
लेकिन होटल की तरफ चलते हुए उसके कमरे के हाल याद आये। रुकने का मन नहीं किया। एक बार यह भी सोचा कि शाम तक घूमकर वापस लौट जायें पांडिचेरी से।
एक बार फिर होटल-होटल पूछते फिर। आनलाइन खोजा। एक होटल दिखा। हमने बुक करके पूछा तो बताया गया आ जाओ। खाली है। होटल वाले ने लोकेशन भी भेज दी। हम चल दिए।
होटल की तरफ चलते हुए उसी नाम का एक और होटल दिखा होटल वाले ने लोकेशन भी भेज दी।
होटल की तरफ जाते हुए उसी नाम का एक और होटल दिखा। हम लपके होटल वाले बताया कि एक कमरा खाली है। दाम एक हजार ज्यादा बताये। हमने पूछा इसी नाम का तुम्हारा और होटल भी है ? तो उसने बताया हाँ है ! हमने कहा आते उसको देखकर । उसने कहा- ठीक।
होटल के रास्ते में हमको यही लगता रहा कि कहीं वहां पहुँचने के पहले कमरा उठ न जाए इसलिए हम उससे बतियाते रहे। होटल पहुंचकर तसल्ली हुई कि कमरा अभी उठा नहीं था। काउंटर पर तीन लड़कियाँ थीं। उनमें से दो बाहर से यहाँ काम करने आईं थी। हर सवाल के जबाब फुर्ती से मुस्कराते हुए ' मुझे पता नहीं' कह रहीं थीं। तीसरी लड़की ने लडके को कमरा दिखाने के लिए भेजते हुए बताया -'सी फेसिंग रूम थाउजेंड एक्स्ट्रा।' कुल किराया 7499 रुपये । मतलब दिल्ली या किसी और शहर के फाइव स्टार होटल के एक कमरे के किराए के बराबर !
आखीर में जिस कमरे में सामान रखा गया समुद्र वहां से कुल जमा बीस-तीस मीटर दूर था। समुद्र की लहरें इठलाते हुए हमारा स्वागत कर रहीं थी।
इस बीच उस होटल से फोन भी आ रहा था जिसकी बुकिंग हमने महाबलीपुरम से कराई थी और जहाँ हम आने के लिए कह आये थे। जब हमने उसको बताया कि हम दूसरी जगह रुक गए हैं तो उसने कहा -'आप आनलाइन बुकिंग कैंसल कर दें।' हमने उसकी आज्ञा का पालन किया और कुछ देर में पांडिचेरी दर्शन के लिए निकल लिए।

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