आज विश्व साइकिल दिवस है। 2018 से ही मनाया जाना शुरू हुआ। यूनाइटेड नेशन की जनरल असेम्बली में तय हुआ कि 3 जून को विश्व साइकिल दिवस मनाया जाएगा। तय हो गया तो मनाया जाने लगा।
किसी के नाम से कोई दिन मनाया जाए तो समझ लीजिये उसका अस्तित्व खतरे में है। या तो उसकी फोटो पर माला चढ़ गई है या फिर मामला सिर्फ यादों तक ही सिमटने वाला है।
साइकिल दिवस मनाया जाना भी इसी खतरे की तरफ इशारा है। दुनिया में साईकिलें कम होने लगी हैं। कम भले हुई हैं फिर भी चल तो बहुत रही हैं। चलती भी रहेंगी इंशाल्ल्लाह। जैसे पेट्रोल, डीजल के दाम तरक्की कर रहे हैं उससे लगता है साइकिल की सवारी भी लोकप्रिय होगी। मजबूरी का नाम साइकिल सवारी होगा।
बचपन में सुदर्शन जी का लेख साइकिल की सवारी पढ़ने तक साइकिल चलाना सीख गए थे। पहले कैंची चलाना सीखे फिर उचक के डंडे पर बैठकर और फिर गद्दी पर। लेकिन साइकिल अपनी नहीं थी। दोस्तों की साइकिल चलाते रहे।
इलाहाबाद में किराये की साइकिल चलाई। शायद 30 पैसे घण्टा। हॉस्टल का कमरा नम्बर लिखवाकर साईकल किराये पर मिल जाती।
इलाहाबाद में पढ़ने के दौरान ही साईकल से भारत यात्रा का प्लान बना। झटके में। बहुत अचानक ही तय कर लिया कि साइकिल यात्रा पर जाना है। तीन दोस्त साथ।
दीवानगी इतनी कि इम्तहान के दौरान साईकल यात्रा की तैयारी भी करते। इम्तहान होते ही निकल लिए। 1 जुलाई , 1983 को। अपनी टीम का नाम रखा हम लोगों ने -'जिज्ञासु यायावर।' नाम के पीछे अज्ञेय जी कविता -'अरे यायावर रहेगा याद' का कितना हाथ था कहना मुश्किल। क्या पता उस समय तक पढ़े ही न हों यह कविता।
बहरहाल हम निकले 1 जुलाई को और तीन महीने में उप्र , बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, पांडिचेरी, तमिलनाडु होते हुए तय समय पर 15 अगस्त को कन्याकुमारी पहुंच गए। लौटते में केरल, कर्नाटक, गोआ, मुंबई, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश होते हुए 2 अक्टूबर को वापस इलाहाबाद पहुंच गए।
रास्ते में दोस्तों के घर, ढाबे, मन्दिर, मस्जिद, धर्मशाला, थाना, स्कूल , पुलिया मतलब जहां भी जगह मिली रुके। वह अनुभव अभी भी उकसाता है फिर कहीं निकल लेने को। लेकिन लड़कपन का मन अब कहां। समझदारी जोखिम लेने से रोकती है।
बाद में बहुत दिन तक साइकिल छूटी रही। जबलपुर में फिर शुरू हुई। पूरा जबलपुर साईकिल से घूमा। खूब चलाई साईकिल। एक दिन में सत्तर किलोमीटर तक। साइकिल से 'नर्मदा परिक्रमा' का विचार भी किया कई बार लेकिन अमल में नहीं ला पाए। जोखिम लेने और आवारगी का जज्बा वो नहीं रहा जो लड़कपन में था।
फिर कानपुर और अब शाहजहांपुर में भी साइकिल चलाना जारी रहा। 'शाहजहांपुर साइकिल क्लब' के साथियों के साथ इतवार को साइकिल चलाना शुरू हुआ। अलग से भी चलाते। एक दिन सिंधौली तक गए। लेकिन फिर कोरोना ने डरा दिया और साइकिल कोरोना को कोसती हुई गैराज में धरी है। देखिए कब चलेगी फिर से।
बहरहाल आज विश्व साइकिल दिवस के मौके पर सभी साइकिल चलाने वालों को
बधाई
। आप भी शुरू करें साइकिल चलाना। मजा आएगा। अच्छा लगेगा।https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222438096394680
दर-असल ऐसे ही मौके हमें बताते है किं मानवता ही सबसे बड़ी है!
2. ये आपके पिताजी के दोस्त से मैं मिल चुका हूं. जळगांव में. मेरा लड़का वहां भर्ती था, अस्पताल में, तब. ये सज्जन कई जगह मिल जाते हैं.
@अरुणजी, सही है। दिल का पता नहीं लगता। दिल तो पागल होता है।
@नीलिमाजी, धन्यवाद!
@संजीतजी, शुक्रिया। कोशिश करें आपका नाम देवनागरी में दिखने लगे।
@ सृजन शिल्पी, धन्यवाद। वापस लौट आये पूना से या वहीं हो? मैंने एक काम बताया था पूना में-पारिवारिक उसके बारे में रिपोर्ट नहीं दी।
@ज्ञानदत्तजी,धन्यवाद। पोस्ट का साइज कम करने का आगे भी प्रयास किया जायेगा। सफल या असफल यह समय बतायेगा। आपने जलगांव वाली घटना अपने ब्लाग में लिखी थी। सच में ऐसे लोग ही देवता के रूप में मौजूद हैं। बाकी तो सब लफ़्फ़ाजी है।
@ हिंदी ब्लागर, सच कहा आपने मानवता के चिराग ऐसे ही लोगों के भरोसे रोशन हैं। हम सभी लोगों में भी इस मानवता के अंश होते हैं। अब यह हम पर है कि हम उनको कितना आगे बढ़ाते हैं।
@ प्रतीक, शुक्रिया। दुनिया के हर देश में ऐसे लोग होते हैं। भारत में भी हैं।
नमस्कार !
आपके पुराने साइकिल यात्रा के बारे मेँ फिर पढने को मन हो आया -
कितना अच्छा कहा उस सज्जन ने ! भारतीय आत्मीयता जग विख्यात है.
उसीका ये सत्य द्रष्टाँत है !
स्नेह सहित
– लावण्या
दर-असल इसके पीछे अपना फोटू दिखाने का सुख हासिल करने की इच्छा है! पहले जब मैं अपना नाम हिंदी में लिखा करता था तो नारद पर फोटू ही नही आती थी , सलाह मिलने पर अंग्रेजी मा लिखना शुरु कर दिया अपना नाम!
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bahut sahee baat !
अरुण गौतम
akgautam@indiatimes.com
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