Monday, April 29, 2024

ओरछा में मंदिर दर्शन



ओरछा में सभी पर्यटन स्थल आसपास ही हैं। एक दिन में पांव फिराते हुए सब देखे जा सकते हैं। वैसे भी लोग घूमते हुए इमारतों को 'मौका मुआयना' वाले अंदाज में देख लेते हैं। जिन इमारतों को बनने में वर्षों लगे उनको मिनटों में निपटा देते हैं।
हम भी कोई अलग थोड़ी हैं। सुबह से शाम होने तक सारे मंदिर, महल और दीगर पर्यटन स्थल निपटा डाले।
सबसे पहले चतुर्भुज मंदिर देखा। मंदिर का निर्माण की शुरुआत बुंदेल राजा मधुकर शाह (1554 -1593 ई) ने अपनी रानी गणेश कुंवरि के आग्रह पर, रानी के आराध्य देव राजा राम की स्थापना के लिए शुरू किया था। पश्चिमी बुंदेलखंड पर मुगल आक्रमण और राजकुमार होरलदेव की मृत्यु के कारण यह पूरा नहीं हो सका। उस समय अकबर मुगलों का बादशाह था। रानी ने राजा राम की प्रतिमा अपने ही महल में स्थापित कर ली। मंदिर का निर्माण दूसरे चरण में महाराज वीरसिंह देव (1605-1627 ई) के शासन काल में हुआ।
मंदिर में भगवान विष्णु का प्रतिमा है। 105 मीटर ऊंचा मंदिर 4.5 मीटर नींव पर बना है। लगभग पांच सौ साल पुराने मंदिर की भव्यता देखकर अचरज और कौतूहल होता है कि कैसे इतने विशाल मंदिर बनाये गए होंगे।
मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए एक परिवार फोटो खिंचाते हुए दिखा। बीच की उम्र की एक महिला अलग-अलग पोज देते हुए फोटो खिंचा रही थी। उसके साथ चल रही लड़की ने मजे लेते हुए कहा -" लगता है मामी अपनी फ़ोटो खिंचाने की सारी हसरतें आज ही पूरी कर लेंगी।"
मामी कुछ बोली नहीं। हंसते हुए फोटो खिंचाती रहीं।
मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति के पास बैठे पुजारी जी ने बताया कि छह पीढ़ियों से उनका परिवार यहाँ के पुजारी का काम देख रहा है। पीछे लगी एक महिला की फ़ोटो दिखाते हुए बताया इन्होंने (शायद पुजारी जी की माँ) ने वर्षों पुजारी का काम किया।
भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने ओरछा का राजमहल है। तकरीबन 200 मीटर की हवाई दूरी होगी। रानी ने प्रतिमा की स्थापना इस तरह कराई थी कि महल के अपने कक्ष से भगवान के दर्शन कर सकें। पूजारी जी इसे रानी के घमंड के रूप में देखते है कि अपने कमरे में बैठे-बैठे कोई भगवान के दर्शन करना चाहे।
बाद में महल में स्थित रानी के कक्ष के झरोखे से देखा तो वहां से मंदिर की प्रतिमा साफ दिख रही थी। पांच सौ वर्ष पहले के साधनों से इतनी उत्कृष्टता से निर्माण कार्य जिन लोगों ने किया होगा वे कितने कुशल कारीगर रहे होंगे। अफसोस उनके बारे में आज कोई जानकारी नहीं।
चतुर्भुज मंदिर से राजाराम मंदिर की तरफ आये। यह मंदिर रानी गणेश कुंवरि के आग्रह पर बनवाया गया। कहानी प्रचलित है कि रानी अपने आराध्य देव भगवान राम को लेने अयोध्या गयी। उनको लाने के लिए वहां तपस्या की। भगवान प्रकट नहीं हुए तो सरयू में कूद गईं। इस पर भगवान राम प्रकट हुए और रानी के साथ ओरछा चलने को राजी हुए लेकिन शर्तो के साथ :
1. रानी उनको अपने साथ ले चलेंगी।
2. वे ओरछा के राजा होंगे।
3. एक बार जहां उनको रख दिया गया वे वहीं स्थापित हो जाएंगे।
रानी ने अपने आराध्य की तीनों शर्ते मान लीं। उनको अयोध्या से ओरछा लाईं। तब तक मंदिर पूरा नहीं बना था तो प्रतिमा को अपने महल में रख लिया कि जब मंदिर बनेगा तो वहां स्थापना होगी। लेकिन बाद में कहते हैं कि मूर्ति इतनी भारी हो गई कि यहां से हटी नहीं। मजबूरन महल को ही मंदिर बनाना पड़ा।
रानी ने अपने आराध्य की दूसरी शर्त के अनुसार भगवान राम को ओरछा का राजा घोषित करवाया होगा। यह राम जी का अकेला मंदिर है जहां वे भगवान और राजा के रुप मे माने जाते हैं। भगवान के रूप में पूजा होती है। राजा के रूप में रोज सलामी जी जाती है।
मंदिर के प्रांगण में तमाम नवदम्पति अपने परिजनों के साथ पूजा करने आये थे। यहां की परंपरा है नए दूल्हे-दुल्हन पूजा करते हैं। थापे लगाते हैं। इसके बाद उनका दाम्पत्य जीवन आरंभ होता होगा। शायद भगवान के राजा स्वरूप के कारण इस प्रथा की शुरुआत हुई हो।
हमारे देखते-देखते एक नवयुगल अपने परिवार के साथ पूजा करने आया वहां। परिवार के लोग डांस भी कर रहे थे। सबसे ज्यादा उत्साह से दुल्हन डांस कर रही थी। सर पर मुकुट और उसके नीचे लम्बा घूंघट। घूंघट के अंदर होने के कारण चेहरा नहीं दिख रहा था दुल्हन का लेकिन उसका उल्लास और उत्साह उसके डांस से प्रकट हो रहा था। साथ में चलता हुआ दूल्हा सकुचाया सा मटकने की कोशिश करते हुए अपनी दुल्हिन को डांस करते हुए देख रहा था ऐसे जैसे अपन अपनी श्रीमती जी को घर-परिवार के कार्यक्रमों में डांस करते हुए देखते रहते हैं।
मंदिर में प्रांगण में भजन मंडली ढोलक की थाप पर अल्हैत वाले अंदाज में भजन गा रही थी। दूल्हा-दुल्हन उसके सामने ही डांस कर रहे थे। वहीं मंदिर परिसर में मौजूद एक बाबाजी भी साथ में ही मटक रहे थे। दूल्हे-दुल्हन के परिजन उनको कुछ भेंट देते जा रहे थे। इन सब को पीछे से देखते हुये भगवान राम अपना आशीष दे रहे होंगे।
मंदिर परिसर में फोटोबाजी मना थी फिर भी नवयुगल और उनके परिवारी जन को डांस करते देखकर और लोगों की देखादेखी कुछ फोटो वीडियो बना लिये। हड़बड़ी और डर में खींचे फोटो और वीडियो भी डर के मारे टेढ़े-मेढ़े हो गए हैं। लेकिन देखने पर अंदाज लग सकता है कि कैसे माहौल रहा होगा उस समय।
मंदिर से निकलकर राजमहल देखने के लिए आगे बढ़े। सामने एक पुरानी इमारत दिखी। उसमें लिखा था -टकसाल भवन। 17 वीं शताब्दी का टकसाल भवन आज बुजुर्ग और जर्जर हाल में है। कभी यहाँ कड़ा पहरा रहता होगा। आज कोई जाता नहीं।
टकसाल भवन के सामने ही तमाम तरह के सामान की भी कुछ दुकानें थी। एक में सामने नीचे तसलों में अलग-अलग आकार की सिलमें रखीं थी। पता चला कि सीकर में बनती हैं ये चिलम। पास बैठे कुछ लोग अलग-अलग अंदाज में चिलमों को टटोलते हुए मोलतोल कर रहे थे।
आगे एक जगह बोर्ड लगा था -"धीमे वाहन चलाओ, जानवरों की जान बचाओ।" हेल्प डाग सेन्टर की तरफ से लगाया गया यह बोर्ड जिस सड़क के बीच लगा था वह इतनी कम चौड़ी थी कि वहां तेज गाड़ी चलाने की गुंजाइश कम ही थी। लेकिन कम से कम इसे पढ़कर ही लोग जानवरों के बारे में कुछ दयालु हो सकें।
आगे सड़क पर दुकानें खुल गईं थीं। धूप तेज हो गयी थी। अपन ओरछा का राजमहल, जहांगीर महल और शीश महल देखने के लिए चल दिये।

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Saturday, April 27, 2024

कानपुर वाले भैया



ओरछा के जिस राजमहल में शादी के कार्यक्रम हुए मुझे लगा वह बहुत पुराना होगा जिसे शादी के लिए किराए पर उठाने लगे होंगे। लेकिन जानकारी ली तो पता हुआ कि तथाकथित राजमहल दस साल पुराना है। मतलब होटल ही समझिए। होटल को राजमहल के रूप में बनवा कर किराए पर उठाया जाता है। लोगों को यहां आकर राजसी एहसास होता होगा। लाख-दस लाख खर्च करके राजा बन जाएं तो क्या बुराई। आजकल तो लोग राजा-महाराजा से बढ़कर अपने को भगवान साबित करने में अरबों-खरबों खर्च करने में लगे हैं।
शादी में भी आजकल दूल्हे जिस तरह सजते हैं उससे दूल्हा कई शताब्दियों की गठबंधन सरकार लगता है। इस पर पहले कभी लिखा था:
" जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।दिग्विजय के लिये निकले बारहवीं सदी के किसी योद्धा की तरह घोड़े पर सवार।कमर में तलवार। किसी मुगलिया राजकुमार की तरह मस्तक पर सुशोभित ताज (मौर)। आंखों के आगे बुरकेनुमा फूलों की लड़ी-जिससे यह पता लगाना मुश्किल कि घोड़े पर सवार शख्स रजिया सुल्तान हैं या वीर शिवाजी ।पैरों में बिच्छू के डंकनुमा नुकीलापन लिये राजपूती जूते। इक्कीसवीं सदी के डिजाइनर सूट के कपड़े की बनी वाजिदअलीशाह नुमा पोशाक। गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव बांगड़ू कोलाज चला आ रहा है।"
विवाह कार्यक्रम के अगले दिन हम फिर ओरछा गए घूमने। ओरछा में सभी दर्शनीय स्थल आसपास ही हैं। दो-तीन किलोमीटर के दायरे में।
सबसे पहले राजाराम मंदिर देखने गए। यह अकेला मंदिर है जिसमे भगवान राम की पूजा राजा के रूप में होती है। मंदिर के रास्ते मे तमाम मिठाई/प्रसाद की दुकानें हैं लाइन से। दुकानों में पेड़े बर्फी धूप, धूल का मुकाबला करते हुए प्रसाद के रूप में बिकने का इंतजार कर रहे थे।
लगभग सभी दुकानों में देखा कि कुछ पेड़े एक के ऊपर एक रखे थे। उसके अलावा तमाम पेड़े खड़े-खड़े लगे थे। चुस्त-सतर्क जवानों की तरह। दुकानों के आगे से गुजरते हुए दुकानदार प्रसाद खरीदने का आग्रह करते लेकिन जबरदस्ती टाइप नहीं कर रहा था कोई। हम आगे बढ़ते गए।
राम मंदिर के पास कई बच्चे-बच्चियां एक डब्बे में चंदन का घोल लिए और दूसरे हाथ में 'राम' की मोहर लिए दिखे। आने-जाने वाले लोगों के माथे, गालों पर राम नाम की मोहर लगा रहे थे। तमाम लोगों के गाल और माथे पर राम नाम की मोहर लगी दिखी।
मंदिर की तरफ बढ़ते हुए एक महिला दिखी। किनारे बैठे एक कटोरा सामने रखे। कटोरे में कुछ सिक्के रखे थे। उसकी आंखे की जगह पलकों का पर्दा सा पड़ा था। आंखों को स्थायी रूप से ढंक दिया गया हो जैसे।
पूछा तो बताया कि :
"जब हम छोटे हते तो माता आई हतीं। उसई में आँखी चली गईं। हमाई अम्मा ने सबहन दिखाओ। कहां-कहां नहीं कोशिश करी। भीख तलक मांगी कि भगवान आँखी ठीक कर देंय। लेकिन नाई ठीक भई। अब तौ बेऊ नाई हैं। कउनउ नाइ है। हीनइँ माँगत खात हैं। जैसी भगवान की इच्छा।"
हमने कुछ पैसे उसकी कटोरी में डाले। तो पूछा उसने -"भैया पैसा दए?"
हमने हमारे हां कहने पर पूछा -"कितै ते आये भैया?"
हमने बताया कानपुर से आये हैं तो उसने कहा -"खूब भला करे भगवान तुम्हारा।"
थोड़ी देर और बात करने पर मुन्नी ने कहा -"कानपुर वाले भैया, नेक गन्ना का रस पिवाय देते। पूड़ी लाय देते।"
कानपुर वाले भैया वापस लौटकर गन्ने का रस लेने गए। रस दस रुपये और बीस रुपये के ग्लास मिल रहे थे। हमने सोचा दस रुपये वाला ले लें। लेकिन आर्डर करने तक परसाई जी का लेख -'सड़ी सुपाड़ी की संस्कृति याद आ गया।' इस लेख में परसाई जी ने उन लोगों की लानत-मलानत की है जो पूजा, दान आदि में दोयम दर्जे की चीजें चढ़ाते हैं।
परसाई जी से डर के हमने बड़े वाले ग्लास में गन्ने का रस लिया और वापस आये। मुन्नी को दिया तो बोली -"कानपुर वाले भैया हौ आप न?"
हमने कही -"हौ।"
गन्ने के रस का ग्लास पकड़कर मुन्नी ने फिर पूड़ी खाने की इच्छा जताई। तो हमने कहा अभी आते। इसके बाद हम इधर उधर टहलने लगे।
मंदिर के सामने कड़ी धूप थी। दो बच्चियां कड़ी धूप में एक दुपट्टे को साझे रूप में सर के ऊपर ओढ़े हुए मंदिर के सामने खड़ी थीं। दुपट्टे से उनके ऊपर पड़ने वाली धूप से कोई बचाव नहीं हो पा रहा था। दुपट्टा उन बच्चियों के धूप से बचाव से ज्यादा उनका आपस में पक्की सहेलियों, गुइयाँपने के उद्घोष की तरह लग रहा था।
बच्चियों से बातचीत करने के लालच में और पूछकर फोटो लेने की मंशा से मैने उनसे कहा -"बहुत अच्छी लग रही तो बिटिया लोग।"
हमारी बात सुनकर एक बच्ची तमतमा के बोली -"अच्छे लग रहे हैं तो तुम्हे का करने?"
हम चुपचाप आगे बढ़ गए। सामने एक दुकान में पूड़ी बिक रही थी। सामने तिवारी की कुटिया के नाम की दुकान थी। दुकान में खाने-पीने का सामान बिक रहा था। कुछ लोग बैठकर खा रहे थे।
तिवारी जी की दुकान से चार पूड़ी ली। तिवारी जी अपनी गद्दी पर बैठे अपनी दाईं कलाई एक कपड़े की थैली में डाले पैसे का लेन-देन करते जा रहे थे। लेन-देन के साथ-साथ दायां हाथ भी इधर-उधर हो रहा था।
हमने कहा -"काम के साथ माला भी जपी जा रही है। कमाई और पूजा साथ-साथ।"
तिवारी जी मुस्कराते हुए बोले -"कोशिश है। यह भी एक धोखा है तो अपने को दे रहे हैं। दिखावा है, कर रहे हैं। लेकिन मुक्ति का इंतजाम करने का प्रयास चल रहा है।"
मुक्ति का प्रयास के बारे में बताया कि बेटा अभी 13 साल का है। बड़ा हो जाएगा तो उसको दुकान सौंपकर फिर भगवद्भजन करेंगे बिना नाटक और दिखावे के। कुछ और दुनिया-जहान की बाते करते हुए हम वापस लौटे।
पूड़ी दी मुन्नी को तो वो फिर बोली -"कानपुर वाले भैया हौ?" पूड़ी लेकर पूछा -"अचार नाई लाए? आचार ला देते तो पूड़ी खा लेते उसई के संग।"
पलट के तिवारी जी की दुकान से अचार लाये। मुन्नी खुश हुई और प्रेम से आभार व्यक्त किया। इस बीच उनके पास ही सीढ़ियों पर एक आदमी बैठ गया था आकर। उसने मुन्नी के बारे में कुछ कहा तो मुन्नी ने पूछा -"कौन सुरेश?"
सुरेश ने मुन्नी के बारे में बताना शुरु किया -"इनकी भीतर की आंखे बहुत तेज हैं। एक जन का लड़का खो गया था। महीनों खोजते रहे। नहीं मिला। फिर मुन्नी के पास आये। मुन्नी ने बताया -"बेतवा किनारे फलानी जगह जाओ। मिल जाएगा। गए। वहीं मिला।"
आगे और जोड़ते हुए सुरेश ने बताया कि यहां जिस दुकान वाले के बारे में मुन्नी कह देती हैं कि आज इत्ती कमाई होगी तुम्हारी तो समझ लेव उत्ती होती ही है कमाई।
अपनी तारीफ सुनकर मुन्नी चमक गई। उनकी बिना रोशनी वाली आंखे फड़कने लगी। उनकी दीनता तिरोहित हो गयी। वे भी अपनी तारीफ में जुट गईं। कई किस्से सुना डाले अपने। हर किस्से का उपसंहार करते हुए वे मानो कह रही थी -"ये मुन्नी की गारंटी है। जो कह देती हूँ ,पूरी होती है।"
इस बीच सुरेश ने बताया कि वे जिस जगह पर बैठे थे वहीं के पुजारी जी से अपने पैसे लेने आये थे। पुजारी जी ने उनसे मूर्ति लेकर राममंदिर के पास ही एक छुटका मंदिर डाल लिया था। मंदिर के लिए मूर्ति सुरेश से ली थी। छह महीने हो गए। मंदिर में चढ़ावा आने लगा था ये तो नहीं पता लेकिन तमाम तकादे के बावजूद अभी तक पुजारी जी ने मूर्ति के पैसे नहीं दिए थे। एक बार फिर तकादे के लिए सुरेश सीढ़ियों पर बैठे थे।
मुन्नी से और बात हुई तो पता चला कि उनकी उम्र चालीस के करीब है। मंदिर के ही आसपास रहती हैं। वहीं के लोग खिला-पिला देते है। गुजारा होता रहता है।
बातचीत के दौरान जब पता लगा कि हम कानपुर से गाड़ी से आये हैं तो हम "कानपुर वाले भैया से गाड़ी वाले भैया हो गए।"
मुन्नी के हाथ में पुड़िया देखकर हमने पूछा -"ये पुड़िया काहे खाती?"
मुन्नी ने बताया -"भैया ये दांत बहुत पिरात हैं। तम्बाकू खा लेत हैं तौ आराम मिल जात है।"
हमको अनायास अपनी अम्मा याद आईं। उनको भी चूने वाली तंबाकू की आदत इसी तरह पड़ी थी। तमाम लोग इसी तरह के बहानों सहारे अपनी तमाम लतों का बचाव करते हैं। व्यक्ति से आगे बढ़कर देश/समाज भी अपनी तमाम खराबियों की रक्षा इसी तरह के शुतुरमुर्गी तर्कों से करते हैं।
मुन्नी से फिर आने की बात कहकर हम आगे बढ़े।

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Friday, April 26, 2024

न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाये

  


पिछले दिनों एक शादी में जाना हुआ। दोस्त के बेटे की शादी। ओरछा नाम सुना था। जाना पहली बार हुआ। ओरछा मध्यप्रदेश में है। लगता है बहुत दूर होगा। लेकिन निकला झांसी से मात्र 15 किलोमीटर दूर।
गाड़ी से गए थे। रस्ते में एक जगह खाना खाया। हमने और ड्राइवर ने। एक दाल, एक सब्जी और पांच रोटी का कुल बिल हुआ 205 रुपये। सस्ते ने निपटे।
झांसी में पहुंचकर एक एटीएम से पैसे निकाले। कुछ भेंट देने के लिए। पांच सौ रुपये के नोट तो निकल आये। लेकिन सौ का नोट कोई था नहीं पास में। सौ का नोट भेंट में पायलट गाड़ी की तरह होता है। उसके बिना व्यवहार की गाड़ी स्टार्ट नहीं होती। पहले यह काम एक रुपये का सिक्का करता था जब 11, 51, 101 के व्यवहार चलते थे। आज भी चलता होगा कहीं।
एक मेडिकल स्टोर से 200 रुपये के फुटकर कराए। दे दिए उसने। बातचीत हुई। बोली बुंदेली हो गईं थी। इतै ते चले जाओ, उतई है होटल।
ठहरने का इंतजाम होटल में था। सामान उठाने के लिए सहायक आया। हमने खुद पकड़ा था सूटकेस लेकिन उसने अनुरोध करके ले लिए। हमने भी दे दिया। बड़े होटल में ठहरने जाते ही लोग परावलम्बी हो जाते हैं। यही हाल दफ्तरों में बड़े साहबों का होता है। अटेंडेंट, चपरासी साहब को बैग तक नहीं उठाने देते। उनका बस चले तो साहब को भी गाड़ी से उठा कर कुर्सी पर धर दें। दफ्तर अपने साहबों को अपाहिज बनाने के शानदार उदाहरण होते हैं।
सुदर्शन अटेंडेंट से हमने कुछ पूछा तो बोला नहीं। दुबारा पूछा तो उसने मुस्कराते हुए सीने पर जेब के ऊपर लगे बैज की तरफ इशारा किया। पता चला कि अटेंडेंट मूक/बधिर था। उसके बैज में लिखा था कि ये सुन/बोल नहीं पाता है। कोई निर्देश देना हो तो लिखकर दें।
बाद में पता चला कि होटल में 15% स्टाफ इसी तरह दिव्यांग कैटेगरी के लोग हैं। अगले दिन नाश्ता करते हुए देखा कि कुछ वेटर भी अपने सीने में वैसा ही बैज लगाए थे। होटल की यह पॉलिसी बहुत मानवीय और अच्छी लगी।
कमरे में सामान रखकर वाशरूम गए। वहां फ्लस के एकदम बगल में लगे एक स्टिकर में लिखा था -'एवरी सिंगल ड्राप काउंट्स'। हर बूंद कीमती है। हमारे खुराफाती दिमाग ने सोचा -' वाकई है तो। समस्त सृष्टि का कारोबार बूंदों की ही करामात है।'
बाद में ध्यान से पढ़ा तो देखा कि वह स्टिकर पानी की बचत के लिए था। चादर न धुलाओ तो 70 लीटर पानी बचता है। एक इंसान के महीने भर के पानी पीने की जरूरत के बराबर।
होटल वाले इस तरह पानी की बचत का आह्वान कर रहे थे। बेहतर होता कि वो चादर न धुलवाने के लिए किराए में कुछ कमी का प्लान बताते तो बिना चादर बदलवाए ही हफ्तों पड़े रहते होटल में।
मन किया कि अरविंद तिवारी जी Arvind Tiwari को होटल का यह किस्सा बताएं। उनका होटल वाला उपन्यास पूरा करने की हम जब भी बात कहते हैं वो उलाहना देते हैं -'आप कोई किस्सा बताते नहीं होटल का, कैसे पूरा हो उपन्यास।' घुमाफिराकर क्या वो सीधे-सीधे यही कहना चाहते हैं कि मित्रों में असहयोग में चलते उनका उपन्यास अटका है।
विवाह कार्यक्रम ओरछा में एक राजमहल से होना था। आजकल सारे राजमहल विवाह स्थल बन गए हैं। शादी व्याह इंसान राजा-महाराजों की तरह करता है भले ही बाद में कंगाली भुगते। परसाई जी ने इसी लिए लिखा है न -'देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी में जा रही है।'
बहरहाल कार्यक्रम स्थल पहुंचे। राजमहल जाने वाली सड़क के बराबर सड़क से भी ज्यादा चौड़ा नाला बह रहा था। सड़क पर समृद्धि, बगल में गंदगी। समृध्दि और गंदगी का सहअस्तित्व देखते हुए राजमहल के मुख्य द्वार पर पहुंचे।
गाड़ी से उतरते ही एक पुलिस की वर्दी में खड़े इंसान ने हमको देखकर कड़क सैल्यूट मारा। तगड़े सैल्यूट से हम अचकचा गए। अचकचा क्या सहम से गए। हमको लगा कि यह सलामी किस लिए?
बाद में पता लगा कि उसने हमको कुर्ता पैजामा और सदरी में झंडे लगी गाड़ी से उतरते देखकर हमको कोई मंत्री जी समझा और देखते ही कड़क सलाम झोंक दिया।
हमने वर्दी पुरुष को बताया कि हम वो न हैं जो वो हमको समझ रहे हैं। अब सलाम तो वापस नहीं हो सकता लेकिन हम उनसे गले मिलकर बराबर हो गए।
बाद में हमको यह भी लगा कि क्या पता उसने हमको देखने के पहले पापुलर मेरठी का शेर पढा हो :
'मवालियों को न देखा करो हिकारत से
न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाये।'
शेर पढ़कर उसने शक्ल से संभावित वजीर समझकर 'सलाम निवेश' कर दिया हो। आज की दुनिया की तमाम राजनीति का यही चलन है। पैसे वाले मवालियों पर पैसा लगाकर उनको वजीर बनाने में सहयोग करते हैं और फिर द्वारा उचित माध्यम चांदी, सोना, हीरा जवाहरात काटते हैं।
मुझे पुलिस वाले कि बेबसी पर भी तरस आया। अगर कहीं मेरी जगह सही में कोई मंत्री जी होते और वह सलाम करने से चूक जाता तो लाइन हाजिर हो जाता।
बाद में अगले दिन पता चला कि एक हरियाणा के ट्रक वाले से नाके पर मौजूद लोगों ने उसके कागजों में कमी बताकर पांच हजार वसूल लिए। चालान करने के बीस हजार बताए और फिर पांच हजार में छोड़ दिया।
एक जगह बेबस हुआ इंसान दूसरी जगह निर्दयी बन जाता है। जो डरता है वही डराता है।

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Monday, April 08, 2024

पांडिचेरी की सुबह



गयी रात देर तक पांडिचेरी के समुद्र तट के किनारे टहलते रहे। सागर की लहरें किनारे तट से टकरा-टकराकर लौटती रहीं। रात होते-होते लोगों की आमद कम गयी। हम वापस आकर होटल में जमा हो गए।
देर रात तक समुद्र की लहरें हल्ला मचाती रहीं। उनकी आवाज उलाहने की तरह लग रही थी। मानों कह रहीं हों -'यहां आकर सोने आये हो? कुछ देर तो और बिताओ हमारे साथ।'
हमने कब लहरों का आमंत्रण ठुकराया और कब सो गए , पता ही नहीं चला।
सुबह उठे तो समुद्र तट देखने गए। सौ कदम से भी कम की दूरी पर समुद्र तट था। लहरों ने इठलाते हुए गुडमार्निंग किया। अपन किनारे बैठकर लहरों और आसपास की खूबसूरती निहारते रहे।
ऊपर सूरज भाई भी ड्यूटी ज्वाइन कर लिए थे। पूरी चमक के साथ आसमान में बैठे किरणों को जगह-जगह ड्यूटी पर लगा रहे थे।
बीच पर लोग टहल रहे थे। कुछ लोग काम पर जा रहे थे। मौसम खुशनुमा था। काफी देर वहीं एक बेंच पर बैठे बीच सुषमा को निहारते रहे। ढेर सारी फोटो ली। अपनी और लोगों की। अलग-अलग अंदाज में। कभी इस पोज में कभी उस पोज में। कोई चश्मा लगाकर कोई बिना चश्मे में। यह बात अलग कि फोटो जैसे हम थे वैसी ही आईं। कैमरे ने कोई अतिरिक्त सहयोग नहीं दिया।
तट किनारे से टहलने के बाद पास की ही बस्ती में घूमने निकले। लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजते दिखे। सड़क के दोनों किनारे लाइन से स्कूटर/बाइक्स खड़ीं थीं। ऑटो वाले सवारियों का इंतजार कर रहे थे। अपन को कहीं जाना तो था नहीं। अलबत्ता एक ऑटो का फ़ोटो जरूर खींच लिए। ऑटो वाले ने भी मना नहीं किया। सुबह-सुबह अच्छे मूड में रहा होगा।
पांडिचेरी 1954 तक फ्रांसीसी उपनिवेश रहा। आसपास जो घर बने हैं उनमें फ्रांसीसी झलक लगी। कई घरों में लिखाई रोमन अक्षरों में थी। समझ में नहीं आया, मतलब फ्रेंच में ही कुछ लिखा होगा। सड़कों पर ज्यादा भीड़ नहीं थी। हमारे देखते-देखते कई महिलाएं स्कूटर पर फर्राटा मारते हुए निकली। शक्ल से अंदाजा लगाया कि फ्रांसीसी ही रही होंगी। हो सकता है कहीं और से आईं हों लेकिन हमने फ्रांसीसी मान लिया तो मान लिया।
थोड़ी देर सड़क पर टहलने के बाद होटल वापस लौट आये। होटल के टैरेस से समुद्र तट साफ दिख रहा था। हमको याद आया कि हमने इस टेरस के लिए , जिससे समुद्र तट दिखता हो ,के लिए हजार रुपये अतिरिक्त दिए हैं। यह याद आते ही
हमने हजार रुपये वसूलने की मंशा से टेरेस पर खड़े होकर तमाम फोटो खींच डाले। ज्यादातर फोटो समुद्र की ही थीं। लगभग हर फोटो में समुद्र की किरणें इठलाती हुई हमको छेड़ सा रही थीं गोया कह रहीं हों-'वहां होटल में काहे घुसे बैठे हो। आओ हमारा समुद्र के स्टेज पर डांस देखो।'
हमने समुद्र की लहरों की बातों को अनसुना करते हुए टेरेस से ही फोटो लेना जारी रखा। वहीं किनारे पर एक युवा जोड़ा एकदम किनारे खड़ा फोटोशूट में जुटा था। अलग-अलग पोज में फोटो खिंचाते हुए। हमने जोड़े का भी एक फोटो खींच लिया। दूर से खींचे हुये फोटो को देखकर मुझे ऐसा लगा मानों कन्या अपने साथी के सर को अपने सामने झुकाए देख रही हो कि कहीं उसके बालों में रूसी तो नहीं है। हो सकता है कि कोई शैम्पू कम्पनी इस तरह की फोटो का उपयोग करके कहे -'हमारा शैम्पू इस्तेमाल करते तो यह स्थिति न आती।'
इस सब फोटोबाजी में दस बज गए। हमारे ड्राइवर का फोन भी आ गया। वो आने वाला था। हमने नहा-धोकर नाश्ता किया। नाश्ता टेरेस पर ही बैठकर किया। इस बहाने हजार रुपये का कुछ हिस्सा और वसूल किया।
नाश्ता करके अपन होटल खाली करके गाड़ी में बैठगये और पांडिचेरी शहर घूमने निकल लिए।
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Saturday, April 06, 2024

सपने में यायावरी



कल रात नया सपना देखा। देखा कि एक लंबी यात्रा पर निकले हैं। अकेले। शायद साइकिल पर। तीन-चार महीने की यात्रा। पहले दिन की यात्रा के बाद शाम को याद आता है कि अरे, अभी इस साल के इम्तहान तो दिए ही नहीं। यात्रा पर आगे बढ़े तो इम्तहान छूट जाएंगे। डिग्री नहीं मिलेगी। तीन साल की मेहनत बेकार जाएगी।
यह सोचकर कि यात्रा पढ़ाई के बाद पूरी की जाएगी, वापस लौट आये। घर लौटकर जब वापस लौटने का कारण बताया तो कहा गया -'सही किया, लौट आये। पढ़ाई पूरी करने के बाद घूम लेना। '
सपना टूट गया। अभी भी चल रहा होता तो पूछता कि जब लौटना सही था तो जाने क्यों दिया? वैसे अगर पूछता भी तो लोग यही कहते -'हम तो पहले ही समझा रहे थे। तुम ही जिद्द पर अड़े थे।'
सामान्य से अलग कुछ भी करने में ऐसा ही होता है। कुछ लोग टोंकते हैं, कुछ समझाते हैं, कुछ हौसला बंधाते हैं। निर्णय खुद को ही लेना होता है। फायदा-नुकसान खुद झेलना होता है। कुछ लोग फायदे-नुकसान का आंकलन कर पाते हैं। कुछ नहीं। लेकिन कहानी अलग ही होती है।
1983 में जब हम लोग साइकिल से भारत यात्रा के लिए निकले थे तो ऐसे ही झटके में चले गए थे। हम लोग हॉस्टल में थे। घर वाले दूर थे। कम्युनिकेशन के साधन ज्यादा थे नहीं। कुछ ज्यादा टोंके नहीं गए। आजकल का समय होता तो मार वीडियो कॉलिंग के नसीहतों के मिसाइल से घायल हो गए होते।
दोस्तों ने हौसला बढ़ाया तो निकल लिए। घूम आये। दल का नाम अज्ञेय जी की कविता पंक्ति -'अरे यायावर, रहेगा याद' से प्रभावित रखा था -'जिज्ञासु यायावर।'
एक एक हजार रुपये के तीन ट्रेवलर्स चेक लेकर गए थे। उतने में ही तीन महीने का साइकिल टूर करके लौट आये।
उस समय की कुछ यादें लिखी हैं। बाकी बिसर गईं। धुंधला गईं। कभी लिखेंगे टटोल-टटोल कर।
घुमाई की बात से याद आई हाल की यात्राएं। उनके किस्से भी लिखने बाकी हैं।
पिछले दिनों दिसम्बर महीने में महाबलीपुरम और पांडिचेरी जाना हुआ। महाबलीपुरम में समुद्र किनारे पल्लव कालीन पंचरथ स्मारक देखने गए। तमिलनाडु के चेंगलपट्टू जिले में बंगाल की खाड़ी के कोरोमण्डल तट पर महाबलीपुरम में यह स्मारक स्थित है। पल्लव राजाओं द्वारा बनाया गया यह स्मारक 630 से 725 ईपूर्व के समय के बने हैं। ये पांच रथ पांच पांडवों के नाम पर बने हैं।
इन स्मारकों की विशेषता यह है कि ये एक पत्थर पर बने हैं। बड़ी शिलाओं को छेनी हथौड़ी से काटते हुए बनाये गए हैं ये स्मारक तभी कई दशक लगे होंगे इनको बनाने में।
इनके निर्माण में कई दशक लगने का कारण यह भी होगा कि उस समय राजाओं का शासन उनके जिंदा रहने तक चलता था। राजा के बाद राजकुमार गद्दीनशीन हो जाता था। आजकल की तरह चुनाव तो होता नहीं था उन दिनों जो किसी राजा को फटाफट कोई स्मारक बनवाकर उसके नाम पर वोट मांगने की मजबूरी हो।
पंचरथ परिसर में घुसने पर स्थानीय गाइड पीछे लग लिए। हमने कुछ को मना किया। लेकिन अंततः एक बुजुर्ग गाइड ने अपनी बातों से मजबूर कर दिया कि हम उसकी सेवाएं लें।
पंच रथ परिसर में हर रथ अलग आकार का था। सबसे छोटा रथ दौप्रदी का है जिसमें देवी दुर्गा की प्रतिमा है। युधिष्ठिर का रथ सबसे बड़ा तिमंजला है। नकुल-सहदेव का एक ही रथ है।
रथों के आकार पल्लव काल में पांच पांडवो की स्थिति के बारे में बताते हैं।
हमारे गाइड ने करीब आधे घण्टे में सारे रथ दिखा डाले और उनके बारे में संक्षेप में बता दिया। तमिल लहजे की हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू बोलने वाले गाइड की उम्र लगभग साठ साल की रही होगी। पता चला कि वो हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल, तेलगु , मलयालम के अलावा थोड़ी थोड़ी फ्रेंच और जर्मन भी जानते हैं। फ्रेंच, जर्मन पता नहीं जानते हों या न जानते हों लेकिन हमको तो यही बताया। लेकिन भारतीय भाषाएं तो कामचलाऊ जानते ही हैं।
उनकी पढ़ाई के बारे में पता किया तो बताया कि कक्षा पांच तक पढ़े हैं।
हमको थोड़ा ताज्जुब हुआ कि इतने कम पढा इंसान इतनी भाषाएं जनता है। लेकिन फिर ताज्जुब को समेट लिया यह सोचकर कि भाषाओं का स्कूली पढ़ाई से कोई ताल्लुक नहीं होता। यह तो जिंदगी के मदरसे में सिखाई जाती है। जिसको मन होता है सीख लेता है। पेट की आग भी बहुत कुछ सिखा देती है।

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Wednesday, April 03, 2024

सैर कर दुनिया की गाफिल

 



आजकल असगर वजाहत जी के यात्रा संस्मरण पढ़ रहे हैं। ईरान, अमेरिका, पाकिस्तान और तमाम जगहों की घुमक्कड़ी के अनुभव उनकी किताब 'उम्र भर सफर में रहा' में पढ़ रहे हैं। संस्मरणों में यात्रा का समय नहीं लिखा है इससे पता नहीं चलता कि कब का संस्मरण है। जब वे गए होंगे तब से समय काफी बदल गया होगा। कितना बदला होगा यह वही समझ सकता है जिसने दोनों समय देखे हैं।
असगर साहब ने एक किस्से में बताया कि किस तरह उनको तेहरान में फोटो खींचते हुए पकड़ लिया गया था। फिर बाद में किसी तरह छूटे।
नादिरशाह के बारे किस्से में बताया कि किस तरह नादिरशाह दिल्ली लूटकर जब ईरान वापस गया तो उसके पुत्र रोज कुली को यह झूठा समाचार मिला कि नादिरशाह की मौत हो गयी है। उसने ईरान की गद्दी के हकदार पुराने सफ़वी वंश के शासक को तहमास्प को फांसी दे दी ताकि राज्य सत्ता पर उसकी पकड़ मजबूत हो जाये। लेकिन नादिरशाह की मौत नहीं हुई थी। कुछ लोगों ने यह भी प्रचार करवाया कि नादिरशाह की हत्या का प्रयास उसका बेटा कर रहा है। इस पर नादिशाह ने अपने पुत्र रोजा कुली को अंधा कर देने का आदेश दे दिया।
नादिरशाह और अन्य पंद्रह सरदारों के सामने जब रोजा कुली को अंधा किया जा रहा था तो उसने नादिरशाह से कहा था-"तुम मुझे नहीं ईरान को अंधा कर रहे हो।"
बाद में जब पता चला कि जिस आरोप में नादिरशाह ने अपने बेटे को अंधा किया था , झूठा और गलत था। नादिरशाह ने आदेश दिया कि उन सरदारों के सिर उड़ा दिए जाएं जिन्होंने उसके बेटे रोजा कुली की आंखे फोड़ी जाते देखीं हैं। नादिरशाह ने उन सरदारों की गलती यह ठहराई कि उनमें से किसी ने यह क्यों नहीं कहा कि रोजा कुली के बजाय उसकी आंख फोड़ दी जाए।
अपने दरबार के सबसे प्रतिष्ठित सरदारों की हत्या के बाद नादिरशाह का पागलपन और प्रतिशोध बढ़ने लगा। उसे हर आदमी दुश्मन दिखाई पड़ने लगा और उसने बड़े पैमाने पर लोगों की हत्याएं कराई। अव्यवस्था, असंतोष, प्रतिहिंसा और अविश्वास की आंधी में साम्राज्य डगमगाने लगा। अंततः सन 1747 में अंगरक्षकों के दस्ते के प्रमुख ने नादिरशाह की हत्या कर दी।
हिंसा-हिंसा को जन्म देती है। जिन भी लोगों ने ताकत के नशे में कूरताएँ की हैं उनके साथ भी दाएं-बाएं उसी तरह की घटनाएं हुई हैं।
बहरहाल बात यायावरी की हो रही थी। कोलकाता एयरपोर्ट पर एक अमेरिकन यात्री मिला। 84 साल की उम्र में चौथी बार भारत आया था घूमने। यहां उसे अच्छा लगता है। यहां की विविधता आकर्षित करती है।
अपने यहां घूमने का उतना चलन नहीं है। बुजुर्ग होते लोग अपने घर-परिवार में और बुजुर्ग होते हुए समय काटते हैं। कम लोग होते हैं जो दुनिया देखने का मन बनाते हैं और उस पर अमल भी करते हैं।
ऐसे ही हमारे सीनियर मनोज चौधरी जी Manojkrishna Choudhuri हैं। सन 2002 में रिटायर होने के बाद आधी से अधिक दुनिया घूम चुके हैं। पैर में तकलीफ है लेकिन घूमने का जज्बा बरकरार है। 82 साल की उम्र में आस्ट्रेलिया जाने का प्लान बना रहे हैं। वीसा मिलने पर जून में जाएंगे। मनोज चौधुरी जी इस मामले में हमारे रोल मॉडल हैं। अपन भी रिटायर होने के बाद दुनिया घूमने निकलेंगे।
इरादा तो है। अमल कितना हो पाता है यह आने वाला समय बताएगा।
आप भी चलोगे हमारे साथ। कहां-कहां चलने का इरादा है।

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Tuesday, April 02, 2024

एयरपोर्ट पर जीवन चक्र



कोलकता इस बार रहे दो दिन। दोनों दिन दफ्तर में निकल गये। शाम पार्टीबाजी में।
जाने के पहले कई मित्रों से मिलने का प्लान बनाया था लेकिन मिलना हो नहीं पाया । हर बार की तरह मामला अगली बार पर टल गया।
अलबत्ता आते समय पी बनर्जी जी से मिलना हुआ। हम लोग ओएफसी में काफी दिन साथ रहे। शुरुआत में 1988 से 1989 में और बाद में 2001 से 2007 से ओएफसी पोस्टिंग के दौरान। तीसरी बार ओएफसी आये तब तक बनर्जी जी रिटायर हो चुके थे।
इसके पहले जब भी कोलकता आये तो अगली बार मिलने की बात कहकर लौट आये। लेकिन इस बार मिलना हो ही गया। मिलने पर तमाम सारी पुरानी यादें फिर से ताजा हुई। मित्रों से मिलते-जुलते रहना चाहिये। मिलना-जुलना किसी भी संबंध को ताजा बनाये रखता है।
हवाई अड्डे पर बाहर ही कम्प्यूटर पर बोर्डिंग टिकट प्रिंट करने की कोशिश की। नहीं बना। हर बार बताया -'पीएनआर नम्बर मैच नहीं करता।' अपन कम्प्यूटर को गलत मानकर अंदर आ गये। सिक्योरिटी वाले ने टिकट और परिचय पत्र देखकर अंदर आने दिया।
काउंटर पर बोर्डिंग टिकट बनवाने के लिये अपनी बुकिंग दिखाई तो बताया गया कि ये तो लखनऊ से कोलकता आने का टिकट है। जाने का दिखाइये। हमने बुकिंग टिकट पलट के दिखाया उसमें भी लखनऊ से कोलकता का ही प्रिंट था । हमने फिर मोबाइल में टिकट दिखाया। काउण्टर कन्या ने बोर्डिंग पास बना दिया।
मतलब बाहर कम्प्यूटर जी सही कह रहे थे कि जो पीएनआर नम्बर हम भर रहे थे वह ठीक नहीं था। दूसरी तरफ सुरक्षा वाले भाईसाहब ने बिना हमारा टिकट ठीक से देखे हमको आने दिया। हमने कम्प्यूटर जी से दूर से माफी मांगी कि हमने उनको गलत समझा। अनजाने में हम तमाम लोगों को गलत समझते रहते हैंं अकसर पता भी नहीं चलता कि हम गलत हैं। इसी भ्रम में जिंदगी भी गुजार देते हैं लोग।
सुरक्षा वाले के लिये क्या कहें जिसने हमारा टिकट ठीक से देखे बिना अंदर आने दिया ?
बोर्डिंग पास बनवाने के बाद उडान का इंतजार करते हुये एक सन्यासी जी से मुलाकात हुई। उनके सर पर रंगबिरंगा मुकुट सा था। मुकुट के चलते वे लोगों केआकर्षण का केंद्र बने थे। पास बैठे थे लिहाजा बातचीत हुई।
पता चला सन्यासी जी इंग्लैंड से थे। सन्यास ले लिये हैं। इस्कान समुदाय से जुडे हैं। बातचीत के दौरान गीता के कई श्लोक सुना डाले। कुछ हमने भी 'मिसरा उठाने वाले अंदाज' में साथ में दोहराये। उनके साथ एक युवा सन्यासी भी था। पता चला वह कोरिया का रहने वाला है। अभी गृहस्थ है लेकिन इस्कान से जुडा है।
सन्यासी जी का मुकुट रंगबिरंगा था। हमने तारीफ की तो मुकुट उतारकर दिखाया। मुकुट में मौजुद एक बटन दबाया तो मुकुट में लगे बल्ब जलने-बुझने लगे। मुकुट में मौजुद आकृतियों के सहारे हमको जीवन-मरण का चक्र अंग्रेजी में समझाया। पैदाइश,बचपन, जवानी, बुढापा से होते हुये आखिर तक का सीन। हमने तारीफ की तो दुबारा दिखाया जीवन चक्र। तारीफ को उन्होने 'मुकर्रर' की तरह लिया होगा। हमने दुबारा तारीफ नहीं की। उन्होने बटन बंद कर दिया।
कुछ देर तक बात करने के बाद अपन की फ्लाइट की बोर्डिंग शुरु हो गयी। अपन जहाज में बैठकर घर की तरफ चल दिये।

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