रॉबर्टसन लेक के किनारे एक झोपडी में कुछ लोग बैठे दिखे। बात की तो पता चला कि वे मछुआरे हैं। सबने अपने-अपने जाल झील में डाल रखे हैं। अभी आठ-दस लोग थे वहां पर। सुबह 7 बजे तक। और लोग आ जाएंगे तब उतरेंगे झील में मछलियाँ पकड़ने।
मछलियाँ पकड़ने तो मैंने कहा। झील में उतरकर मछलियाँ पकड़ने को मछली पकड़ने वाले 'तालाब खेलना' कहते हैं। हमने पहली बार सुना यह। कामकाज से सीधे जुड़े लोगों के शब्द अक्सर उनसे अलग होते हैं जो किताबों में होते हैं। ऐसे ही याद आया कि ट्रक के टायर और ट्यूब के बीच लगने वाले रबड़ के टुकड़े को 'फ्लैप' ख़ास जाता है पर कामगार लोग उसको 'लंगोट' कहते हैं। जनभाषा के शब्द जीवन के ज्यादा नजदीक और सीधे समझ में आने वाले होते हैं।
मछली पकड़ने को तालाब खेलना शायद इसलिए नाम दिया हो लोगों ने क्योंकि जाल डालने मात्र से मछली फंसने की गारंटी नहीं होती। कभी मिली, कभी न मिली। कभी कम, कभी ज्यादा। तालाब में उतरने के बाद खेल की ही तरह होता होगा सब।इसीलिये नाम दिया तालाब खेलना।
बात करते हुए पता चला कि सबने अपने-अपने जाल डाल रखे हैं। जाल कहां पड़ा है उसका निशान रहता है हरेक का। किसी ने कोई प्लास्टिक की बोतल बांध रखी है जाल के ऊपर किसी ने थर्मोकोल का टुकड़ा। कुछ ने कोई निशान नहीं रखा। पर उसको पता रहता है कि कहां है उसका जाल।
मछली पकड़ने का काम सहकारी समिति की देख-रेख में होता है। कुल 87 सदस्य (मछुआरे)हैं समिति के। जब सब आ जाते हैं तभी 'तालाब खेलने' उतरते हैं झील में लोग।सबका इन्तजार शायद इसलिए ताकि किसी के जाल में फंसी मछली कोई दूसरा न ले ले। पर दो-चार-दस कम भी हुए तो भी उतर जाते हैं।
तालाब में उतरने के लिए लोग ट्रक के ट्यूब में हवा भरकर उस पर बांस की खपच्चियां का बैठने के लिए जुगाड़ बनाकर इस्तेमाल करते हैं। इस 'ट्यूब नौका' को क्या कहते हैं ये लोग यह अगली बार पता करेंगे।
कुछ लोगों के ट्यूब में हवा कम हो गयी थी। लोग उनमें मुंह से हवा भर रहे थे। कुछ लोग नाव से भी जाते हैं तालाब खेलने।
अगर किसी ट्यूब की हवा तालाब में निकल गयी तो क्या होता है? यह पूछने पर बताया गया कि हवा एकदम नहीं निकलती। निकलना शुरू होने पर वह किनारे आ जाता है। कुछ समस्या हुई तो नाव वाले तो होते ही हैं सहायता के लिए।
'तालाब खेलने' के बाद जितनी मछली मिलती है उसको तौला जाता है। 30 रूपये किलो मछली के मिलते हैं मछुआरों को। सोसाइटी इसे 70 किलो बेचती है। फायदे का पैसा सोसाइटी के पास ही रहता है। उससे वह आगे मछली पैदा करने के उपाय के लिए खर्च करती है। जितनी बार पलटी (बिक्री होती) जाती है मछली उतनी ही उसकी कीमत बढ़ती जाती है।
मछली पकड़ने का काम कभी बन्द भी रखते हैं क्या? हमें लगा जबाब मिलेगा -नहीं। पर उन्होंने बताया कि
हां, तालाब को भी रेस्ट दिया जाता है। मतलब कुछ दिन मछली नहीं पकड़ी जाती मतलब तालाब नहीं खेलते। कब रेस्ट देना है यह सोसाइटी के लोग तय करते हैं। सबको मोबाइल पर सूचना दे देते हैं। कल से एक हफ्ते तालाब को रेस्ट देना तय हुआ है।
'मछली पकड़ना भी जीव हत्या है। हम उनको मारते हैं तो इसकी सजा हमको भी मिलेगी। कहां मिलेगी यह तय नहीं होता।' एक मछुआरे ने दार्शनिक अंदाज में कहा।
क्या पता मछलियों को मारने पकड़ने और उनके मारने के अपराध बोध से मन को मुक्त रखने के लिए ही मछली पकड़ने को 'तालाब खेलना' और मछली के लिए 'जल तरोई' जैसे शब्द गढ़े गए हों।
इकट्ठा हुये लोग आपस में चुहल भी कर रहे थे। लोग आते-जाते जा रहे हैं। बैठकर बाकी लोगों का इंतजार कर रहे थे। आमतौर पर आठ बजे तक सब लोग आ जाते हैं। उसके बाद सभी 'तालाब खेलने' के लिए उतर जाते हैं। 12 बजे तक रहते है झील में। इसके बाद अपने-अपने हिस्से की मछलियाँ लेकर बाहर आ जा जाते हैं।
मछुआरों का झील में उतरने का समय हो रहा था और मेरा फैक्ट्री का। लौटते में मैदान में खिले फूल दिखे। इनको किसी ने पूजा के लिए तोड़ा नहीं था। जंगल में खिले खूबसूरत फूलों को देखकर अजय गुप्त जी की कविता पंक्तियाँ याद आ गयीं:
कमरे पर पहुंचकर पोस्ट लिखी।आधी लिख पाये थे कि फैक्ट्री जाने का समय हो गया। बाकी ब्रेक के बाद लिखने की बात कही थी। अब लिखकर पोस्ट कर रहे हैं।
बाकी बचे हुए दिन का आनन्द लीजिये। जो होगा देखा जायेगा।
मछलियाँ पकड़ने तो मैंने कहा। झील में उतरकर मछलियाँ पकड़ने को मछली पकड़ने वाले 'तालाब खेलना' कहते हैं। हमने पहली बार सुना यह। कामकाज से सीधे जुड़े लोगों के शब्द अक्सर उनसे अलग होते हैं जो किताबों में होते हैं। ऐसे ही याद आया कि ट्रक के टायर और ट्यूब के बीच लगने वाले रबड़ के टुकड़े को 'फ्लैप' ख़ास जाता है पर कामगार लोग उसको 'लंगोट' कहते हैं। जनभाषा के शब्द जीवन के ज्यादा नजदीक और सीधे समझ में आने वाले होते हैं।
मछली पकड़ने को तालाब खेलना शायद इसलिए नाम दिया हो लोगों ने क्योंकि जाल डालने मात्र से मछली फंसने की गारंटी नहीं होती। कभी मिली, कभी न मिली। कभी कम, कभी ज्यादा। तालाब में उतरने के बाद खेल की ही तरह होता होगा सब।इसीलिये नाम दिया तालाब खेलना।
बात करते हुए पता चला कि सबने अपने-अपने जाल डाल रखे हैं। जाल कहां पड़ा है उसका निशान रहता है हरेक का। किसी ने कोई प्लास्टिक की बोतल बांध रखी है जाल के ऊपर किसी ने थर्मोकोल का टुकड़ा। कुछ ने कोई निशान नहीं रखा। पर उसको पता रहता है कि कहां है उसका जाल।
मछली पकड़ने का काम सहकारी समिति की देख-रेख में होता है। कुल 87 सदस्य (मछुआरे)हैं समिति के। जब सब आ जाते हैं तभी 'तालाब खेलने' उतरते हैं झील में लोग।सबका इन्तजार शायद इसलिए ताकि किसी के जाल में फंसी मछली कोई दूसरा न ले ले। पर दो-चार-दस कम भी हुए तो भी उतर जाते हैं।
तालाब में उतरने के लिए लोग ट्रक के ट्यूब में हवा भरकर उस पर बांस की खपच्चियां का बैठने के लिए जुगाड़ बनाकर इस्तेमाल करते हैं। इस 'ट्यूब नौका' को क्या कहते हैं ये लोग यह अगली बार पता करेंगे।
कुछ लोगों के ट्यूब में हवा कम हो गयी थी। लोग उनमें मुंह से हवा भर रहे थे। कुछ लोग नाव से भी जाते हैं तालाब खेलने।
अगर किसी ट्यूब की हवा तालाब में निकल गयी तो क्या होता है? यह पूछने पर बताया गया कि हवा एकदम नहीं निकलती। निकलना शुरू होने पर वह किनारे आ जाता है। कुछ समस्या हुई तो नाव वाले तो होते ही हैं सहायता के लिए।
'तालाब खेलने' के बाद जितनी मछली मिलती है उसको तौला जाता है। 30 रूपये किलो मछली के मिलते हैं मछुआरों को। सोसाइटी इसे 70 किलो बेचती है। फायदे का पैसा सोसाइटी के पास ही रहता है। उससे वह आगे मछली पैदा करने के उपाय के लिए खर्च करती है। जितनी बार पलटी (बिक्री होती) जाती है मछली उतनी ही उसकी कीमत बढ़ती जाती है।
मछली पकड़ने का काम कभी बन्द भी रखते हैं क्या? हमें लगा जबाब मिलेगा -नहीं। पर उन्होंने बताया कि
हां, तालाब को भी रेस्ट दिया जाता है। मतलब कुछ दिन मछली नहीं पकड़ी जाती मतलब तालाब नहीं खेलते। कब रेस्ट देना है यह सोसाइटी के लोग तय करते हैं। सबको मोबाइल पर सूचना दे देते हैं। कल से एक हफ्ते तालाब को रेस्ट देना तय हुआ है।
'मछली पकड़ना भी जीव हत्या है। हम उनको मारते हैं तो इसकी सजा हमको भी मिलेगी। कहां मिलेगी यह तय नहीं होता।' एक मछुआरे ने दार्शनिक अंदाज में कहा।
क्या पता मछलियों को मारने पकड़ने और उनके मारने के अपराध बोध से मन को मुक्त रखने के लिए ही मछली पकड़ने को 'तालाब खेलना' और मछली के लिए 'जल तरोई' जैसे शब्द गढ़े गए हों।
इकट्ठा हुये लोग आपस में चुहल भी कर रहे थे। लोग आते-जाते जा रहे हैं। बैठकर बाकी लोगों का इंतजार कर रहे थे। आमतौर पर आठ बजे तक सब लोग आ जाते हैं। उसके बाद सभी 'तालाब खेलने' के लिए उतर जाते हैं। 12 बजे तक रहते है झील में। इसके बाद अपने-अपने हिस्से की मछलियाँ लेकर बाहर आ जा जाते हैं।
मछुआरों का झील में उतरने का समय हो रहा था और मेरा फैक्ट्री का। लौटते में मैदान में खिले फूल दिखे। इनको किसी ने पूजा के लिए तोड़ा नहीं था। जंगल में खिले खूबसूरत फूलों को देखकर अजय गुप्त जी की कविता पंक्तियाँ याद आ गयीं:
"जो सुमन बीहड़ों में वन में खिलते हैं
वो माली के मोहताज नहीं होते
जो डीप उम्र भर जलते हैं
वो दीवाली के मोहताज नहीँ होते।"
कमरे पर पहुंचकर पोस्ट लिखी।आधी लिख पाये थे कि फैक्ट्री जाने का समय हो गया। बाकी ब्रेक के बाद लिखने की बात कही थी। अब लिखकर पोस्ट कर रहे हैं।
बाकी बचे हुए दिन का आनन्द लीजिये। जो होगा देखा जायेगा।