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Friday, November 15, 2024

शरद जोशी के पंच -22

 1. कुछ धक्के पाप की श्रेणी में नहीं आते। वे पुण्य की श्रेणी में आते हैं। उसे कहते हैं धरम-धक्का। मतलब, जब आप दर्शन के लिए ,प्रसाद लेने के लिए या नदी में स्नान करने के लिए दूसरों को धक्का देते हैं, तो वह धरम-धक्का कहलाता है।

2. अमेरिका के क्या कहने ! वह बड़ा पाक-साफ़ दूध का धुला है। वह छोटे-बड़े सभी शास्त्रों का प्रसारक है। हर जगह आग उसके ही भड़काए भड़कती है। उसकी एजेंसियाँ सर्वत्र मौत की सौदेबाज़ी और सुविधाएँ उत्पन्न करने में प्रवीण हैं। वह हत्यारा बनने की आकांक्षा पाले है। मौक़ा मिलते ही वार करता है। फिर भी वह न्यायाधीश की ऊँचाई पर बैठ अंतिम निर्णय देता है।

3.  छोटा आतंक ज़मीन पर खड़ा हथगोला फेंकता है, बड़ा आतंक समुद्र और आकाश से शहरों पर बमबारी करता है। 

4. जो कारण-अकारण, काम की बेकाम की , फिर चाहे समझदारी या मूर्खता की बात करता रहता है, उसकी नेतागीरी मज़बूत रहती है। 

5. इस देश की जनता से जुड़े रहने के लिए एक नेता को कितने अख़बारों में क्या-क्या नहीं कहना पड़ता है। पत्रकार को आते देख मुस्कराना पड़ता है, फ़ोटोग्राफ़र को आते देख गम्भीर होना पड़ता है। दूसरे दिन उस अख़बार में अपनी बात तलाशनी पड़ती है क़ि जो उसने कहा वह छपा या नहीं और जो छपा वह चमका या नहीं। 

6. नेता शब्दों के भूसे का उत्पादन करते रहते हैं और देश की जनता उनमें से एक समझदारी का, तथ्य का ,विचार का दाना तलाशती रहती है। 

7. भारतीय पत्रकार की यह दैनिक ट्रेजिडी है कि वह एक दाने की तलाश में नेता के पास जाता और शब्दों का भूसा लेकर कार्यालय लौटता है।

8. यह अजीब ट्रेजिडी  है कि इस देश में अपनी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए आदमी का लखपति होना ज़रूरी हो गया है।

9. जब स्टेशन की साफ़-सफ़ाई होने लगे तो समझिए ,रेलवे का कोई बड़ा अफ़सर मुआयने के लिए आ रहा है। 

10. अफ़सरों पर दोहरा भार है। जनता के साथ धोखेबाज़ी करो, उसे मूर्ख बनाओ , साथ में प्रधानमंत्री को भी धोखे में रखो ताकि उन्हें सचाई पता न लग सके। 

Thursday, November 14, 2024

शरद जोशी के पंच-21

 1. हमारा राष्ट्रीय स्वभाव है कि जब हम एक बार किसी को अपना शत्रु मान लेते हैं , तो फिर उससे लड़ते नहीं। समझौते का प्रयास करते हैं। 

2. यदि सरकार अपनी बुराई स्वयं न करे, तो लोग उसकी बुराई करने लगते हैं।

3. अख़बार की खबरें पढ़ना बावन पत्तों को बार-बार फेंटकर देखने की तरह है। हर पत्ता एक खबर है। उनमें से ही जैसे पत्ते निकल आएँ, वह आपका आज का समाचार से भरा अख़बार है। उन्हीं पत्तों की नई सजावट। चूड़ी के टुकड़ों से सजा एक नया फूल। आपके देश की ताज़ा तस्वीर , जो पुरानी तस्वीर से रंग चुराकर बनाई गई है। 

4. जब भी साजिश होती है, भांडे फूटते हैं, पत्रकार का मुँह बंद करने की उचित व्यवस्था की जाती है। यों मान जाए तो ठीक है, नहीं तो हाथ-पैर तोड़ देने से लाश ठिकाने लगा देने तक का सारा इंतज़ाम करना वे जानते हैं। 

5. सरकारें जो भी हों, मैं वित्तमंत्रियों से सदा प्रभावित रहा हूँ। उसे मैंने सत्ता के रहस्य-पुरुष की तरह महसूस किया है। वह कुछ करेगा। क्या करेगा , कह नहीं सकते मगर कुछ करेगा। हो सकता है, ग़लत ही करे, मगर किए बिना नहीं रहेगा। 

6. मुझे लगता है, कई बार ऐसे क्षण आए होंगे , जब क्रांति हो सकती थी, पर इसलिए नहीं हुई कि तभी वित्तमंत्री ने आलू-प्याज़ के भाव बढ़ा दिए और लोग बजाए क्रांति के आलू-प्याज़ पर सोचने लगे। इस तरह देखा जाए तो इतिहास-पुरुष होते हैं वित्त-मंत्री।

7.  आर्थिक क्षेत्र की सारी सारी गुत्थी इस दर्शन से सुलझ सकती है कि जो सफ़ेद कमाई करते हैं, वे टैक्स भरेंगे और जो काली कमाई करते हैं , सरकार उन्हें छूट देगी, क्योंकि सरकार काली कमाई से अपना कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। काली कमाई की सहायता से राजनीतिक पार्टी चल सकती है, मगर सरकार नहीं। 

8. पूरे देश में जो कुकरमुत्तों की तरह तथाकथित लघु उद्योग बने हैं , उनमें अधिकांश को न माल बनाना आता है और न बेचना आता है। उन्हें एक्साइज बचाना आता है। टैक्स न चुकाना आता है। इस क्षेत्र में कूद पड़ने की उनकी प्रेरणा भी यही रही है। यदि उत्पाद शुक्ल देना पड़े तो उन्हें स्वयं को बीमार उद्योग घोषित करते देर नहीं लगती।

9. आदिवासी की ओर देखो तो संस्कृति कम और ग़रीबी अधिक नज़र आती है। वे ज्ञानी-ध्यानी सचमुच बड़े बेरहम हैं, जो आदिवासियों में संस्कृति के दर्शन किया करते हैं। उनकी हालत देख , उनके साथ  बजाय नाचने के, जेब का पैसा बाँटने की इच्छा होती है। 

10. आम भारतीय नागरिक की ज़िंदगी ही धक्के खाने की है। अधिकांश का पूरा जीवन धक्के खाते बीत जाता है। स्कूल में एडमिशन के लिए धक्के खा रहे हैं, जवानी में नौकरी के लिए और बुढ़ापे में पेंशन के लिए। बम्बई का आदमी रोज लोकल ट्रेन में दोहरा धक्का सहन करता है। सामने से उतरने वाले धक्का दे रहे हैं, पीछे से चढ़ने वाले। पर लाइन लगवाने वाली सभ्यता ,पता नहीं , रेल के डिब्बों के दरवाज़े पर कहाँ ग़ायब हो जाती है। 

Monday, November 11, 2024

शरद जोशी के पंच-20

1. एक जमाने में राजसूय यज्ञ करने वाले राजपाट छोड़ देते थे, और आज अनिश्चित कुर्सियों के इस देश में एक मुख्यमंत्री, जिसे सौ तिकड़म और उठा-पटक करने के बाद बतौर भीख और इनाम के मुख्यमंत्री पद मिलता है ,उसे त्यागते या निकाले जाते समय किटाने क्रियाकलाप करता है। अंतिम क्षण तक चिपके रहने की सम्भावना खोजी जाती है।


2. राजनीतिज्ञों की एक अदा है ,मौक़े पर चुप्पी मारना। कुछ लोग सिर्फ़ यह कहने के लिए पत्रकारों को बुलाते हैं कि मुझे कुछ नहीं कहना। 

3. राज्यों में भ्रष्टाचार बढ़ता रहता है और वहाँ का समझदार वर्ग मन ही मन सोचता रहता है कि कब मंत्रिमंडल बदले। वह एक बयान नहीं देगा, कोई पहल नहीं करेगा। लोग सच भी  स्वार्थवश  बोलते हैं। अपना कोई लाभ नहीं तो सच बोलकर क्या करना ?

4. हमारा राष्ट्रीय चरित्र खिलाड़ियों का नहीं, दर्शकों का रहा है। जो जीता उसे कंधे पर उठाया , जो हारा उसे हूट करने लगे। साफ़ नहीं चिल्लाकर कहते कि हम किसके साथ हैं। छत पर चढ़कर आवाज़ लगाने का साहस अपने घर पर पत्थर पड़ने के डर से समाप्त हो जाता है। 

5.  लोग जब अति चतुराई बरतने लगते हैं ,तब न बड़ी क्रांति होती है और न छोटी। छोटे परिवर्तन होते भी हैं तो विकल्प उतना ही व्यर्थ होता है। 

6. नए नेता को कुर्सी मिलने वाली है। कचरा- पेटी में से जिसे उठाकर इस कुर्सी पर बिठा दिया जाएगा , लोग हार-फूल लेकर उसकी तरफ़ दौड़ेंगे। राज्य के विधायक इतना तो कह सकते हैं कि हमें एक अच्छा मुख्यमंत्री दो। हम मूर्ख और भ्रष्ट को सहन नहीं करेंगे। पर इतना कहने से ही विद्रोही मुद्रा बनती है। भविष्य ख़तरे में नज़र आता है। जो भी मिल जाए ,स्वीकार है।

7. किसी भी प्रदेश में मुख्यमंत्रियों के कमी नहीं है। ग़ालिब एक ढूँढो हज़ार मिलते हैं। पर सारे मुरीद तो एक अदद कुर्सी पर लड़ नहीं सकते। मुख्यमंत्री का पद एक टूटी पुरानी कुर्सी है। लम्बा आरामदेह सोफ़ा नहीं। यदि संविधान में इस पद को सोफ़ा-कम-बेड बनाने की गुंजाइश होती तो आज उस पर कितने पसरे मिलते।

 8. मुख्यमंत्री चुनना सुंदरियों की भीड़ में एक अदद परसिस खंबाटा चुनने की तरह कठिन है। केंद्र से निर्णय फ़ीता लेकर आते हैं। सबकी राजनीतिक कमर नापते हैं। क़द, कोमलता ,मुस्कान और अन्य टिकाऊ गुण जाँचते हैं और घोषित करते हैं , यह रहा तुम्हारा भावी मुख्यमंत्री। 

9. मुहावरों के उपयोग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि लोग कथ्य से अधिक भाषा के चमत्कार में रुचि लेने लगते हैं। हम लेखक प्रायः यह ट्रिक अपनाते हैं। जब कहने की बात नहीं रहती तब हम शब्दों को अधिक रंगीन और ज़ोरदार बनाने की कोशिश करते हैं। 

10. अब काला धन सात तालों में है ही नहीं। अधिकांश काल धन खुले में घूमता , घुमाया जाता है, उपयोग होता नज़र आता है। खुली आँखों नज़र आता है। मसाले के पान , फ़ाइवस्टार के पैकेट, व्हिस्की की बोतल, शानदार पार्टी, पाँचतारा संस्कृति ,विदेशी माल, बेहतरीन कार और आलीशान इमारतों तक काला धन तालों में छुपकर बैठा नहीं, बल्कि लगभग नग्न अवस्था में दिखाई पड़ता है। 



Saturday, October 26, 2024

शरद जोशी के पंच -19

 1. किसी सामाजिक समस्या पर कोर्ट यदि मानवीय दृष्टिकोण अपना ले,  तो संसद उसमें संसोधन लाकर, ऐसे अच्छे काम करने से रोक सकती है।

2. आजकल बैंक लूटना अंगूर के गुच्छे तोड़ने की तरह सरल हो गया है। यदि किसी बच्चे को पड़ोसी के बाग से अमरूद चुराने का अनुभव हो तो वह अपनी प्रतिभा का उचित विकास कर एक दिन पड़ोस का बैंक लूट सकता है।

3.  हमारे देश में कौन नेता  है ,जिसकी राजनीतिक  आत्मा में मार्कोस नहीं पैठा है? मंत्री या मुख्यमंत्री-पद, अदना सरकारी निगम या सरकारी कमेटी की सदस्यता छोड़ते पीड़ा होती है। ऐन-केन कुर्सी पर अड़े ही रहते हैं। अवधि ख़त्म हो गई ,तो सोचते हैं, एक्सटेंशन मिल जाए। लगे हैं जोड़-तोड़ बिठाने।

4. आज़ादी के बाद से आज तक कुर्सी छोड़ना तो अपवाद ही है। असल क़िस्सा कुर्सी का तो कुर्सी से चिपका रहने का है। गहराई में न जाओ , इस गंदे तालाब को सतह से ही देखो। किटाने उखड़े हुए प्रधानमंत्री, गवर्नर, और मंत्री तैर रहे हैं।  सड़ रहे हैं, मगर अंदर से पद की पिपासा भभक रही है। हे ईश्वर , कुर्सी दे ! बड़ी न दे , तो छोटी दे, पर हे भगवान कुर्सी दे! 

5. आजकल तो बड़ा संन्यासी भी वही माना जाता है , जो किसी पद पर बैठा हो। राजनीतिक पार्टियों में मुग़ल साम्राज्य की आत्मा वास करती है। बिना हटाए कोई हटता ही नहीं। 

6. बजट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना एक राष्ट्रीय कला है। आपको इसके लिए पहले  निस्संगता और ततस्थता की मुद्रा अपनानी पड़ती है। 

7. ईमानदार, तटस्थ  और सही प्रतिक्रिया इस देश में नायाब है। बजट के बाद जब देश-हित  की बात कही जा सकती है तब भी पार्टी-हित की बात कही जाएगी। चमचागिरी या थोथा विरोध दोनों में से कोई एक होगा।

8. सत्ताधारियों का नियम रहा है कि गुड़ न दे तो गुड़-सी बात तो कर। अब एक नेता और कुछ न दे तो आश्वासन तो दे ही सकता है। लोग उसी से काम चला लेंगे। इतने साल से चला ही रहे हैं। जैसे कोई नेता अपने भाषण में समाजवाद का आश्वासन दे तो उस पर यह बोझ नहीं डाला जाना चाहिए कि वह समाजवाद लाए भी।

9. बड़ों के बच्चे बड़े पदों पर पहुँचते हैं, तो कैसे पहुँचते हैं? बचपन से उनके लिए सच्चे-झूठे प्रमाण-पत्र जोड़े जाते हैं। 

10. वे लोग बड़े सुखी होते हैं जिन्हें जीवन में कभी बड़े पद नहीं मिले। वे बड़ा पद छूटने के दर्द से नहीं गुजरे। पता नहीं बयान से परे है यह पीड़ा। सब कुछ छूटता है। कुर्सी ,टेबल, सोफ़ा ही नहीं, बंगला ,कार भी। यह भी शायद इतना बड़ा दर्द न हो, पर अधिकार और प्रभाव हाथ से जाता है। प्रभाव , जिससे आप मार्क्स बढ़वा सकते हैं, रिश्तेदार को क़र्ज़ दिलवा सकते हैं और अपने प्रिय को पद्मश्री। राम जाने ,इस प्रभाव का दायरा और दबदबा कहाँ तक फैला रहता है ? बिना कुर्सी पर बैठे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। 

Friday, October 25, 2024

शरद जोशी के पंच -18

 1. राजनीति में फँसे आदमी की दुर्दशा साहित्य में फँसे आदमी से अधिक होती है। 

2. नेतागीरी का पूरा धंधा विचित्र सहकारी स्तर पर , एक-दूसरे पर आधारित , जिसे परम हिंदी में अन्योन्याश्रित कहते हैं, चलता है। पहले नहीं था ,मगर आजकल तो है ही। बड़ा नेतृत्व छोटे नेतृत्व पर टिका रहता है और छोटा नेतृत्व बड़े नेतृत्व पर। दोनों मिलकर समाज और देश को एक क़िस्म के नेतृत्व की हवा में बांधे रहते हैं। जड़ें दोनों की नहीं हैं ,पर वे किसी तरह एक-दूसरे पर टिके हैं।

3. गहराई से सोचा जाए तो पब्लिक अयोग्य और अविश्वसनीय व्यक्तियों को नेता मान जैसे-तैसे प्रजातंत्र क़ायम रखे है और सौभाग्य है कि उनमें कुछ अच्छे भी हैं।

4. एक बार आप राजनीति में फँस गए तो कारवाँ के साथ कुत्ते की तरह दुम हिलाते, दबाते, घिसटते, थकते, चलने के अलावा कोई ज़िंदगी नहीं रह जाती।

5. प्रदूषण  को लेकर हमारी जो नीति और कार्य-प्रणाली है , साम्प्रदायिक मनमुटाव दूर करने के मामले में भी वही है। मतलब, हवा में थोड़े-बहुत जहर का घुलना हमें अनुचित नहीं लगता। उसे हम सहज-स्वाभाविक मान टाल देते हैं। 

6. हर शहर में एक-दो कारख़ाने हवा में जहर घोलते हैं, व्यवस्था  सहर्ष और सगर्व उन्हें ऐसा करने देती है। पर्यावरण विभाग को चिंता तब सताती है ,जब ज़हर अच्छा-ख़ासा घुल चुका होता है। हमारे देश में नालियों को नियमित करने की व्यवस्था है, नदियों को साफ़ करने की नहीं। नदी को हम शुद्ध-पवित्र मानकर चलते हैं।

7. यह चिंता तो सभी धर्मगुरुओं और भक्तों को रहती है कि  चढ़ावा ज़्यादा चढ़े और धार्मिक कोष में वृद्धि हो। मगर उसके लिए बैंक लूट लेना, दुकानों या घरों में घुस कर नक़दी या ज़ेवर बटोरना, धर्म की सेवा के नए आयाम हैं , जो इन्हीं वर्षों में विकसित हुए हैं।

 8. जो कुछ होना है, वह हो चुका होता है ,तब खबर के साथ एक पुछल्ला , एक जुमला या एक वाक्यांश हमेशा रहेगा कि स्थिति नियंत्रण में है।

9.  किसी ने पूछा कि  स्थितियाँ कहाँ हैं ? तो वह यदि अफ़सर हुआ तो कहेगा , नियंत्रण में हैं। नियंत्रण एक हास्टल है स्थितियों का। स्थितियाँ बाहर जाती हैं, जैसे गर्ल्स हास्टल की लड़कियाँ घूमने निकलें और वापस लौट आती हैं। उन्हें नियंत्रण में ही रहना है। दिन-दिन में नियंत्रण से बाहर गईं। रात तक लौट आईं। जैसे ही कर्फ़्यू लगा, स्थिति नियंत्रण में आ गई। कहाँ जाती? कर्फ़्यू में घूम-फिर तो सकती नहीं थीं।

10. लूटपाट ,हत्या, घमकियाँ, आतंक, भय, दंगे, चोरी ,तस्करी, डकैती, बलात्कार, मारपीट, लाठी, गोली, गिरफ़्तारी, ज़मानत, फ़ायर होने आदि खबरों में यह कितने सुकून और हौसला देने वाली बात है क़ि स्थिति नियंत्रण में है, मामले की सरगर्मी से जाँच हो रही है और कड़ा कदम उठने वाला है। सच कहा जाए तो आज भारतीय नागरिक इन वाक्यांशों , इन जुमलों के सहारे ही साँस ले रहा है। 


Wednesday, October 23, 2024

शरद जोशी के पंच -17

 1. नेताओं के सामने दो विकल्प हैं। या तो आप उनसे पार्टी मज़बूत करा  लो या सरकार। वे दोनों एक साथ मज़बूत नहीं कर सकते।

2. पद्मश्री पर शहद लगाकर चाटा जाए तो शहद बड़ा फ़ायदा करता है। पद्मश्री के बहाने शहद चाटने में आ जाएगा। 

3. कुछ लोग इस योग्य हो जाते हैं कि पद्मश्री के अलावा किसी योग्य नहीं रहते। 

4. ख़ुशी की बात यह है कि पद्मश्री के बाद आदमी किसी काम का नहीं रहता और पद्मश्री उसे किसी काम का नहीं रखती। बल्कि उसे के पद्मश्री इस बात के लिए मिलनी चाहिए कि उसने पद्मश्री मिलने के बाद कुछ नहीं किया।

5. सहन करें क्योंकि सहन करने के अलावा हम क्या कर सकते हैं ? हम सहनशीलता के नमूने हैं। जिन्हें कुछ करना चाहिए, वे सहनशीलता के और बड़े नमूने हैं। हमारी रीढ़ पूरी तरह झुकी हुई कितनी खूबसूरत लगती है।

6. महंगाई एक ऐसी आग है जिसके बुझने का डर बना रहता है। वातावरण में ऊष्मा बनाए रखने के लिए सरकार और व्यापारी निरंतर उसकी आँच उकसाते रहते हैं। वस्तु का सम्मान बनाए रखने के लिए लगातार कोशिशें जारी रहती हैं। अभाव बना रहे ,तो भाव बने रहते हैं।

7. महंगाई से आदमी को अपनी औक़ात का पता चलता है। आदमी जितना ऊँचा है, महंगाई उससे ऊँची रहती है। 

8. अधिकांश लोग जब अपनी आर्थिक ऊँचाई से महंगाई की ऊँचाई नापते हैं, उन्हें लगता है कि वे ताड़ के वृक्ष के नीचे खड़े हैं।

9. आज़ादी के बाद एक अद्भुत आर्थिक संसार विकसित हुआ है। आदमी वस्तुओं को देखता है और ठिठका हुआ खड़ा रहता है। अधिकांश भारतवासियों के पास केवल सड़क पर चलने के अधिकार हैं। उनके दुकानों में घुसने के अधिकार समाप्त हो गए हैं।

10. पेट्रोल के दाम बढ़ने से टैक्सी का भाड़ा बढ़ा। गरीब तो टैक्सी में बैठता नहीं। देश में असली गरीब के पास तो लोकल ट्रेन या बस में चलने के भी पैसे नहीं। सब्ज़ी महँगी होगी। गरीब सब्ज़ी खाता ही नहीं। गरीब आदमी को इस हालत में पहुँचा दिया गया है कि उसका मंहगाई से संबंध ही नहीं रहा। 


Monday, October 21, 2024

शरद जोशी के पंच -16

 1. अधिकांश भारतवासियों के लिए अब एक जगह से दूसरी जगह, एक चलता-फिरता प्रधानमंत्री ही राष्ट्र-गर्व का मामला रह गया है। उसे देखते रहिए और सीना फुलाए रहिए कि हमारा भी एक देश है।

2. सोचने वाले सौभाग्य से ,गहराई से नहीं सोचते अन्यथा पागल हो जाएँ कि देश में पहले क्या मज़बूत होना चाहिए। उनमें अधिकांश अपनी पार्टी मज़बूत करने में और पार्टी से ज़्यादा कुर्सी मज़बूत करने में लगे रहते हैं। उनका जीवन -दर्शन यह है हमारी पार्टी चुनाव में जीतती रहे और हम पद पर बने रहें तो समझिए , सब मज़बूत है।

3. बड़ी जल्दी हमें इस देश को एक प्लेटफ़ार्म मान लेना होगा, जहां हर नागरिक को अपने इरादों की रेल पकड़ने का हक़ है। जितने यात्री समूह ,उतनी मंज़िलें। कोई ब्राउन सुगर बेच रहा है , कोई रैली निकाल रहा है, कोई बम बना रहा है। सबके अपने धार्मिक इरादे हैं। और देश की सरकार न हुई एक धंधा करने वाली औरत हुई कि चूँकि उसे वोट लेने हैं , यश बटोरना है, कुर्सी पक्की रखनी  है ,प्रगतिशील कहलाने की मजबूरी में सहिष्णु रहना है , सब कुछ सहन कर रही है। 

4.  बड़ों के प्रेम-प्रसंग अधिक देर तक छिपे नहीं रहते या बड़े देशों के सुरक्षा के रहस्य दूसरे बड़े देशों को फ़ौरन लीक हो जाते हैं। लीक इसलिए होते हैं, क्योंकि जो लीक हो सकता है वह अवश्य लीक होता है। 

5. हिंदू धर्म के प्रभाव का क्षितिज चाहे दिन-प्रतिदिन सिमट रहा हो ,पर हिंदू धर्म के महंत, मठाधीश स्वामियों के प्रभाव का क्षितिज भारतीय सीमा से कहीं आगे है। किसी भी गुरु से पूछो तो वह कहेगा कि ईमानदार चेले और समर्पित चेलियां भारत में आजकल मिलते कहाँ हैं?

6. शिक्षा एक ऐसी  बिगड़ी मोटर है, जिसके उन हिस्सों को भी सुधारना या बदलना है , जो नए लगे हैं। और न सिर्फ़ मोटर बल्कि ड्राइवर में भी सुधार करना है, बल्कि हो सके तो ड्राइवर भी बदलना है। 

7. अजीब गाड़ी है शिक्षा की, इसमें सब कुछ बदला जाना है। टूटी-फूटी इमारत फ़र्नीचर, पाठ्यक्रम, पढ़ाने की शैली , पढ़ाने की भाषा, पढ़ाने वाले, सामने खेलने का मैदान ,प्राप्त सुविधाएँ, दोपहर का नाश्ता ,टंकी का ख़राब पानी, बल्कि कुछ शिक्षकों और हेडमास्टरों से पूछो तो वे अपने छात्र बदलना चाहेंगे।

8. छिपाने के कौशल में हम भारतवासी संसार के देशों से कहीं आगे हैं। एक अभिनेत्री दूसरी अभिनेत्री से अपने प्रेम की जलन छिपाती है। एक कांग्रेसी दूसरे कांग्रेसी से अपना कुर्सी प्राप्त करने का इरादा छिपाता है। हीरो अपना प्रेम छिपाता है, सुंदरियाँ अपने को अधिकांश छिपा जाती हैं। 

9. हमारे देश में अधिकांश लोगों की प्रतिभा कुछ न कुछ छिपाने में लगी रहती है। कुछ लड़कियाँ अपनी कविताओं को छिपाकर रखती हैं, जैसे वे प्रेम पत्र हों, जिनके लिखे जाने से पहले उनके छिपाए जाने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। 

10. भारतीय प्रेमी-प्रेमिका की दूसरे से शादी हो जाती है, वे अपने मन की बात व्यक्त कर ही नहीं पाते। पति-पत्नी एक-दूसरे को चाहते हैं यह बात भी मोहल्ले वालों को सारे जीवन पता नहीं चल पाती। वे सोचते हैं कि बाल-बच्चेदार हैं तो चाहते ही होंगे। 


Saturday, October 19, 2024

शरद जोशी के पंच -15

 1. सुरक्षा गरीब देश का अधिकार है, जिसे क़ायम रखने के लिए अमेरिका सबको लड़ने के लिए ज़रूरत-बे-ज़रूरत शस्त्र देता है। 

2. किसी देश के नेता और वहाँ की सरकार अपने को असुरक्षित मानना स्वीकार न करे तो गरीब देशों के सुरक्षा हितों को सही गहराई में समझने वाला अमेरिका सी.आई.ए. स्तर से प्रयत्न कर वहाँ  की सरकार उलट देता है और एक ऐसी सरकार या डिक्टेटरशिप उत्पन्न करता है जो अपने गरीब देश के सुरक्षा हितों को प्राथमिकता दे, अमेरिका से शास्त्र माँगने लगती है।

3. जब चंदा बढ़ने लगता है ,तो उसे धंधे में लगाना पड़ता है। 

4.वाणिज्य करने वाले बड़े चतुर , व्यावहारिक  समझे जाते हैं। इसका मतलब है, लक्ष्मी सरस्वती के बेटों पर कृपा न करती हो, पर सरस्वती लक्ष्मी के बेटों पर कृपा करती है।

5.समाज सेवी जहां कम्बल बाँट गए, स्थानीय नेता वहाँ से वोट ले गया और पुलिस वाला वहाँ से हफ़्ता ले गया। अपराध अपनी जगह क़ायम रहा। झोपड़ी बनी रही।

6. बड़े लोगों में मनोवैज्ञानिक विकृतियाँ होना कोई आश्चर्य नहीं। 

7. मोहल्ले में जो पैसा फूंक दीपावली मंगलमय नहीं बनाता ,लोग उसे  थोड़ी हिक़ारत की नज़र से मुस्कराकर देखते हैं। औरतें ज़ेवरों से लदी हैं, पूरा राष्ट्र ज़ेवरों से लदा मिठाई खा रहा है। कोई दीपावली के दिन हमें देखकर नहीं कह सकता कि हमारे बदन में प्रोटीन और विटामिन की कमी है।

8. ऊँचे और पुख़्ता भवन बिना चोरी की कमाई के नहीं बनते। भवन का आधा हिस्सा सफ़ेद कमाई से बना हो, पर बाक़ी आधा बिना काली कमाई के पूरा नहीं होता। 

9. बड़ा घर बनाने वाला बड़ी चोरी करता है और छोटा घर बनाने वाला छोटी चोरी। 

10. इस देश में जो भी जल्दी सोकर उठता है ,वह  स्वयं को नैतिक दूसरों से अधिक बलवान मानता है। 

Sunday, October 13, 2024

शरद जोशी के पंच -14

 1. हमारे प्रजातांत्रिक देश में एक बड़ी सुविधा है कि आप महात्मा गांधी से सहमत होकर सत्तारूढ़ पार्थी चला सकते हैं और इसी महात्मा गांधी से सहमत होकर विरोधी दल बना सकते हैं। 

2. मुझे बीड़ी पीता आदमी एक खादी पहने व्यक्ति से ज़्यादा गांधीवादी लगता है। इसमें भारतीय आत्मनिर्भरता है। बीड़ी की टेक्नोलाजी और पैकिंग, जिसे हम बंडल कहते हैं, भारत में परम्परा से विकसित टेक्नोलाजी है।

3. भ्रष्टाचार से परिचय बाल्यकाल में हो जाता है। जन्म लेते ही बच्चे को पता लग जाता है कि नर्स को कुछ लिए-दिए बिना उसकी सफलता से जचकी नहीं हो पाती। 

4.  पिछले वर्षों में व्यवस्था में मनुष्य के जीवन की सारी सुविधाएँ कम करते और छीनते हुए बाज़ार उपभोक्ता सामग्री से पाट दिया है। रिटायर्ड अफ़सर भी चैन से नहीं बैठता। वह प्राइवेट पार्टी के चक्कर काटता, चंद रुपयों के लिए सरकारी रहस्य बेचता, अपने पुराने प्रभाव को भुनाते हुए टेंडर मंज़ूर करवाता फिरता है। नौकरियाँ तलासता रहता है ,ताकि जीवन की सुरक्षा बनी रहे और जीवन की और ऐश की सामग्रियाँ ख़रीदी जा सकें। 

5.  जगह और परिस्थितियाँ पक्ष में हों ,तो शासन करने वाला हद दर्जा नीच हो सकता है।

6. जिसमें ख़रीदने की ताक़त होती है, उसका कभी कुछ नही बिगड़ता। 

7. संसार के सभी देश एक कोण से दुकान होते हैं। 

8. लू चली तो लोग मरे, ठंड बढ़ी तो लोग मरे, बाढ़ आयी तो कुछ डूब गए, तूफ़ान आया और इतनी मौतें हुई, प्रकृति संबंधी हर सूचना इस देश में मृत्यु की सूचना है। 

9. हमारे देश में हेलिकाप्टर का यही महत्व है कि बाढ़ का तांडव देखा जाए। पानी जब जमा हो जाए तब उस पर आंसू बरसाकर पानी का स्तर और उठाया जाए। 

10. सड़क से लेकर जंगल तक हमने आदमी को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। किसी के मरने से हमें कमी महसूस नहीं होती। हमारे देश के बड़े लोग शायद उसे माल्थस के सिद्धांत के अनुसार ज़रूरी और सही मानते होंगे। 

11. सरकार यह मानकर चलती है कि मौसमी मौतें तो होंगी। जब सब कुछ नष्ट होने के साथ मौतें भी होंगी, तब हम भोजन के पैकेट गिराएँगे। जीवित को बचाने के लिए नहीं, मृतकों का श्राद्ध करने के लिए। हमारी यह संवेदना है, यही संस्कृति है। 

Saturday, October 12, 2024

शरद जोशी के पंच -13

 1.   भारत व्यवस्थित रूप से अव्यवस्थित देश है। यहाँ आप जहां-जहां व्यवस्था देखेंगे,वहीं-वहीं अव्यवस्था उतनी अधिक देखेंगे। आप निश्चित नहीं कर पाएँगे कि आप जो देख रहे हैं ,उसमें व्यवस्था क्या है और अव्यवस्था कितनी है।

2.  जहां बिना हड़ताल का डर बताए मज़दूरों को मंहगाई-भत्ता न देना रिवाज बन गया है, जहां मध्यम तबके के कर्मचारी कभी इज्जत नहीं पाते और जहां मैनेजमेंट कभी मानवीय दृष्टि से नहीं देखता ,वहाँ आप जापान छोड़ कोरिया के बराबर नहीं पहुँच सकते। 

3. शिकायत की जाती है कि भारतवासी से पूरी तरह काम लेना कठिन है। पर कोई भारतवासी पूरी शक्ति से अपना श्रेष्ठ दे सके इसका बुनियादी इंतज़ाम भी नहीं है।  

4. इस देश में मज़दूर को मजूरी करना आता हो या नहीं ,अफ़सर को अफ़सरी करना ख़ूब आता है। और इस अफ़सर में मानवीय तत्व का नितांत अभाव है।

5. इसे देश में बड़े पायेदार नेताओं की दो ही दुर्दशाएँ हैं। वे केंद्र में रहकर अपने राज्य के नाम पर रोते-झींकते रहें या राज्य के मुख्यमंत्री बन केंद्र के चरण पखारते रहें। 

6. अधिक दहेज देना अपनी बहन या अपनी बेटी को अपने जीवन से सदा के लिए काट देने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। 

7. प्राचीनकाल में लड़कियाँ ब्याह देने के बाद भारतीय बाप वानप्रस्थ आश्रम में पड़ा संन्यास आश्रम के बारे में सोचने लगता था। कारण स्पष्ट है, नंगे को फ़क़ीर बनने की प्रेरणा आसानी से मिलती है। 

8. महानगर का अर्थ गगनचुंबी इमारतें होता है, झोपड़ी नहीं। अमीरों को नौकर चाहिए पर नौकरों को घर दिए जाएँ ,यह मुनाफ़ों के अर्थशास्त्र के अनुकूल नहीं। ज़मीन की क़ीमत आदमी से ज़्यादा है। इमारत की क़ीमत इंसानियत से ज़्यादा है। 

9. बम्बई बिल्डरों, मालिकों और धंधेबाज़ों का शहर है। हर कार्यालय उसकी एजेंसी है। रईसों का स्वार्थ जब व्यक्त होता है ,वह नगर की सुंदरता की बात करता है। वह नगर के पाप कम करने का जेहाद नहीं छेड़ता, वह नगर की सुंदरता की लड़ाई छेड़ता है। 

10. जब सब बरबाद हो चुकेगा ,तब नेता अपने बिलों से निकलेंगे, दुःख-दर्द सुनेंगे, जुल्म पर आश्चर्य करेंगे। आश्वासन देंगे। तब राजनीति चालू होगी। गरीबों की सहानुभूतियां  बटोरी जाएँगी ताकि वोटों की फसल उस मैदान से भी काटी जा सके ,जहां कभी झोंपड़े थे। 



Thursday, October 10, 2024

शरद जोशी के पंच -12


1. क्रिकेट या टेनिस में सफलताएँ खिलाड़ी को कमजोर और पत्रिकाओं को मज़बूत बनाती हैं। पत्रिका का एक अंक उम्मीद लगाता है, दूसरा उसी निराशा का विश्लेषण करता है।

2. इस देश में सभी काम श्रीगणेश की कृपा से आरम्भ हो जाते हैं। संस्थाएँ ज़ोर-शोर से खुल जाती हैं, चाहे बाद में निकम्मी और ढोंगी साबित हो जाएँ। आंदोलन आरम्भ होते हैं, जिसके सदस्य कुछ दिनों बाद आपस में लड़ने लगते हैं। प्रवत्तियाँ जल्दी ही दुष्प्रवत्ति में बदल जाती है।

3. इस देश को श्रीगणेश के अतिरिक्त दो देवताओं की ज़रूरत है। एक ऐसा देवता, जिसकी कृपा से आरम्भ हुआ काम ठीक से चलता रहे, बना रहे, सम्भला रहे। और दूसरा देवता हमें चाहिए समापन के लिए। जिसकी कृपा से बेकार और पुरानी चीजें ख़त्म हो जाएँ।

4. भारतीय बाज़ारों का नजारा यह है कि यहाँ सस्ती चीजें रईस ग्राहकों का इंतज़ार करती हैं और मंहगी चीजें गरीब ग्राहकों का। हथकरघे की साड़ी की ग्राहक इंपाला में आती है और टेरीकाट,नायलोन की ग्राहक बेचारी पैदल या बस में।

5. हमारे देश में यही होता है। योजनाएँ बनाती रहती हैं, काम नही होता। होता है तो देर से होता है, और योजना का काम तो निश्चित ही देर से होता है।

6. वास्तव में इस देश की सबसे कठिन और सबसे बड़ी योजना तो योजना बनाने की योजना है। जब योजना पूरी हो जाती है तो, सबको काम पूरा करने का संतोष मिल जाता है, बल्कि उसके बाद काम करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।

7. हर योजना के दो लक्ष्य होते हैं। एक आर्थिक लक्ष्य और दूसरा भौतिक लक्ष्य। आर्थिक लक्ष्य पूरे हो हाते हैं, भौतिक लक्ष्य अधूरे रह जाते हैं। नींव खुद जाती है, खम्भे खड़े हो छत का इंतज़ार करते हैं। छत लग जाती है, तब रंग रोगन के लिए स्वीकृति नहीं मिलती। योजना का बड़ा लक्ष्य है काम करने वालों को वेतन और भत्ता देना। उसके बाद वास्तविक काम के लिए रुपया नही बचता, क्योंकि योजना-व्यय में कटौती हो जाती है।

8. जब भी बाढ़ आती है,केंद्र से बयान आते हैं। इतने वर्षों से ये बयान ही चट्टान की तरह खादे बाढ़ को रोक रहे हैं। बयान यह है कि बाढ़ की समस्या के दूरगामी और स्थायी उपाय किए जाने चाहिए।

9. इस देश में प्रांत समस्यायों से चमक में आते हैं और केंद्र बयानों से। भगवान दोनों को बराबर मौक़ा देता है।

10. लोगों का स्वभाव है कि जब तक उन्हें दांत का दर्द नहीं होता वे पेट-दर्द की शिकायत करते रहते हैं। इसलिए पेट-दर्द की समस्या का हल दाँत का दर्द हो गया है।


Wednesday, October 09, 2024

शरद जोशी के पंच -11


1. इस देश में समझदारी के कदम उठाने के लिए व्यवस्था दुर्घटना का इंतज़ार करती है।
2. पर्यावरण-पर्यावरण रोने से पर्यावरण ठीक नहीं होगा। गैस-गैस चिल्लाने से गैसें कम नहीं होंगी। सत्ता के बाप में हिम्मत नहीं कि वह कोई कारख़ाना एक जगह से दूसरी जगह हटा सके, सिफ़ारिशों पर अमल करा सके, कड़ा कदम उठा सके, जो कारख़ानेदार की मंशा के विपरीत हो। आजकल उद्योगों की लल्लो-चप्पो करने के दिन हैं।
3. विकास का अर्थ इस देश में होता है सुखी वर्ग को और अधिक सुविधाएँ प्रदान करना।
4. विकास के काम अड़ंगे डालना राष्ट्रीयता के विरुद्ध है। अत: देश का प्रमुख नारा हुआ 'ठेकेदारों को कमाने दो, गरीबों का हित उसी में है।
5. सारे आचारों में भ्रष्टाचार इस देश में सबसे सुरक्षित है। वह दुबककर काम करने के बाद सीना उठाकर चलता है।
6. भ्रष्टाचार हमारे यहाँ एक सम्मानित आधार है। काफ़ी लोग उसे व्यवहार मानते हैं। ऊपरी कमाई करना व्यावहारिकता मानी जाती है। भ्रष्ट व्यक्ति की प्रशंसा में कहा जाता है कि आदमी प्रैक्टिकल है।
7. भ्रष्टाचार इस देश में उल्टी गंगा है। वह समुद्र से पानी बटोरकर हिमालय तक पहुँचाती है। एक इंस्पेक्टर जब सौ रुपए लेता है तो वह शान से कहता है,मैं अकेला नही खाता। ऊपर वालों को भी खिलाना होता है।
8. भ्रष्टाचार निजी कौशल पर आधारित एक सामुदायिक कर्म है।
9. इस देश में भ्रष्टाचार छत पर चढ़कर वायलिन बजाता है। लोग उसकी लय से मोहित रहते हैं। उसे दाद देते हैं।
10. भ्रष्टाचार एक पत्थर है। दिन-रात यह देश उस पत्थर को हाथ में ले सिर पर ठोंकता रहता है और दर्द से कराहता-अफ़सोस करता रहता है। तो आप उसका क्या कर पाए? धीरे-धीरे यह दर्द मीठी गुदगुदी बन गया है। हम इसे रोकने में अपने को कहीं से असमर्थ पाते हैं।

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Sunday, October 06, 2024

शरद जोशी के पंच -10



1. जिस देश की हर नदी, हर तालाब गंदा है, वहाँ के हर छात्रों के लिए पता नही यह जानकारी कितनी उपयोगी है कि पानी आक्सीजन और हाइड्रोजन से बनता है। वह सारा जीवन इन तत्वों को हर गिलास में तलाशता रहेगा। उसे बदले में कीड़े और कचरा ही नज़र आएगा।
2. हमारे देश में बच्चा पतला होता है , उसका बस्ता भारी होता है। कुली-मज़दूरों का देश है हमारा। भार उठाने का अनुभव बचपन से होना चाहिए।
3. इस देश के दोहरे दुर्भाग्य हैं। एक तो यह कि जो बहादुर कहलाते हैं वे हत्याएँ करने लगे हैं। और दूसरा दुर्भाग्य यह है कि जो हत्याएँ करते हैं, वे अपने को बहादुर समझने लगे हैं।
4. हमारा दुर्भाग्य यह है कि स्वयं को वीर समझने वाले हत्या में वीरता समझने लगे हैं।
5. इस देश में कहीं-कहीं वीर रस बरसों सड़कर हत्या रस बन गया है।
6. भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता का एक रहस्य यह भी है कि इसने सट्टे और जुए की ऊँचाई प्राप्त कर ली है।
7. आदमी की ज़िंदगी इस देश में यों है कि बचपन में स्कूल में एडमिशन के लिए परेशान, जवानी में नौकरी के लिए और बुढ़ापे में पेंशन के लिए।
8. नौकरी का मिलना एडमिशन से ज़्यादा कठिन है। मिल गई तो लोग सर्विस करते हुए मर गए। तब न मरे तो पेंशन के काग़ज़ मिलने से पहले मर गए। जीवन को श्रेष्ठ और सफल तब माना जाता है, जब आदमी पेंशन लेकर पेंशन खाकर मरे।
9. बड़ी सभ्यता-प्रधान, संस्कृति-प्रधान, गाँव के प्रधान से प्रधानमंत्री तक इस कुर्सी-प्रधान देश की एक प्रधान बात यह है कि बड़े-बूढ़ों की इज्जत करने पर ज़ोर दिया जाता है। मगर इज्जत की नहीं जाती।
10. जो शख़्स एक सरकारी दफ़्तर में पूरी ज़िंदगी खप गया,वह जब रिटायर होता है,तब समस्या की तरह होता है। अर्थात् घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर तक ही महीनों लुढ़कता-घिसटता रहता है, मगर पेंशन के काग़ज़ नही बन पाते।
11. सरकारी व्यवस्था में पैसा जमा करने के सारे दरवाज़े बहुत चौड़े हैं, इंतज़ाम चिकना है। देते से पहुँचते देर नही लगती। मगर जब सरकार से लेना हो तो कितने कील, काँटे, तार, जाली, छन्नी, बंद-खुली खिड़की से आपका हाथ नोट हाथ में लेकर बाहर निकल पाता है। और अक्सर तो निकल ही नही पाता, वहीं फँसा रहता है। जब बाएँ हाथ से कुछ देते हैं तब दाँया हाथ कुछ लेकर बाहर निकल पाता है।

Saturday, October 05, 2024

शरद जोशी के पंच -9



1. जीने का दर्शन दूसरे की मृत्यु हो गया है। हमें हर क़िस्म के समाचार पढ़ने और सुनने के लिए तैयार रहना है, जब तक हम स्वयं समाचार न बन जाएँ। जंगल काट गए हैं,जानवर नही हैं शिकार के लिए,पर शस्त्र हैं,इसलिए पूरा देश जंगल हो गया है। आदमी,आदमी का शिकार कर रहा है। मार रहा है।
2. एक छोटे शहर और महानगर बम्बई में एक बड़ा अंतर यह है कि यहाँ काम होने के बाद कोई किसी को नही पूछता। आज जिस गायक,खिलाड़ी या अभिनेता के पीछे बम्बई वाले पागलों की तरह दौड़ते हैं, वे बुझ जाने के बाद कहाँ किस हाल में ज़िंदगी काट रहे हैं,इसका किसी को पता नही रहता है, न फ़िक्र।
3. व्यावसायिक नगर इस मामले में बड़े निर्मम होते हैं। वहाँ आत्मीयता के सारे प्रदर्शन अस्थायी होते हैं। आज अपनी गरज का मारा जो लाँच देता है, वह कल पानी के गिलास के लिए भी नही पूछता।
4. यदि आप पुलिस को आतंकवादी से निपटने का काम सौंप दें तो वे पूरी तौर पर भिड़ जाएँगे। और जिससे भी भिड़ेंगे उसे मंज़ूर करना पड़ेगा कि वह आतंकवादी है। यह काम इतने ज़ोर-शोर से होगा कि हर तीसरा नागरिक आतंकवादी लगने लगेगा और पुलिस के डर से ऐसा दुम दबाए रहेगा कि सारा आतंकवाद भूल जाए। थाने में जब भी कोई पिटता सुनाई दे,समझिए आतंकवादी है।
5. जिस व्यवसायी को एक चढ़ा हुआ भाव लेने की आदत पड़ जाती है वह इस या उस बहाने वही भाव बनाए रखता है।
6. मंत्री के कक्ष में विधायक न्याय की लड़ाई में संघर्षरत हैं अर्थात वे किसी बलात्कारी या भ्रष्टाचारी को बचाने में लगे हैं। वे यथार्थ को समझ रहे हैं अर्थात किसी ठेकेदार या सप्लायर द्वारा वर्णित तथ्यों को समझ रहे हैं। वे प्रश्नकाल में सवाल पूछ रहे हैं अर्थात किसी व्यावसायिक कम्पनी के स्वार्थों की रक्षा कर रहे हैं।
7. हमारे देश की एक सांस्कृतिक ख़ूबसूरती बरसों से यह है कि हम समस्यायों को घटना के रूप में लेते हैं। इससे शासन व्यवस्था को सुविधा रहती है और जिस पर गुजराती है,वह भी प्रभु-इच्छा मान उसे थोड़ा दुखी हो सहन कर लेता है।
8. समस्यायें बनी रहती हैं और घटनायें भूल दी जाती हैं। इसलिए सरकार कभी घटना को समस्या नही बनने देती। हर साल बाढ़ में लोग डूबते हैं, बलात्कार होते रहते हैं, पुराने या नए मकान ढहते हैं और हमारी व्यवस्था उसे भूलती हुई फिर उस घटना की खबर पढ़ने का इंतज़ाम करती है।
9. कुछ लोगों का कहना है कि जो आदिवासी है,वह आदिवासी बना रहे इसी में उसका कल्याण है। कुछ का ख़्याल है कि बेचारा कब तक आदिम अवस्था में पड़ा सड़ता रहेगा, कुछ भी करके हमें इसे आधुनिक बनाया जाए। मज़ेदार बात यह है कि दोनों हालात में हमें आदिवासी के लिए करना क्या है, कोई नही जानता।
10. क्षेत्र का कल्याण आदिवासी का कल्याण नहीं होता। पक्की सड़कें आदिवासियों को कहीं नही ले जातीं। हाँ, शहरी बुराइयाँ और शोषण का प्रपंच उन तक ज़रूर पहुँच जाता है।
11. देश में हर व्यक्ति के पास आदिवासी कल्याण की निजी योजना है। इस सबसे घबराकर आदिवासी सोचता होगा कि मुझे मेरी झोपड़ी और मेरी मुर्गियों को हमारे हाल पर छोड़ दीजिए, इसी में हमारा कल्याण है।

Thursday, October 03, 2024

 शरद जोशी के पंच -8

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1. यह भारतीय सेंसर बोर्ड है,जो सेक्स बेचने वाले बड़े निर्माताओं की जेब में पड़ा रहता है। कोई खोखलापन तो हममें है ही कि हम यह सहन करते हैं।
2. किसी भी मामले की जाँच करना अपने आप में एक अद्भुत रहस्यमय कला है। आप कहें कि हमने फ़लाँ हरकत आँख से देखी तो वे आपकी आँखों की जाँच पड़ताल करेंगे और यह पता लगाने की चेष्टा करेंगे कि जिससे देखा गया वह आँख ही थी।
3.आधुनिक जीवन में एक मूल्य पिछले वर्षों उभरा है कि वे सारी बातें, जिनसे करों की गति धीमी होती है,ग़लत है,उन्हें समाप्त करो।
4. आज़ादी के बाद इस देश में सड़कों के नक़्शे ऐसे बने हैं कि जिन रास्तों से नेता गुजरते हैं,उन रास्तों से अच्छे लोग नही गुजरते।
5. राजनीति में तो यह है कि सड़कों पर हाकी होती है, नेताओं के ड्राइंगरूम में शतरंज। समस्या फ़ुटबाल की तरह उछलती है,हाल बास्केटबाल की तरह डाले जाते हैं, संवाद टेनिस की तरह चलते हैं। दोनों बात करने वाले सुरक्षात्मक खेल खेलने वाले क्रिकेटरों की तरह लम्बे समय तक रन न बनने देते हैं, न आउट होते हैं। जिसके हाथ स्ट्राइकर आ जाए वही कैरम की अधिकांश गोटें ले लेता है।
6. इस देश में, जहां एक नेताईरी के साये में दूसरी नेतागीरी पनपती है, पिछड़े क्षेत्रों में प्रधानमंत्रियो की यात्राओं का बड़ा महत्व है। वह आकार उँगली पर पर राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का गोवर्धन उठाता है और स्थानीय समस्याएँ उसकी छाया में छिप जाती हैं।
7. प्रधानमंत्री जब कहता है कि ग़रीबी सारे देश में है और हमें उससे लड़ना है,तो लोकल गरीब संतोष की साँस लेते हैं कि चलो, अखिल भारतीय मामला है, जब निपेटगा तब निपटेगा। वे अपनी ग़रीबी के स्थानीय कारणों के प्रति क्षमाशील हो जाते हैं।
8. प्रधानमंत्री का आगमन एक जश्न होता है जब स्थानीय नेता,भ्रष्ट छूटभैये,नायब तहसीलदार,तहशीलदार,स्थानीय एम.एल.ए. ,एम.पी., मंत्री,मुख्यमंत्री,पुलिस अफ़सर,थानेदार सब एक हो जाते हैं। इस शर्त पर कि तू मेरी शिकायत मत करना,मैं
तेरी नही करूँगा, वे एक दूसरे के काफ़ी काम कर देते हैं।
9. इस देश में पटवारी गाँव की सच्चाई तहसीलदार से छिपाता है, कलक्टर ज़िले की सच्चाई मुख्यमंत्री से छुपाता है, मुख्यमंत्री राज्य की सच्चाई प्रधानमंत्री से। 'सब ठीक है', 'सब चंगा है' , 'सब अच्छा चल रहा है' की गूंज बनी रहती है।
10. खबरें हर क़िस्म की हैं और वे हर दिशा से आती हैं। दूसरों को तंग करने,उसे नष्ट करने का एक दर्शन देश में विकसित हो गया है। हर व्यक्ति के पास पिस्तौल नही है सौभाग्य से, मगर उसका दिमाग़ धीरे-धीरे पिस्तौल हो गया है। वह लगा भले न पाए, मगर एक निशाना हर एक के दिमाग़ में है।

Wednesday, October 02, 2024

शरद जोशी के पंच -7



1. चारों ओर सामाजिक दुर्गुणों की कीचड़ के बीच भारतीय न्याय बरसों से कमाल जैसा एकाकी जीवन जी रहा है।
2. जजों का बुढ़ापा अपराधियों के बुढ़ापे-सा सुखद तो होता नही,यह उतना सुरक्षित भी नही जितना किसी व्यस्त और सफल वकील का। कई रिटायर्ड जज इस आशा से सरकार का मुँह जोहते रहते हैं कि उन्हें किसी जाँच-कमीशन का काम बुढ़ापे में मिल जायगा। स्थिति दयनीय हो जाती है। बुढ़ापे में न्यायाधीशों को दाल-चावल कोई सस्ते में तो बेचता नहीं।
3.यह देश हर मामले में आत्मनिर्भर व्यवस्थाओं के बारे में सोचता है, पर न्याय का पूरा ढाँचा अपने आप में सक्षम और अपनी व्यवस्था खुद सम्भाले,अपनी समस्या से खुद निपटे,यह हम कभी नही सोचते। सच यह है कि अपराधी हो, पुलिस हो, निरपराधी हो, सरकार हो, सब इस उम्मीद में रहते हैं कि न्याय का पलड़ा उनकी तरफ़ और सिर्फ़ उनकी तरफ़ झुके। खींचतान जारी रहती है। न्याय ठिठका रहता है। बयान जारी रहता है। मुक़दमा नही निपटता।
4. झोपड़ियों को लेकर धीरे-धीरे एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण पनप रहा है। धीरे-धीरे सब इस बात पर सहमत होने लगे हैं कि इस देश में झोपड़ियाँ नही होनी चाहिए। यदि हैं तो उन्हें जल्दी टूटना है। यदि तोड़ी नही जा रहीं तो यह लापरवाही है, कायरता है, सरकार का दब्बूपन है कि झोपड़ियों के सामने झुक रही है। वीरता से काम लो, बुलडोज़र से काम लो और झोपड़ी तोड़ो।
5. प्रजातंत्र के विकास में झोपड़ी का सुनिश्चित संबंध वर्षों से यह रहा है कि चुनाव के दो वर्ष पूर्व जब वोटों का मूल्य नेता पहचानने लगते हैं, वे झोपड़ियाँ बनी रहने देते हैं और चुनाव के एक वर्ष बाद जब सत्ता अपनी पकड़ कुर्सी पर मज़बूत करने लगती है,झोपड़ियाँ एकाएक अवैध,ग़ैरज़रूरी और नगर के सौंदर्य पर कोढ़ लगने लगती हैं। दो वर्ष तोड़-फोड़ में बीतते हैं। यहाँ के उजड़े वहाँ और वहाँ के उजड़े यहाँ बसने लगते हैं। फिर धीरे-धीरे नेताओं और अधिकारियों की सौंदर्य-दृष्टि में अंतर आता है। वोटर लिस्ट बन चुकी होती है और झोपड़ियाँ उन्हें फिर सुंदर लगने लगती हैं।
6. राष्ट्रीय दृष्टि स्पष्ट होती जा रही है कि आदमी कहीं रहे,मगर झोपड़ी में न रहे। झोपड़ी से हमारे देश की नाक कटती है। बिल्डर जो सीमेंट का संसार विकसित कर रहे हैं, वही देश है। उसमें रहना ही नागरिकता है। झोपड़ी में रहना अराजकता है, चोरी, बदमाशी है, एक कलंक जो समाप्त होना चाहिए।
7. आदिवासी वहीं है जहां वह पहले था। हर भाषण में उसका ज़िक्र किया गया, हर आयोग ने उस पर सोचा, हर घोषणा-पत्र में उसकी दशा पर चिंता की गई, हर योजना और हर बजट में उसके लिए प्रावधान रखा गया था,पर आज इतने साल बाद जब भारत का प्रधानमंत्री उसके दरवाज़े पर पहुँचता है, वह उसी तरह रोता-बिसूरता मिलता है जैसे वह बरसों पहले मिला था, जब भारत का पहला प्रधानमंत्री उससे मिलने पहली बार उसके ज़िले में गया था।
8. शहर पेड़ चीरता जंगलों में घुस रहा है,पर आदिवासी उतना ही आदिवासी है जितना वह आदिम अवस्था में था। आज भी वह कैमरे से फ़ोटो खींचने काबिल चीज़ है।
9.बड़ी विचित्र, अनूठी -सी चीज़ होता है इंस्पेक्टर। सब कुछ चलता रहता है,वह इंसपेक्ट करता रहता है। थानों में क्या कुछ नही होता,पुलिस वाले क्या कुछ नही करते, मगर जिसे कहते हैं पुलिस इंस्पेक्टर,वह बराबर हर जगह इंस्पेक्शन करता मिलेगा।
10. इस देश का हर हिस्सा इंसपेक्ट होता रहा है और देश की हालत आप देख ही रहे हैं। मगर आपके देखने से कुछ नही होता। देखेगा तो इंस्पेक्टर देखेगा। सरकार उसके देखे से देखेगी। वह सरकार की बड़ी-बड़ी आँखे हैं। वह सत्ता का कमल-नयन है।
11. वर्ष दो भागों में बंटता है इस देश में। एक समय जब इंस्पेक्टर साहब आने वाले होते हैं। एक वह जब वे इंस्पेक्शन कर जा चुके होते हैं। इस देश में आशावाद इन्हीं दो हिस्सों में विभाजित है। रहा है बरसों से। यह विभाजन प्रेम की तरह है। जब वे देख रहे होते हैं। जब वे नही देख रहे होते हैं। दोनों अवस्था में सजने-सँवरने और बिगड़ने में एक सार्थकता है। वे देखेंगे, वे कुछ काम करेंगे। हम उनके द्वारा इंसपेक्टित होंगे।

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Sunday, September 29, 2024

शरद जोशी के पंच -6


1. प्रेमियों की मुलाक़ातें छोटी और प्रायः बेमानी होती हैं, पर उसकी तैयारी में मुँह धोने से सेंट छिड़कने तक जो-जो किया जाता है,वह अधिक समय लेता है।
2. ऊँची मुलाक़ातें प्रायः अपने देश में खुद को ऊपर उठाने के लिए होती हैं। शांति चाहने वाले तो टेलीफोन पर दस मिनट बात कर किसी घटाने वाले अनर्थ को रोक सकते हैं। पर उसमें तमाशा कहाँ है? उसमें वाक्यों का कूँगफू और कराटे देखने को नहीं मिलेगा।
3. (कमेटी के) सदस्य दो तरह के होते हैं। एक तो वे , जो पहले से ही अपराधी, चोर, भ्रष्ट आदि होते हैं और फिर सदस्य बनते हैं। दूसरे वे, जो कमेटी के सदस्य बनने के बाद यह सब होते हैं।
4. (पत्रकारों के) प्रश्नोत्तर की पूरी शैली लोकसभा और विधानसभा की प्रश्नोत्तर शैली से प्रभावित है। वहाँ सरकार ढाल हाथ में ले सामने से आते तीरों का उत्तर देती है अर्थात बचाव करती है। सवालों में विरोध से लेकर चमचागीरी तक सब नज़र आती है। जवाबों में मूर्खता से लेकर ग़ैर-ज़िम्मेदारी तक टपकता है।
5. गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों के सपनों में सुंदर खिलौने पारियाँ लेकर देती हैं, उनके बाप लाकर नहीं देते। दे नही सकते,क्योंकि खिलौने उनकी औक़ात से भारी होते हैं।
6. हमारे देश के नेता बच्चों के गाल थपथपाते रहते हैं और बड़ी उदारता से उपयोग हो चुके हार भी बच्चों को देते हैं। वे चाहते हैं कि बच्चे उनकी जय बोलें, नारे लगाएँ,उनकी अपील पर रैलियाँ निकालें, पर आज़ादी के इतने बरसों बाद वे हार भारतीय बच्चे को एक सस्ते,सुंदर खिलौने की गारंटी नही दे सकते।
7. इस देश में राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय कुछ भी हो,जब तक वह विधानसभा, म्यूनिसिपल्टी और गाँव पंचायत के स्तर पर न धमीचा जायँ, जब तक वह इन धोबी घाटों पर न धुले,उसके राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय होने का कोई मतलब नहीं। यथार्थ हो या आदर्श,वह भोगा तो इसी स्तर पर जाना है।
8. यदि कौरव और पांडव अपनी ज़मीन का मामला निपटाने के लिए कुरुक्षेत्र में महाभारत करने की बजाय वकीलों की मदद से मामला निपटाने का प्रयत्न करते तो आज इतने वर्षों बाद भी उनका केस नही निपटता और आज भी उनके वंशज किसी जिला कोर्ट के बाहर बेंच पर बैठे नज़र आते।
9.भारतीय न्यायालयों का सौभाग्य है कि अधिसंख्य भारतवासी मानते हैं कि पुलिस में रपट लिखवाना स्वयं अपनी दुर्दशा करना है और कोर्ट में ज़िंदगी बरबाद करना है। यदि उन्हें न्याय और पुलिस पर पूरा विश्वास होता तब सोचिए कि आज मुक़दमों की संख्या कितनी होती?
10. भारत में न्याय-प्राप्ति का प्रयत्न करने का अर्थ अपराध का लाभ उठाने की अवधि को बढ़ाना। अधिसंख्य मामलों में अदालतों का यही योगदान है।

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Saturday, September 28, 2024

शरद जोशी के पंच -5

 


1. कई लोग एयरहोस्टेस से विवाह करने को इसी कारण आकुल होते हैं। उन्हें लगता है,यह मुस्कराती कन्या जीवन-भर इसी तरह मुस्कराती रहेगी।
ख़ुशफ़हमी प्रायः विवाह का आधार होती है।
2. यह अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति ऐसी है कि बीते कल जो अमेरिका में घटता है,वह आगामी कल भारत में घटेगा।
3. जब हम हवाई जहाज़ में बैठते हैं तो आ एअरहोस्टेस का,कम्पनी द्वारा प्राप्त आदेशों के अनुसार,यह कर्तव्य हो जाता है कि वह हमें देखकर मुस्कराए, चाहे हमारी शक्ल कैसी भी हो। महँगा टिकट ख़रीदने के कारण ख़रीदने के कारण,चाहे हमारा चेहरा लटका हो, मगर हम भविष्य में भी टिकट ख़रीदते रहें, इसके लिए उनका मुस्कराना ज़रूरी है।
4. समस्याओं को चाहिए कि वे दिल्ली के निकट रहें। दिल्ली से दूर रहकर वे सुलझ नहीं सकतीं।
5. बम्बई में वर्षा कविता नहीं होती। बम्बई में वर्षा पत्रकारिता और फ़ोटोग्राफ़ी का मामला है। बम्बई में वर्षा सूचनाओं से भरा वर्णन है।
6. बम्बई में बरसात केवल अख़बारों में पढ़ने योग्य होती है, आनंद लेने योग्य नहीं।यह किसी को मेघदूत लिखने की प्रेरणा नहीं देती, क्योंकि विरह प्रसंग नहीं होते। औरतें जानती हैं कि वर्षा के कारण मर्द दादर से आगे नहीं जा पाएगा। जहां है, वहाँ से लौट के आना उसकी नियति है।
7. हमारे देश में यह एक प्रथा है क़ि जो भी प्रधानमंत्री चुना जाए उसे मुँहदिखाई के लिए एक बार रूस और अमेरिका हो आना चाहिए। हर प्रधानमंत्री को जाना पड़ता है। गए और उनको बताया कि साहब हम हैं भारत के प्रधानमंत्री। हम शांति चाहते हैं,हमारा देश भी शांति चाहता है और आप सहयोग करें तो हम जहां हैं वहाँ से आगे बढ़ें। यों हम बढ़ रहे हैं,मगर आपकी मदद मिल जाए तो मज़ा आ जाए।
8. बम्बई और अन्य नगरों में अफ़सर बरसात में बाल नोचते रहते हैं कि हाय, नालियाँ पूरी तरह साफ़ नहीं हुईं और पानी रुका नहीं। फिर साल भर इस बात के लिए बाल नोचते हैं कि हाय,पीने को पानी नहीं। वे वर्ष भर ऐसा करते हुए गंजे हो चुके हैं, पर देश पानी की व्यवस्था आज तक नहीं सीख पाया।
9. वाहन बढ़ते जा रहे हैं। सड़क वही है। अब उस पर न पैदल चलने की जगह है, न वाहन चलाने की। पूरा देश एक विराट ट्रैफ़िक जाम है। जहां भी सड़क ख़ाली है,उस जगह को जल्दी ही किसी नई कार,नई मोपेड से भरना है। देश एक विशाल गैरेज बन जाएगा। गाड़ियाँ खड़ी रहेंगी क्योंकि चलने की जगह नहीं होगी।
10. अमेरिका सारे ख़तरनाक शस्त्र तथा सेबोटेज के आइडिया इस अपेक्षा से बनाता है कि वे संसार के अन्य भागों में इस्तेमाल होंगे, पर अमेरिका में वह शांति चाहता है।

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Friday, September 27, 2024

शरद जोशी के पंच -4

 



1. ये सरकारी काम कर रहे हैं और उन्हें काम के समय काम न करने का पूरा हक़ है।
2. अफ़सर खुद निठल्ला हो मगर वह दूसरों के निठल्लेपन को सहन नहीं कर सकता।
3. जंगल की सड़क हो या सरकारी दफ़्तर,चपरासी या बाबू या अफसर वहाँ काम करने नहीं,नौकरी करने आता है। काम अपने घर पर बहुत है। काम की कमी नहीं है। पर दस से पाँच का समय नौकरी का है।
4. क्षेत्रीय नेता अपने नेतृत्व का आधार बनाने के लिए प्रांतों और जातियों में परस्पर घृणा के तत्व खोजते हैं।
5. पार्टी भी ऐसे व्यक्ति को पसंद करती है, जो आदर्शवादी भाषण देने से छुरा भोंक देने तक हर स्तर पर पारंगत और व्यावहारिक हो।
6. अपराध का सफ़ेदपोस बाना काम जोखिम का और अधिक लाभकारी है।
7. मनुष्य जाति का इतिहास चमकदार व्यक्तित्वों की चर्चा और अध्ययन से भरा है। हम बीच के अंधकार को टाल गए। रुपया चमकता है,मगर एक चमकते रुपए और दूसरे चमकते रुपए के बीच जो अभाव का शून्य है,वह हमारी नज़र में नहीं आता।
8. नये नेताओं से पुराने नेताओं को इतना ख़तरा नहीं होता,जितना नए दादा से पुराने दादाओं को। बल्कि नया दादा तो उभरता ही है, पुराने दादा को पीटकर। (अब हालात उलट गए हैं)
9. अमेरिका से अधिक सहयोग लेना,वह चाहे किसी भी क्षेत्र में हो,अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। पाकिस्तान लंगड़ा हो चुका। हमारे यहाँ फ़िक्र है कि हाय, हम लंगड़े क्यों नहीं हैं? जब अमेरिकी बैसाखियाँ उपलब्ध हैं, लंगड़े होने में हर्ज क्या है ? डिक्टेटरशिप से डिस्को तक, मेथिल सायनाइड से महिलाओं महिलाओं के फ़ैशन तक,नंगी फ़िल्मों से गंदे होटलों तक अमेरिका के प्रभाव में जो कुछ पनपता है, वह उस देश को राजनीतिक,आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से तबाह कर देने के लिए काफ़ी है।
10. सुपर स्टार कभी टाइम पर नहीं आता। टाइम पर आ जाए तो काहे का सुपर स्टार।

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Thursday, September 26, 2024

शरद जोशी के पंच -3

 


1. भारतीय संगीत को नष्ट-भ्रष्ट करने का एक तरीक़ा यह है कि उसमें पाश्चात्य संगीत घुसा दिया जाए।
2. भारतीय संस्कृति में शैली यह रही है कि यदि आप किसी की शरण में जाना चाहते हैं तो लपककर उसके चरण पकड़ लीजिए और तब तक न छोड़िए जब तक वह क्षमा करके आपका अंगीकार न कर ले।
3. हमारे राष्ट्रीय जीवन में 'सत्यमेव जयते' एक सील है, ठप्पा है। आप इसे सरकारी मुहर से लेकर चाय की दुकान पर लगे निरर्थक आदर्श वाक्यों की सजावट तक कहीं देख सकते हैं।
4. झूठ की तात्कालिक विजय इतनी असरकारक होती है कि सत्य की अंतत: विजय होगी। यह मात्र छलावा लगता है।
5. एक राष्ट्र नोट पर सत्यमेव जयते छापकर सत्य की जीत के प्रति बेफ़िक्र हो जाता है। सत्य के प्रति भी बेफ़िक्र हो जाता है।
6. इस देश में जहां लोग बजाय सत्य के सत्यनारायण की कथा पर अधिक भरोसा रखते हैं, वहाँ एक सील या ठप्पा, सील या ठप्पा होने से अधिक गहराई अर्जित नहीं कर पाता।
7. जहां सामाजिक जीवन में अदना आदमी असत्य से आँखे चार करने की बजाय कतराकर निकल जाने में स्वयं को अधिक सुरक्षित महसूस करता हो, जहां आर्थिक शक्तियाँ असत्य को सामान्य व्यावहारिकता के तहत स्वीकार करती हों,जहां राजनीति असत्य के पर चलते ही की जा सकती हो, वहाँ सत्यमेव जयते नोटों पर बने एक चित्र से अधिक अर्थ नहीं रखता। कलाकृति मात्र।
8. यह देश सत्यमेव जयते की सील बना सत्य के प्रति लापरवाह है। सत्य की रक्षा करने वाले न्यायालयों के प्रति लापरवाह हैं।
9. न्यायाधीशों की आर्थिक हालत उन पंडा-पुजारियों की तरह ख़स्ता होती है जो प्रदूषणग्रस्त नदी के घाट पर या उपेक्षित मंदिरों में बैठे रहते हैं।उनकी हालत तभी सुधर सकती है जब वे असत्य से निरंतर तालमेल जमाते रहें।
10. सत्यमेव जयते की सील के नीचे सत्य की रक्षा करने वालों की बढ़ी दुर्दशा है। जिन नोटों पर सत्य की जीत लिखी होती है उन ही नोटों के कारण सत्य इस देश में निरंतर पराजित होता है।

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