Tuesday, June 29, 2021

कबूतर का कैटवॉक- गैर इरादतन घुमक्कडी के किस्सों की दास्तान

 

इंसान की तरक्की में सबसे अधिक योगदान उसकी किस प्रवृत्ति का रहा इसके बारे में आंकड़ें जुटाये जायें तो यायावरी अव्वल नम्बर पर आयेगी। मनुष्य शुरु से ही आदतन घुमक्कड़ रहा है। इधर से उधर घूमता रहा, प्रगति करता रहा। जीने के साधन बेहतर हुये तो ज्ञान की खोज में टहलता रहा। दुनिया के तमाम बड़े ज्ञानी कहलाये जाने वाले खलीफ़ा वस्तुत: घुमक्कड़ ही रहे- फाह्यान, ह्वेन सांग, इत्सिंग, इब्न बतूता, अलबरुनी, मार्कोपोलो, बर्नियर, टेवर्नियर सब यायावर ही थे। कोलम्बस , वास्कोडिगामा ,कैप्टन कुक भी सब मूलत: घुमक्कड़ ही तो थे। दुनिया में जो आज जो भी देश आगे हैं , उसके पीछे उनके देश के लोगों यायावरी का भी बड़ा योगदान होगा।
किसी देश, प्रदेश , जगह के बारे में कई पोथियां पढकर भी जो ज्ञान हासिल होता है उससे कहीं सटीक समझ वहां घूमने से बनती है। इसीलिये तो घुमक्कड़ी को जीवन की सबसे बड़ी जरूरत बताया गया है:
सैर कर दुनिया की गाफ़िल, जिन्दगानी फ़िर कहां,
जिन्दगानी गर रही तो नौजवानी में फ़िर कहां?
समीक्षा जी भी आदतन घुमक्कड़ हैं। जब, जहां मौका मिला निकल लीं घूमने। बचपन में उत्तराखण्ड से शुरु हुयी यात्राओं का अध्याय जो शुरु हुआ तो पत्रकारिता के दिनों की घुमक्कड़ी अबूधाबी , दुबई और फ़िर वापस अपने देश में जारी है। घुमक्कड़ी के साथ लिखा-पढी भी करती रहने से इनके किस्से दर्ज भी होते रहे। अब इन किस्सों का भी हक बनता है कि ये समीक्षा जी के निजी लेखन की दुनिया से पाठकों की दुनिया तक पहुंचें। समीक्षा जी के सहज , गैरइरादतन घुमक्कड़ी के किस्सों की दास्तान है यह यायावरी दस्तावेज –’कबूतर का कैटवॉक।’
जैसा समीक्षा जी बताया कि ऊंची-ऊंची इमारतें निहारने की बजाय उनको प्रकृति की संगति ज्यादा आकर्षित करती है। यायावरी के समय की छोटी-छोटी घटनायें, सूचनायें समीक्षाजी के जेहन में किसी जहाज के ’ब्लैक बॉक्स’ की तरह रिकार्ड होती जाती हैं जिसे बाद में वे तफ़सील से बयान करती हैं। इनके किस्सों की रेंज में कबूतर, बिल्ली, टिटिहरी, बिल्ली से लेकर अठारह लेन वाली सड़क को पार करके वॉक करते समय मिलने वाली सहेली से होते हुये ’चेंज योर हसबैंड’ के विज्ञापन भी हैं। यह अलग बात है कि अपना घुमक्कड़ जीवनसाथी इनको इतना पसंद है कि इस विज्ञापन को देखते ही खारिज कर देती हैं।
यायावरी के किस्सों को बयान करते हुये समसामयिक समाज की पड़ताल करती चलती हैं समीक्षा जी। शुरुआत शुक्रवारी यात्राओं के किस्सों से होती है। अरब देशों के शुक्रवार बाकी दुनिया के इतवार जैसे होते हैं। शुक्रवार मतलब छुट्टी का दिन। घर-परिवार के साथ छुट्टी के दिन घूमते हुये उनका तसल्ली से वर्णन मौजूद है शुक्रवारी यात्राओं के किस्सों में। इन किस्सों में आसपास की घटनाओं का बयान करते हुये उनको दुनियावी अनुभवों से भी बखूबी जोड़ती हैं समीक्षा जी। इन अनुभवों के बयान में उनकी नजर एक साथ लोकल और ग्लोबल होती है। कुछ उदाहरण देखे जायें:
- जो एक्सपर्ट होते हैं, वे अपने जाल में सब तरह की मछलियों को आसानी से फंसा लेते हैं।
- यहाँ के लोगों की गाड़ियाँ बड़ी होने का फ़ायदा ये होता है कि वे अपने साथ आधी गृहस्थी ले आते हैं। फिर वो बारबिक्यू हो या फ़ोल्डिंग साइकल। जब मन हो वैसा कर लो। कौन सा हाथों को पीड़ा देनी है।
- मरुस्थल में हरियाली पैदा करना दुश्वर काम है। पर देखने के बाद लगता है कि मनुष्य यदि चाहे तो वह कुछ भी कर सकता है, अपनी इच्छाशक्ति के दम पर। बशर्ते इच्छा और शक्ति (पैसा) का सही उपयोग हो। कम से कम यहाँ खाऊपन मतलब भ्रष्टाचार खुली आँखों से तो नहीं दिखता। अंदर की बातें कोई नहीं जानता।
- यूएई की ख़ासियत ये है कि कोई भी चौराहे देख लीजिए, आप एक नहीं, सैकड़ों फ़ोटो निकालने को मजबूर हो जाएँगे। सब अलग अलग थीम पर बने होते हैं। हरियाली की कोई कमी नहीं। वहाँ जाकर हमारा आदमी (भारतीय) मेहनत बहुत करता है। रेगिस्तान को हरा भरा बनाना, हरे-भरे कबाब बनाने जैसा आसान काम नहीं है। ईमानदारी चाहिए ऐसे कामों में। हमारे देश की ईमानदारी वहाँ ख़रीदी जाती है।
-- क्षितिज को देखना सच में रोमांच पैदा करता है। वो क्षितिज जिसका कहीं अंत ही नहीं। मतलब जब हम समुद्र की यात्रा कर रहे होते हैं, तो वो क्षितिज ही है, जो हमें अंतहीन यात्रा पर ले जाता है। जैसे ब्रम्हाण्ड की यात्रा हो। ढेरों रहस्य। और हम केवल तुच्छ प्राणी। जो केवल प्राणवायु के लिए जीते हैं।
’कबूतर का कैटवॉक’ घूमते फ़िरते हुये अपने समय और समाज की सहज पड़ताल की कोशिश है। विदेश में घूमते हुये अपने देश की परिस्थितियों से अनायास तुलना है। समीक्षा जी के घुमक्कड़ी के किस्सों की रेंज बड़ी है। इसमें कैब ड्राइवर और कामवाली की परेशानी हैं तो जैनमुनि की जीवनशैली भी। इसी में गर्मी में योग की लफ़ड़े भी बयान हो गये। ’शिक्षा का मायका’ माने जाने वाले पुणे के बनिस्बत उत्तर भारतीयों की सहज मनोवृत्ति हो या दक्षिण की महिलायें सब समीक्षा जी के राडार की रेंज में हैं। अपने से जुड़े लोगों के भी आत्मीय संस्मरण भी शामिल हैं इसमें।
अपने पहले व्यंग्य संग्रह – ’जीभ अनशन पर है’ के माध्यम से हिन्दी के व्यंग्यकारों में अपनी पहचान बनाने वाली समीक्षा जी के यायावरी किस्सों का संकलन आना सुखद है। घुमक्कड़ी की कहानियां कम ही लिखी गयी हैं हिन्दी में। इस कमी की कुछ भरपाई जरूर होगी ’कबूतर के कैटवॉक’ से। समीक्षा जी को शुभकामनायें। वे ऐसे ही घूमती रहें, लिखती रहें।
अनूप शुक्ल
शाहजहांपुर

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समीक्षा तैलंग के निर्देशन में कबूतरों का कैटवॉक

 

जरूरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो,
उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो ,
हमेशा देर कर देता हूं मैं -मुनीर नियाजी
लिखा-पढ़ी के मामले में अपन पर मुनीर नियाजी साहब का यह शेर बखूबी लागू होता है, खासकर दोस्तों की किताबों के बारे में लिखने के मामले में | कई मित्रों की किताबों के बारे में लिखना बकाया है |
अमूमन हमारी किताबें खरीद कर पढ़ने की आदत है| लेकिन कुछ दोस्तों ने तो किताबें भी भेजी हैं , गोया अपन कोई बड़े लेखक हो गए हों| ऐसी किताबों में से अधिकतर के हाल भी वैसे ही हुए जो नामचीन लेखकों के यहां पहुंची किताबों के होते हैं - 'वे अपने पढ़े जाने के इंतजार में हैं|'
दोस्तों की किताबें पढ़ने में देरी का कारण ऐसा नहीं कि अपन बहुत व्यस्त रहते हैं या बहुत जरूरी काम में उलझे रहते हैं| समय की कमी बिल्कुल नहीं अपन के पास | पूरी 24 घंटे अलाट होते हैं रोज हमको भी| कुछ जरूरी काम निपटाने के बाद बाकी बचा समय गैर जरूरी कामों में उलझाकर निपटा देते हैं| लिखने पढ़ने की बात अक्सर टल जाती है| लगता है कि तसल्ली से लिखा जाएगा| इसके पीछे वली असी साहब के शेरों की साजिश है :
"मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था
मगर सफ़र न कभी एख़्तियार (शुरू)करता था।
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैँ जिंदगी पे बहुत एतबार (भरोसा)करता था।"
जिंदगी पर बहुत भरोसा रखने के चलते तमाम काम अधूरे रह जाते हैं अपन के| कुछ किताबों पर तो लिखने के मजनून मय टाइटल दिमाग में जमा हैं| लेकिन वही मामला एतबार में अटक जाता है|
जिन किताबों के बारे में लिखना अभी तक नहीं हो पाया उनके लिए इतनी बहाने बाजी के बाद अब बात उस किताब की जिसके बारे लिखने के लिए इतनी भूमिका बांधी|
पिछले दिनों, जब देश के तमाम हिस्से लाकडाउन की गिरफ्त में थे , दोस्तों की कुछ किताबें भी आईं| इन्हीं में एक समीक्षा तैलंग Samiksha Telangकी किताब भी शामिल रही - 'कबूतर का कैटवॉक' आमतौर पर इस तरह ध्यानखैचू शीर्षक हमारी किताबों के नाम रखने वाले 'व्यंग्य पुरोहित' आलोक पुराणिक रखते हैं| समीक्षा जी की किताब का शीर्षक आकर्षक रहा| कवर पेज भी|
इस किताब के पहले समीक्षा जी का व्यंग्य संग्रह 'जीभ अनशन पर है' दो साल पहले आया, धूमधाम से आया| काफी चर्चा हुई उसकी| सम्मान वगैरह भी मिले| इस बीच उनको व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठा भी मिली| जल्दी ही समीक्षा जी का अगला व्यंग्य संग्रह भी आएगा| समीक्षा जी की दोनों किताब भावना प्रकाशन से छपी है| एक प्रतिष्ठित प्रकाशन से दो साल के अंतर में दो किताबें प्रकाशित होना रचनाकार के जलवे की कहानी कहता है |
संयोग से 'जीभ अनशन पर है' के विमोचन के मौके पर मैं भी मौजूद था| उस पर लिखने की बात कहते हुए बार-बार टालता रहा जिसकी बहाने बाजी ऊपर पहले ही की जा चुकी है| उसे दोहराना ठीक नहीं|
समीक्षा तैलंग से परिचय 'व्यंग्य की जुगलबंदी' के दिनों से हुआ| लगातार दो साल हर हफ्ते 'व्यंग्य की जुगलबंदी' के बहाने तमाम लेखकों ने लेख लिखे| कुछ लोगों ने लिखने की शुरुआत की , कुछ स्थापित लेखकों ने इसी बहाने फिर से लिखना शुरू किया| करीब 600-700 लेख तो लिखे गए होंगे| समीक्षा जी ने भी उसमें लेख लिखे| फिर उनकी किताब 'जीभ अनशन पर है' आई| इसके बाद यह 'कबूतर का कैटवॉक ' |
'कबूतर का कैटवॉक' किस्सागोई/संस्मरण घराने के लेख हैं | इसकी भूमिका लेखकों में दामोदर खड़के जी के साथ अपन भी शामिल हैं| लिहाजा कह सकते हैं कि किताब छपने से पहले ही इसके लेख पढ़ चुके थे|
किताब में शामिल लेखों का ताना-बाना आबूधाबी से हिंदुस्तान तक फैला है| आबूधाबी का शुक्रवार हिंदुस्तान के इतवार की तरह होता है -साप्ताहिक अवकाश का दिन | कई शुक्रवारी किस्से शामिल हैं किताब में| कबूतरों के साथ कौवे, तोता , गौरैया और दूसरे पक्षियों के भी जमावड़े हैं| कुछ रोचक व्यक्तिचित्र भी हैं |
127 पेज की 200 रुपये की किताब की छपने की सूचना मिलते ही हमने इसे खरीदने का इरादा बनाया तब तक समीक्षाजी की संदेश आया कि वे खुद इसे हमें भेजेंगी| भूमिका लेखक होने के कारण 200 रुपये बचे| समीक्षा जी ने मुझे किताब भेजते हुए लिखा है - 'आपकी भूमिका ,आपकी पुस्तक'|
अब जब किताब ही हमारी हो गई तो सिवाय तारीफ के क्या कहा जाए| किताब की छपाई शानदार है| प्रूफ की गलतियां भी नहीं दिखीं | फ़ोटो अलबत्ता श्वेत-श्याम होने के चलते कहीं -कहीं उतने आकर्षक नहीं दिखते जीतने रंगीन होने पर होते| लेकिन रंगीन होने पर किताब के दाम बहुत ज्यादा हो जाते |
किसी रचनाकार की किताब जब आती है तो उसको उसकी तारीफ सुनने की उत्सुकता होती है| लेखक चाहे नया हो दशकों पुराना, किताब छपने पर उसके हाल उस स्कूली बच्चे जैसे होते है जो अपनी पाठक रूपी अध्यापक से ए ग्रेड की ही अपेक्षा करता है | कुछ बुजुर्ग लेखक तो किसी कमी की तरफ ध्यान दिलाए जाने पर पाठक की समझ को ही खारिज करने पर आमादा हो जाते हैं -'तुमको पढ़ने की तमीज नहीं है'|
समीक्षा जी से अलबत्ता इस तरह का कोई खतरा नहीं है इसलिए ही किताब के बारे में सिवाय
बधाई
और तारीफ के और कोई सुर सध नहीं रहा|
अपने लेखन की शुरुआत पत्रकारिता से करने वाली समीक्षा जी व्यंग्यकार के रूप में पहचान बना चुकी हैं| जब दशकों से व्यंग्य के स्थापित लेखक आलोक पुराणिक Alok Puranik सरीखे लोग अपने को अभी भी व्यंग्य का विद्यार्थी मानते हैं तो समीक्षा जी जैसे दो साल पहले लेखन के इस अखाड़े में उतरने वाले रचनाकार को तो बहुत कुछ सीखना है, नया करना है , नई उपलब्धियां हासिल करना है|
'कबूतर का कैटवॉक' के प्रकाशन की बधाई देते हुए कामना करता हूं कि समीक्षा जी लेखन के क्षेत्र में नित नए आयाम छुए, नई सफलताएं हासिल करें| इस किताब में कबूतर कैटवाक करते हुए हिंदुस्तान पहुचें| आने वाले समय में इन कबूतरों के पंखों की फड़फड़ाहट पूरी दुनिया में पहुंचे|
नोट : किताब की भूमिका के रूप में लिखा मेरा लेख अगली पोस्ट में | लिंक यह रहा https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222596552235977

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222596358991146

Saturday, June 19, 2021

दुकान पर शटर के मास्क

 कल सुबह बाहर निकले। गाड़ी से। लाकडाउन खुल गया है। शहर उससे भी ज्यादा खुल गया।

सड़कों पर लोग आ-जा रहे थे। जितने लोग मास्क लगाए थे उससे ज्यादा लोग मुंह खोले घूमे रहे थे।
गांवों में लोग सड़क पर ऐसे बैठे थे जैसे पीढ़े पर बैठे हों। सड़क की तरफ पीठ करके बैठे होने से लग रहा था मानों गतिमान जिंदगी के खिलाफ अनशन किये बैठें हों। भागता रहे सड़क पर समय, अपन तो यहीं ठहरकर बैठे हैं। समय को खूंटे पर बांधकर अपने सामने मुर्गा बनाकर बैठे हैं।
एक बुजुर्ग प्लास्टिक की खाली बोतल को हिलाते हुए बहकता हुआ सड़क पर चला जा रहा था। 'दिव्य निपटान' की जंग जीतने की खुशी उसके चेहरे पर झंडे की तरह फहरा रही थी।
गांवों के बाहर सड़क किनारे उपलों के त्रिभुजाकार चट्टे लगे थे। छप्परों से पानी गुजरकर जमीन गीली कर रहा था। पानी जमीन की छाती में घुसकर घरवापसी का सुख लूट रहा होगा। जमीन के चेहरे पर वात्सल्य की आभा दिख रही थी।
शहर की सब दुकाने बन्द थीं। दुकानों के शटर दुकानों के चेहरे पर मास्क की तरह लगे हुए थे। मजाल कि कोई दुकान बिना शटर मास्क के दिख जाए। इंसान से ज्यादा समझदार दुकानें हैं। इसीलिए किसी भी दुकान को कोरोना होने की खबर नहीं आई।
बसस्टैंड पर एक बच्ची रस्सी पर चलने का करतब दिखा रही थी। सर पर मिट्टी के घड़े रखे , सन्तुलन के लिए हाथ में लाठी पकड़े वह रस्सी पर चल रही थी। रस्सी उसके हर कदम पर हवा में ऊपर नीचे हो रही थी। इधर-उधर बिखरे लोग उचटती निगाहों से बच्ची के इस करतब को देख रहे थे।
एक बच्ची जिसको उसकी उम्र के हिसाब से स्कूल में होना चाहिए था , अपने परिवार का पेट पालने के लिए , जान जोखिम में डालकर करतब दिखा रही थी। लोग भी अनमने भाव से ही सही उसको देखा, अनदेखा करते हुए इसको चलने दे रहे थे। एक समाज के लिए इससे बुरी बात क्या होगी कि उसके बच्चे पेट की आग बुझाने के लिए जिंदगी दांव पर लगा दें। अफसोस कि हम लोग इस सबको सामान्य मानकर अनदेखा करते रहते हैं।
हमने भी ऐसा ही किया। उचटती निगाह से बच्ची के करतब को देखते हुए आगे निकल गए।
सड़कों के दोनों ओर लोग आमों के ढेर लगाए बैठे थे। दशहरी आम। आसपास के गांवों के लोग होंगे वे। सड़क पर गुजरते लोग इनसे आम खरीद रहे थे। जवान, तगड़े, गबरू आम ढेर में जमा अपने बिकने का इंतजार कर रहे थे।
आपने आम खाये इस बार ? न खाये हों तो खाइये। बारिश के बाद आम कम हो जाएंगे। लेकिन आम खाने के बाद पानी मत पीजियेगा। ठीक।

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Thursday, June 17, 2021

ब्लागर दोस्तों से बतकही

 

कल ब्लागर दोस्तों के साथ बतकही हुई। क्लबहाउस कोई नया बतकही का अड्डा है। उसमें जुड़ने में ही समय निकल गया। अड्डे पर पहुंचे तो दोस्त लोग बतियाने में जुटे थे। ब्लागिंग से जुड़ी यादें , बहुत दिन बाद मायके पहुंची सहेलियों की तरह साझा कर रहे थे।
ब्लागिंग में अपन 2004 में आये। 2010 तक सक्रिय रहे। इसके बाद फेसबुक पर आ गए। ब्लाग अनियमित हो गया। लेकिन अभी भी जब भी मौका मिलता है फेसबुक की पोस्ट्स ब्लाग पर डालते रहते हैं ताकि सनद रहे और सुरक्षित रहें। फेसबुक पर पुरानी पोस्ट्स को खोजना मुश्किल है, ब्लाग के मुकाबले। ब्लाग पर लिंक करना, फोटो लगाना, ऑडियो , वीडियो सब फेसबुक के मुकाबले बेहतर है। लेकिन फेसबुक पर एक मॉल की तरह की तेजी है। एक के बाद एक बहुत सारी पोस्ट्स देख सकते हैं, लाइक, टिप्पणी कर सकते हैं। ब्लॉग पर एक समय में एक ब्लॉग पर रहना होता है।
लेकिन ब्लागिंग के समय जो दोस्तों से जुड़ाव हुआ वह आगे फिर दूसरे माध्यमों में नहीं हुआ, या कहे कम हुआ। ब्लॉग हम लोगों की पहचान थी। हमको लोग अनूप शुक्ल से ज्यादा फुरसतिया के नाम से जानते हैं। समीरलाल उड़नतश्तरी ज्यादा लोगों के लिए हैं। पूजा उपाध्याय लहरें वाली पूजा हैं। देवांशु अगड़म-बगड़म-स्वाहा। अभिषेक ओझा उवाच हैं।
लगभग सभी लोगों ने बताया कि उनकी जिंदगी में ब्लागिंग ने बहुत अहम किरदार निभाया। अपन की तो सारी लिखाई ही ब्लागिंग की देन है।
बातचीत के दौरान अशोक पांडेय Ashok Pande के कबाड़खाना की याद कई लोगों ने की। रवीश कुमार Ravish Kumar के कस्बा बलाग के भी किस्से आये। Vineet Kumar की हुंकार भी आई चर्चा में। पंकज उपाध्याय, दर्पण शाह , संजय व्यास , मनीष भट्ट , कमल ने अनेक यादें साझा कीं। अपन ने सबके बलाग खोलकर देखे। मन किया कि ब्लॉग नियमित लिखेंगे। मौका मिलने पर चिट्ठाचर्चा भी करेंगे।
ढाई घण्टे चली इस चर्चा में न जाने क्या-क्या बातें हुईं। जो याद रहीं वो यहां लिख दीं। बाकी याद आने पर।
देखते हैं क्या होता है। 🙂

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Wednesday, June 16, 2021

कौन मुस्काया

 कौन मुस्काया

शरद के चांद-सा
सिंधु जैसा मन हमारा हो गया।
एक ही छवि
तैरती है झील में
रूप के मेले न कुछ कर पाएंगे
एक ही लय
गूँजनी संसार में
दूसरे सुर-ताल किसको भाएंगे।
कौन लहराया
महकती याद-सा
फूल जैसा तन हमारा हो गया।
खिल गया आकाश
खुशबू ने कहा
दूर अब अवसाद का घेरा हुआ
जो भी भी पास तक आती न थी
उस समर्पित शाम ने
जी भरकर छुआ।
कौन गहराया
सलोनी रात-सा
रागमय जीवन हमारा हो गया।
पूर्व से आती
हवा फिर छू गई
फिर कमल मुख हो गयी सम्वेदना
जल तरंगों में नहाकर चांदनी
हो गयी है
इन्द्रधनु-सी चेतना
कौन शरमाया
सुनहरे गात-सा
धूप जैसा क्षण हमारा हो गया।
- गीतकार विनोद श्रीवास्तव, कानपुर

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Tuesday, June 15, 2021

कानपुर की लाल इमली

 

यह फोटो हमारे मित्र Rajeev Sharma ने भेजते हुए अपन से मजे लिए -'अगर इस फोटो में (डॉ शुक्ला का) इश्तहार न होता तो यह इमारत लन्दन में किसी जगह की इमारत लगती।'

यह इमारत कानपुर की लाल इमली की है। लाल इमली कभी ऊनी कपड़ों के लिए देश भर में प्रसिद्ध थी। फिलहाल वर्षो से ताला बन्दी की मार झेल रही है। अक्सर इसके फिर से चलने की बात चलती है लेकिन फिर ठहर जाती है। मिल नहीं चलती।
कानपुर की शान रही इस मिल के अलावा कभी कानपुर में अनेकों मिलें थीं। कानपुर पूर्व का मानचेस्टर कहलाता था। धीरे-धीरे मिलें बन्द होती गईं। मिलों के कामगार बेरोजगार हो गए। कोई रिक्शा चलाने लगा, कोई मजदूरी करने लगा। कभी भारत का मानचेस्टर कहलाने वाला शहर कुली-कबाड़ियों का शहर बन कर रह गया।
वैसे तो कानपुर में आई.आई.टी., एच. बी.टी.आई. , मेडिकल कॉलेज के अलावा कई रक्षा उत्पादन के संस्थान भी हैं, जिनमें कामगारों की संख्या दिन पर दिन सिकुड़ती जा रही है, लेकिन कानपुर के हाल-बेहाल होते जा रहे हैं। किसी शहर की सेहत उसकी लोगों को रोजगार और रोजी-रोटी मुहैया करा सकने की क्षमता से नापी जाती है। हालांकि अभी भी कानपुर के आस-पास रहने वाले लोग रोजी-रोटी की तलाश में कानपुर ही आते हैं लेकिन यह भी सच है कि मस्ती के अंदाज में 'झाड़े रहो कलक्टरगंज' कहने वाले शहर के दुश्मनों की तबियत अक्सर नासाज ही रहती है। ऐसा होना लाजिमी भी है क्योंकि जिस शहर में कभी कपड़ा मिलों का जाल बिछा था, वह शहर अब मसाले- गुटखे-जर्दे के उत्पादन के लिए जाना जाता है।
कनपुरियों के पान मसाले के प्रचलित कई किस्सों में एक मसाला प्रेमी अमृत पीने का ऑफर यह कहते हुए ठुकरा देता है -'अभी मसाला खाये हैं।'
बहरहाल बात लाल इमली की इमारत और उस पर डॉ शुक्ला के इश्तहार की हो रही थी। यह भी तो हो सकता है कि यह इमारत लन्दन की ही कोई इमारत हो और उस पर वहीं के किसी डॉ शुक्ला का इश्तहार हो। आखिर लन्दन में भी तो डॉ शुक्ला हो सकते हैं।
लन्दन की बात चली तो याद आया कि प्रख्यात लेखक यूसुफी साहब ' खोया पानी' की भूमिका में लन्दन के बारे में लिखते हुए कहते हैं-'यूं लन्दन बहुत दिलचस्प शहर है और इसके अलावा इसमें कोई खराबी नजर नहीं आती कि यह गलत जगह स्थित है।'
यूसुफी साहब पाकिस्तान और लन्दन जाने के पहले कानपुर में भी कुछ दिन रहे, कानपुर के किस्से भी लिखे उन्होंने। लन्दन के गलत जगह बसे होने की बात कहते हुए वे कहीं यह तो नहीं कहना चाहते थे कि लन्दन को टेम्स नदी किनारे होने की जगह गंगा किनारे कानपुर में होना चाहिए। ऐसा होता तो कानपुर की लाल इमली लन्दन में ही कहलाती।
युसूफ़ी साहब भले ही ऐसा न सोचते हों लेकिन हमारे ऐसा सोचने में कोई फीस थोड़ी लगती है। है कि नहीं?
वैसे आपको लन्दन में किसी डॉ शुक्ला का पता हो तो बताइए । उनसे कहा जाए कि वे अपना इश्तहार किसी इमारत में लगवाकर फ़ोटो भेजें ताकि हम बता सकें कि लन्दन भी उतना गया बीता नहीं है- वहां भी डॉक्टर ( शुक्ला) मिलते हैं।
सूचना: 'खोया पानी' एक बेहतरीन किताब है। इसका लिंक कमेंट बॉक्स में। 🙂

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Friday, June 11, 2021

क्रांति के रास्ते की कठिनाइयां

 

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के जन्मदिन पर उनके प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनके क्रांतिकारी जीवन की कठिनाइयां का वर्णन देखिए।
उन्होंने जैसे-तैसे क्रांतिकारी कार्यो का संचालन किया। क्रांतिकारी पर्चे आये तो उन्हें भी वितरित कराया। पर समिति के सदस्यों की बड़ी दुर्दशा थी। वे बताते हैं कि चने मिलना भी कठिन था। " सब पर कुछ न कुछ कर्ज हो गया था। किसी के पास सबूत कपड़े तक न थे। कुछ विद्यार्थी बनकर धर्मक्षेत्रों तक में भोजन कर आते थे। चार-पांच ने अपने-अपने केंद्र त्याग दिए थे। पांच और रुपये से अधिक रुपये मैं कर्ज लेकर व्यय कर चुका था। यह दुर्दशा दे मुझे बड़ा कष्ट होने लगा। मुझसे भी भरपेट भोजन न किया जाता था। सहायता के लिए कुछ सहानुभूति रखने वालों का द्वार खटखटाया, किंतु कोरा उत्तर मिला। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। कुछ समझ में न आता था। कोमल हृदय नवयुवक मेरे चारों तरफ बैठकर कहा करते पंडित जी, अब क्या करें? मैं उनके सूखे-सूखे मुंह देख बहुधा रो पडता कि स्वदेशसेवा व्रत लेने कारण फकीरों से भी बुरी दशा हो रही थी। एक-एक कुर्ता तथा धोती भी ऐसी नहीं थी जो साबुत होती। लँगोट बांधकर दिन व्यतीत करते थे। अंगौछे पहनकर नहाते थे, एक समय क्षेत्र में भोजन करते थे, एक समय दो-दो पैसे के सत्तू खाते थे। मैं पन्द्रह वर्ष से एक समय दूध पीता था। इन लोगों की ऐसी देखकर मुझे दूध पीने का साहस न होता था। मैं भी सबके साथ बैठ कर सत्तू खा लेता था। मैंने विचार किया कि इतने नवयुवकों के जीवन को नष्ट करके उन्हें कहाँ भेजा जाए। जब समिति का सदस्य बनाया था तो लोगों ने बड़ी-बड़ी आशाएं बंधाई थीं। कइयों का पढ़ना-लिखना छुड़ाकर काम मे लगा दिया था। पहले से मुझे यह हालत मालूम होती तो मैं कदापि इस प्रकार की समिति में योग न देता। बुरा फंसा ! क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता था। अंत में धैर्य धारण कर दृढ़तापूर्वक कार्य करने का निश्चय किया।"
सुधीर विद्यार्थी जी की किताब-' मेरे हिस्से का शहर' से साभार।

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पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जीवन

 आज अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्मदिन है। उनकी याद को नमन करते हुए उनके जीवन से जुड़े किस्से यहां पेश हैं। कैसी विषम परिस्थियों में जिये हमारे क्रांतिकारी।

मैनपुरी केस में आम माफी की राजकीय घोषणा के पश्चात बिस्मिल शाहजहाँपुर आये। उस समय तक एक क्रांतिकारी के रूप में लोग उनका नाम जानने लगे थे। यहां शहर में वे आये तब उनके लिए सब कुछ बदला हुआ था। उन्होंने लिखा है--" कोई पास तक खड़े होने का साहस न करता था। जिसके पास मैं जाकर खड़ा हो जाता, वह नमस्ते कर चल देता था। पुलिस का बड़ा प्रकोप था। प्रत्येक समय वह छाया की भांति पीछे-पीछे फ़िरा करती थी। इस प्रकार का जीवन कब तक व्यतीत किया जाए। मैने कपड़ा बुनने का काम सीखना आरम्भ किया। जुलाहे बड़ा कष्ट देते थे। कोई काम सिखाना नहीं चाहता था। बड़ी कठिनाई से मैंने कुछ काम सीखा। उसी समय एक कारखाने में मैनेजरी का स्थान खाली हुआ। मैंने उसी स्थान के लिए प्रयत्न किया। मुझसे पांच सौ रुपये की जमानत मांगी गई। मेरी दशा बड़ी सोचनीय थी। तीन-तीन दिवस तक भोजन प्राप्त नहीं होता था, क्योंकि मैंने प्रतिज्ञा की थी कि किसी से कुछ सहायता न लूंगा। पिताजी से कुछ कहे बिना मैं चला आया था। मैं पांच सौ रुपये कहां से लाता। मैंने दो-एक मित्रों से केवल दो सौ रुपये की जमानत देने की प्रार्थना की। उन्होंने साफ इंकार कर दिया। मेरे हृदय पर वज्रपात हुआ। संसार अंधकारमय दिखाई देता था। पर बाद को एक मित्र की कृपा से नौकरी मिल गई। अब अवस्था कुछ सुधरी। मैं भी सभ्य पुरुषों की भांति जीवन व्यतीत करने लगा। मेरे पास भी चार पैसे हो गए। वे ही मित्र, जिनसे मैंने दो सौ रुपये की जमानत देने की प्रार्थना की थी, अब मेरे पास चार-चार हजार रुपयों की थैली, अपनी बन्दूक , लाइसेंस सब डाल जाते थे कि मेरे यहाँ उनकी वस्तुएं सुरक्षित रहेंगी। समय के इस फेर को देखकर मुझे हंसी आती थी।"
-सुधीर विद्यार्थी जी की किताब 'मेरे हिस्से का शहर' से साभार।

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शहादत के बाद बिस्मिल का परिवार

 इस मां के संकट के उन दिनों को बिस्मिल की बहन श्रीमती शास्त्री देवी के शब्दों में देखिए-"पिताजी की हालत दुख से खराब हुई। तब विद्यार्थी जी पन्द्रह रुपये मासिक खर्च देने लगे। उससे कुछ गुजर चलती रही। फिर विद्यार्थी जी भी शहीद हो गए। मुझे भी बहन से ज्यादा समझते थे। समय-समय पर खर्चा भेजते थे। माता-पिता, दादा, भाई, दो गाय थीं। रहने के लिए हरगोविंद ने एक टूटा-फूटा मकान बता दिया था, उसमें गुजर करने लगे। वर्षा में बहुत मुसीबत उठानी पड़ी। फिर पांच सौ रुपये पंडित जवाहरलाल जी ने भेजे। तब माता जी ने कहा कि कुछ जगह ले लो। इस तरह के दुख से तो बचें।

नई बस्ती में जमीन अस्सी वर्ग गज ले ली। एक छप्पर एक कोठरी थी। उसमें गुजर की। पिताजी भी चल बसे। माताजी बहुत दुखी हुईं। एक महीने बाद मैं भी विधवा हो गयी। अब दोनों मां-बेटी दुखित थीं। मेरे पास एक पुत्र तीन साल का था। माता जी बोलीं कि मैं तो शरीर से कमजोर हूँ किस तरह दूसरे की मजदूरी करूँ। बिटिया अब क्या करना चाहिए। मैंने कहा कि जहां तक मुझसे होगा, माताजी आपकी सेवा करूंगी, आप धीरज बांधो। ईश्वर की यही इच्छा थी।
माता जी के पास रामप्रसाद जी के सोने तीन टोले तोले के बटन थे। उन्होंने किसी को नहीं बताया, छिपाए रहीं। जाने कैसा समय हो, इसलिए कुछ तो पास रखना चाहिए। पिताजी के स्टाम्प खजाने में दाखिल किए, दो सौ रुपये मिले। फिर बटन बेच दिए। फिर मैंने ईंट-लकड़ी लगाकर एक तिचारा तथा उसके ऊपर एक अटारी बनवाई। ऊपर माता जी ने गुजर की। नीचे का हिस्सा आठ रुपये में किराए पर उठा दिया। आठ रुपये में मैं , माताजी तथा बच्चा रहते थे बहुत ही मुसीबत से। एक समय वह भी कभी-कभी खाना प्राप्त होता था। मैंने एक डॉक्टर के यहां खाना बनाने का काम छह रुपये में कर लिया। माता जी ने सबसे फरियाद की कोई इस बच्चे पढ़ा दो। कुछ कर खायेगा। मगर शाहजहाँपुर में किसी ने ध्यान नहीं दिया।"
कहाँ थे तब बिस्मिल के शहर के राजनेता और समाजसेवी। किसी ने बिस्मिल की मां और उनके पिता को सहारा नहीं दिया। वे कब, कहां और कैसे मरे यह भी किसी को नहीं पता। कोई यादगार नहीं बनी शाहजहाँपुर की धरती पिता मुरलीधर और माँ मूलमती की। इस शहर के किसी सभागार में इनकी तस्वीरें नहीं लटकाई गईं। 1992 में जब मैं इस शहर के खिरनी बाग मुहल्ले में रामप्रसाद बिस्मिल उद्यान का निर्माण करा रहा था तब मैंने बिस्मिल की आदमकद संगमरमर की प्रतिमा के एक ओर मां मूलमती की समाधि भी बनवा दी जिस पर गोरखपुर जेल में बिस्मिल से मां के मिलन की कथा भी दर्ज है।
बिस्मिल की मां और पिता के अंतिम दिन इस शहर के माथे पर कलंक की तरह लगते हैं मुझे। आखिर कौन माफ करेगा हमें। क्या हम बिस्मिल के एक भाई और उनके मां-पिता को स्वाभिमान से जीने और मरने की सुविधा देने लायक भी नहीं थे।
सुधीर विद्यार्थी जी की पुस्तक 'मेरे हिस्से का शहर' के
लेख 'एक मां की आंखें' का अंश
अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के जन्मदिवस पर श्रद्धा सहित।

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Monday, June 07, 2021

स्वांग -एक गांव के बहाने भारतीय समाज की कहानी

 

ज्ञान चतुर्वेदी जी का नया उपन्यास स्वांग पढ़ा। पिछले हफ्ते मंगाया। लगकर पढ़ गए तीन-चार दिन में। 384 पेज का उपन्यास 3-4 दिन में पढ़ लिया जाए यह अपने आप में उसके रोचक, मजेदार और पठनीय होने का प्रमाण है।

उपन्यास के मुखपृष्ठ में लिखे नोट के अनुसार -'एक गांव के बहाने समूचे भारतीय समाज के विडम्बनापूर्ण बदलाव की कथा है' यह उपन्यास।
उपन्यास पढ़ते हुए और खत्म करने पर भी लगता है कि क्या सही में हमारा समाज ऐसा ही चल रहा है अभी तक। कोटरा में स्कूल, थाना, पत्रकारिता, जाति अभिमान, नेतागिरी, रिश्वत के किस्से ऐसे धड़ल्ले से चलते हैं जिनको पढ़ते हुए लगता है समाज अभी भी वहीं ठहरा है जहां वर्षों पहले था। अपराध, बदमाशियां, जाति की समस्याये और नेतागिरी और कमीनेपन के साथ लागू हो गई हैं। पढ़कर दुख होता है कि सब कुछ वैसे का वैसे ही चल रहा है :
तमाशा है जो ज्यों का त्यों चल रहा है,
अलबत दिखाने के लिए कहीं-कहीं सूरतें बदल रहा है।
उपन्यास में बुंदेलखण्ड के बहाने अपने समाज के किस्से बयान किये गए हैं। हर तरफ नीचता की जीत हो रही है। कहीं कोई उम्मीद की किरण नहीं नजर आती -'सिवाय पंडित जी की बिटिया लक्ष्मी के जो अपने बाप-भाई की मर्जी के खिलाफ आगे पढ़ने का तय करती है।' इसके अलावा गजानन बाबू हैं जो रामराज्य लाने के लिए कृतसंकल्प हैं। लेकिन समाज उनको पागल मानकर पहले ही खारिज कर चुका है। शुरू में पागल करार किये गए गजानन बाबू अंततः लॉकअप में पहुंच जाते हैं।
पंडित जी उपन्यास के केंद्रीय चरित्र हैं। उनके चित्रण से रागदरबारी के वैद्य जी अनायास याद आते हैं। श्रीलाल जी ने रागदरबारी में वैद्य जी का परिचय देते हुए लिखा था -'वैद्य जी थे, हैं और रहेंगे।'
सन 1965 में लिखे रागदरबारी के 55 साल बाद लिखे उपन्यास स्वांग में वैद्य जी लगता है पंडित जी के अवतार में आए हैं -हरामीपन की नई कलाओं से लैस होकर। उनके सुपुत्र अलोपी रुप्पन बाबू और बद्री पहलवान का संयुक्त लेकिन संक्षिप्त संस्करण हैं।
ज्ञान जी डिटेलिंग के उस्ताद हैं। बातचीत करते हुए ऐसी-ऐसी ऊंची बातें उनके पात्र कह जाते हैं कि उनके (पात्रों के) खिलाफ एफ. आई.आर. का मामला बनता है कि इतने बेवकूफ लगने वाले पात्र इतनी ऊंची बात मजे-मजे में कह कैसे गए। बहुत पहुंचे हुए पात्र हैं। कहीं कहीं यही डिटेलिंग ज्यादा हुई भी लगती है। जबरियन खींची हुई लगती है। लेकिन रोचकता बनी हुई है इसलिए अखरती नहीं।
उपन्यास में अदालत है तो गवाह भी हैं। जज भी हैं। जज का गुस्सा भी है। जज के गुस्से का कारण उपन्यास के शुरू में ही बताया गया-'सही में तो उनका गुस्सा अपनी बबासीर पर है, वे अपने चूतड़ के भट्टो पर नाराज हो रहे हैं; हमें जे लगता है कि वे हमसे नाराज हैं। देखो, सही बात जे है कि बवासीर का तो वे कुछ कर नहीं सकते, इसीलिए तुमपे गुस्सा निकालते हैं।' पंडिज्जी बोले।
इसे पढ़ते हुए रागदरबारी का यह अंश याद आया-"गवाही देते समय कभी-कभी वकील या हाकिमे इजलास बिगड़ जाते हैं । इससे घबराना न चाहिये। वे बेचारे दिन भर दिमागी काम करते हैं। उनका हाजमा खराब होता है। वे प्राय: अपच, मंदाग्नि और बबासीर के मरीज होते हैं। इसीलिये वे चिड़चिड़े हो जाते हैं। उनकी डांट-फ़टकार से घबराना न चाहिये। यही सोचना चाहिये कि वे तुम्हें नहीं अपने हाजमें को डांट रहे हैं।"
मजेदार यह है कि ज्ञान के पात्र जजों के गुस्से से सहमते नहीं बल्कि मजे लेते हैं और कहते हैं:
"तो बवासीर को हिरासत में काहे नहीं ले लेते? कर दें स्साली को अंदर? निकाल दें ऑर्डर..." कोई बोला।
"...अंदर ही तो रहती है" किसी ने बवासीर के विषय में बताया।
"सन्देह का लाभ मिलता है बवासीर को।" कहकर हंसे पण्डित जी।
उपन्यास में ऐसे रोचक और मनोरंजक डायलाग जगह-जगह हैं। ज्ञान जी की नजर अद्भुत है इस मामले में। छोटे-छोटे प्रसंगों में इस तरह की विसंगतियां बतकही के दौरान सामने आती हैं। कहीं-कहीं इनकी अधिकता देखकर यह भी लगता है कि इनकी बहुतायत मस्खरी पैदा कर रही है। लेकिन यह शायद लगतार उपन्यास पढ़ने के कारण लगा हो ऐसा।
बुंदेली पृष्टभूमि पर लिखे होने के बावजूद इस उपन्यास की कमजोरी 🙂 यह है कि इसमें ज्ञान जी ने गालियां बहुत कम रखी हैं। लगता है ' हम न मरब' में आई गलियों में हुई आलोचना से अतिरिक्त सावधान हो गए हैं। सिवाय बुंदेली तकियाकलाम 'भैंचो' और 'घण्टा' के सबको भगा दिया अपने उपन्यास से।इस चक्कर में कुछ पात्र तो बेचारे संस्कृतनिष्ठ शब्द तक इस्तेमाल करते हुए दिखे। देखिए:
"हर नली तमंचा नहीं होती। लोकल लुहारों की कारीगरी से बनी चीज को हम नपुंसक का शिश्न मानते हैं।"
भले ही ज्ञान जी के उपन्यासों में गाली का विरोध करने वाले लोग इसे अपनी सफलता माने लेकिन हम तो यही कहेंगे कि ज्ञान जी ने लोगों के दबाब में आकर अपने पात्रों की भाषा सेंसर कर दी। उनके साथ अन्याय किया। 🙂
कुल मिलाकर स्वाँग एक बेहतरीन पठनीय और रोचक उपन्यास है। पढ़कर आनन्द से अधिक अवसाद होता है कि हमारा समाज ऐसा ही बना हुआ है, बल्कि दिन पर दिन खराब होता जा रहा है।
स्वांग पर यह हमारी पहली पाठकीय त्वरित टिप्पणी है। आगे कभी विस्तार से।
किताब हमने जब खरीदी थी तब 399 रुपये की थी। अब कम कीमत पर उपलब्ध है। 244 की मिल रही। खरीद लीजिए। मजे की गारंटी।

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Saturday, June 05, 2021

जैसे उनके दिन बहुरे

 

अभी तक परीक्षाओं में पास होने की तीन डिवीजन थीं- फर्स्ट डिवीजन, सेकेंड डिवीजन और थर्ड डिवीजन। 60 प्रतिशत से ज्यादा नम्बर पाने वाले बच्चे फर्स्ट डिवीजन, 45 और 60 प्रतिशत के बीच वाले बच्चे वाले सेकेंड डिवीजन और 33 प्रतिशत से 45 प्रतिशत वाले बच्चे थर्ड डिवीजन में पास कहलाते थे। थर्ड डिवीजन को गांधी डिवीजन भी कहते थे।
कोरोना काल में इम्तहान मुश्किल हो गए। इम्तहान मतलब संक्रमण का खतरा। पहले इम्तहान टाले गए और अब अंततः निरस्त हो गए। तय हुआ कि बच्चों को उनके पिछले अंको के आधार पर अंक देकर पास किया जाएगा।
जिन बच्चों के पिछले इम्तहानों के कोई नम्बर नहीं होंगे उनको सिर्फ अगली कक्षा में प्रोन्नत किया जाएगा। क्या पता आगे चलकर ऐसे बच्चों की डिवीजन कोरोना डिवीजन कहलाये। बच्चे बतायेंगें -'हम कोरोना डिवीजन में पास हुए हैं।'
होशियार बच्चे थोड़ा दुखी होंगे कि उनके नम्बर कम हुए। 100 प्रतिशत की आशा रखने वाले बच्चे को शायद कम नम्बर मिलें। अखबार में खबर, फोटो इंटरव्यू की आस वाले बच्चे भी निराश होंगे।
इससे अलग बड़ी संख्या उन बच्चों की भी है जो कोरोना की कृपा हाईस्कूल या इंटर पास कर जाएं। जो बच्चे कई सालों से इम्तहानों की देहरी न लांघ पाए वो कोरोंना काल में अगली कक्षा में पहुंच जाए। ऐसे लोग कोरोना के शुक्रगुजार होंगे।
हमारे जान पहचान में ऐसे कई बच्चे हैं जो वर्षों की मेहनत के बावजूद अगली कक्षा में नहीं जा पाये। कोरोना कृपा से वे अब सफल कहलायेंगे। भले ही कोई कहे कि कोरोना के चलते पास हुए वरना फेल हो जाते। लेकिन कहने से क्या होता है। कहलायेंगे तो पास ही भले ही डिवीजन कोरोना डिवीजन हो। बकौल परसाई जी -'अपनी बेइज्जती में दूसरे को शामिल कर लेने से बेइज्जती आधी हो जाती है।' यह तो लाखों लोग शामिल हो गए साथ। बेइज्जती धुंआ-धुंआ हो गयी।
कोरोना डिवीजन ने सिर्फ पास होने का रास्ता नहीं खोला है। इसने तमाम लोगों की रोजी-रोटी और नौकरी बचाने का रास्ता भी बनाया है। कई विभागों में अनुकम्पा के आधार पर नौकरी पाने वालों को हाई स्कूल पास होना अनिवार्य होता है। नौकरी लगने के पांच साल में हाईस्कूल पास न होने की स्थिति में नौकरी से निकाल दिए जाने का प्रावधान होता है। कोरोना डिवीजन ऐसे तमाम लोगों के लिए वरदान की तरह है जो कई प्रयासों के बाद अब यह सोचने लगे थे -'नौकरी छूटने के बाद क्या करेंगे?'
ऐसा एक उदाहरण हमारी निर्माणी में ही है। उसको नौकरी मिले पांच साल होने वाले थे। अभी तक के हाल देखकर यही लगता था कि उसकी नौकरी अब बस चन्द महीने की ही मोहताज है। लेकिन कोरोना काल में लोगों को प्रोन्नत करने के निर्णय से लगता है वह भी प्रोन्नत हो जाएगा। उसकी नौकरी बच जाएगी और वह जिंदगी भर इसके लिए शायद कोरोना का शुक्रगुजार हो।
आपदाएं किसी के लिए वरदान भी लेकर आती हैं।
पास होने के लिए मोहताज लोगों के लिए कोरोना डिवीजन एक वरदान की तरह है। उनके दिन फिर गए इस वरदान से।
जैसे उनके दिन बहुरे वैसे सबके बहुरे।

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प्रेम

 इंसान के व्यक्तित्व का एक हिस्सा होता है जो हमेशा प्रेम को अस्वीकार करता है। यह वह हिस्सा होता है जो नष्ट होना चाहता है। ऐसे हिस्से को हमेशा अनदेखा/माफ किया जाना

चाहिए।
"There is always a part of man that refuses love ;it is that part which wants to die;it is that part which needs to be forgiven".
-अल्वेयर कामू
बमार्फत Shree Krishna Datt Dhoundiyal

Friday, June 04, 2021

यह क्या हो रहा है?

 आजकल खबरों में सच और झूठ , अफवाह और वास्तविकता इस कदर घुली मिली है कि असलियत पता नहीं चलती। लुटने वाला चोर साबित हो रहा है, जिसको जुतियाया जाना चाहिए उसकी जय बोली जा रही है। यह सब क्या है -'हमारे एक मित्र भन्नाते हुए बोले।'

यह जादुई यथार्थवाद है। मार्खेज का नाम सुने हो? जादुई यथार्थवाद उसी के नाम पर चला है। हजार साल पहले की बात आज घटती हुई बताता है। आज की बात को हजार साल पहले घटी बताता है। सब गड्ड-मड्ड। मार्खेज तो लिखकर चला गया, हमारा समाज उसको जी रहा है। यह जो हो रहा है न , वह जादुई यथार्थवाद है। हमारा समाज जादुई यथार्थवाद जी रहा है। हमारे दोस्त ने अंगड़ाई लेते हुए बताया।
हम जिस दोस्त को बुड़बक समझते थे वह सुबह-सुबह इतने ज्ञान की बात कह गया। हम समझ नहीं पा रहे कि क्या कहे? मन कह रहा है कि धृतराष्ट्र की तरह आंख मिचमिचा के पूछें - यह क्या हो रहा है?

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Thursday, June 03, 2021

साइकिल दिवस के बहाने

 

आज विश्व साइकिल दिवस है। 2018 से ही मनाया जाना शुरू हुआ। यूनाइटेड नेशन की जनरल असेम्बली में तय हुआ कि 3 जून को विश्व साइकिल दिवस मनाया जाएगा। तय हो गया तो मनाया जाने लगा।
किसी के नाम से कोई दिन मनाया जाए तो समझ लीजिये उसका अस्तित्व खतरे में है। या तो उसकी फोटो पर माला चढ़ गई है या फिर मामला सिर्फ यादों तक ही सिमटने वाला है।
साइकिल दिवस मनाया जाना भी इसी खतरे की तरफ इशारा है। दुनिया में साईकिलें कम होने लगी हैं। कम भले हुई हैं फिर भी चल तो बहुत रही हैं। चलती भी रहेंगी इंशाल्ल्लाह। जैसे पेट्रोल, डीजल के दाम तरक्की कर रहे हैं उससे लगता है साइकिल की सवारी भी लोकप्रिय होगी। मजबूरी का नाम साइकिल सवारी होगा।
बचपन में सुदर्शन जी का लेख साइकिल की सवारी पढ़ने तक साइकिल चलाना सीख गए थे। पहले कैंची चलाना सीखे फिर उचक के डंडे पर बैठकर और फिर गद्दी पर। लेकिन साइकिल अपनी नहीं थी। दोस्तों की साइकिल चलाते रहे।
इलाहाबाद में किराये की साइकिल चलाई। शायद 30 पैसे घण्टा। हॉस्टल का कमरा नम्बर लिखवाकर साईकल किराये पर मिल जाती।
इलाहाबाद में पढ़ने के दौरान ही साईकल से भारत यात्रा का प्लान बना। झटके में। बहुत अचानक ही तय कर लिया कि साइकिल यात्रा पर जाना है। तीन दोस्त साथ।
दीवानगी इतनी कि इम्तहान के दौरान साईकल यात्रा की तैयारी भी करते। इम्तहान होते ही निकल लिए। 1 जुलाई , 1983 को। अपनी टीम का नाम रखा हम लोगों ने -'जिज्ञासु यायावर।' नाम के पीछे अज्ञेय जी कविता -'अरे यायावर रहेगा याद' का कितना हाथ था कहना मुश्किल। क्या पता उस समय तक पढ़े ही न हों यह कविता।
बहरहाल हम निकले 1 जुलाई को और तीन महीने में उप्र , बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, पांडिचेरी, तमिलनाडु होते हुए तय समय पर 15 अगस्त को कन्याकुमारी पहुंच गए। लौटते में केरल, कर्नाटक, गोआ, मुंबई, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश होते हुए 2 अक्टूबर को वापस इलाहाबाद पहुंच गए।
रास्ते में दोस्तों के घर, ढाबे, मन्दिर, मस्जिद, धर्मशाला, थाना, स्कूल , पुलिया मतलब जहां भी जगह मिली रुके। वह अनुभव अभी भी उकसाता है फिर कहीं निकल लेने को। लेकिन लड़कपन का मन अब कहां। समझदारी जोखिम लेने से रोकती है।
बाद में बहुत दिन तक साइकिल छूटी रही। जबलपुर में फिर शुरू हुई। पूरा जबलपुर साईकिल से घूमा। खूब चलाई साईकिल। एक दिन में सत्तर किलोमीटर तक। साइकिल से 'नर्मदा परिक्रमा' का विचार भी किया कई बार लेकिन अमल में नहीं ला पाए। जोखिम लेने और आवारगी का जज्बा वो नहीं रहा जो लड़कपन में था।
फिर कानपुर और अब शाहजहांपुर में भी साइकिल चलाना जारी रहा। 'शाहजहांपुर साइकिल क्लब' के साथियों के साथ इतवार को साइकिल चलाना शुरू हुआ। अलग से भी चलाते। एक दिन सिंधौली तक गए। लेकिन फिर कोरोना ने डरा दिया और साइकिल कोरोना को कोसती हुई गैराज में धरी है। देखिए कब चलेगी फिर से।
बहरहाल आज विश्व साइकिल दिवस के मौके पर सभी साइकिल चलाने वालों को
बधाई
। आप भी शुरू करें साइकिल चलाना। मजा आएगा। अच्छा लगेगा।

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