ज्ञान चतुर्वेदी जी का नया उपन्यास स्वांग पढ़ा। पिछले हफ्ते मंगाया। लगकर पढ़ गए तीन-चार दिन में। 384 पेज का उपन्यास 3-4 दिन में पढ़ लिया जाए यह अपने आप में उसके रोचक, मजेदार और पठनीय होने का प्रमाण है।
उपन्यास के मुखपृष्ठ में लिखे नोट के अनुसार -'एक गांव के बहाने समूचे भारतीय समाज के विडम्बनापूर्ण बदलाव की कथा है' यह उपन्यास।
उपन्यास पढ़ते हुए और खत्म करने पर भी लगता है कि क्या सही में हमारा समाज ऐसा ही चल रहा है अभी तक। कोटरा में स्कूल, थाना, पत्रकारिता, जाति अभिमान, नेतागिरी, रिश्वत के किस्से ऐसे धड़ल्ले से चलते हैं जिनको पढ़ते हुए लगता है समाज अभी भी वहीं ठहरा है जहां वर्षों पहले था। अपराध, बदमाशियां, जाति की समस्याये और नेतागिरी और कमीनेपन के साथ लागू हो गई हैं। पढ़कर दुख होता है कि सब कुछ वैसे का वैसे ही चल रहा है :
तमाशा है जो ज्यों का त्यों चल रहा है,
अलबत दिखाने के लिए कहीं-कहीं सूरतें बदल रहा है।
उपन्यास में बुंदेलखण्ड के बहाने अपने समाज के किस्से बयान किये गए हैं। हर तरफ नीचता की जीत हो रही है। कहीं कोई उम्मीद की किरण नहीं नजर आती -'सिवाय पंडित जी की बिटिया लक्ष्मी के जो अपने बाप-भाई की मर्जी के खिलाफ आगे पढ़ने का तय करती है।' इसके अलावा गजानन बाबू हैं जो रामराज्य लाने के लिए कृतसंकल्प हैं। लेकिन समाज उनको पागल मानकर पहले ही खारिज कर चुका है। शुरू में पागल करार किये गए गजानन बाबू अंततः लॉकअप में पहुंच जाते हैं।
पंडित जी उपन्यास के केंद्रीय चरित्र हैं। उनके चित्रण से रागदरबारी के वैद्य जी अनायास याद आते हैं। श्रीलाल जी ने रागदरबारी में वैद्य जी का परिचय देते हुए लिखा था -'वैद्य जी थे, हैं और रहेंगे।'
सन 1965 में लिखे रागदरबारी के 55 साल बाद लिखे उपन्यास स्वांग में वैद्य जी लगता है पंडित जी के अवतार में आए हैं -हरामीपन की नई कलाओं से लैस होकर। उनके सुपुत्र अलोपी रुप्पन बाबू और बद्री पहलवान का संयुक्त लेकिन संक्षिप्त संस्करण हैं।
ज्ञान जी डिटेलिंग के उस्ताद हैं। बातचीत करते हुए ऐसी-ऐसी ऊंची बातें उनके पात्र कह जाते हैं कि उनके (पात्रों के) खिलाफ एफ. आई.आर. का मामला बनता है कि इतने बेवकूफ लगने वाले पात्र इतनी ऊंची बात मजे-मजे में कह कैसे गए। बहुत पहुंचे हुए पात्र हैं। कहीं कहीं यही डिटेलिंग ज्यादा हुई भी लगती है। जबरियन खींची हुई लगती है। लेकिन रोचकता बनी हुई है इसलिए अखरती नहीं।
उपन्यास में अदालत है तो गवाह भी हैं। जज भी हैं। जज का गुस्सा भी है। जज के गुस्से का कारण उपन्यास के शुरू में ही बताया गया-'सही में तो उनका गुस्सा अपनी बबासीर पर है, वे अपने चूतड़ के भट्टो पर नाराज हो रहे हैं; हमें जे लगता है कि वे हमसे नाराज हैं। देखो, सही बात जे है कि बवासीर का तो वे कुछ कर नहीं सकते, इसीलिए तुमपे गुस्सा निकालते हैं।' पंडिज्जी बोले।
इसे पढ़ते हुए रागदरबारी का यह अंश याद आया-"गवाही देते समय कभी-कभी वकील या हाकिमे इजलास बिगड़ जाते हैं । इससे घबराना न चाहिये। वे बेचारे दिन भर दिमागी काम करते हैं। उनका हाजमा खराब होता है। वे प्राय: अपच, मंदाग्नि और बबासीर के मरीज होते हैं। इसीलिये वे चिड़चिड़े हो जाते हैं। उनकी डांट-फ़टकार से घबराना न चाहिये। यही सोचना चाहिये कि वे तुम्हें नहीं अपने हाजमें को डांट रहे हैं।"
मजेदार यह है कि ज्ञान के पात्र जजों के गुस्से से सहमते नहीं बल्कि मजे लेते हैं और कहते हैं:
"तो बवासीर को हिरासत में काहे नहीं ले लेते? कर दें स्साली को अंदर? निकाल दें ऑर्डर..." कोई बोला।
"...अंदर ही तो रहती है" किसी ने बवासीर के विषय में बताया।
"सन्देह का लाभ मिलता है बवासीर को।" कहकर हंसे पण्डित जी।
उपन्यास में ऐसे रोचक और मनोरंजक डायलाग जगह-जगह हैं। ज्ञान जी की नजर अद्भुत है इस मामले में। छोटे-छोटे प्रसंगों में इस तरह की विसंगतियां बतकही के दौरान सामने आती हैं। कहीं-कहीं इनकी अधिकता देखकर यह भी लगता है कि इनकी बहुतायत मस्खरी पैदा कर रही है। लेकिन यह शायद लगतार उपन्यास पढ़ने के कारण लगा हो ऐसा।
बुंदेली पृष्टभूमि पर लिखे होने के बावजूद इस उपन्यास की कमजोरी
यह है कि इसमें ज्ञान जी ने गालियां बहुत कम रखी हैं। लगता है ' हम न मरब' में आई गलियों में हुई आलोचना से अतिरिक्त सावधान हो गए हैं। सिवाय बुंदेली तकियाकलाम 'भैंचो' और 'घण्टा' के सबको भगा दिया अपने उपन्यास से।इस चक्कर में कुछ पात्र तो बेचारे संस्कृतनिष्ठ शब्द तक इस्तेमाल करते हुए दिखे। देखिए:
"हर नली तमंचा नहीं होती। लोकल लुहारों की कारीगरी से बनी चीज को हम नपुंसक का शिश्न मानते हैं।"
भले ही ज्ञान जी के उपन्यासों में गाली का विरोध करने वाले लोग इसे अपनी सफलता माने लेकिन हम तो यही कहेंगे कि ज्ञान जी ने लोगों के दबाब में आकर अपने पात्रों की भाषा सेंसर कर दी। उनके साथ अन्याय किया।
कुल मिलाकर स्वाँग एक बेहतरीन पठनीय और रोचक उपन्यास है। पढ़कर आनन्द से अधिक अवसाद होता है कि हमारा समाज ऐसा ही बना हुआ है, बल्कि दिन पर दिन खराब होता जा रहा है।
स्वांग पर यह हमारी पहली पाठकीय त्वरित टिप्पणी है। आगे कभी विस्तार से।
किताब हमने जब खरीदी थी तब 399 रुपये की थी। अब कम कीमत पर उपलब्ध है। 244 की मिल रही। खरीद लीजिए। मजे की गारंटी।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222465249873500