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Sunday, August 28, 2022

लिफ़ाफ़े में कविता – एक रोचक उपन्यास



पिछले साल अरविन्द तिवारी जी का चौथा व्यंग्य उपन्यास आया – ‘लिफ़ाफ़े में कविता।‘ इसके पहले अरविन्द जी के तीन उपन्यास आ चुके हैं –‘दिया तले अंधेरा’, ‘हेड ऑफिस के गिरगिट’ और ‘शेष अगले अंक में’। ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ का इंतजार काफी दिनों से थे। ‘शेष अगले अंक में’ के बारे में लिखते हुए 23 नवंबर, 2016 को लिखा था मैंने:
“अरविन्द तिवारी जी को उनके इस बेहतरीन उपन्यास के लिए बधाई। अब उनके कवि सम्मेलनों पर केंद्रित अगले उपन्यास -'लिफ़ाफ़े में कविता' (नामकरण बजरिये -Alok Puranik आलोक पुराणिक) का इंतजार है।“
मतलब लगभग पाँच साल लग गए अरविन्द तिवारी जी को लिखा हुआ उपन्यास छपवाने में। प्रकाशक के यहाँ पड़ा रहा। कुछ कोरोना के चलते हुए और कुछ प्रकाशकीय उदासीनता। जब अरविन्द तिवारी जी जैसे ख्यातनाम लेखकों के साथ ऐसा होता है तो आम और अनाम लेखक के साथ कैसा होता होगा इसका कयास लगाया जा सकता है।
बहरहाल, उपन्यास आते ही इसको मंगाया गया। 192 पेज का यह उपन्यास आते ही पढ़ लिया गया। पहली पढ़ाई अक्टूबर, 2021 में हो गई थी। उपन्यास आए करीब छह महीने होने को आए, लेकिन लगता है अभी कल ही तो छपा है, कुछ दिन पहले ही तो पढ़ा है। समय कितनी जल्दी बीत जाता है, पता नहीं चलता।
पहली बार पढ़ने के बाद ही इस उपन्यास पर अपने विचार लिखने की मन किया लेकिन फिर टल गया। अब जब लिखने के मन किया तो लगा कि फिर से पढ़कर ही लिखा जाए। दुबारा पढ़ा। पढ़ते हुए फिर लगा कि गजब की रोचकता है इस उपन्यास में। वास्तव में रोचकता अरविन्द तिवारी जी के लेखन का प्राणतत्व है। जबसे उनसे परिचय हुआ, लगभग छह वर्ष हुए, तबसे उनके जो भी लेख छपे वे सब मैंने पढे हैं और पुराना लेखन भी पढ़ा है तो इसका कारण उनसे जुड़ाव के साथ-साथ उनके लेखन की सहज रोचकता है। सबसे अच्छी बात यह कि वे आज भी लेखन में निरंतर सक्रिय हैं।
अपने विपुल लेखन के कारण अरविन्द जी को सम्मान भी मिले लेकिन वही मिले जिनके लिए सिर्फ लेखन ही योग्यता होती है। व्यक्तिगत संबंध, मठबाजी, गुटबाजी और ‘तुम मुझे दिलाओ, मैं तुम्हें दिलाऊँ’ घराने वाले सम्मान उनको नहीं मिले तो इसका कारण मेरी समझ में अरविन्द जी का अकेले और शिविरहीन होना है। उनकी किताबें भी संयोग से ऐसे प्रकाशकों से आईं जिनमें से अधिकतर ने पहले संस्करण के बाद दूसरे छापे नहीं। अरविन्द जी की छोटे कस्बे में रहते हुए, आत्मप्रचार की तिकड़मों से अनजान न होने के बावजूद उनको आत्मसात करने में अक्षमता भी इसके पीछे कारण होगी।
अरविन्द तिवारी जी के व्यक्तित्व का खूबसूरत पहलू यह भी है कि वे नए से नए लेखक को न सिर्फ पढ़ते हैं वरन उनके लेखन पर अपनी बेबाक राय और उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ भी करते रहते हैं।
अरविन्द तिवारी जी के नए उपन्यास के बारे में लिखने के पहले उनके बारे में यह लिखना कुछ ऐसा भी लग सकता है मानो हम उनका पहली बार परिचय कर रहा हों। कहा जा सकता है कि हिन्दी व्यंग्य से जुड़े लोगों के लिए उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लेकिन ऐसा कहना भी सच नहीं है। मैं खुद ही अरविन्द तिवारी जी को छह साल पहले जानता नहीं था। हिन्दी व्यंग्य से जुड़े कुछ लोगों के लिए भगवान का दर्जा प्राप्त ज्ञान चतुर्वेदी जी के बारे में सेंट्रल रेलवे स्टेशन की सर्वोदय पुस्तक भंडार में किताबें देखते हुए एक बहुपाठी इंसान ने पूछा था –‘ये क्या लिखते हैं , कैसा लिखते हैं?’
बहरहाल बात फिर ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ की। अपने इस उपन्यास में अरविन्द तिवारी जी ने हिन्दी कवि सम्मेलनों के किस्से, राजनीति और स्थितियों की विषद चर्चा रोचक अंदाज में की है। अरविन्द तिवारी जी खुद मंच से जुड़े रहे हैं , इस लिए उनके अंदरूनी किस्से भी विस्तार से जानते हैं। कवि सम्मेलनों के अनुभव और दुनियादारी के अनुभवों के कल्पना के मिश्रण को रोचकता की चाशनी में लपेटकर पेश की गई है ‘लिफ़ाफ़े में कविता।‘ कुछ सच्चे अनुभव नाम और घटनास्थल बदलकर पेश किए गए हैं, जस का तस करने में कौन बवाल झेलता घूमें पेंशन वाली उम्र में।
कवि सम्मलेनों के फुटकर किस्से तो अनेक सुने थे लेकिन उन पर इस विस्तार से उपन्यास पहला पढ़ा। मुस्ताक अहमद युसूफ़ी के ‘खोया पानी’ का ‘धीरजगंज का मुशायरा’ वाला एक रोचक किस्सा जरूर पढ़ा था। इस उपन्यास पर लिखने के दौरान ही मैंने वह अंश फिर से पढ़ा।
उपन्यास की शुरुआत स्वयंभू युवा कवि परसादी लाल के बी.एस.सी. पार्ट वन के तीसरे साल में फेल होने से होती है। बालक परसादी की कुंडली शानदार बनाई थी पंडितों ने इस लिए लाड़ प्यार में पला। शुरुआती परिचय के बाद अरविन्द जी लिखते हैं :
“बेटा लाड़-प्यार की अतिरिक्त किस्तों को झोल नहीं पाया।“
लाड़-प्यार में पले बेटे ने हर क्लास को दो वर्षों में उत्तीर्ण होने का रिकार्ड बनाया तो पिता पन्नालाल डंडा लेकर उन पंडितों की ढूँढने लगे ,जिन्हें जन्मपत्री बनवाई की दक्षिणा में बीसियों हजार दिए थे।
कालांतर में विद्रोह करता है बेटा। भारतीय समाज में नौजवान विद्रोह करने के नाम पर प्रेम विवाह के अलावा सिर्फ एक ही काम करते हैं वह है अपनी मर्जी से रोजगार चुनना। प्रेम के किस्से उपन्यास में आने थे इसलिए परसादी लाल ने दूसरी वाली क्रांति को चुना और कवि बनने की घोषणा की। कवि बनने की घोषणा के पीछे उनकी मंच की गहरी समझ थी जिसे उन्होंने इस तरह व्यक्त किया:
“आज मंच का कवि लाखों रुपए कमा रहा है। उसका जीवन किसी रईस से कम नहीं है। मैं मंच का कवि हूँ , चार गीत लिखकर जीवन में करोड़ों रुपए कमाऊँगा।“
परिवार से विद्रोह के बाद परसादीलाल कस्बे के स्थापित हास्य कवि लोमड़ की तरफ गम्यमान हुए जो दस मिनट के काव्य पाठ के लिए पैंतालीस मिनट तक चुटकुला पाठ करने के लिए कुख्यात थे।
‘दस मिनट के काव्यपाठ के लिए पैंतालीस मिनट चुटकुला पाठ’ के बहाने अरविन्द तिवारी जी आज के कवि सम्मलेन मंच के हाल बयान करते हैं जहां वीर रस का कवि भी बिना चुटकुलों के नहीं जमता। आज के मंच का हाल तो यह है कि कवि वही जमता है जो बढ़िया चुटकुलेबाज हो।
लोमड़ कवि से मुलाकात के बाद मनुहार कवि के भी दीदार होते हैं जिनकी बीमारी हमेशा शातिर किस्म की होती। अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलन बिना जाने का नाम नहीं लेती।
‘लोमड़ कवि नहीं चाहते थे कि उनके बाल सखा परसादी लाल कवि सम्मलेन के धंधे में उतरें।‘ अरविन्द जी यह लिखने के बाद यह भी लिख सकते थे –“जिस तरह हिन्दी में उपन्यास लिखने वाले व्यंग्यकार नहीं चाहते कि कोई और उपन्यास लिखे या उसकी चर्चा हो और उनको पुरस्कृत किया जाए।“ लेकिन नहीं लिखा। यही उनकी ताकत है, यही उनकी कमजोरी है। वर्ना तो छोटे-बड़े लगभग हर तरह के सम्मान, पुरस्कार पर लगातार कब्जा करते रहने वाले भी स्यापा करते रहते हैं –“लोग हमारा विरोध करते हैं।“
परसादी लाल कालांतर में अपने बाल सखा लोमड़ कवि के जरिए कवि सम्मलेनों (और साहित्यिक सम्मानों ) के ‘गिव एवं टेक’ के शाश्वत नियम के सहारे ज्वलंत जगतपुरिया के रूप में लांच किए गए।
लोमड़ कवि द्वारा लांच किए जाने के बाद ज्वलंत जयपुरिया ने जिला मुख्यालय के ओज कवि अंगद की संगत में कवि सम्मलेनों के मूल मंत्र - ‘मंचीय कवि के लिए सबसे बड़ा पैसा होता है’ और ‘पिटाई से कवि लोकप्रिय होता है’ सीखे ।
कवि अंगद की संक्षिप्त नाराजगी को अंग्रेजी शराब के सहारे दूर करके ज्वलंत जयपुरिया मध्य प्रदेश के कवि निर्निमेश जिन्होंने उनमें संभावनाएं देखकर उनको अपनी पुत्री के लिए पसंद कर लिया। कवि निर्निमेश की सांवले रंग की पुत्री आभा ने गौरवर्णीय नवयुवक कवि ज्वलंत जयपुरिया को देखकर बता दिया –‘आपका चेला मुझे पसंद है। ‘
इसके बाद आभा अपने पिता के चेले को आधुनिक बनाने लगी। उनके बीच ‘स्त्री-पुरुष’ हुआ। शादी की बात चली। ज्वलंत जयपुरिया के पिता पन्नालाल ने मुनादी पिटवाई कि उनका लड़का आवारा और वेश्यागामी हो गया है। ज्वलंत जयपुरिया न चाहते हुए भी आभा के साथ ‘शादी गति’ को प्राप्त हुए। शादी होते ही अलगाव भी शुरू हो गया। अलगाव के कारण भी वही थे जो लगाव के थे –‘कवि जी को बेहतर विकल्प उपलब्ध थे और दोनों लोग एक-दूसरे के बारे में जो जानते थे वह आपस में कहने भी लगे थे।‘
कवि ज्वलंत जयपुरिया कालांतर में राज्य अकादमी के अध्यक्ष बने। उनके जलवे के साथ विरोध भी बढ़ा। उन्होंने अपने राज्य अकादमी अध्यक्ष के पद का समुचित उपयोग करते हुए अपने ससुर के गढ़ भोपाल में शानदार कार्यक्रम करवाया।
ज्वलंत जयपुरिया की शराबनोशी और अय्याशी के किस्से उजागर होने लगे। हिन्दी के माफिया ज्वलंत जयपुरिया से ईर्ष्या करने लगे। हिन्दी के एक डॉन भी अपने चेले का नाम पुरस्कार से कट जाने के कारण नाराज हुए।
उधर कवि निर्निमेश भी भोपाल कवि सम्मेलन के बाद अपने दामाद से खफा थे। पहले भी अपने दामाद की पिटाई करवाने में असफल हो चुके थे। अनंत: डॉन और कवि निर्निमेश की संयुक्त नाराजगी ने दिल्ली की कारगर्ल माधुरी के जरिए ज्वलंत जगतपुरिया का स्टिंग आपरेशन करवाया। माधुरी से बलात्कार के आरोप में कवि जेल गति को प्राप्त हुए। बाद में आभा से तलाक हुआ। मुआवजे में आगरे की कोठी देकर वे वापस अपने पुश्तैनी कस्बे जगतपुर में अपने बालसखा लोमड़ कवि, जिनकी नौकरी उनकी हरकतों के चलते छूट गई थी, के साथ मुंशी जी की दुकान पर चाय पीते पाए गए।
इस तरह अरविन्द तिवारी जी ने लिफ़ाफ़े में कविता के माध्यम से एक बार फिर साबित किया कि दुनिया गोल है।
सहज, सरल भाषा में कवि सम्मेलनों के माध्यमों से किस्सों के माध्यम से दुनियावी उठकपठक को रोचक अंदाज में पेश किया है लिफ़ाफ़े में कविता के माध्यम से। इसमें कवि सम्मलेन के संयोजक मनुहार जी की भैंसे खोलवा कर कवियों का भुगतान कराने का किस्सा है तो ओज कवि अब्दुल लतीफ़ ‘मक्कार’ के एक कविता के बाल पर उर्दू न आने के बावजूद राज्य उर्दू अकादमी का अध्यक्ष बन जाना भी है। कवियों की उखाड़-पछाड़ तो खैर है ही। हूटिंग, पीना-पिलाना तो खैर अब आम बात हुई कवि सम्मलेनों में लेकिन पिटाई कुछ ज्यादा ही करवाई अरविन्द जी ने कवियों की।
उपन्यास हालांकि काफी देर से आया लेकिन अच्छा छपा है। आकर्षक छपाई, बढ़िया कवर पेज और प्रूफ की गलतियों से रहित किताब को पढ़ना अच्छा अनुभव रहा।
अरविन्द तिवारी जी को उनके उपन्यास ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ के लिए बधाई। आशा है जल्द ही उनका होटलों पर केंद्रित उपन्यास भी जल्द ही आएगा। फिलहाल तो उसके पूरा होने और नामकरण के बाद छपाई का इंतजार है।
पुस्तक का नाम : लिफाफे में कविता (व्यंग्य उपन्यास)
लेखक : अरविंद तिवारी
विधा – उपन्यास ; संस्करण – 2021 ;
पृष्ठ संख्या – 192 ; मूल्य – 400/- रुपए
प्रकाशक – प्रतिभा प्रतिष्ठान, 694- बी, चावड़ी बाजार, नई दिल्ली 110006

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Tuesday, June 29, 2021

कबूतर का कैटवॉक- गैर इरादतन घुमक्कडी के किस्सों की दास्तान

 

इंसान की तरक्की में सबसे अधिक योगदान उसकी किस प्रवृत्ति का रहा इसके बारे में आंकड़ें जुटाये जायें तो यायावरी अव्वल नम्बर पर आयेगी। मनुष्य शुरु से ही आदतन घुमक्कड़ रहा है। इधर से उधर घूमता रहा, प्रगति करता रहा। जीने के साधन बेहतर हुये तो ज्ञान की खोज में टहलता रहा। दुनिया के तमाम बड़े ज्ञानी कहलाये जाने वाले खलीफ़ा वस्तुत: घुमक्कड़ ही रहे- फाह्यान, ह्वेन सांग, इत्सिंग, इब्न बतूता, अलबरुनी, मार्कोपोलो, बर्नियर, टेवर्नियर सब यायावर ही थे। कोलम्बस , वास्कोडिगामा ,कैप्टन कुक भी सब मूलत: घुमक्कड़ ही तो थे। दुनिया में जो आज जो भी देश आगे हैं , उसके पीछे उनके देश के लोगों यायावरी का भी बड़ा योगदान होगा।
किसी देश, प्रदेश , जगह के बारे में कई पोथियां पढकर भी जो ज्ञान हासिल होता है उससे कहीं सटीक समझ वहां घूमने से बनती है। इसीलिये तो घुमक्कड़ी को जीवन की सबसे बड़ी जरूरत बताया गया है:
सैर कर दुनिया की गाफ़िल, जिन्दगानी फ़िर कहां,
जिन्दगानी गर रही तो नौजवानी में फ़िर कहां?
समीक्षा जी भी आदतन घुमक्कड़ हैं। जब, जहां मौका मिला निकल लीं घूमने। बचपन में उत्तराखण्ड से शुरु हुयी यात्राओं का अध्याय जो शुरु हुआ तो पत्रकारिता के दिनों की घुमक्कड़ी अबूधाबी , दुबई और फ़िर वापस अपने देश में जारी है। घुमक्कड़ी के साथ लिखा-पढी भी करती रहने से इनके किस्से दर्ज भी होते रहे। अब इन किस्सों का भी हक बनता है कि ये समीक्षा जी के निजी लेखन की दुनिया से पाठकों की दुनिया तक पहुंचें। समीक्षा जी के सहज , गैरइरादतन घुमक्कड़ी के किस्सों की दास्तान है यह यायावरी दस्तावेज –’कबूतर का कैटवॉक।’
जैसा समीक्षा जी बताया कि ऊंची-ऊंची इमारतें निहारने की बजाय उनको प्रकृति की संगति ज्यादा आकर्षित करती है। यायावरी के समय की छोटी-छोटी घटनायें, सूचनायें समीक्षाजी के जेहन में किसी जहाज के ’ब्लैक बॉक्स’ की तरह रिकार्ड होती जाती हैं जिसे बाद में वे तफ़सील से बयान करती हैं। इनके किस्सों की रेंज में कबूतर, बिल्ली, टिटिहरी, बिल्ली से लेकर अठारह लेन वाली सड़क को पार करके वॉक करते समय मिलने वाली सहेली से होते हुये ’चेंज योर हसबैंड’ के विज्ञापन भी हैं। यह अलग बात है कि अपना घुमक्कड़ जीवनसाथी इनको इतना पसंद है कि इस विज्ञापन को देखते ही खारिज कर देती हैं।
यायावरी के किस्सों को बयान करते हुये समसामयिक समाज की पड़ताल करती चलती हैं समीक्षा जी। शुरुआत शुक्रवारी यात्राओं के किस्सों से होती है। अरब देशों के शुक्रवार बाकी दुनिया के इतवार जैसे होते हैं। शुक्रवार मतलब छुट्टी का दिन। घर-परिवार के साथ छुट्टी के दिन घूमते हुये उनका तसल्ली से वर्णन मौजूद है शुक्रवारी यात्राओं के किस्सों में। इन किस्सों में आसपास की घटनाओं का बयान करते हुये उनको दुनियावी अनुभवों से भी बखूबी जोड़ती हैं समीक्षा जी। इन अनुभवों के बयान में उनकी नजर एक साथ लोकल और ग्लोबल होती है। कुछ उदाहरण देखे जायें:
- जो एक्सपर्ट होते हैं, वे अपने जाल में सब तरह की मछलियों को आसानी से फंसा लेते हैं।
- यहाँ के लोगों की गाड़ियाँ बड़ी होने का फ़ायदा ये होता है कि वे अपने साथ आधी गृहस्थी ले आते हैं। फिर वो बारबिक्यू हो या फ़ोल्डिंग साइकल। जब मन हो वैसा कर लो। कौन सा हाथों को पीड़ा देनी है।
- मरुस्थल में हरियाली पैदा करना दुश्वर काम है। पर देखने के बाद लगता है कि मनुष्य यदि चाहे तो वह कुछ भी कर सकता है, अपनी इच्छाशक्ति के दम पर। बशर्ते इच्छा और शक्ति (पैसा) का सही उपयोग हो। कम से कम यहाँ खाऊपन मतलब भ्रष्टाचार खुली आँखों से तो नहीं दिखता। अंदर की बातें कोई नहीं जानता।
- यूएई की ख़ासियत ये है कि कोई भी चौराहे देख लीजिए, आप एक नहीं, सैकड़ों फ़ोटो निकालने को मजबूर हो जाएँगे। सब अलग अलग थीम पर बने होते हैं। हरियाली की कोई कमी नहीं। वहाँ जाकर हमारा आदमी (भारतीय) मेहनत बहुत करता है। रेगिस्तान को हरा भरा बनाना, हरे-भरे कबाब बनाने जैसा आसान काम नहीं है। ईमानदारी चाहिए ऐसे कामों में। हमारे देश की ईमानदारी वहाँ ख़रीदी जाती है।
-- क्षितिज को देखना सच में रोमांच पैदा करता है। वो क्षितिज जिसका कहीं अंत ही नहीं। मतलब जब हम समुद्र की यात्रा कर रहे होते हैं, तो वो क्षितिज ही है, जो हमें अंतहीन यात्रा पर ले जाता है। जैसे ब्रम्हाण्ड की यात्रा हो। ढेरों रहस्य। और हम केवल तुच्छ प्राणी। जो केवल प्राणवायु के लिए जीते हैं।
’कबूतर का कैटवॉक’ घूमते फ़िरते हुये अपने समय और समाज की सहज पड़ताल की कोशिश है। विदेश में घूमते हुये अपने देश की परिस्थितियों से अनायास तुलना है। समीक्षा जी के घुमक्कड़ी के किस्सों की रेंज बड़ी है। इसमें कैब ड्राइवर और कामवाली की परेशानी हैं तो जैनमुनि की जीवनशैली भी। इसी में गर्मी में योग की लफ़ड़े भी बयान हो गये। ’शिक्षा का मायका’ माने जाने वाले पुणे के बनिस्बत उत्तर भारतीयों की सहज मनोवृत्ति हो या दक्षिण की महिलायें सब समीक्षा जी के राडार की रेंज में हैं। अपने से जुड़े लोगों के भी आत्मीय संस्मरण भी शामिल हैं इसमें।
अपने पहले व्यंग्य संग्रह – ’जीभ अनशन पर है’ के माध्यम से हिन्दी के व्यंग्यकारों में अपनी पहचान बनाने वाली समीक्षा जी के यायावरी किस्सों का संकलन आना सुखद है। घुमक्कड़ी की कहानियां कम ही लिखी गयी हैं हिन्दी में। इस कमी की कुछ भरपाई जरूर होगी ’कबूतर के कैटवॉक’ से। समीक्षा जी को शुभकामनायें। वे ऐसे ही घूमती रहें, लिखती रहें।
अनूप शुक्ल
शाहजहांपुर

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222596552235977

समीक्षा तैलंग के निर्देशन में कबूतरों का कैटवॉक

 

जरूरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो,
उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो ,
हमेशा देर कर देता हूं मैं -मुनीर नियाजी
लिखा-पढ़ी के मामले में अपन पर मुनीर नियाजी साहब का यह शेर बखूबी लागू होता है, खासकर दोस्तों की किताबों के बारे में लिखने के मामले में | कई मित्रों की किताबों के बारे में लिखना बकाया है |
अमूमन हमारी किताबें खरीद कर पढ़ने की आदत है| लेकिन कुछ दोस्तों ने तो किताबें भी भेजी हैं , गोया अपन कोई बड़े लेखक हो गए हों| ऐसी किताबों में से अधिकतर के हाल भी वैसे ही हुए जो नामचीन लेखकों के यहां पहुंची किताबों के होते हैं - 'वे अपने पढ़े जाने के इंतजार में हैं|'
दोस्तों की किताबें पढ़ने में देरी का कारण ऐसा नहीं कि अपन बहुत व्यस्त रहते हैं या बहुत जरूरी काम में उलझे रहते हैं| समय की कमी बिल्कुल नहीं अपन के पास | पूरी 24 घंटे अलाट होते हैं रोज हमको भी| कुछ जरूरी काम निपटाने के बाद बाकी बचा समय गैर जरूरी कामों में उलझाकर निपटा देते हैं| लिखने पढ़ने की बात अक्सर टल जाती है| लगता है कि तसल्ली से लिखा जाएगा| इसके पीछे वली असी साहब के शेरों की साजिश है :
"मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था
मगर सफ़र न कभी एख़्तियार (शुरू)करता था।
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैँ जिंदगी पे बहुत एतबार (भरोसा)करता था।"
जिंदगी पर बहुत भरोसा रखने के चलते तमाम काम अधूरे रह जाते हैं अपन के| कुछ किताबों पर तो लिखने के मजनून मय टाइटल दिमाग में जमा हैं| लेकिन वही मामला एतबार में अटक जाता है|
जिन किताबों के बारे में लिखना अभी तक नहीं हो पाया उनके लिए इतनी बहाने बाजी के बाद अब बात उस किताब की जिसके बारे लिखने के लिए इतनी भूमिका बांधी|
पिछले दिनों, जब देश के तमाम हिस्से लाकडाउन की गिरफ्त में थे , दोस्तों की कुछ किताबें भी आईं| इन्हीं में एक समीक्षा तैलंग Samiksha Telangकी किताब भी शामिल रही - 'कबूतर का कैटवॉक' आमतौर पर इस तरह ध्यानखैचू शीर्षक हमारी किताबों के नाम रखने वाले 'व्यंग्य पुरोहित' आलोक पुराणिक रखते हैं| समीक्षा जी की किताब का शीर्षक आकर्षक रहा| कवर पेज भी|
इस किताब के पहले समीक्षा जी का व्यंग्य संग्रह 'जीभ अनशन पर है' दो साल पहले आया, धूमधाम से आया| काफी चर्चा हुई उसकी| सम्मान वगैरह भी मिले| इस बीच उनको व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठा भी मिली| जल्दी ही समीक्षा जी का अगला व्यंग्य संग्रह भी आएगा| समीक्षा जी की दोनों किताब भावना प्रकाशन से छपी है| एक प्रतिष्ठित प्रकाशन से दो साल के अंतर में दो किताबें प्रकाशित होना रचनाकार के जलवे की कहानी कहता है |
संयोग से 'जीभ अनशन पर है' के विमोचन के मौके पर मैं भी मौजूद था| उस पर लिखने की बात कहते हुए बार-बार टालता रहा जिसकी बहाने बाजी ऊपर पहले ही की जा चुकी है| उसे दोहराना ठीक नहीं|
समीक्षा तैलंग से परिचय 'व्यंग्य की जुगलबंदी' के दिनों से हुआ| लगातार दो साल हर हफ्ते 'व्यंग्य की जुगलबंदी' के बहाने तमाम लेखकों ने लेख लिखे| कुछ लोगों ने लिखने की शुरुआत की , कुछ स्थापित लेखकों ने इसी बहाने फिर से लिखना शुरू किया| करीब 600-700 लेख तो लिखे गए होंगे| समीक्षा जी ने भी उसमें लेख लिखे| फिर उनकी किताब 'जीभ अनशन पर है' आई| इसके बाद यह 'कबूतर का कैटवॉक ' |
'कबूतर का कैटवॉक' किस्सागोई/संस्मरण घराने के लेख हैं | इसकी भूमिका लेखकों में दामोदर खड़के जी के साथ अपन भी शामिल हैं| लिहाजा कह सकते हैं कि किताब छपने से पहले ही इसके लेख पढ़ चुके थे|
किताब में शामिल लेखों का ताना-बाना आबूधाबी से हिंदुस्तान तक फैला है| आबूधाबी का शुक्रवार हिंदुस्तान के इतवार की तरह होता है -साप्ताहिक अवकाश का दिन | कई शुक्रवारी किस्से शामिल हैं किताब में| कबूतरों के साथ कौवे, तोता , गौरैया और दूसरे पक्षियों के भी जमावड़े हैं| कुछ रोचक व्यक्तिचित्र भी हैं |
127 पेज की 200 रुपये की किताब की छपने की सूचना मिलते ही हमने इसे खरीदने का इरादा बनाया तब तक समीक्षाजी की संदेश आया कि वे खुद इसे हमें भेजेंगी| भूमिका लेखक होने के कारण 200 रुपये बचे| समीक्षा जी ने मुझे किताब भेजते हुए लिखा है - 'आपकी भूमिका ,आपकी पुस्तक'|
अब जब किताब ही हमारी हो गई तो सिवाय तारीफ के क्या कहा जाए| किताब की छपाई शानदार है| प्रूफ की गलतियां भी नहीं दिखीं | फ़ोटो अलबत्ता श्वेत-श्याम होने के चलते कहीं -कहीं उतने आकर्षक नहीं दिखते जीतने रंगीन होने पर होते| लेकिन रंगीन होने पर किताब के दाम बहुत ज्यादा हो जाते |
किसी रचनाकार की किताब जब आती है तो उसको उसकी तारीफ सुनने की उत्सुकता होती है| लेखक चाहे नया हो दशकों पुराना, किताब छपने पर उसके हाल उस स्कूली बच्चे जैसे होते है जो अपनी पाठक रूपी अध्यापक से ए ग्रेड की ही अपेक्षा करता है | कुछ बुजुर्ग लेखक तो किसी कमी की तरफ ध्यान दिलाए जाने पर पाठक की समझ को ही खारिज करने पर आमादा हो जाते हैं -'तुमको पढ़ने की तमीज नहीं है'|
समीक्षा जी से अलबत्ता इस तरह का कोई खतरा नहीं है इसलिए ही किताब के बारे में सिवाय
बधाई
और तारीफ के और कोई सुर सध नहीं रहा|
अपने लेखन की शुरुआत पत्रकारिता से करने वाली समीक्षा जी व्यंग्यकार के रूप में पहचान बना चुकी हैं| जब दशकों से व्यंग्य के स्थापित लेखक आलोक पुराणिक Alok Puranik सरीखे लोग अपने को अभी भी व्यंग्य का विद्यार्थी मानते हैं तो समीक्षा जी जैसे दो साल पहले लेखन के इस अखाड़े में उतरने वाले रचनाकार को तो बहुत कुछ सीखना है, नया करना है , नई उपलब्धियां हासिल करना है|
'कबूतर का कैटवॉक' के प्रकाशन की बधाई देते हुए कामना करता हूं कि समीक्षा जी लेखन के क्षेत्र में नित नए आयाम छुए, नई सफलताएं हासिल करें| इस किताब में कबूतर कैटवाक करते हुए हिंदुस्तान पहुचें| आने वाले समय में इन कबूतरों के पंखों की फड़फड़ाहट पूरी दुनिया में पहुंचे|
नोट : किताब की भूमिका के रूप में लिखा मेरा लेख अगली पोस्ट में | लिंक यह रहा https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222596552235977

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222596358991146

Monday, June 07, 2021

स्वांग -एक गांव के बहाने भारतीय समाज की कहानी

 

ज्ञान चतुर्वेदी जी का नया उपन्यास स्वांग पढ़ा। पिछले हफ्ते मंगाया। लगकर पढ़ गए तीन-चार दिन में। 384 पेज का उपन्यास 3-4 दिन में पढ़ लिया जाए यह अपने आप में उसके रोचक, मजेदार और पठनीय होने का प्रमाण है।

उपन्यास के मुखपृष्ठ में लिखे नोट के अनुसार -'एक गांव के बहाने समूचे भारतीय समाज के विडम्बनापूर्ण बदलाव की कथा है' यह उपन्यास।
उपन्यास पढ़ते हुए और खत्म करने पर भी लगता है कि क्या सही में हमारा समाज ऐसा ही चल रहा है अभी तक। कोटरा में स्कूल, थाना, पत्रकारिता, जाति अभिमान, नेतागिरी, रिश्वत के किस्से ऐसे धड़ल्ले से चलते हैं जिनको पढ़ते हुए लगता है समाज अभी भी वहीं ठहरा है जहां वर्षों पहले था। अपराध, बदमाशियां, जाति की समस्याये और नेतागिरी और कमीनेपन के साथ लागू हो गई हैं। पढ़कर दुख होता है कि सब कुछ वैसे का वैसे ही चल रहा है :
तमाशा है जो ज्यों का त्यों चल रहा है,
अलबत दिखाने के लिए कहीं-कहीं सूरतें बदल रहा है।
उपन्यास में बुंदेलखण्ड के बहाने अपने समाज के किस्से बयान किये गए हैं। हर तरफ नीचता की जीत हो रही है। कहीं कोई उम्मीद की किरण नहीं नजर आती -'सिवाय पंडित जी की बिटिया लक्ष्मी के जो अपने बाप-भाई की मर्जी के खिलाफ आगे पढ़ने का तय करती है।' इसके अलावा गजानन बाबू हैं जो रामराज्य लाने के लिए कृतसंकल्प हैं। लेकिन समाज उनको पागल मानकर पहले ही खारिज कर चुका है। शुरू में पागल करार किये गए गजानन बाबू अंततः लॉकअप में पहुंच जाते हैं।
पंडित जी उपन्यास के केंद्रीय चरित्र हैं। उनके चित्रण से रागदरबारी के वैद्य जी अनायास याद आते हैं। श्रीलाल जी ने रागदरबारी में वैद्य जी का परिचय देते हुए लिखा था -'वैद्य जी थे, हैं और रहेंगे।'
सन 1965 में लिखे रागदरबारी के 55 साल बाद लिखे उपन्यास स्वांग में वैद्य जी लगता है पंडित जी के अवतार में आए हैं -हरामीपन की नई कलाओं से लैस होकर। उनके सुपुत्र अलोपी रुप्पन बाबू और बद्री पहलवान का संयुक्त लेकिन संक्षिप्त संस्करण हैं।
ज्ञान जी डिटेलिंग के उस्ताद हैं। बातचीत करते हुए ऐसी-ऐसी ऊंची बातें उनके पात्र कह जाते हैं कि उनके (पात्रों के) खिलाफ एफ. आई.आर. का मामला बनता है कि इतने बेवकूफ लगने वाले पात्र इतनी ऊंची बात मजे-मजे में कह कैसे गए। बहुत पहुंचे हुए पात्र हैं। कहीं कहीं यही डिटेलिंग ज्यादा हुई भी लगती है। जबरियन खींची हुई लगती है। लेकिन रोचकता बनी हुई है इसलिए अखरती नहीं।
उपन्यास में अदालत है तो गवाह भी हैं। जज भी हैं। जज का गुस्सा भी है। जज के गुस्से का कारण उपन्यास के शुरू में ही बताया गया-'सही में तो उनका गुस्सा अपनी बबासीर पर है, वे अपने चूतड़ के भट्टो पर नाराज हो रहे हैं; हमें जे लगता है कि वे हमसे नाराज हैं। देखो, सही बात जे है कि बवासीर का तो वे कुछ कर नहीं सकते, इसीलिए तुमपे गुस्सा निकालते हैं।' पंडिज्जी बोले।
इसे पढ़ते हुए रागदरबारी का यह अंश याद आया-"गवाही देते समय कभी-कभी वकील या हाकिमे इजलास बिगड़ जाते हैं । इससे घबराना न चाहिये। वे बेचारे दिन भर दिमागी काम करते हैं। उनका हाजमा खराब होता है। वे प्राय: अपच, मंदाग्नि और बबासीर के मरीज होते हैं। इसीलिये वे चिड़चिड़े हो जाते हैं। उनकी डांट-फ़टकार से घबराना न चाहिये। यही सोचना चाहिये कि वे तुम्हें नहीं अपने हाजमें को डांट रहे हैं।"
मजेदार यह है कि ज्ञान के पात्र जजों के गुस्से से सहमते नहीं बल्कि मजे लेते हैं और कहते हैं:
"तो बवासीर को हिरासत में काहे नहीं ले लेते? कर दें स्साली को अंदर? निकाल दें ऑर्डर..." कोई बोला।
"...अंदर ही तो रहती है" किसी ने बवासीर के विषय में बताया।
"सन्देह का लाभ मिलता है बवासीर को।" कहकर हंसे पण्डित जी।
उपन्यास में ऐसे रोचक और मनोरंजक डायलाग जगह-जगह हैं। ज्ञान जी की नजर अद्भुत है इस मामले में। छोटे-छोटे प्रसंगों में इस तरह की विसंगतियां बतकही के दौरान सामने आती हैं। कहीं-कहीं इनकी अधिकता देखकर यह भी लगता है कि इनकी बहुतायत मस्खरी पैदा कर रही है। लेकिन यह शायद लगतार उपन्यास पढ़ने के कारण लगा हो ऐसा।
बुंदेली पृष्टभूमि पर लिखे होने के बावजूद इस उपन्यास की कमजोरी 🙂 यह है कि इसमें ज्ञान जी ने गालियां बहुत कम रखी हैं। लगता है ' हम न मरब' में आई गलियों में हुई आलोचना से अतिरिक्त सावधान हो गए हैं। सिवाय बुंदेली तकियाकलाम 'भैंचो' और 'घण्टा' के सबको भगा दिया अपने उपन्यास से।इस चक्कर में कुछ पात्र तो बेचारे संस्कृतनिष्ठ शब्द तक इस्तेमाल करते हुए दिखे। देखिए:
"हर नली तमंचा नहीं होती। लोकल लुहारों की कारीगरी से बनी चीज को हम नपुंसक का शिश्न मानते हैं।"
भले ही ज्ञान जी के उपन्यासों में गाली का विरोध करने वाले लोग इसे अपनी सफलता माने लेकिन हम तो यही कहेंगे कि ज्ञान जी ने लोगों के दबाब में आकर अपने पात्रों की भाषा सेंसर कर दी। उनके साथ अन्याय किया। 🙂
कुल मिलाकर स्वाँग एक बेहतरीन पठनीय और रोचक उपन्यास है। पढ़कर आनन्द से अधिक अवसाद होता है कि हमारा समाज ऐसा ही बना हुआ है, बल्कि दिन पर दिन खराब होता जा रहा है।
स्वांग पर यह हमारी पहली पाठकीय त्वरित टिप्पणी है। आगे कभी विस्तार से।
किताब हमने जब खरीदी थी तब 399 रुपये की थी। अब कम कीमत पर उपलब्ध है। 244 की मिल रही। खरीद लीजिए। मजे की गारंटी।

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