मानसून आने की खबर हो चुकी है। लेकिन बरस नहीं रहा है। लगता है कहीं रुककर फ़ुटबाल मैच देखने लगा है। पूरी दुनिया में आजकल फ़ुटबाल मचा है न!
बादल-बदलियों के साथ अपनी पसंदीदा टीमों को चीयरअप करने में जुटे होंगे। इसीलिये बरसने में देर कर रहे हैं शायद। जैसे दफ़्तरों में लोग चाय की चुस्कियां लेते हुये क्रिकेट मैच देखते हुये काम-तमाम करते हैं वैसे बादल-बदलियां धूप की चुस्कियां लेते हुये नैन-मटक्का कर रहे होंगे।
हो तो यह भी सकता है कि बादल-बदलियों को कहीं मुफ़्त का नेटवर्क मिल गया हो। अच्छे सिग्नल मिलते ही वे अपने दोस्त-सहेलियों से हाऊ-डू-यू-डुआने लगे हो। हम्म, यप्प, के, लोल मचाने लगे हों।
फ़ुटबाल का हल्ला मचा है। रोमांच के क्षणों में उचकते लोगों को देखकर लगता है कि कम ऊंचाई के बच्चों को बचपन से फ़ुटबाल देखने की आदत डाल दी जाये तो उनके कद निकल आयें। मैच के दौरान दर्शकों की तेज धड़कने देखकर अंदेशा होता है कि हो न हो फ़ुटबाल की शुरुआत किसी दिल के डॉक्टर ने की होगी। खेल के दौरान धकधक के चलते गड़बड़ाते दिल के इलाज के मरीज मिलते होंगे।
श्रीलाल शुक्ल जी ने लिखा है-’ हमारे देश की शिक्षा नीति रास्ते में पड़ी कुतिया है जिसे जो मन आता है लात लगा देता है।’ फ़ुटबाल देखकर मुझे यह अपने देश के विकास योजनाओं सा लगता है। कभी कोई आगे लात मारता है, कभी पीछे। कभी आसमान तक पहुंचती है, कभी लद्द से जमीन पर मुंह के बल गिरती है। गेंद दिन भर में मीलों भटकने के बाद भी रहती मैदान में ही है जैसे गंगा सफ़ाई में अरबों-खरबों खर्चने के बाद भी गंगा वैसे ही बहती हैं।
फ़ुटबाल में क्रिकेट की तरह चीयरबालायें नहीं होती। इसका कारण शायद उनके ठुमकने के लिये मौका तय करने में असफ़लता रही होगी। अगर हर गोल के बाद ठुमकने का नियम बनता तो किसी मैच में कोई गोल न होने पर चीयरबालाओं का ’ठुमका-उपवास’ हो जाता। अगर हर लम्बी किस पर मटकने का नियम होता तो क्या पता चीयरलीडर कमर उनके शरीर से एक ही मैच में समर्थन वापस ले लेती। उनके शरीर की सरकार गिर जाती। उस पर आई.सी.यू. लागू हो जाता। चीयरलीडरानियों की कमी की भरपाई खिलाड़ी लोग नाच-गाकर, एक दूसरे पर कूद कर लेते हैं।
हमारी फ़ुटबाल के बारे में जानकारी उतनी ही अच्छी है जितनी स्नूकर के बारे में हैं। दोनों के बारे में एक-बराबर जानकारी होने के नाते अपन पूरे दावे से कह सकते हैं कि दोनों ही क्रिकेट से अलग हैं। कम खर्चीला और ज्यादा वर्जिश वाला खेल होने के बावजूद अपने देश में क्रिकेट फ़ुटबाल के मुकाबले ज्यादा चलन में है तो उसका कारण सिर्फ़ यही समझ में आता है कि फ़ुटबाल में क्रिकेट जितनी समय की बर्बादी और निठल्लेपन की गुंजाइश नहीं बनती।
गेंद के पीछे भागते खिलाड़ी देखकर विदर्भ और अन्य इलाकों में पानी के टैंकर के पीछे भागती जनता की याद आती है। मैदान में भागते-भागते गिर जाने वाले खिलाड़ी गिरकर नाटक करते हुये तड़फ़ने लगने वाले खिलाड़ी देखकर लगता है कि दुनिया के सारे फ़ुटबालर अपने देश की नाट्य संस्थाओं के टॉपर होते हैं।
फ़ुटबालर फ़्री किक, पेनाल्टी किक हथियाने के लिये विरोधी खेमे में जितनी गिरा-गिरौव्वल करते हैं उसे देखकर कुर्सी हथियाने के लिये पतित होते जनप्रतिनिधियों की याद आती है। दूसरी टीम के खिलाड़ी को धकियाने वाले खिलाड़ी गिरे हुये को ही दोषी साबित करने की कोशिश करते हैं जैसे राजनीति में विरोधी को पीटकर उसी के खिलाफ़ पुलिस रिपोर्ट कराने का चलन है।
फ़ुटबाल में खेल कुल जमा 90 मिनट चलता है। सारी गिरा-गिरौव्वल डेढ घंट ही चलती लेकिन कुर्सी के लिये गिरौनी हरकतें साल-दर-साल जारी रहती हैं। सबसे बड़ी बात फ़ुटबाल के नाटक में भाषण नहीं होते। इसीलिये फ़ुटबाल मैदान के नाटक राजनीति की तरह बेहूदे, फ़ूहड़ और गलीज भरे नहीं लगते।
फ़ुटबाल के बारे में हमारी सिफ़र जैसी जानकारी और उड़ती-उजड़ती जैसी रुचि के बावजूद हमें यह खेल पसंद है तो सिर्फ़ इसलिये कि आजकल फ़ुटबाल मैचों के चलते फ़ूहड़ बयानों के घमासान में मंदी है। दुनिया की औसत खूबसूरत बढ गई लगती है। इसी समय लगता है कि काश दुनिया भर में खेले जाने वाली सारी फ़ुटबाली किकों को एक जगह इकट्ठा किया जा सकता और जहां कोई बेहूदे बयान देता, रिमोट किक अपने आप उसके मुंह में पड़ जाती। लेकिन चाहने मात्र से अगर कुछ होता तो अब तक दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी होती।
फ़िलहाल तो दुनिया कहीं नहीं पहुंची है। अपनी ही धुरी पर कदमताल कर रही है। उसकी ही गोद में फ़ुटबाल के अगले मैच की सीटी बज चुकी है। मैच की बात करते-करते मैच सही में शुरु हो गया। इससे यह लगता है बदलाव की बात करते रहना चाहिये। पता नहीं कब सही में कुछ बदल जाये। है कि नहीं?