Monday, April 13, 2009

जनप्रतिनिधि के दर्द

http://web.archive.org/web/20140419214715/http://hindini.com/fursatiya/archives/605

24 responses to “जनप्रतिनिधि के दर्द”

  1. मुकेश कुमार तिवारी
    अनूप जी,
    आपसे चुप्पे ही कह देंत हौं, इन जनावरों का नाम जो लिये हैं जरा संभल जाइये, पेटा या पोटा का कहत हैं वारे जान के पीछे पड़ जहिंहे, रही दूसर बात धर्मिन्दर भईया के तो वहुअ सांसद हैं उनके लिये तो आपस की ही बात है.
    अपनी मिट्टी से जुड़ने की कोशिश की है. कुछ गलती हुई हो तो क्षमा कीजियेगा.
    सदा की तरह रोचक.
    मुकेश कुमार तिवारी
  2. जि‍तेन्‍द्र भगत
    सही दर्द बयॉ की है नेताओं और मीडि‍या की:) दोनों न सुधरें हैं न सुधरेंगे।
  3. GIRISH BILLORE
    कित्ती फ़िल्मों में धर्मेन्द्र भैया बोले हैं -कुत्ते,कमीने मैं तेरा खून पी जाऊंगा। मैं तुम्हें जिन्दा नहीं छोड़ूंगा।
    जनता कित्ता ताली बजाती है।
    मामला यही तो है कि बेचारे आयोग को क्या बताएं कैसे बताएं कि “पब्लिक की डिमांड के कारण उनको ये बोलना पङता है”
  4. लावण्या
    आज तो हमने प्रियँका को ज़ी न्यूज पे भाई राहुल की तरफदारी करते हुए देखा और सोचा कि काहे वे खुद ही नहीँ चुनाव लड रहीँ ?
  5. anil pusadkar
    सत्य वचन महाराज जी।ले-देकर तो नेता जनता जैसा बनने का दिखावा करते है,वो भी रास नही आ रहा है कुछ लोगो को।
  6. अमर

    कवन परती.. निधी को दरद उठ रहा है ?
    हम आय गये, भाई !
    पीछे से एगो चमचा हमारा बैगवा लेकर आ रहा है..
    तब तक आप जो है, न .. इनको एज़ अ फ़र्श्ट एड एगो धड़ाका का वमन करवाइये ।
    जितना बदबू मारेगा.. समझिये कि उतना त्वरित आराम मिलेगा !
    माइक है, के नहीं.. ? धुत्त, ऎतना फ़ुरसत ठीक नहीं है, भाई !
    परती-निधी साहव ओक रहे हैं, ईहाँ मईकिये नदारद !
  7. ताऊ रामपु्रिया
    दुर ससुर का फ़ायदा जनता से जुड़ने से। वोट तो मिलना ही है किसी को। जिसको मिलेगा उससे सब कुछ मैनेज किया जायेगा। बेफ़ालतू में गांव-गांव घूम के काहे हलकान हों।
    बहुत सटीक व्यंग, फ़ुरसतिया जी की माईक्रो पोस्ट पढ कर आनन्द आ गया .
    रामराम.
  8. संजय बेंगाणी
    सिसिमानजी ने बढ़िया लिखा थोड़ी सुसंस्कृत टाइप भासा हो गई…पबलिक की भासा की कमी रही…बाकिये बढ़िया है…
  9. दिनेशाराय द्विवेदी
    जय हो आप की!
  10. प्रवीण त्रिवेदी-प्राइमरी का मास्टर
    जय हो ……भय हो !!
    जय राम जी की !!
  11. Ashish
    क्या बात बनायी है सिरीमानजी ने!
  12. amit
    अब बताइये अगर जनप्रतिनिधि जनता की तरह अपने विरोधियों के प्रति आक्रोश नहीं व्यक्त करेगा तो जनता क्या समझेगी कि ये किसी और ग्रह का प्राणी है जो जनता की जबान नहीं जानता! किसी दूसरे ग्रह के प्राणी को वोट क्यों देगी जनता? आप खुद सोचिये जब आप किसी से बहुत गुस्सा होते हैं तो दांत किटकिटाते हुये कहते हैं कि नहीं मैं तेरा खून पी जाऊंगा।
    अब अपने जन्म के बारे में मेरे पास कोई मानसिक रिकॉर्ड नहीं है लेकिन कानूनी दस्तावेज़ों और घर-परिवार के लोगों की बात पर विश्वास किया जाए तो अपना जन्म इसी ग्रह के भारत देश में हुआ था। और यह बात विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि गुस्से में आकर अथवा किसी और रूप में कम से कम मैंने यह किसी को नहीं कहा कि मैं फलाने का खून पी जाऊँगा!!
    अपन कोई वैम्पायर तो है नाही कि खून पी के प्यास बुझाई जावे! और ब्लड ग्रुप मैच न करा तो? दूसरा बंदा बीमार हुआ तो? साथ ही दूसरे का खून पीना कानूनी जुर्म भी तो है, सजा हो जाएगी!! और अपनी ही बात कह के नहीं पूरी की तो जुबान की औकात दो कौड़ी की भी ना रहेगी!!
    और जरूरत ही का है, पीने को और बढ़िया चीज़ों की कमी है का? फलों का रस है, दूध लस्सी है, पेप्सी मिरिन्डा थम्स अप है, एनर्जी चाहिए तो रेड बुल है, थकान मिटाने और गर्मी पाने के लिए कॉफ़ी है, नशा करना हो तो रम वोदका है, सेलिब्रेशन के लिए शैम्पेन है!! इत्ती सारी बढ़िया चीज़ों के होते का जरूरत है खून पीने की किसी का जिसके नुकसान ही नुकसान हैं!! :D
  13. विवेक सिंह
    अरे ई सुरतिया का कहता है ? एक ठो रोलर वाले को बुला त इधर . अबे इतना देर काहे करता है ? हप !
  14. dr anurag
    देख नहीं रहे है संजय दत के डाइलोग……
  15. ज्ञानदत्त पाण्डेय
    रोलर की कोडल लाइफ खत्म होने के कगार पर है। लिहाजा ज्यादा काम कर रहा है जोश से।
  16. Shiv Kumar Mishra
    दर्द सही है.
    असली जनप्रतिनिधि वह है जो जानता हो कि प्रति जन कितना निधि उपलब्ध है.
  17. गौतम राजरिशी
    इस पोस्ट की पर्ची बना के बाँटो रे कोई इन नेताओं और मिडिया वालों में….
  18. समीर लाल ’उड़नतश्तरी वाले’
    बहुत गहरी पकड़ होती जा रही है आपकी राजनितिक समझ पर-एक ठो बार चुनाव कोशिश करिये न!! :)
    बढ़िया आलेख.
  19. अविनाश वाचस्‍पति
    और जनप्रतिनिधि दे रहा है जो दर्द
    बनकर बेदर्द।
  20. himmat
    be pate ki baat ko apne sahi pata de diya. dhanyavaad. anupji apki baat padhke bahut hansi aati he aur usse jyada vishad hota he. aapko bhi aisa hi hota he kya?
  21. navneet
    kya baat hai sir ji
  22. Isht Deo Sankrityaayan
    मीडिया थोड़े पाबन्दी लगाता है महराज. मीडिया त भोंपू है. ई त और चिल्लाता है, चिल्लवाता है. पाब्न्दी-ओबन्दी क हऊ सब करताहै, चुनाउ अयोग वाला. आ उंके करने दीजिए जौन करते हैं. अब अपने चौला साहब आ गए हैं न! ऊ बहुत पुरान आदमी हैं अपने. क़रीब-क़रीब उतनियै बफादार हैं ऊ आनन्द भवन और 10 जनपथ के जेतने हौ डॉग्डर साहब, जौन वीएच क चुनाउ लड़े बिना पीएम बनि गए.
  23. roushan
    ये सारी गलती चुनाव आयोग की है छोड़ दिया है मीडिया को नेता के पीछे .
    जा बेटा जा जैसे ही जनता के बीच का हो हमें बताना दिमाग ठिकाने कर देंगे
    इसी चक्कर में तो हमसे भी चुनाव मिस हो गया नहीं तो आपका ब्लॉग पढने का समय होता
  24. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] जनप्रतिनिधि के दर्द [...]

Saturday, April 11, 2009

मेरे मन उदास मत होइयो

http://web.archive.org/web/20140419214914/http://hindini.com/fursatiya/archives/604

29 responses to “मेरे मन उदास मत होइयो”

  1. kajal kumar
    ओह..मन, मन न हुआ….नेता हो गया…
  2. रवि
    “…मंह में राम बगल छूरी न रखियो,
    मुंह में भी छुरी तेज लगवैइयो।…”

    लगता है आपके हीरो के दांत नहीं हैं – औसत भारतीय राजनीतिज्ञ जैसे जो 70 साल के बूढ़े हो गए हैं, इसीलिए, नहीं तो आप कहते -
    अपने दांतों में धार करिवैयो….
  3. दिनेशराय द्विवेदी
    बगल में तो अब बम आ गए हैं, छुरी मुहँ में।
  4. anil kant
    राजनीति पर अच्छी रचना लिखी है …मज़ा आ गया …एकदम मस्त
    मेरी कलम – मेरी अभिव्यक्ति
  5. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    वाह-वाह !
    यह असली ‘चुनाव आचार संहिता’ है जिसका पालन कराने के लिए किसी ‘ऑब्जर्वर’ की जरूरत नहीं पड़ती।
  6. ज्ञानदत्त पाण्डेय
    पर न हो निराश मन;
    क्यों कि कठिनतम चुनाव
    भी न कर सकेगा कम,
    तनिक क्षणिक तेरा भाव!
    राह में रह अग्रसर
    ब्लॉग में न रहे कसर
    शांत भाव से ठेल कर
    देख जन की हांव-हांव!
  7. nirmla.kapila
    fursatiya ji bahut samay par aapne badiya seekh de di aap kahin chunav guru ka board laga len dekhen raton rat netaon kaa tanta lag jayega
  8. समीर लाल ’उड़नतश्तरी वाले ओरीजनल’
    नहीं होंगे!!
  9. PN Subramanian
    “तबहू बात न बने तो चुल्लू भर पानी माँ डूब मरिये”
    हमारे अंतिम पंक्ति यों होते.
  10. seema gupta
    मंह में राम बगल छूरी न रखियो,
    मुंह में भी छुरी तेज लगवैइयो।
    ” हा हा हा हा हा हा हा हा हा खूब कही आज तो ..”
    Regards
  11. कविता वाचक्नवी
    आज तो मन बहुत उदास है। विष्णु प्रभाकर जी की अनुपस्थिति के साथ ही युग समाप्त।
  12. कुश
    सुन्दर अभिव्यक्ति.. ! बधाई :)
  13. संजय बेंगाणी
    मन प्रसन्न हो गया जी.
  14. मीन
    चुनावी मैदान में उतरे लोग खुद कहाँ उदास होते है..वे तो दूसरे को उदास करने के नए नए हथकंडे ढूँढते रहते हैं…देशज भाषा में लिखी कविता आज के समय पर बिल्कुल सही बैठती है..
  15. dhiru singh
    हाय इतनी अच्छी बात देर से क्यों बताई , नेतागिरी इससे अच्छी किसी ने न सिखाई
  16. anil pusadkar
    एक चुनाव चर संहिता भी बना डालिये लगे हाथों।
  17. हिमांशु
    मजेदार प्रविष्टि । ’जैइयो’ का उच्चारण मुश्किल हो रहा है । रफ्तार में तो पढ़ गया, पर खयाल से नहीं । ’जैयो’ या ’जइयो’ क्यों नहीं ? जैइयो के उच्चारण में तुक-भंग हो रहा है, शायद ।
  18. Shiv Kumar Mishra
    मन हो उदास तो टिकट पकड़
    कुछ ताम करो कुछ झाम करो
    दक्षिणपंथी या वाम करो
  19. Dr.Arvind Mishra
    बढियां है !
  20. Deepak
    ha ha ha ha !!
  21. लावण्या
    अजीब बोझिल हो रहा है राजनीति की सरगर्मियोँ से
    ‘वातावरण’…. हलकायमान है
    तभी ऐसा विषाद उपजता है !
    - लावण्या
  22. गौतम राजरिशी
    हा हा…लाजवाब
    और इस पंक्ति पर तो खूब हँसा — जगह मिले जहां धंसि जइयो।
  23. ajit ji wadnerkar saheb
    बहुतैं सुंदर कबित्त है। बलिहारी है…
  24. विवेक सिंह
    फुरसतिया मन कूँ समझावै , कैसें बनें सफल प्रत्याशी,हथकण्डे सिखलावै :)
  25. कौतुक
    टिकट मिलने तक भाषण न छपवईयो
    यदि अवसर परे गुरु को भी गरियईयो
    बहुत मजेदार.
    लगता है पहले उन्होंने ने आपकी बात आत्मसात कर ली है फिर आपने इसको हमें पढ़वाया.
  26. himmat
    bahut khub kahi Anupji
  27. navneet
    बहुत खूब सर जी
  28. फ़ुरसतिया-पुराने लेख