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जनप्रतिनिधि के दर्द
By फ़ुरसतिया on April 13, 2009
आजकल चुनाव का मौसम चल रहा है। कुछ दिन और चलेगा। जनप्रतिनिधि जनता
से जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं। जनता के बीच जा रहे हैं। जनता की तरह रह
रहे हैं। जनता की तरह कह रहे हैं। जनता की तरह कह रहे हैं मतलब जिस तरह
जनता बोलती है उसी तरह बोल बतिया रहे हैं। मंच से जनता की तरह अबे-तबे ,
हत्तेरे-धत्तेरे की , माड्डालूंगा-काट्डालूंगा कह रहे हैं। ताकि जनता उनको
अपने बीच का समझे। जनता इस भ्रम में न रहे कि हमारा जनप्रतिनिधि कोई सिरीमानजी टाइप आइटम है जो सोचसमझ कर बोलता है, बोलने के पहले सोचता है बोलने के बाद सोचता है कि कुछ अनुचित तो नहीं कह गये।
जनता की भाषा का फ़ेवीकोल लगाकर वे जनता से जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
जनप्रतिनिधि के जनता से जुड़ने के इन प्रयासों से पता नहीं क्यों मीडिया वाले जलते हैं। लिये कैमरा, बने करमचन्द जासूस फ़िरते रहते हैं नेताओं के पीछे। जहां जनप्रतिनिधि ने कोई जनता-जुड़ाव वाली बात कही फ़ौरन उसे टेप करके शाम को चकरघिन्नी की तरह घुमाने लगे। फ़ेंटने लगे आइसक्रीम की तरह । आधी कामर्शियल ब्रेक के पहले बाकी कामर्शियल ब्रेक के बाद। हमारे साथ हैं फ़लाने मामलों के जानकार, डिमाके मामलें के कलाकार! यही सब कहते हैं। आपको हमारी आवाज सुनाई दे रही है। लगता है संपर्क कट गया।
मीडिया जलता है जनप्रतिनिधियों से। न वह खुद जुड़ना चाहता है जनता से न जनप्रतिनिधियों को जुड़ने देना चाहता है। इसीलिये जनप्रतिनिधि के जनता से जुड़ने के प्रयासों में मीनमेख निकालता रहता है। दोनों में सूप और चलनी की कुश्ती चलती रहती है। मीडिया बना स्पीडब्रेकर जनप्रतिनिधि को रोकता-टोंकता रहता है। वह जानता है कि अगर जनप्रतिनिधि जनता से जुड़ गया तो उसे भी मजबूरी में जुड़ना पडे़गा। यह सोचते ही उसकी रुह कांप जाती है। इस बबाले जान से बचने के लिये जनप्रतिनिधि के जनता से जुड़ने के प्रयासों की इतनी खिंचाई कर देता है कि जनप्रतिनिधि सोचता है- दुर ससुर का फ़ायदा जनता से जुड़ने से। वोट तो मिलना ही है किसी को। जिसको मिलेगा उससे सब कुछ मैनेज किया जायेगा। बेफ़ालतू में गांव-गांव घूम के काहे हलकान हों।
अब बताइये अगर जनप्रतिनिधि जनता की तरह अपने विरोधियों के प्रति आक्रोश नहीं व्यक्त करेगा तो जनता क्या समझेगी कि ये किसी और ग्रह का प्राणी है जो जनता की जबान नहीं जानता! किसी दूसरे ग्रह के प्राणी को वोट क्यों देगी जनता? आप खुद सोचिये जब आप किसी से बहुत गुस्सा होते हैं तो दांत किटकिटाते हुये कहते हैं कि नहीं मैं तेरा खून पी जाऊंगा। कित्ती फ़िल्मों में धर्मेन्द्र भैया बोले हैं -कुत्ते,कमीने मैं तेरा खून पी जाऊंगा। मैं तुम्हें जिन्दा नहीं छोड़ूंगा। जनता कित्ता ताली बजाती है। तो जब जनप्रतिनिधि जनता के बीच आता है और ऐसा ही बोलता है तो उसमें कौन पाप करता है जो उस बेचारे मासूम को इत्ता झेलाते हैं लोग कि इधर बेचारा बोले उधर अदालत में अग्रिम जमानत के लिये अर्जी दाखिल करे।
जब जनप्रतिनिधि के बोलने पर मीडिया इत्ता पाबंदी लगाने की कसरत करता रहता है तो जनता बेचारी का कौन हाल होगा? समझ सकते हैं। खुद जो मन आये ऊटपटांग बोलते रहते हैं दिन भर पटर-पटर लेकिन दूसरा जहां कुछ बोलता है इनके पेट में दर्द होने लगता है।
बड़ी आफ़त है।
जनता की भाषा का फ़ेवीकोल लगाकर वे जनता से जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
जनप्रतिनिधि के जनता से जुड़ने के इन प्रयासों से पता नहीं क्यों मीडिया वाले जलते हैं। लिये कैमरा, बने करमचन्द जासूस फ़िरते रहते हैं नेताओं के पीछे। जहां जनप्रतिनिधि ने कोई जनता-जुड़ाव वाली बात कही फ़ौरन उसे टेप करके शाम को चकरघिन्नी की तरह घुमाने लगे। फ़ेंटने लगे आइसक्रीम की तरह । आधी कामर्शियल ब्रेक के पहले बाकी कामर्शियल ब्रेक के बाद। हमारे साथ हैं फ़लाने मामलों के जानकार, डिमाके मामलें के कलाकार! यही सब कहते हैं। आपको हमारी आवाज सुनाई दे रही है। लगता है संपर्क कट गया।
मीडिया जलता है जनप्रतिनिधियों से। न वह खुद जुड़ना चाहता है जनता से न जनप्रतिनिधियों को जुड़ने देना चाहता है। इसीलिये जनप्रतिनिधि के जनता से जुड़ने के प्रयासों में मीनमेख निकालता रहता है। दोनों में सूप और चलनी की कुश्ती चलती रहती है। मीडिया बना स्पीडब्रेकर जनप्रतिनिधि को रोकता-टोंकता रहता है। वह जानता है कि अगर जनप्रतिनिधि जनता से जुड़ गया तो उसे भी मजबूरी में जुड़ना पडे़गा। यह सोचते ही उसकी रुह कांप जाती है। इस बबाले जान से बचने के लिये जनप्रतिनिधि के जनता से जुड़ने के प्रयासों की इतनी खिंचाई कर देता है कि जनप्रतिनिधि सोचता है- दुर ससुर का फ़ायदा जनता से जुड़ने से। वोट तो मिलना ही है किसी को। जिसको मिलेगा उससे सब कुछ मैनेज किया जायेगा। बेफ़ालतू में गांव-गांव घूम के काहे हलकान हों।
अब बताइये अगर जनप्रतिनिधि जनता की तरह अपने विरोधियों के प्रति आक्रोश नहीं व्यक्त करेगा तो जनता क्या समझेगी कि ये किसी और ग्रह का प्राणी है जो जनता की जबान नहीं जानता! किसी दूसरे ग्रह के प्राणी को वोट क्यों देगी जनता? आप खुद सोचिये जब आप किसी से बहुत गुस्सा होते हैं तो दांत किटकिटाते हुये कहते हैं कि नहीं मैं तेरा खून पी जाऊंगा। कित्ती फ़िल्मों में धर्मेन्द्र भैया बोले हैं -कुत्ते,कमीने मैं तेरा खून पी जाऊंगा। मैं तुम्हें जिन्दा नहीं छोड़ूंगा। जनता कित्ता ताली बजाती है। तो जब जनप्रतिनिधि जनता के बीच आता है और ऐसा ही बोलता है तो उसमें कौन पाप करता है जो उस बेचारे मासूम को इत्ता झेलाते हैं लोग कि इधर बेचारा बोले उधर अदालत में अग्रिम जमानत के लिये अर्जी दाखिल करे।
जब जनप्रतिनिधि के बोलने पर मीडिया इत्ता पाबंदी लगाने की कसरत करता रहता है तो जनता बेचारी का कौन हाल होगा? समझ सकते हैं। खुद जो मन आये ऊटपटांग बोलते रहते हैं दिन भर पटर-पटर लेकिन दूसरा जहां कुछ बोलता है इनके पेट में दर्द होने लगता है।
बड़ी आफ़त है।
आपसे चुप्पे ही कह देंत हौं, इन जनावरों का नाम जो लिये हैं जरा संभल जाइये, पेटा या पोटा का कहत हैं वारे जान के पीछे पड़ जहिंहे, रही दूसर बात धर्मिन्दर भईया के तो वहुअ सांसद हैं उनके लिये तो आपस की ही बात है.
अपनी मिट्टी से जुड़ने की कोशिश की है. कुछ गलती हुई हो तो क्षमा कीजियेगा.
सदा की तरह रोचक.
मुकेश कुमार तिवारी
जनता कित्ता ताली बजाती है।
मामला यही तो है कि बेचारे आयोग को क्या बताएं कैसे बताएं कि “पब्लिक की डिमांड के कारण उनको ये बोलना पङता है”
कवन परती.. निधी को दरद उठ रहा है ?
हम आय गये, भाई !
पीछे से एगो चमचा हमारा बैगवा लेकर आ रहा है..
तब तक आप जो है, न .. इनको एज़ अ फ़र्श्ट एड एगो धड़ाका का वमन करवाइये ।
जितना बदबू मारेगा.. समझिये कि उतना त्वरित आराम मिलेगा !
माइक है, के नहीं.. ? धुत्त, ऎतना फ़ुरसत ठीक नहीं है, भाई !
परती-निधी साहव ओक रहे हैं, ईहाँ मईकिये नदारद !
बहुत सटीक व्यंग, फ़ुरसतिया जी की माईक्रो पोस्ट पढ कर आनन्द आ गया .
रामराम.
जय राम जी की !!
अपन कोई वैम्पायर तो है नाही कि खून पी के प्यास बुझाई जावे! और ब्लड ग्रुप मैच न करा तो? दूसरा बंदा बीमार हुआ तो? साथ ही दूसरे का खून पीना कानूनी जुर्म भी तो है, सजा हो जाएगी!! और अपनी ही बात कह के नहीं पूरी की तो जुबान की औकात दो कौड़ी की भी ना रहेगी!!
और जरूरत ही का है, पीने को और बढ़िया चीज़ों की कमी है का? फलों का रस है, दूध लस्सी है, पेप्सी मिरिन्डा थम्स अप है, एनर्जी चाहिए तो रेड बुल है, थकान मिटाने और गर्मी पाने के लिए कॉफ़ी है, नशा करना हो तो रम वोदका है, सेलिब्रेशन के लिए शैम्पेन है!! इत्ती सारी बढ़िया चीज़ों के होते का जरूरत है खून पीने की किसी का जिसके नुकसान ही नुकसान हैं!!
असली जनप्रतिनिधि वह है जो जानता हो कि प्रति जन कितना निधि उपलब्ध है.
बढ़िया आलेख.
बनकर बेदर्द।
जा बेटा जा जैसे ही जनता के बीच का हो हमें बताना दिमाग ठिकाने कर देंगे
इसी चक्कर में तो हमसे भी चुनाव मिस हो गया नहीं तो आपका ब्लॉग पढने का समय होता